श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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चरन कमल संगि प्रीति मनि लागी सुरि जन मिले पिआरे ॥ नानक अनद करे हरि जपि जपि सगले रोग निवारे ॥२॥१०॥१५॥

पद्अर्थ: संगि = साथ। मनि = मन में। सुरिजन = गुरमुख सज्जन। करे = करता है। जपि = जप के। सगले = सारे। निवारे = दूर कर लेता है।2।

अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य को प्यारे गुरसिख सज्जन मिल जाते हैं उसके मन में परमात्मा के कोमल चरणों का प्यार पैदा हो जाता है, वह मनुष्य परमात्मा का नाम जप-जप के आत्मिक आनंद लेता है और वह (अपने अंदर से) सारे रोग दूर कर लेता है।2।10।15।

टोडी महला ५ घरु ३ चउपदे    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

हां हां लपटिओ रे मूड़्हे कछू न थोरी ॥ तेरो नही सु जानी मोरी ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हां हां = ठीक है, मैंने समझ लिया है। रे मूढ़े = हे मूर्ख (मन)! थोरी = थोड़ी। सु = वह (माया)। जानी मोरी = तू अपनी समझ बैठा है।1। रहाउ।

अर्थ: हे मूर्ख (मन)! मैंने समझ लिया है कि तू (माया के साथ) चिपका हुआ है, (तेरी उसके साथ प्रीति भी) कुछ थोड़ी सी नहीं है। (जो माया सदा) तेरी नहीं बनी रहनी, उसको तू अपनी समझ रहा है। रहाउ।

आपन रामु न चीनो खिनूआ ॥ जो पराई सु अपनी मनूआ ॥१॥

पद्अर्थ: चीनो = पहचाना, सांझ डाली। खिनूआ = एक छिन वास्ते भी। मनूआ = मानी हुई है।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा (ही) अपना (असल साथी है उससे तूने) एक छिन के लिए भी जान-पहचान नहीं बनाई। जो (माया) बेगानी (बन जानी) है उसको तूने अपनी मान लिया है।1।

नामु संगी सो मनि न बसाइओ ॥ छोडि जाहि वाहू चितु लाइओ ॥२॥

पद्अर्थ: संगी = साथी। मनि = मन में। छोडि जाहि = (जो पदार्थ) छोड़ जाएंगे। वाहू = उनके साथ।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम (असल) साथी है, उसको तूने अपने मन में (कभी) नहीं बसाया। (जो पदार्थ आखिर) छूट जाएंगे, उनसे तूने चिक्त जोड़ा हुआ है।2।

सो संचिओ जितु भूख तिसाइओ ॥ अम्रित नामु तोसा नही पाइओ ॥३॥

पद्अर्थ: संचिओ = इकट्ठा किया है। जितु = जिससे। तिसाइओ = तिखा, प्यास। अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम। तोसा = रास्ते का खर्च।3।

अर्थ: हे भाई! तू उस धन-पदार्थ को इकट्ठा कर रहा है, जिससे (माया की) भूख-प्यास (बनी रहेगी)। परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम जीवन-सफर का खर्च है, तूने वह हासिल नहीं किया।3।

काम क्रोधि मोह कूपि परिआ ॥ गुर प्रसादि नानक को तरिआ ॥४॥१॥१६॥

पद्अर्थ: क्रोधि = क्रोध में। कूपि = कूएं में। गुर प्रसादि = गुरु की कृपा से। को = कोई विरला।4।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) तू काम-क्रोध में तू मोह के कूएं में पड़ा हुआ है। (पर, तेरे भी क्या वश?) कोई विरला मनुष्य ही गुरु की कृपा से (इस कूएं में से) पार लांघता है।4।1।16।

टोडी महला ५ ॥ हमारै एकै हरी हरी ॥ आन अवर सिञाणि न करी ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हमारै = मेरे वास्ते, मेरे हृदय में। आन अवर = कोई और। न करी = मैं नहीं करता। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! मैंने अपने दिल में एक परमात्मा का ही आसरा रखा हुआ है। (परमात्मा के बिना) मैं कोई और आसरा नहीं पहचानता। रहाउ।

वडै भागि गुरु अपुना पाइओ ॥ गुरि मो कउ हरि नामु द्रिड़ाइओ ॥१॥

पद्अर्थ: भागि = क्सिमत से। गुरि = गुरु ने। कउ = को। मो कउ = मुझे। द्रिढ़ाइओ = पक्का कर दिया है।1।

अर्थ: हे भाई! बड़ी किस्मत से मुझे अपना गुरु मिला। गुरु ने मुझे परमात्मा का नाम (दे के) मेरे हृदय में पक्का कर दिया।1।

हरि हरि जाप ताप ब्रत नेमा ॥ हरि हरि धिआइ कुसल सभि खेमा ॥२॥

पद्अर्थ: नेमा = धार्मिक रहित। कुसल खेम = खुशियां सुख। सभि = सारे।2।

अर्थ: अब, हे भाई! परमात्मा का नाम ही (मेरे लिए) जप-तप है, व्रत है, धार्मिक नियम है। परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के मुझे सारे सुख-आनंद प्राप्त हो रहे हैं।2।

आचार बिउहार जाति हरि गुनीआ ॥ महा अनंद कीरतन हरि सुनीआ ॥३॥

पद्अर्थ: आचार बिउहार = कर्मकांड, धार्मिक रस्में। गुनीआ = गुण। सुनीआ = सुन के।3।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के गुण गाने (अब मेरे लिए) धार्मिक रस्में और (उच्च) जाति है। परमात्मा की महिमा सुन-सुन के (मेरे अंदर) बड़ा आनंद पैदा होता है।3।

कहु नानक जिनि ठाकुरु पाइआ ॥ सभु किछु तिस के ग्रिह महि आइआ ॥४॥२॥१७॥

पद्अर्थ: नानक = हे नानक! जिनि = जिस (मनुष्य) ने। ग्रिह = घर।4।

नोट: ‘तिस के’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘के’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य ने (अपने हृदय में बसता) परमात्मा पा लिया, उसके हृदय घर में हरेक चीज आ गई।4।2।17।

टोडी महला ५ घरु ४ दुपदे    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

रूड़ो मनु हरि रंगो लोड़ै ॥ गाली हरि नीहु न होइ ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रूढ़ो = सुंदर। रूढ़ो हरि रंगो = परमात्मा का सुंदर प्रेम रंग। लोड़ै = चाहता है। गाली = (सिर्फ) बातों से। नीहु = प्रेम। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई! वैसे तो ये) मन परमात्मा के सुदर प्रेम-रंग को (प्राप्त करना) चाहता ही रहता है, पर केवल बातों से प्रेम नहीं मिलता। रहाउ।

हउ ढूढेदी दरसन कारणि बीथी बीथी पेखा ॥ गुर मिलि भरमु गवाइआ हे ॥१॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। ढूढेदी = ढूँढती रही। बीथी = विथि, गली। बीथी बीथी = गली गली, जाप ताप, कर्मकांड आदि की हरेक गली। पेखा = देखूँ। मिलि = मिल के। भरमु = भटकता।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के दर्शन करने के लिए मैं (जाप-ताप-कर्मकांड आदि की) गली-गली ढूँढती रही, देखती रही। (आखिर) गुरु को मिल के (अपने मन की) भटकना दूर की है।1।

इह बुधि पाई मै साधू कंनहु लेखु लिखिओ धुरि माथै ॥ इह बिधि नानक हरि नैण अलोइ ॥२॥१॥१८॥

पद्अर्थ: बुधि = अकल, समझ। साधू कंनहु = गुरु से। धुरि = धुर दरगाह से। अलोइ = (मैंने) देख लिया।2।

अर्थ: (हे भाई! मन की भटकना दूर करने की) ये बुद्धि मैंने गुरु से हासिल की, मेरे माथे पर (गुरु के मिलाप का) लेख धुर-दरगाह से लिखा हुआ था। हे नानक! (कह:) इस तरह मैंने परमात्मा को (हर जगह बसता) अपनी आँखों से देख लिया।2।1।18।

टोडी महला ५ ॥ गरबि गहिलड़ो मूड़ड़ो हीओ रे ॥ हीओ महराज री माइओ ॥ डीहर निआई मोहि फाकिओ रे ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गरबि = अहंकार में। गहिलड़ो = गकिहला, बावला, झल्ला। मूढ़ड़ो = मूढ़ा, मूर्ख। हीओ = हृदय। रे = हे भाई! महराज री = महाराज की। माइओ = माया (ने)। डीहर निआई = मछली की तरह। मोहि = मोह में। फाकिओ = फसा ली है। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! मूर्ख हृदय अहंकार में झल्ला हुआ रहता है। इस दिल को महाराज (प्रभु) की माया ने मछली की तरह मोह में फसा रखा है (जैसे मछली को कुण्डी में)। रहाउ।

घणो घणो घणो सद लोड़ै बिनु लहणे कैठै पाइओ रे ॥ महराज रो गाथु वाहू सिउ लुभड़िओ निहभागड़ो भाहि संजोइओ रे ॥१॥

पद्अर्थ: घणो = बहुत। सद = सदा। लोड़ै = मांगता है। बिनु लहणे = भाग्य के बिना। कैठे = किस जगह से? कहाँ से? महराज रो = महराज का। गाथु = शरीर। वाहू सिउ = उस (शरीर) से ही। लुभड़िओ = लोभ कर रहा है, मोह कर रहा है। निहभागड़ो = निभागा, भाग्यहीन। भाहि = (तृष्णा की) आग। संजोइओ = जोड़े हुए है, इकट्ठी कर रहा है।1।

अर्थ: हे भाई! (मोह में फंसा हुआ हृदय) सदा बहुत-बहुत (माया) मांगता रहता है, पर बिना भाग्यों के कहाँ मिलती है? हे भाई! महाराज का (दिया हुआ) ये शरीर है, इसी के साथ (मूर्ख जीव) मोह करता रहता है। भाग्यहीन मनुष्य (अपने मन को तृष्णा की) आग से जोड़े रखता है।1।

सुणि मन सीख साधू जन सगलो थारे सगले प्राछत मिटिओ रे ॥ जा को लहणो महराज री गाठड़ीओ जन नानक गरभासि न पउड़िओ रे ॥२॥२॥१९॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! सीख = शिक्षा। साधू जन = गुरमुखि सतसंगी। सगलो = सारे। थारे = तेरे। प्राछत = पाप। जा को = जिसका। गठड़िओ = गठड़ी में से। गरभासि = गर्भ जून में। न पउड़िओ = नहीं पड़ता।2।

अर्थ: हे मन! सारे साधु-जनों की शिक्षा को सुना कर, (इसकी इनायत से) तेरे सारे पाप मिट जाएंगे। हे दास नानक! (कह:) महाराज के खजाने में से जिसके भाग्यों में कुछ प्राप्ति लिखी हुई है, वह जूनियों में नहीं पड़ता।2।2।19।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh