श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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तू पूरा हम ऊरे होछे तू गउरा हम हउरे ॥ तुझ ही मन राते अहिनिसि परभाते हरि रसना जपि मन रे ॥२॥

पद्अर्थ: ऊरे = ऊणे, छोटे। होछे = छोटी सीमा वाले। गउरा = भारा, गंभीर। हउरे = हल्के। मन = जिनके मन। रसना = जीभ। मन रे = हे मेरे मन!।2।

अर्थ: हे प्रभु! तू गुणों से भरपूर है, हम जीव छोटे हैं, तुच्छ बुद्धि के हैं। तू गंभीर है हम हल्के हैं (हे प्रभु!) जिनके मन दिन-रात हर वक्त तेरे प्यार में रंगे रहते हैं (उन्हें तू अपने चरणों में जोड़ के संपूर्ण और गंभीर बना लेता है)। हे मेरे मन! तू भी जीभ से परमात्मा का नाम जप (तेरे अंदर भी उसकी मेहर से गुण पैदा हो जाएंगे)।2।

तुम साचे हम तुम ही राचे सबदि भेदि फुनि साचे ॥ अहिनिसि नामि रते से सूचे मरि जनमे से काचे ॥३॥

पद्अर्थ: सचे = सदा स्थिर रहने वाले। भेदि = भेद के। फुनि = दुबारा, भी। अहि = दिन। निसि = रात। नामि = नाम में। काचे = कच्ची घाड़त वाले, अनुचित घड़त वाले।3।

अर्थ: हे प्रभु! तू सदा-स्थिर रहने वाला है, अगर हम जीव तेरी याद में ही टिके रहें, अगर हम महिमा के शबदों में भेदे रहें, तो हम भी (तेरी मेहर से) अडोल-चिक्त हो सकते हैं। जो मनुष्य दिन-रात तेरे नाम में रंगे रहते हैं वे पवित्र-आत्मा हैं, (पर नाम विसार के) जो जनम-मरण के चक्कर में पड़े हुए हैं उनके मन की घाड़त अभी अनुचित है।3।

अवरु न दीसै किसु सालाही तिसहि सरीकु न कोई ॥ प्रणवति नानकु दासनि दासा गुरमति जानिआ सोई ॥४॥५॥

पद्अर्थ: सलाही = मैं महिमा करूँ। सरीकु = बराबर का।4।

अर्थ: परमात्मा के बराबर का कोई नहीं है, कोई और मुझे उस जैसा दिखता ही नहीं जिसकी मैं महिमा कर सकूँ। नानक विनती करता है मैं उनके दासों का दास हूँ जिन्होंने गुरु की मति ले के उस (जिसका कोई शरीक नहीं है) परमात्मा से गहरी सांझ डाल ली है।4।5।

सोरठि महला १ ॥ अलख अपार अगम अगोचर ना तिसु कालु न करमा ॥ जाति अजाति अजोनी स्मभउ ना तिसु भाउ न भरमा ॥१॥

पद्अर्थ: अलख = (अलक्ष्य, invisible) अदृश्य। अगंम = अगम्य (पहुँच से परे)। गो = ज्ञान-इंद्रिय। गोचर = जिस तक ज्ञान-इंद्रिय पहुँच सकें। अगोचर = अ+गोचर, जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच ना हो सके। कालु = मौत। करमा = कर्म, काम। अजाति = जिसकी कोई जाति नहीं। संभउ = (स्वयंभू) अपने आप से उत्पन्न होने वाला। भाउ = मोह।1।

अर्थ: वह परमात्मा अदृश्य है, बेअंत है, अगम्य (पहुँच से परे) है, मनुष्य की ज्ञान-इंद्रिय उसे समझ नहीं सकतीं, मौत उसे छू नहीं सकती, कर्मों का उस पर कोई दबाव नहीं (जैसे जीव कर्म अधीन हैं वह नहीं)। उस प्रभु की कोई जाति नहीं, वह जूनियों में नहीं पड़ता, उसका प्रकाश अपने आप से है। ना उसे कोई मोह व्याप्तता है, ना ही उसे कोई भटकना है।1।

साचे सचिआर विटहु कुरबाणु ॥ ना तिसु रूप वरनु नही रेखिआ साचै सबदि नीसाणु ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सचिआर = सत्यालय, सच का श्रोत। विटहु = से। वरनु = रंग। रेखिआ = चिन्ह, रेखा। नीसाणु = घर पता। रहाउ।

अर्थ: मैं सदा कुर्बान हूँ उस परमात्मा से जो सदा कायम रहने वाला है और जो सच्चाई का श्रोत है। उस परमात्मा का ना कोई रूप है ना कोई रंग है ना ही कोई चक्र चिन्ह ही है। सच्चे शब्द में जुड़ने से उसके घर घाट का ठिकाना पता चलता है। रहाउ।

ना तिसु मात पिता सुत बंधप ना तिसु कामु न नारी ॥ अकुल निरंजन अपर पर्मपरु सगली जोति तुमारी ॥२॥

पद्अर्थ: सुत = पुत्र। बंधप = रिश्तेदार। कामु = काम-वासना। अकुल = जिसका कोई खास कुल नहीं। परंपरु = परे से परे, बेअंत।2।

अर्थ: उस प्रभु के ना माँ ना पिता ना उसका कोई पुत्र ना ही रिश्तेदार। ना उसे काम-वासना सताती है ना ही उसकी कोई पत्नी है। उस का कोई खास कुल नहीं, वह माया के प्रभाव से परे है, बेअंत है, परे से परे है। हे प्रभु! हर जगह तेरी ही ज्योति प्रकाशमान है।2।

घट घट अंतरि ब्रहमु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई ॥ बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ॥३॥

पद्अर्थ: अंतरि = अंदर। घटि घटि = हरेक घट में। सबाई = हर जगह। बजर = पत्थर जैसे कठोर। कपाट = किवाड़, भित्त। मुकते = मुक्त हो जाते हैं, खुल जाते हैं। निरभै = निडर। ताड़ी = समाधी।3।

अर्थ: हरेक शरीर के अंदर परमात्मा गुप्त हो के बैठा हुआ है, हरेक घट में हर जगह पर उसी की ही ज्योति है (पर माया के मोह के कठोर किवाड़ लगे होने के कारण जीव को ये हकीकत समझ नहीं आती)। गुरु की मति पर चल के जिस मनुष्य के ये कठोर किवाड़ खुल जाते हैं उसे ये समझ आ जाता है कि (वह) हरेक जीव में व्यापक होता हुआ भी प्रभु निडर अवस्था में टिका बैठा है।3।

जंत उपाइ कालु सिरि जंता वसगति जुगति सबाई ॥ सतिगुरु सेवि पदारथु पावहि छूटहि सबदु कमाई ॥४॥

पद्अर्थ: सिरि जंता = सब जीवोंके सिर पर। सबाई = सारी। वसगति = वश में की हुई। पावहि = जीव प्राप्त करते हैं। कमाई = कमा के।4।

अर्थ: सब जीवों को पैदा करके सबके सिर पर परमात्मा ने मौत (भी) टिकाई हुई है, सब जीवों की जीवन-जुगति प्रभु ने अपने वश में रखी हुई है। जो मनुष्य गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल कर नाम-पदार्थ हासिल करते हैं, वे गुरु शब्द को कमा के (गुरु के शब्द अनुसार जीवन ढाल के माया के बंधनो से) आजाद हो जाते हैं।4।

सूचै भाडै साचु समावै विरले सूचाचारी ॥ तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ॥५॥६॥

पद्अर्थ: भाडे = बर्तन में। सूचाचारी = स्वच्छ आचरण वाला। तंतै कउ = जीवात्मा को। परम तंतु = परम आत्मा।5।

अर्थ: पवित्र हृदय में ही सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा टिक सकता है, पर स्वच्छ आचरण वाले (पवित्र दिल वाले) कोई विरले ही होते हैं। (गुरु अपने शब्द के द्वारा हृदय पवित्र करके) जीव को परमात्मा से मिलाता है।

हे नानक! अरदास कर- हे प्रभु! मैं तेरी शरण में हूँ (मुझे अपने चरणों में जोड़े रख)।5।6।

सोरठि महला १ ॥ जिउ मीना बिनु पाणीऐ तिउ साकतु मरै पिआस ॥ तिउ हरि बिनु मरीऐ रे मना जो बिरथा जावै सासु ॥१॥

पद्अर्थ: मीना = मछली। साकतु = ईश्वर से टूटा हुआ मनुष्य, माया ग्रसित जीव। मरै = आत्मिक मौत मरता है। पिआस = माया की तृष्णा। बिरथा = खाली।1।

अर्थ: जैसे पानी के बिना मछली (तड़फती) है वैसे ही माया-ग्रसित जीव तृष्णा के अधीन रह के दुखी रहता है। इसी तरह, हे मन! हरि-स्मरण के बिना जो भी स्वाश खाली जाता है (उसमें दुखी हो हो के) आत्मिक मौत मरना पड़ता है।1।

मन रे राम नाम जसु लेइ ॥ बिनु गुर इहु रसु किउ लहउ गुरु मेलै हरि देइ ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जसु = यश, शोभा। किउ लहउ = मैं कैसे ढूँढू? मुझे नहीं मिल सकता। देइ = देता है। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के नाम की महिमा किया कर। (पर) गुरु की शरण पड़े बिना ये आनंद नहीं मिल सकता। प्रभु (मेहर करके) जिसे गुरु मिलवाता है उसे ही (ये रस) देता है। रहाउ।

संत जना मिलु संगती गुरमुखि तीरथु होइ ॥ अठसठि तीरथ मजना गुर दरसु परापति होइ ॥२॥

पद्अर्थ: मिलु = (हे भाई!) मिल। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहना। अठसठि = अढ़सठ। मजना = स्नान। गुर दरसु = गुरु का दर्शन।2।

नोट: शब्द ‘तीरथु’ एकवचन है, ‘तीरथ’ बहुवचन है।

नोट: ‘मिलु’ है हुकमी भविष्यत, मध्यम पूरुष, एकवचन।

अर्थ: (हे मन!) संत जनों की संगति में मिल (सत्संग में रह के) गुरु के सन्मुख रहना ही (असल) तीर्थ (स्नान) है। जिस मनुष्य को गुरु के दर्शन हो जाते हैं उसे अढ़सठ तीर्थों के स्नान प्राप्त हो जाते हैं।2।

जिउ जोगी जत बाहरा तपु नाही सतु संतोखु ॥ तिउ नामै बिनु देहुरी जमु मारै अंतरि दोखु ॥३॥

पद्अर्थ: जत = इन्द्रियों को वश में रखना। देहुरी = शरीर। जमु = मौत, मौत का डर। दोखु = विकार।3।

अर्थ: जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं किया वह जोगी (निष्फल) है, अगर अंदर संतोष नहीं, उच्च जीवन नहीं, तो (किया हुआ) तप व्यर्थ है। इसी तरह अगर प्रभु का नाम नहीं स्मरण किया, तो ये मनुष्य शरीर व्यर्थ है। नाम-हीन मनुष्य के अंदर विकार ही विकार हैं, उसे जमराज सजा देता है।3।

साकत प्रेमु न पाईऐ हरि पाईऐ सतिगुर भाइ ॥ सुख दुख दाता गुरु मिलै कहु नानक सिफति समाइ ॥४॥७॥

पद्अर्थ: साकत = साकतों से। भाइ = प्रेम में। समाइ = लीन रहता है।4।

अर्थ: (प्रभु के चरणों का) प्यार माया-ग्रसित लोगों से नहीं मिलता, गुरु से प्यार डालने पर ही परमात्मा मिलता है। हे नानक! कह: जिस मनुष्य को गुरु मिल जाता है, उसे सुख-दुख देने वाला रब मिल जाता है, वह सदा प्रभु की महिमा में लीन रहता है।4।7।

सोरठि महला १ ॥ तू प्रभ दाता दानि मति पूरा हम थारे भेखारी जीउ ॥ मै किआ मागउ किछु थिरु न रहाई हरि दीजै नामु पिआरी जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! दानि = दान (देने) में। मति पूरा = पूर्ण बुद्धिमान, कभी ना गलती करने वाला। थारे = तेरे। भेखारी = भिखारी। मागउ = मैं मांगू। थिरु = सदा टिके रहने वाला। न रहाई = न रहे, नहीं रहता। हरि = हे हरि! पिआरी = मैं प्यार करूँ।1।

अर्थ: हे प्रभु जी! तू हमें सब पदार्थ देने वाला है, दातें देने में तू कभी चूकता नहीं, हम तेरे (दर के) भिखारी हैं। मैं तुझ से कौन सी चीज माँगू? कोई भी चीज सदा टिकी नहीं रहने वाली। (हाँ, तेरा नाम ही है जो सदा स्थिर रहने वाला है। इसलिए) हे हरि! मुझे अपना नाम दे, मैं तेरे नाम को प्यार करूँ।1।

घटि घटि रवि रहिआ बनवारी ॥ जलि थलि महीअलि गुपतो वरतै गुर सबदी देखि निहारी जीउ ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रवि रहिआ = व्यापक हो रहा है। बनवारी = परमात्मा। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, आकाश में, अंतरिक्ष में। देखि निहारी = अच्दी तरह देख। रहाउ।

अर्थ: परमात्मा हरेक शरीर में व्यापक है। पानी में, धरती में, धरती पर, आकाश में हर जगह मौजूद है पर छुपा हुआ है। (हे मन!) गुरु के शब्द के माध्यम से उसे देख। रहाउ।

मरत पइआल अकासु दिखाइओ गुरि सतिगुरि किरपा धारी जीउ ॥ सो ब्रहमु अजोनी है भी होनी घट भीतरि देखु मुरारी जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: मरत = मातृ लोक, ये धरती। पइआल = पाताल। गुरि = गुरु ने। सतिगुरि = सतिगुर ने। है भी = अब भी मौजूद है। होनी = आगे भी मौजूद रहेगा।2।

अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य पर) गुरु ने सतिगुरु ने कृपा की उसको उसने धरती आकाश पाताल (सारा जगत ही परमात्मा के अस्तित्व से भरपूर) दिखा दिया। वह परमात्मा जूनियों में नहीं आता, अब भी मौजूद है, आगे भी मौजूद रहेगा, (हे भाई!) उस प्रभु को तू अपने दिल में बसता देख।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh