श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

रागु वडहंसु महला १ घरु १ ॥

अमली अमलु न अ्मबड़ै मछी नीरु न होइ ॥ जो रते सहि आपणै तिन भावै सभु कोइ ॥१॥

पद्अर्थ: अमली = अफीम आदि नशे करने वाला। अमलु = अफीम आदि नशा। अंबड़ै = पहुँचे, मिले। नीरु = पानी। सहि = सह में, पति (के प्यार) में। आपणै सहि = अपने पति के प्रेम में। रते = रंगे हुए। सभु कोइ = हरेक जीव।1।

अर्थ: (अफीमी आदि) अमली को अगर (अफीम आदि) अमल (नशा) ना मिले (तो वह मर जाता है), अगर मछली को पानी ना मिले (तो वह तड़प उठती है। इसी तरह, अगर प्रभु! तेरा नाम जिनकी जिंदगी का सहारा बन गया है वे तेरी याद के बिना नहीं रह सकते, उनको कुछ भी अच्छा नहीं लगता)। जो लोग अपने पति-प्रभु के प्यार में रंगे हुए हैं (वह अंदर से खिले हुए हैं) उन्हें हर कोई अच्छा लगता है।1।

हउ वारी वंञा खंनीऐ वंञा तउ साहिब के नावै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। वारी वंञा = (वारी वंजां) मैं सदके जाता हूँ। खंनीऐ वंञा = टुकड़े टुकड़े होता हूँ, कुर्बान होता हूँ। तउ = तेरे।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे साहिब! मैं तेरे नाम से सदके हूँ, कुर्बान जाता हूँ।1। रहाउ।

साहिबु सफलिओ रुखड़ा अम्रितु जा का नाउ ॥ जिन पीआ ते त्रिपत भए हउ तिन बलिहारै जाउ ॥२॥

पद्अर्थ: सफलिओ = फलों वाला। रुखड़ा = सुंदर रुख। जा का = जिस (वृक्ष) का (फल)। अंम्रितु = अटल।, आत्मिक जीवन देने वाला रस। जिन = जिन्होंने। त्रिपत भए = तृप्त हुए, अघा गए, संतुष्ट हो गए।2।

नोट: ‘जिनि’ एकवचन है और ‘जिन’ बहुवचन।

अर्थ: (हमारा) मालिक प्रभु फलों वाला एक सोहणा वृक्ष (है समझ लें), इस वृक्ष का फल है उसका ‘नाम’ जो (जीव को) अटल आत्मिक जीवन देने वाला (रस अमृत) है। जिन्होंने ये रस पीया है वे (मायावी पदार्थों की भूख-प्यास से) तृप्त हो जाते हैं। मैं उनसे कुर्बान जाता हूँ।2।

मै की नदरि न आवही वसहि हभीआं नालि ॥ तिखा तिहाइआ किउ लहै जा सर भीतरि पालि ॥३॥

पद्अर्थ: मै की = मुझे। आवही = आए, तू आता। हभि = सभी। तिहाइआ = प्यासा। सर = तालाब, सरोवर। पालि = दीवार। किउ लहै = कैसे मिले? नहीं मिल सकता।3।

अर्थ: (हे प्रभु!) तू सब जीवों के अंग-संग बसता है, पर तू मुझे नहीं दिखता। (जीव का ये कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि उसके अपने अंदर ही पानी का सरोवर हो और वह प्यासा तड़पता फिरे! पर) प्यास से तड़प रहे को (पानी) मिले भी कैसे, जब उसके और (उसके अंदर के) सरोवर के बीच दीवार बनी हो? (माया के मोह की बनी कोई दीवार अमृत सरोवर में से नाम-जल तक पहुँचने नहीं देती)।3।

नानकु तेरा बाणीआ तू साहिबु मै रासि ॥ मन ते धोखा ता लहै जा सिफति करी अरदासि ॥४॥१॥

पद्अर्थ: बाणीआ = बनिया, वणजारा। मै रासि = मेरी पूंजी। धोखा = सहम। लहै = दूर हो। करी = मैं करूँ।4।

अर्थ: (हे प्रभु! मेहर कर, तेरा दास) तेरे नाम का बंजारा बन जाए, तू मेरा शाहु हो तेरा नाम मेरी पूंजी बने। मेरे मन से दुनिया का सहम तब ही दूर हो सकता है अगर मैं सदा प्रभु की महिमा करता रहूँ, अगर उसके दर पर अरदास-आरजू करता रहूँ।4।1।

वडहंसु महला १ ॥ गुणवंती सहु राविआ निरगुणि कूके काइ ॥ जे गुणवंती थी रहै ता भी सहु रावण जाइ ॥१॥

पद्अर्थ: निरगुणि = गुण हीन स्त्री। काइ कूके = किस लिए कूकती है, क्यूँ तरले करती है? रोना विलखना व्यर्थ है। थी रहै = बनी रहे, हो जाए।1।

अर्थ: जिस जीव-स्त्री के पास ये गुण है (जिस जीव-स्त्री को ये विश्वास है कि प्रभु ही सुखों का स्रोत है, वह) प्रभु-पति (का पल्ला पकड़ के उस) को प्रसन्न कर लेती है (और आत्मिक सुख हासिल करती है) पर जिसके पल्ले ये गुण नहीं है (और जो जगह-जगह भटकती फिरती है) वह (आत्मिक सुख के लिए) व्यर्थ ही तरले लेती है। हाँ, अगर उसके अंदर भी ये गुण आ जाए, तो पति-प्रभु को प्रसन्न करने का सफल उद्यम कर सकती है।1।

मेरा कंतु रीसालू की धन अवरा रावे जी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रीसालू = रसीला, रस आलय, रसों का घर; सुख आनंद का श्रोत। अवरा = और लोगों को। रावे = भोगे, मिले। जी = हे जी! हे बहन!।1। रहाउ।

अर्थ: हे बहन! (जिस जीव-स्त्री को ये विश्वास हो जाए कि) मेरा पति-प्रभु सारे सुखों का श्रोत है, वह (पति-प्रभु को छोड़ के) और लोगों को (सुखों का साधन समझ के) प्रसन्न करने नहीं जाती।1। रहाउ।

करणी कामण जे थीऐ जे मनु धागा होइ ॥ माणकु मुलि न पाईऐ लीजै चिति परोइ ॥२॥

पद्अर्थ: करणी = उच्च आचरण। कामण = टूणा (विवाह के समय जब बारात पहुँचती है तो लड़कियां गीत गाती हैं। मान्यता ये है कि इन गीतों से नव वर दूल्हा ब्याही जाने वाली वधू के कहे में चला करेगा। इसी प्रर्थाय पंजाबी मुहावरा भी है, ‘कामण पाणे’), पति को वश में करने वाले गीत। माणकु = मोती (प्रभु का नाम)। मुलि = किसी मुल्य से। चिति = चिक्त में।2।

अर्थ: अगर जीव-स्त्री का ऊँचा आचरण कामण डालने (पति को वश में करने वाले गीत) का काम करे, अगर वह मन धागा बने तो इस मन के धागे से उस नाम-मोती को अपने चिक्त में परो ले (धन-पदार्थ आदि किसी) मूल्य से नहीं मिल सकता।2।

राहु दसाई न जुलां आखां अमड़ीआसु ॥ तै सह नालि अकूअणा किउ थीवै घर वासु ॥३॥

पद्अर्थ: दसाई = मैं पूछूँ, मैं पूछती रहूँ। न जुलां = (पर उस रास्ते पर) मैं ना चलूँ। अंमड़ीआसु = मैं पहुँच गई हूँ। सह नालि = पति से। अकूअणा = बोलचाल ना होना।3।

अर्थ: (पर, निरी बातों से, हे सुख सागर! तेरे चरणों में पहुँचा जा सकता) हे पति-प्रभु! अगर मैं (तेरे देश का) हमेशा रास्ता ही पूछती रहूँ, पर उस रास्ते पर चलूँ ही ना, मुँह से कहे जाऊँ कि मैं (तेरे देश तक) पहुँच गई हूँ, वैसे कभी तेरे साथ बोलचाल (अपना पन) ना बनाया हो (कभी तेरे दर पर अरदास भी ना की हो), इस तरह तेरे चरणों में ठिकाना नहीं मिल सकता।3।

नानक एकी बाहरा दूजा नाही कोइ ॥ तै सह लगी जे रहै भी सहु रावै सोइ ॥४॥२॥

पद्अर्थ: तै लगी = तेरे में जुड़ी हुई। सह = हे पति!।4।

नोट: इस शब्द में शब्द ‘सहु’ और ‘सह’ आए है। शब्द ‘सहु’ कर्ता कर्म कारक एकवचन है। किसी संबंधक के साथ प्रयोग होने पर ‘ु’ की मात्रा हट जाती है, जैसे ‘सह नालि’। संबोधन में भी यही रूप है; जैसे ‘सह’ = हे पति!

अर्थ: हे नानक! (ये यकीन जानो कि) एक परमात्मा के बिना और कोई भी सुखदाता नहीं, (इसलिए उसके दर पे अरदास कर और कह:) हे प्रभु पति! जो जीव-स्त्री तेरे चरणों में जुड़ी रहती है वह तुझे प्रसन्न कर लेती है (और आत्मिक सुख पाती है)।4।2।

वडहंसु महला १ घरु २ ॥ मोरी रुण झुण लाइआ भैणे सावणु आइआ ॥ तेरे मुंध कटारे जेवडा तिनि लोभी लोभ लुभाइआ ॥ तेरे दरसन विटहु खंनीऐ वंञा तेरे नाम विटहु कुरबाणो ॥ जा तू ता मै माणु कीआ है तुधु बिनु केहा मेरा माणो ॥

पद्अर्थ: मोरी = मोरों ने। रुणझुण = मीठा गीत। लाइआ = शुरू किया। तेरे = (हे प्रभु!) तेरे ये कुदरती दृश्य। मुंध = स्त्री। कटारे = कटार। जेवडा = जेवड़ा, फाही। तिनि = (कुदरति के) इस (सुहावने स्वरूप) ने। लुभाइआ = मोह लिया है। दरसन विटहु = इस सोहाने स्वरूप से जो अब दिखाई दे रहा है। खंनीऐ वंञा = मैं टुकड़े टुकड़े होता हूँ। जा तू = चुँकि तू (इस कुदरत में मुझे दिख रहा है)। मैं माणु कीआ है = मैंने ये कहने का हौसला किया है कि तेरी ये कुदरत सुहावनी है।

अर्थ: हे बहन! सावन (का महीना) आ गया है (सावन की काली घटाएं देख के सुहाने) मोरों ने मीठे गीत आरम्भ कर दिए हैं (और नाचना शुरू कर दिया हैं)। (हे प्रभु!) तेरी ये सोहानी कुदरत मुझ जीव-स्त्री के लिए, जैसे, कटार है (जो मेरे अंदर विरहा की चोट कर रही है), फाँसी है, इसने मुझे तेरे दीदार की प्रेमिका को मोह लिया है (और मुझे तेरे चरणों की तरफ खींचती जा रही है)। (हे प्रभु!) तेरे इस सोहाने स्वरूप से जो अब दिख रहा है मैं सदके हूँ मैं सदके हूँ (तेरा ये स्वरूप मुझे तेरा नाम याद करा रहा है, और) मैं तेरे नाम से कुर्बान हूँ। (हे प्रभु!) चुँकि तू (इस कुदरत में मुझे दिख रहा है) मैंने ये कहने का हौसला किया है (कि तेरी ये कुदरति सुहावनी है)। अगर कुदरति में तू ही ना दिखे तो ये कहने में क्या स्वाद रह जाए कि कुदरति सुहानी है?

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh