श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आदेसु तिसै आदेसु ॥
आदि अनीलु अनादि अनाहति जुगु जुगु एको वेसु ॥२९॥

अर्थ: (सो, झूठ की दीवार दूर करने के लिए) केवल उस को (अकाल-पुरख) प्रणाम करो, जो (सब का) आरम्भ है, जो शुद्ध-स्वरूप है, जिसका कोई अंत नहीं (ढूँढ सकता), जो नाश रहित है और जो सदैव इकसार रहता है।29।

भाव: नाम जपने की बरकत से यह ज्ञान पैदा होगा कि प्रभु हर जगह भरपूर है (सर्व-व्यापक है) और सब का सांई है। उसकी रजा में जीव यहाँ आ के एकत्र होते हैं और रजा में ही यहां से चले जाते हैं। ये ज्ञान पैदा होने से ही लोगों से प्यार करने की विधि आ जाएगी। योगाभ्यास द्वारा प्राप्त हुई रिद्धियों-सिद्धियों को ऊँचा जीवन समझ लेना भूल है। ये तो बल्कि गलत रास्ते पे ले जातीं हैं। (इनकी सहायता से जोगी लोग आम जनता पर दबाव डाल कर उन्हें इन्सानियत से गिराते हैं)।29।

एका माई जुगति विआई तिनि चेले परवाणु ॥
इकु संसारी इकु भंडारी इकु लाए दीबाणु ॥

पद्अर्थ: एका = अकेली। माई = माया। जुगति = युक्ति से, तरीके से। विआई = प्रसूति हुई, गर्भवती। तिनि = इस शब्द के तीन स्वरूप हैं: ‘तिन’,‘तिनि’ और ‘तीनि’। ‘तीनि’ का अर्थ है तीन की गिनती।

‘तिनि’ का अर्थ भी तीन है, पर इसके और अर्थ भी बनते हैं।

‘तिन’ सर्वनाम बहुवचन है और ‘तिनि’ सर्वनाम एकवचन है।

इनके मुकाबले पे ‘जिन’ बहुवचन तथा ‘जिनि’ एकवचन।

तिनि = उस मनुष्य ने (एक वचन)
‘जिनि सेविआ तिनि पाइआ मानु’। (पउड़ी ५)

तिन = उन मनुष्यों के (बहु वचन)
‘जिन हरि जपिआ तिन फलु पाइआ,
सभि तूटे माइआ फंदे।3।

परवाणु: शब्द ‘परवाणु’ की ओर भी थोड़ा सा ध्यान देने की जरूरत है। जपुजी साहिब में ये शब्द नीचे-लिखीं तुकों में आया है:

पंच परवाण, पंच परधानु।   (पउड़ी १६)

अमुलु तुलु, अमुलु परवाणु।   (पउड़ी २६)

एका माई जुगति विआई तिनि चेले परवाणु।   (पउड़ी ३०)

तिथै सोहनि पंच परवाणु।   (पउड़ी ३४)

संस्कृत में ये शब्द ‘प्रमाण’ है, जिसके बहुत अर्थ है, जैसे;

(अ) बाँट (तोलने वाला)

(आ) बित्त

(इ) सबूत, गवाही।

(ई) रसूख वाला जाना माना। इस अर्थ में ये शब्द दो तरह से प्रयोग किया जाता है। जैसे, ‘व्याकरणे पाणिनि प्रमाणं’ और ‘वेदा: प्रमाण: ’, अर्थात एक वचन में भी और बहुवचन में भी।

सो, उपरोक्त तुक नं: 1 में ‘परवाण’ (बहु वचन) का अर्थ है ‘जाने माने हुए’ है। तुक नं: 2 में ‘परवाणु’ (एक वचन) का अर्थ है ‘बाँट’ (तोलने वाला)। तुक नं: 3 और 4 में ‘परवाणु’ (एकवचन) का अर्थ है ‘जाने माने तौर पर’, ‘प्रत्यक्ष तौर पे’।

परवाणु = प्रत्यक्ष। संसारी = घरबारी, घर बार वाला व्यक्ति। भण्डारी = भण्डारे का मालिक, रिजक देने वाला। लाए = लगाता है। दीबाणु = दरबार, कचहरी।

अर्थ: (लोगों में ये ख़्याल आम प्रचलित है कि) अकेली माया (किसी) जुगति (युक्ति) से गर्भवती हुई और प्रत्यक्ष तौर पे उसके तीन पुत्र पैदा हो गए। उनमें से एक (ब्रह्मा) घरबारी बन गया (भाव, जीव-जन्तुओं को पैदा करने लग पड़ा), एक (विष्णु) भण्डारे का मालिक बन गया (भाव, जीवों को रिजक पहुँचाने का काम करने लगा), और एक (शिव) कचहरी लगाता है (भाव, जीवों को संहारता है)।

जिव तिसु भावै तिवै चलावै जिव होवै फुरमाणु ॥
ओहु वेखै ओना नदरि न आवै बहुता एहु विडाणु ॥

पद्अर्थ: जिव = जिस तरह। तिसु = उस अकाल-पुरख को। चलावै = (संसार की कार्यवाही) चलाता है। फुरमाणु = हुक्म। ओहु = अकाल-पुरख। ओना = जीवों को। नदरि न आवै = दिखाई नहीं देता। विडाणु = आश्चर्यजनक चमत्कार।

अर्थ: (पर असल में बात ये है कि) जिस तरह उस अकाल-पुरख को ठीक लगता है और जैसे उसका हुक्म होता है, वैसे ही वह संसार की (कार) कार्यवाही चला रहा है, (इन ब्रह्मा, विष्णु और शिव के हाथ में कुछ नहीं)। ये बड़ा आश्चर्य जनक चमत्कार है कि वह अकाल-पुरख (सभी जीवों को) देख रहा है, पर जीवों को अकाल-पुरख नहीं दिखाई देता।

आदेसु तिसै आदेसु ॥
आदि अनीलु अनादि अनाहति जुगु जुगु एको वेसु ॥३०॥

अर्थ: (सो, ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि की जगह) केवल उस को (अकाल-पुरख) प्रणाम करो, जो (सब का) आरम्भ है, जो शुद्ध-स्वरूप है, जिसका कोई अंत नहीं (ढूँढ सकता), जो नाश रहित है और जो सदैव एक जैसा ही रहता है (यही है तरीका उस प्रभु से दूरी दूर करने का)।30।

भाव: ज्यों-ज्यों मनुष्य प्रभु की याद में जुड़ता है, त्यों-त्यों उसको ये ख्याल कच्चे प्रतीत होने लगते हैं कि ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदिक कोई अलग हस्तियां जगत के प्रबंध को चला रही हैं। नाम-जपने वाले को यकीन है कि प्रभु खुद अपनी रज़ा में अपने हुक्म अनुसार जगत की कार चला रहा है, हलांकि जीवों को इन आँखों से वह दिखता नहीं।30।

आसणु लोइ लोइ भंडार ॥ जो किछु पाइआ सु एका वार ॥
करि करि वेखै सिरजणहारु ॥ नानक सचे की साची कार ॥

पद्अर्थ: आसणु = टिकाणा। लोइ = लोक में। लोइ लोइ = हरेक भवन में। आसणु भंडार = भण्डारों का टिकाना। पाइआ = उस अकाल-पुरख ने डाल दिया है। करि करि = (जीवों को) पैदा करके। वेखै = संभाल करता है। सिरजणहारु = सृष्टि को पैदा करने वाला अकाल-पुरख। साची = सदैव अटल रहने वाली।

अर्थ: अकाल-पुरख के भण्डारों का ठिकाना हरेक भवन में है (भाव, हरेक भवन में अकाल-पुरख के भण्डारे चल रहे हैं)। जो कुछ (अकाल-पुरख ने उन भण्डारों में) डाला है, एक बार में ही डाल दिया है (भाव, उसके भण्डारे सदा अतुट हैं)। सृष्टि को पैदा करने वाला अकाल-पुरख (जीवों को) पैदा करके (उनकी) सम्भाल कर रहा है। हे नानक! सदा स्थिर रहने वाले (अकाल-पुरख) की (सृष्टि की संभाल वाली) यह कार सदा अटल है।

आदेसु तिसै आदेसु ॥
आदि अनीलु अनादि अनाहति जुगु जुगु एको वेसु ॥३१॥

अर्थ: (सो) केवल उस को (अकाल-पुरख) प्रणाम करो, जो (सब का) आरम्भ है, जो शुद्ध-स्वरूप है, जिसका कोई अंत नहीं (ढूँढ सकता), जो नाश रहित है और जो सदैव एक जैसा ही रहता है (यही है तरीका उस प्रभु से दूरी मिट सकती है)।31।

भाव: बंदगी की बरकत के साथ ये समझ पड़ती है कि यद्यपि कर्तार की पैदा की हुई सृष्टि बेअंत है, फिर भी इसकी पालना करने के लिए उसके भण्डारे भी बेअंत हैं, कभी खत्म नहीं हो सकते। परमात्मा के इस प्रबंध के रास्ते में कोई बाधा नहीं पड़ सकती।31।

इक दू जीभौ लख होहि लख होवहि लख वीस ॥
लखु लखु गेड़ा आखीअहि एकु नामु जगदीस ॥

पद्अर्थ: इक दू = एक से। इक दू जीभौ = एक जीभ से। होहि = हो जाएं। लख = लाख (जीभें)। लख होवहि = लाख जीभों से हो जाएं। लख वीस = बीस लाख। गेड़ा = फेरे, चक्कर। आखीअहि = कहे जाएं। एकु नामु जगदीस = जगदीश का एक नाम। जगदीश = जगत का ईश, जगत का मालिक, अकाल-पुरख।

अर्थ: यदि एक जीभ (जिहवा) से लाखों जीभें हो जाएं, और लाखों जीभों से बीस लाख बन जाएं, (इन बीस लाख जीभों से) अकाल-पुरख के एक नाम को एक-एक लाख बार कहें (तो भी झूठे मनुष्य की झूठी ही ठीस है, अर्थात, जो ये सोचे कि मैं अपनी मेहनत के बल पर इस तरह नाम स्मरण करके अकाल-पुरख को पा सकता हूँ, तो ये एक झूठा अहंकार है)।

एतु राहि पति पवड़ीआ चड़ीऐ होइ इकीस ॥
सुणि गला आकास की कीटा आई रीस ॥

पद्अर्थ: एतु राहि = इस रास्ते में, अकाल-पुरख को मिलने वाले रास्ते में। पति पवड़ीआ = पति की सीढ़ियां, पति को मिलने के लिए जो पौड़ियां हैं। चढ़ीऐ = चढ़ते है, चढ़ सकते हैं। होइ इकीस = एक रूप हो के, स्वैभाव मिटा के। सुणि = सुन के। कीटा = कीड़ीयों को।

अर्थ: इस रास्ते में (परमात्मा से दूरी दूर करने वाले राह में) अकाल-पुरख को मिलने के लिए जो सीढ़ीयां हैं, उन के ऊपर स्वैभाव गवा के ही चढ़ सकते हैं। (लाखों जीभों के साथ भी गिनती के स्मरण से कुछ नहीं बनता। अहम् भाव दूर करने के बिना इन गिनती के पाठों का उद्यम यूँ है, मानों) आकाश की बातें सुन के कीड़ियों को भी ये रीस आ गयी है (कि हम भी आकाश पर पहुँच जाएं)।

नानक नदरी पाईऐ कूड़ी कूड़ै ठीस ॥३२॥

पद्अर्थ: नदरी = अकाल-पुरख की मेहर की नज़र से। पाईऐ = पाते हैं, अकाल-पुरख को प्राप्त करते हैं। कूड़े = झूठे मनुष्य की। कूड़ी ठीस = झूठी गप, खुद की झूठी महानता।

अर्थ: हे नानक! यदि अकाल-पुरख मेहर की नज़र करे, तभी उससे मिला जा सकता है, (वर्ना) झूठे मनुष्य की खुद की निरी झूठी ही वडियाई है (कि मैं स्मरण कर रहा हूँ)।33।

भाव: ‘कूड़ की पालि’ में घिरा मनुष्य दुनिया की चिन्ता-फिक्रों, दुख-क्लेशों के गट्ठों में गिरा रहता है, तथा प्रभु का निवास स्थान, मानों, एक ऐसा ऊँचा ठिकाना है जहाँ ठंड ही ठंड, शान्ति ही शान्ति है। इस नीची जगह से उस ऊँची अर्शी अवस्था पर जीव तभी पहुँच सकता है, अगर नाम जपने की सीढ़ी का आसरा ले। ‘तूं तूं’ करते हुण् ‘तूं’ में ही स्वैलीन कर दे। इस ‘स्वै’ वारे बिना ये स्मरण वाला उद्यम ठीक वैसा ही है जैसे आकाश की बातें सुन कर कीड़ियों को भी वहाँ पहुँचने का शौक पैदा हो जाए, पर चलें अपनी कीड़ी वाली रफतार से ही। ये भी ठीक है कि प्रभु की मर्जी में अपनी मर्जी वही लोग मिटाते हैं जिनके ऊपर प्रभु की मेहर हो।32।

आखणि जोरु चुपै नह जोरु ॥ जोरु न मंगणि देणि न जोरु ॥
जोरु न जीवणि मरणि नह जोरु ॥ जोरु न राजि मालि मनि सोरु ॥

पद्अर्थ: आखणि = कहने में, बोलने में। चुपै = चुप रहने में। जोरु = ताकत, स्मर्था, इख्यिार,अपने मन की मर्जी। मंगणि = मांगने में। देणि = देने में। मरणि = मरने में। राजि मालि = राजमाल में, राज वैभव प्राप्त करने में। सोरु = शोर, हल्ला, फूँ फां।

अर्थ: बोलने में और चुप रहने में भी हमारा कोई अपना इख्तियार नहीं है। ना ही मांगने में हमारी मन-मर्जी चलती है और ना ही देने में। जीने में और मरने में भी हमारी कोई ताकत (काम नहीं देती)। इस राज व वैभव की प्राप्ति में भी हमारा कोई जोर नहीं चलता (जिस राज माल की वजह से हमारे) मन में इतनी फूँ-फां होती है।

जोरु न सुरती गिआनि वीचारि ॥ जोरु न जुगती छुटै संसारु ॥
जिसु हथि जोरु करि वेखै सोइ ॥ नानक उतमु नीचु न कोइ ॥३३॥

पद्अर्थ: सुरती = सोच में, आत्मिक चेतन्यता में। गिआनि = ज्ञान (प्राप्त करने) में। वीचारि = विचार (करने) में। जुगती = जुगत में, रहित में। छुटै = मुक्त होता है, समाप्त हो जाता है।

‘जिसु हथि....सोइ’, इस तुक को समझने के लिए शब्द ‘सोइ’ और ‘करि वेखै’ की ओर खास ध्यान देने की आवश्यक्ता है।

जपुजी साहिब में शब्द ‘सोइ’ नीचे दी हुईं तुकों में आता है:

आपे आपि निरंजनु सोइ।     (पउड़ी ५)

जा करता सिरठी कउ साजे, आपे जाणै सोइ।     (पउड़ी २१)

तिसु ऊचे कउ जाणै सोइ।     (पउड़ी २४)

नानक जाणै साचा सोइ।     (पउड़ी २६)

सोई सोई सदा सचु, साहिब साचा, साची नाई।     (पउड़ी २७)

करहि अनंदु सचा मनि सोइ।     (पउड़ी ३७)

इन ऊपर दी हुईं तुकों में से केवल पउड़ी २४ वाली तुक में ‘सोइ’ पहली तुक वाले ‘कोइ’ मनुष्य के लिए आया है, बाकी सभी जगह ‘अकाल-पुरख’ के वास्ते आया है। इसी ही अर्थ को ‘करि वेखै’ और भी पक्का करता है। वेखै = संभाल करता है, जैसे;

गावै को वेखै हादरा हदूरि।       (पउड़ी ३)

करि करि वेखै कीता आपणा, जिव तिस दी वडिआई।   (पउड़ी २७)

करि करि वेखै सिरजणहारु।       (पउड़ी ३१)

ओह वेखै ओना नदरि न आवै, बहुता एहु विडाणु।   (पउड़ी २७)

करि करि वेखै नदरि निहाल।       (पउड़ी ३७)

वेखै विगसै करि वीचारु।       (पउड़ी ३७)

जिसु हथि = जिस अकाल-पुरख के हाथ में। करि वेखै = (सृष्टि की) रचना करके सम्भाल कर रहा है। सोइ = वह अकाल-पुरख। संसारु = जनम मरण।

अर्थ: आत्मिक जागृति अवस्था में, ज्ञान में और विचार में रहने की भी हमारी स्मर्था नहीं है। उस जुगती में रहने के लिए भी हमारा इख्तियार नहीं है कि जिससे जनम मरण खत्म हो सके। वही अकाल-पुरख रचना रच के (उसकी हर प्रकार से) सम्भाल करता है, जिसके हाथ में स्मर्था है। हे नानक! अपने आप में ना कोई मनुष्य उत्तम है और ना ही नीच (भाव, जीवों को सदाचारी या दुराचारी बनाने वाला भी वह प्रभु स्वयं ही है) (अगर नाम जपने की बरकत से ये निश्चय बन जाए तो ही प्रमात्मा से जीव का फासला दूर होता है।33।

भाव: भले रास्ते पे चलना या बुरे रास्ते पे जाना जीवों के अपने बस की बात नहीं; जिस ईश्वर ने पैदा किये हैं वही इन पुतलियों को खिला रहा है। सो, अगर कोई जीव प्रभु की सिफति-सालाह कर रहा है तो ये प्रभु की अपनी मेहर है; जो कोई इस ओर से टूटा हुआ है तो भी ये मालिक की मर्जी है। यदि हम उसके दर से दातें मांगते हैं तो ये प्रेरणा भी वह स्वयं ही करने वाला है, तो फिर, दातें देता भी खुद ही है। अगर कोई जीव राज व धन के मद में मतवाला है तो ये भी प्रभु की रज़ा ही है; यदि किसी की श्रुति प्रभु चरणों में है तथा जीवन-जुगति स्वच्छ है तो ये मेहर भी ईश्वर की ही है।33।

राती रुती थिती वार ॥ पवण पाणी अगनी पाताल ॥
तिसु विचि धरती थापि रखी धरम साल ॥
तिसु विचि जीअ जुगति के रंग ॥ तिन के नाम अनेक अनंत ॥

पद्अर्थ: राती = रातें। रुती = ऋतुऐं। वार = दिन। पवण = सभ प्रकार कीहवा। पाताल = सारे पाताल। तिसु विचि = इन सभी के समुदाय में।

यहाँ ‘तिसु’ की ओर खास ध्यान देने की जरूरत है। पहिली तुके सारे शब्द बहुवचन में हैं। ‘तिसु’ एकवचन है, जिसका अर्थ है ‘सभी का एकत्र’।

थापि रखी = स्थापित की है, रख के टिका दी है। धरमसाल = धर्म कमाने का स्थान। तिसु विचि = उस धरती पे। जीअ = जीव जन्तु। जीअ जुगति = जीवों की जुगति, जीवों के रहने की युक्ति (बना दी) है।

के रंग = इस ‘के रंग’ को समझने के लिए नीचे लिखीं तुकों को ध्यान से विचारना आवश्यक है:

जीअ जाति रंगा के नाव। सभना लिखिआ वुड़ी कलाम।     (पउड़ी १६)

तिथै भगत वसहि के लोअ।             (पउड़ी ३७)

जे तिसु नदरि न आवई, त वात न पुछै के।       (पउड़ी ७)

आपे जाणै आपे देइ। आखहि सि भि केई केइ।       (पउड़ी २५)

एते कीते होर करेहि। ता आखि न सकहि केई केइ।     (पउड़ी २६)

करमी आपो आपणी के नेड़े के दूरि।

इन सभी तुकों में ‘के’ अर्थ हैं ‘बहुत’; ‘न के’ के अर्थ हैं ‘कोई भी नहीं’। पउड़ी नं: 21 में ‘केई केइ’ इस्तेमाल हुआ है, आजकल की पंजाबी में भी हम ‘बहुत बहुत’ कहते हैं। जैसे, ‘के रंग’ का अर्थ है ‘बहुत रंगों के’। उसी तरह ‘के नाव’ का अर्थ है ‘बहुत नामों वाले’, ‘के लोअ’ का अर्थ हैकई लोगों के, बहुत भावनाओं की।

के रंग = कई रंगों के। तिन के = उन जीवों के। अनंत = बेअंत।

अर्थ: रातें, ऋतुएं, तिथिआं और वार, हवा, पानी, अग्नि व पाताल- इन सभी की एकत्रता में (अकाल-पुरख ने) धरती को धर्म कमाने का स्थान बना के टिका दिया है। इस धरती पर कई जुगतियों और रंगों के जीव (बसते हैं), जिनके अनेक और अनगिनत नाम हैं।

करमी करमी होइ वीचारु ॥ सचा आपि सचा दरबारु ॥
तिथै सोहनि पंच परवाणु ॥ नदरी करमि पवै नीसाणु ॥

पद्अर्थ: करमी करमी = जीवों के किए हुए कर्मों अनुसार। तिथै = अकाल-पुरख के दरबार में। सोहनि = शोभायमान होते है। परवाणु = प्रत्यक्ष तौर पे। नदरी = मेहर की नजर करने वाला अकाल-पुरख। करमि = करम द्वारा, रहमत से। नदरी करमि = अकाल-पुरख की बख्शिश से। पवै नीसाणु = निशान पड़ जाता है, महानता का चिन्ह (माथे पे) चमक पड़ता है, निशान लग जाता है।

अर्थ: (इन अनेक नामों और रंगों वाले जीवों के) अपने-अपने किये कर्मों के अनुसार (अकाल-पुरख के दर पे) निर्णय होता है (जिसमें कोई कोताही नहीं होती क्योंकि न्याय करने वाला) अकालपुख खुद सच्चा है, उसका दरबार भी सच्चा है। उस दरबार में संत जन प्रत्यक्ष तौर पे शोभायमान होते हैं और मेहर की नजर करने वाले अकाल-पुरख की बख्शिश से (उन संत जनों के माथे पे) वडियाई का निशान चमक पड़ता है।

कच पकाई ओथै पाइ ॥ नानक गइआ जापै जाइ ॥३४॥

पद्अर्थ: कच = कच्चा। पकाई = पक्के। ओथै = अकाल-पुरख की दरगाह में। पाइ = पाई जाती है, पता लगती है। गइआ = जा के ही, पहुँच के ही। जापै जाइ = जाना जाता है, देखा जाता है, पता चलता है।

अर्थ: (यहाँ संसार में किसी का बड़ा छोटा कहलाना कोई मायने नहीं रखता, इनके) कच्चे-पक्के की परख तो अकाल-पुरख के दर पे होती है। हे नानक! अकाल-पुरख के दर पर पहुँच के ही ये समझ आती है (कि असल में कौन पक्का है कौन कच्चा)।

भाव: जिस मनुष्य पे प्रभु की रहिमत होती है उसे पहले ये समझ आ जाती है कि मनुष्य इस धरती पे कोई खास मकसद के निर्बाह के लिए आया है। यहाँ जो अनेक जीव पैदा होते हैं इन सभी का अपने-अपने किए कर्मों के हिसाब से निबेड़ा होता है कि किस किस ने मानव जन्म के उद्देश्य को पूरा किया है। जिनकी मेहनत स्वीकार पड़ती है, वह ही प्रभु की हजूरी में आदर पाते हैं। यहाँ संसार में किसी का छोटा बड़ा कहलाना कोई अर्थ नहीं रखता।

नोट: ऊपर दिए गये विचार आत्मिक राह में जीव की पहिली अवस्था है। जहाँ, ये अपने फर्ज को पहचानता है। इस आत्मिक अवस्था का नाम ‘धर्मखण्ड’ है।

धरम खंड का एहो धरमु ॥ गिआन खंड का आखहु करमु ॥

पद्अर्थ: धरमु = कर्तव्य, फर्ज। आखहु = बताओ, वर्णन करो, समझ लो। करम = काम, कर्तव्य। एहो = यही जो ऊपर बताया गया है।

अर्थ: धर्म खण्ड का मात्र यही कर्तव्य है, (जो ऊपर बताया गया है)। अब ज्ञान खण्ड के कर्तव्यों को भी समझ लो (जो अगली तुकों में है)।

नोट: सत्गुरू जी पउड़ी नं: ३४ से ३७ तक मनुष्य की आत्मिक अवस्था के पाँच हिस्से बताते हैं: धर्म खण्ड, ज्ञान खण्ड, श्रम खण्ड, कर्म खण्ड और सच खण्ड।

इन चार पौड़ियों में जिक्र है कि प्रभु की मेहर से मनुष्य साधारण हालात से ऊँचा हो हो के कैसे ईश्वर के साथ एकरूप हो जाता है। पहले मनुष्य दुनिया के विषौ-विकारों से पलट के ‘आत्मा’ की ओर झाँकता है, और ये सोचता है कि मेरे जीवन का क्या प्रयोजन है, मैं संसार में क्यूँ आया हूँ, मेरा क्या फर्ज है। इस अवस्था में मनुष्य ये विचारता है कि इस धरती पे जीव धर्म कमाने के लिये आए हैं; अकाल-पुरख के दर पे जीवों के अपने-अपने किये कर्मों अनुसार निर्णय होता है। जिस गुरमुखों (गूरू की इच्छा और आदेश का अनुसरण करने वाले) पर अकाल-पुरख की बख्शिश होती है। वह उसकी हजूरी में सुशोभित होते हैं। इस दुनियां में आदर या निरादर कोई मुल्य नहीं रखते, दरअसल, वही आदरणीय हैं जो अकाल-पुरख के दर पे स्वीकार हैं।

ज्यों-ज्यों मनुष्य की तवज्जो ऐसे ख्यालों से जुड़ती है, त्यों-त्यों उस के अंदर से ‘स्वार्थ’ की गाँठ खुलती जाती है। मनुष्य पहले माया में मस्त रहने के कारण अपने आप को या अपने परिवार को ही ‘अपना’ जानता था और इनसे परे किसी और विचार में नहीं पड़ता, पर अब अपना ‘धर्म’ समझने और अपनी वाकफ़ियत को बढ़ाने का यत्न करता है। विद्या व विचार के बल पर अकाल-पुरख की बेअंत कुदरत का नक्शा आँखों के आगे आने लग पड़ता है। ज्ञान की आँधी आ जाती है, जिसके आगे सब वहिम-भ्रम उड़ जाते हैं। ज्यों ज्यों अंदर विद्या द्वारा समझ बढ़ती है, त्यों त्यों वह आनन्द मिलता है, जो पहले माया के पदार्तों में से नहीं था मिलता। आत्मक राह में इस अवस्था का नाम है ‘ज्ञानखण्ड’।

पर, इस राह पर पड़ कर मनुष्य निरा यहीं पर बस नहीं कर देता। वाणी की विचार उसको उद्यम की ओर प्रेरती है। सिर्फ, अक्ल से समझ लेना काफी नहीं। मन का पहला स्वभाव, पहली बुरी वादियां निरी ‘समझ’ से नहीं हट सकतीं। इस पहले निर्माण को, इन पहले संस्कारों को तोड़ के, अंदर नई सृजना करनी है, अंदर ऊँची अक़्ल वाले संस्कार पैदा करने हैं। अंमृत बेला (प्रभात) आदि में जागने की मेहनत करनी है। ज्ञानखण्ड में पहुँचा हुआ मनुष्य ज्यों ज्यों ये मेहनत करता है, ज्यों ज्यों गुरमति वाली नई कमाई करता है, त्यों त्यों उसके मन को मानो, सुंदर रूप चढ़ता है, काया कंचन जैसी होने लगती है। ऊँची अक़्ल और ऊँची बुद्धि हो जाती है, मन में जागृति आ जाती है। मनुष्य को देवताओं और सिद्धों वाली सूझ आ जाती है। यह ‘सरम खण्ड’ है।

बस, फिर क्या है! मालिक की मेहर हो जाती है। अंदर अकाल-पुरख बल भर देता है, आत्मा विकारों की ओर डावांडोल नहीं होती। बाहर भी हर जगह वही निर्माता ही दिखता है, मन सदा निरंकार की याद में परोया रहता है। उन्हें फिर पैदा होने या मरने का भय कैसा? उनके मन में सदा आनन्द ही आनन्द रहता है। यह ‘कर्मखण्ड’ है।

अकाल-पुरख की मेहर का पात्र बन के आखिर पाँचवें खण्ड में प्रवेश मिलता है, अर्थात अकाल-पुरख के साथ एक हो जाते हैं, जो सभी जीवों की संभाल कर रहा है और जिसका हुक्म हर ओर चल रहा है।

केते पवण पाणी वैसंतर केते कान महेस ॥
केते बरमे घाड़ति घड़ीअहि रूप रंग के वेस ॥

पद्अर्थ: केते = कई, बेअंत। वैसंतर = अग्नियां। महेस = (कई) शिव। बरमे = कई ब्रह्मा। घाढ़ति घढ़ीअहि = घाढ़त घढ़ी जाती है, पैदा किए जाते हैं। के वेस = कई वेशों में (इस ‘के’ के अर्थ के लिए देखिए पौड़ी नंबर = 34)।

अर्थ: (अकाल-पुरख की रचना में) कई प्रकार की पवन, पानी और अग्निायां हैं, कई कृष्ण हैं और कई शिव हैं। कई ब्रह्मा पैदा किए जा रहे हैं, जिस के कई रूप, कई रंग और कई वेश हैं।

केतीआ करम भूमी मेर केते केते धू उपदेस ॥
केते इंद चंद सूर केते केते मंडल देस ॥
केते सिध बुध नाथ केते केते देवी वेस ॥

पद्अर्थ: केतीआ = कई, बेअंत। करम भूमी = काम करने की भूमियां, धरतियां। मेर = मेरु पर्वत। धू = ध्रुअ भक्त। उपदेश = उन ध्रुअ भक्तों के उपदेश। इंद = इंद्र देवते। चंद = चंद्रमा। सूर = सूर्य। मंडल देस = भवण-चक्र। बुध = बुद्ध अवतार। देवी वेस = देवियों के पहिरावे में, देवियों के परिधान में।

(नोट: ‘केते’ पुलिंग हैजो ‘वेस’ शब्द के साथ प्रयोग किया गया है। इस लिए ‘देवी वेस’ का अर्थ करना है ‘देवियों के पहिरावे’)

अर्थ: (अकाल-पुरख की कुदरत में) बेअंत धरतियां हैं, बेअंत मेरु पर्बत, बेअंत ध्रुअ भक्त व उनके उपदेश हैं। बेअंत इंद्र देवते, चंद्रमा, बेअंत सूरज और बेअंत भवन-चक्र हैं। बेअंत सिद्ध हैं, बेअंत बुद्ध अवतार हैं, बेअंत नाथ हैं और बेअंत देवियों के पहिरावे हैं।

केते देव दानव मुनि केते केते रतन समुंद ॥
केतीआ खाणी केतीआ बाणी केते पात नरिंद ॥
केतीआ सुरती सेवक केते नानक अंतु न अंतु ॥३५॥

पद्अर्थ: दानव = राक्षस, दैंत। मुनि = मौन धारी ऋषि। रतन समुंद = रतन और समुंदर। पात = पातशाह। नरिंद = राजे। सुरति = सोच, लगन, ध्यान।

(नोट: इस सारी पउड़ी को थेड़ा सा ध्यान देने से ये स्पष्ट हो जाता है कि ‘केते’ पुलिंग शब्दों के साथ प्रयोग किया गया है और ‘केतीआ’ स्त्रीलिंग शब्दों के साथ। सो, ‘सुरती’ स्त्रीलिंग है और ‘सुरति’ का बहुवचन) है।

अर्थ: (अकाल-पुरख की रचना में) बेअंत देवते व दैंत हैं, बेअंत मुनि हैं, बेअंत प्रकार के रतन तथा (रत्नों के) समुंदर हैं। (जीव रचना की) बेअंत खाणीयां हैं। (जीवों की बोली भी चार नहीं) बेअंत बाणियां हैं। बेअंत बादशाह और राजे हैं, बेअंत प्रकार के ध्यान हैं (जो जीव मन द्वारा लगाते हैं), बेअंत सेवक हैं। हे नानक! कोई अंत नहीं पा सकता।35।

भाव: मानव जन्म के कर्तव्य (‘धर्म’) की समझ आ जाने से मनुष्य का मन बहुत विशाल हो जाता है। पहले एक छोटे से परिवार के स्वार्थ में बंधा हुआ ये जीव बहुत तंग दिल था। अब ये ज्ञान हो जाता है कि बेअंत प्रभु का पैदा किया हुआ ये बेअंत जगत एक बेअंत बड़ा परिवार है, जिसमें बेअंत कृष्ण, बेअंत विष्णू, बेअंत ब्रह्मा और बेअंत धरतियां हैं। ज्ञान की इस बरकत से तंग दिली हट के इसके अंदर प्यार की लहिर चल के खुशी ही खुशी बनी रहती है।35।

गिआन खंड महि गिआनु परचंडु ॥ तिथै नाद बिनोद कोड अनंदु ॥

पद्अर्थ: महि = में। परचंड = तेज़, प्रबल, बलवान। तिथै = उस ज्ञानखंड। मेंनाद = राग। बिनोद = तमाशे। कोड = कौतक, चमत्कार। अनंदु = स्वाद, मज़ा।

अर्थ: ज्ञानखण्ड में (भाव मनुष्य की ज्ञान अवस्था में) ज्ञान ही बलवान होता है। इस अवस्था में (मानों) सभी रागों, तमाशों व चमत्कारों का आनन्द आ जाता है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh