श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पिंधी उभकले संसारा ॥ भ्रमि भ्रमि आए तुम चे दुआरा ॥ तू कुनु रे ॥ मै जी ॥ नामा ॥ हो जी ॥ आला ते निवारणा जम कारणा ॥३॥४॥

पद्अर्थ: उभकले = डुबकियां। संसारा = संसार (समुंदर) में। भ्रमि भ्रमि = भटक भटक के। तुम चे = तेरे। चे = के। रे = रे भाई! कुनु = कौन? जी = हे (प्रभु) जी! आला = आलय, घर, जगत के जंजाल। ते = से। निवारणा = बचा ले। जम कारणा = जमों (के डर) के कारण।3।

अर्थ: (हे भाई! जीव-) टिंडें (जैसे रहट के डिब्बे पानी में डुबकियां लेते हैं) संसार-समुंदर में डुबकियां ले रही हैं। हे प्रभु! भटक-भटक के मैं तेरे दर पर आ गिरा हूँ। हे (प्रभु) जी! (अगर तू मुझसे पूछे) तू कौन है? (तो) हे जी! मैं नामा हूँ। मुझे जगत के जंजाल से, जो कि जमों (के डरों) का कारण है, बचा ले।3।4।

शब्द का भाव: माया का प्रभाव और इसका इलाज।

ये सारी मायावी रचना प्रभु से ही उत्पन्न हुई है, प्रभु सब में व्यापक है। पर जीव प्रभु को बिसार के माया के हाथ में नाच रहे हैं। प्रभु की शरण पड़ कर ही इससे बचा जा सकता है।

नोट: शब्द ‘आला’ का अर्थ कई सज्जन ‘आया’ करते हैं। इस शब्द ‘आला’ को वे धातु ‘आ’ का ‘भूतकाल’ मानते हैं। मराठी बोली में किसी धातु से ‘भूतकाल’ बनाने के लिए पिछेत्तर ‘ला’ का प्रयोग किया जाता है। पर धातु ‘आ’ से मराठी में ‘आला’ भूतकाल नहीं बनता। ‘आ’ और ‘ला’ के बीच ‘इ’ भी प्रयोग में लाई जाती है। ‘आ’ का भूतकाल बनेगा ‘आइला’; जैसे;

“गरुड़ चढ़े गोबिंदु आइला” (नामदेव जी)

शब्द ‘ते’ के लिए वे सज्जन ‘और’ अर्थ करते हैं। ये भी गलत है। ‘ते’ के अर्थ हैं ‘से’। ‘अते’ (और) के लिए पुरानी पंजाबी में शब्द ‘तै’ है।

पतित पावन माधउ बिरदु तेरा ॥ धंनि ते वै मुनि जन जिन धिआइओ हरि प्रभु मेरा ॥१॥

पद्अर्थ: पतित = (विकारों में) गिरे हुए। पावन = पवित्र। माधउ = हे माधो! बिरदु = मूल कदीमों का प्यार वाला स्वभाव। धंनि = धन्य, भाग्यशाली। ते वै = वह। मुनि जन = मुनी लोक, ऋषि लोग। (शब्द ‘जन’ का अर्थ अलग नहीं करना, ‘जन’ यहाँ मुनियों’ के समूह को प्रगट करता है, भाव, बेअंत मुनी, बहुत मुनि, इसी तरह शब्द ‘संत जन’)। मेरा = प्यारा।1।

अर्थ: हे माधो! (विकारों में) गिरे हुए बंदों को (दोबारा) पवित्र करना तेरा मूल कदीमों का (प्यार वाला) स्वभाव है। (हे भाई!) वह मुनि लोग भाग्यशाली है, जिन्होंने प्यारे हरि प्रभु को स्मरण किया है।1।

मेरै माथै लागी ले धूरि गोबिंद चरनन की ॥ सुरि नर मुनि जन तिनहू ते दूरि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: माथै = माथे पर। लागीले = लगी है। धूरि = धूल। सुरि नर = देवते। दूरि = परे (भाग, उनके भाग्यों में नहीं)। ते = से।1। रहाउ।

अर्थ: (उस गोबिंद की मेहर से) मेरे माथे पर (भी) उसके चरणों की धूल लगी है (भाव, मुझे भी गोबिंद के चरणों की धूल माथे पर लगानी नसीब हुई है); वह धूल देवते और मुनि जनों के भी भाग्यों में नहीं हो सकी।1। रहाउ।

दीन का दइआलु माधौ गरब परहारी ॥ चरन सरन नामा बलि तिहारी ॥२॥५॥

पद्अर्थ: गरब = अहंकार। परहारी = दूर करने वाला। बलि = सदके।2।

अर्थ: हे माधो! तू दीनों पर दया करने वाला है। तू (अहंकारियों का) अहंकार दूर करने वाला है। मैं नामदेव तेरे चरणों की शरण आया हूँ और तुझसे सदके हूँ।2।5।

शब्द का भाव: प्रभु के नाम-जपने की दाति भाग्यशालियों को मिलती है। जो स्मरण करते हैं उनके सब पाप दूर हो जाते हैं।

धनासरी भगत रविदास जी की    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

हम सरि दीनु दइआलु न तुम सरि अब पतीआरु किआ कीजै ॥ बचनी तोर मोर मनु मानै जन कउ पूरनु दीजै ॥१॥

पद्अर्थ: हम सरि = मेरे जैसा। सरि = जैसा, बराबर का। दीनु = निमाणा, कंगाल। अब = अब। पतीआरु = (और) परतावा। किआ कीजै = क्या करना? करने की जरूरत नहीं। बचनी तोर = तेरी बातें करके। मोर = मेरा। मानै = मान जाए, पतीज जाए। पूरन = पूर्ण भरोसा।1।

अर्थ: (हे माधो!) मेरे जैसा और कोई निमाणा नहीं, और तेरे जैसा और कोई दया करने वाला नहीं, (मेरी कंगालता का) अब और परतावा करने की जरूरत नहीं। (हे सुंदर राम!) मुझ दास को ये पूर्ण सिदक बख्श कि मेरा मन तेरी महिमा की बातों में पसीज जाया करे।1।

हउ बलि बलि जाउ रमईआ कारने ॥ कारन कवन अबोल ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रमईआ कारने = सुंदर राम से। कवन = किस कारण? अबोल = नहीं बोलता। रहाउ।

अर्थ: हे सुंदर राम! मैं तुझसे सदा सदके हूँ, क्या बात है कि तू मेरे से बात नहीं करता?। रहाउ।

बहुत जनम बिछुरे थे माधउ इहु जनमु तुम्हारे लेखे ॥ कहि रविदास आस लगि जीवउ चिर भइओ दरसनु देखे ॥२॥१॥

पद्अर्थ: माधउ = हे माधो! तुमारे लेखे = (भाव) तेरी याद में बीते। कहि = कहे, कहता है।2।

अर्थ: रविदास कहता है: हे माधो! कई जन्मों से मैं तुझसे विछुड़ता आ रहा हूँ (मेहर कर, मेरा) ये जन्म तेरी याद में बीते; तेरा दीदार किए काफी समय हो गया है, (दर्शन की) आस में ही मैं जीता हूँ।2।1।

भाव: प्रभु-दर पर उसके दशनों की अरदास।

चित सिमरनु करउ नैन अविलोकनो स्रवन बानी सुजसु पूरि राखउ ॥ मनु सु मधुकरु करउ चरन हिरदे धरउ रसन अम्रित राम नाम भाखउ ॥१॥

पद्अर्थ: करउ = करूँ। नैन = आँखों से। अविलोकनो = मैं देखूँ। स्रवन = कानों में। सुजसु = सुंदर यश। पूरि राखउ = मैं भर रखूँ। मधुकरु = भौंरा। करउ = मैं बनाऊँ। रसन = जीभ से। भाखउ = मैं उचारण करूँ।1।

अर्थ: (तभी मेरी आरजू है कि) मैं चिक्त लगा के प्रभु के नाम का स्मरण करता रहूँ, आँखों से उसका दीदार करता रहूँ, कानों में उसकी वाणी व उसका सु-यश भरे रखूँ, अपने मन को भौरा बनाए रखूँ, उसके (चरण-कमल) हृदय में टिकाए रखूँ, और जीभ से उस प्रभु का आत्मिक जीवन देने वाला नाम उचारता रहूँ।1।

मेरी प्रीति गोबिंद सिउ जिनि घटै ॥ मै तउ मोलि महगी लई जीअ सटै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जिनि = कहीं ऐसा ना हो। जिनि घटै = कहीं कम ना हो जाए। जीअ सटै = जिंद के बदले।1। रहाउ।

अर्थ: (मुझे डर रहता है कि) कि कहीं गोबिंद से मेरी प्रीति कम ना हो जाए, मैंने तो बड़े महंगे मूल्यों में (ये प्रीति) ली है, जिंद दे के (इस प्रीति का) सौदा किया है।1। रहाउ।

साधसंगति बिना भाउ नही ऊपजै भाव बिनु भगति नही होइ तेरी ॥ कहै रविदासु इक बेनती हरि सिउ पैज राखहु राजा राम मेरी ॥२॥२॥

पद्अर्थ: भाउ = प्रेम। राजा राम = हे राजन! हे राम! पैज = इज्जत।2।

अर्थ: (पर ये) प्रीत साधु-संगत के बिना पैदा नहीं हो सकती, और हे प्रभु! प्रीति के बिना तेरी भक्ति नहीं हो सकती। रविदास प्रभु के आगे अरदास करता है: हे राजन! हे मेरे राम! (मैं तेरी शरण आया हूँ) मेरी इज्जत रखना।2।2।

नोट: पिछले शब्द और इस शब्द में रविदास जी परमात्मा के लिए शब्द ‘रमईआ’, ‘माधउ’, ‘राम’, ‘गोबिंद’, ‘राजा राम’ इस्तेमाल करते हैं। शब्द ‘माधउ’ और ‘गोबिंद’, श्री कृष्ण जी के नाम हैं। अगर रविदास जी श्री रामचंद्र अवतार के पुजारी होते तो कृष्ण जी के नाम के प्र्याय ना प्रयोग में लाते। ये सांझे शब्द परमात्मा के लिए ही हो सकते हैं।

शब्द का भाव: प्रभु के साथ प्रीति कैसे कायम रह सकती है? -स्मरण और साधु-संगत के सदके।

नामु तेरो आरती मजनु मुरारे ॥ हरि के नाम बिनु झूठे सगल पासारे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: आरती = (संस्कृति: आरति = having lights before an image) थाल में फूल रख के जलता हुआ दीपक रख के चंदन आदि सुगंधियां ले के किसी मूर्ति के आगे वह थाल हिलाए जाना और उसकी स्तुति में भजन गाने; यह उस मूर्ति की आरती कही जाती है। मुरारे = हे मुरारि! (मुर+अरि। अरि = वैरी, मुर दैत्य का वैरी। कृष्ण जी का नाम है) हे परमात्मा! पासारे = खिलारे आडंबर।1। रहाउ।

नोट: उन आडंबरों का वर्णन बाकी के शब्द में है; चंदन चढ़ाना, दीया, माला, नैवेद का भोग।

अर्थ: हे प्रभु! (अंजान लोग मूर्तियों की आरती करते हैं, पर मेरे लिए तो) तेरा नाम (ही तेरी) आरती है, और तीर्थों का स्नान है। (हे भाई!) परमात्मा के नाम से टूट के अन्य सभी आडंबर झूठे हैं।1। रहाउ।

नामु तेरो आसनो नामु तेरो उरसा नामु तेरा केसरो ले छिटकारे ॥ नामु तेरा अ्मभुला नामु तेरो चंदनो घसि जपे नामु ले तुझहि कउ चारे ॥१॥

पद्अर्थ: आसनो = ऊन आदि का कपड़ा जिस पर बैठ कर मूर्ति की पूजा की जाती है। उरसा = चंदन रगड़ने वाली शिला। ले = लेकर। छिटकारे = छिड़काते हैं। अंभुला = (सं: अंभस् = water) पानी। जपे = जप के। तुझहि = तुझे ही। चारे = चढ़ाते हैं।1।

अर्थ: तेरा नाम (मेरे लिए पण्डित वाला) आसन है (जिस पर बैठ के वह मूर्ति की पूजा करता है), तेरा नाम ही (चंदन घिसाने के लिए) शिला है, (मूर्ति पूजने वाला मनुष्य सिर पर केसर घोल के मूर्ति पर) केसर छिड़कता है, पवर मेरे लिए तेरा नाम ही केसर है। हे मुरारी! तेरा नाम ही पानी है, नाम ही चंदन है, (इस नाम-चंदन को नाम-पानी के साथ) घिसा के, तेरे नाम का स्मरण-रूपी चंदन ही मैं तेरे ऊपर लगाता हूँ।1।

नामु तेरा दीवा नामु तेरो बाती नामु तेरो तेलु ले माहि पसारे ॥ नाम तेरे की जोति लगाई भइओ उजिआरो भवन सगलारे ॥२॥

पद्अर्थ: बाती = बक्ती (दीए की)। माहि = दीए में। पसारे = डालते हैं। उजिआरो = प्रकाश। सगलारे = सारे। भवन = भवनों में, मंडलों में।2।

अर्थ: हे प्रभु! तेरा नाम दीया है, नाम ही (दीए की) बाती है, नाम ही तेल है, जो ले के मैंने (नाम-दीए में) डाला है; मैंने तेरे नाम की ही ज्योति जलाई है (जिसकी इनायत से) सारे भवनों में रौशनी हो गई है।2।

नामु तेरो तागा नामु फूल माला भार अठारह सगल जूठारे ॥ तेरो कीआ तुझहि किआ अरपउ नामु तेरा तुही चवर ढोलारे ॥३॥

पद्अर्थ: तागा = (माला परोने के लिए) धागा। भार अठारह = सारी बनस्पति, जगत की सारी बनस्पती के हरेक किस्म के पौधे का एक-एक पत्ता ले के इकट्ठा करने से 18 भार बनता है; एक भार का मतलब 5 मन कच्चे का हुआ; ये पुरातन विचार चला आ रहा है। जूठारे = झूठे, क्योंकि भौंरे आदि ने सूंघे हुए हैं। अरपउ = मैं अर्पित करूँ। तूही = तुझे ही। ढोलारे = झुलाते हैं।3।

अर्थ: तेरा नाम मैंने धागा बनाया है, नाम को मैंने फूल और फूलों की माला बनाया है, और सारी बनस्पति (जिससे लोग फूल ले के मूर्तियों के आगे भेट करते हैं, तेरे नाम के सामने वे) झूठी है। (ये सारी कुदरति तो तेरी बनाई हुई है) तेरी पैदा की हुई में से मैं तेरे आगे क्या रखूँ? (सो,) मैं तेरा नाम-रूपी चवर ही तेरे पर झुलाता रहूँ।3।

दस अठा अठसठे चारे खाणी इहै वरतणि है सगल संसारे ॥ कहै रविदासु नामु तेरो आरती सति नामु है हरि भोग तुहारे ॥४॥३॥

पद्अर्थ: दस अठा = 18 पुराण। अठसठे = 68 तीर्थ। वरतणि = नित्य की कार, परचा। भोग = नैवेद, दूध खीर आदि की भेट।4।

अर्थ: सारे जगत की नित्य की कार तो ये है कि (तेरा नाम भुला के) अठारह पुराणों की कथाओं में फसे हुए हैं, अढ़सठ तीर्थों के स्नान को ही पुण्य कर्म समझ बैठे हैं, और, इस तरह चारों खाणियों की जूनियों में भटक रहे हैं। रविदास कहता है: हे प्रभु! तेरा नाम ही (मेरे लिए) तेरी आरती है तेरे सदा कायम रहने वाले नाम का ही भोग मैं तुझे लगाता हूँ।4।3।

भाव: आरती आदि के आडंबर झूठे हैं, नाम जपना ही जिंदगी का सही रास्ता है।

नोट: जगत की उत्पक्ति के चार वसीले माने गए है, चार खाणियां अथवा चार खानें मानी गई हैं: अण्डा, जिओर, स्वैत, उदक। अंडज = अण्डे से पैदा होने वाले जीव। जेरज = ज्योर से पैदा होने वाले जीव। सेतज = पसीने से पैदा हुए जीव। उतभुज = पानी से धरती में से पैदा हुए जीव।

नोट: इस आरती से साफ प्रगट है कि रविदास जी एक परमात्मा के उपासक थे। शब्द ‘मुरारि’ (जो कृष्ण जी का नाम है) बरतने से ये तो स्पष्ट हो जाता है कि वे श्री राम चंद्र के उपासक नहीं थे, जैसे कि कई सज्जन उनके द्वारा इस्तेमाल किए गए शब्द ‘राजा राम चंद’ के प्रयोग के कारण समझ बैठे हैं। हरि, मुरारि, राम आदि शब्द उन्होंने उस परमात्मा के लिए बरते हैं जिस बाबत वे कहते हैं ‘तेरो कीआ तुझहि किआ अरपउ’।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh