श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु तिलंग महला १ घरु १

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

यक अरज गुफतम पेसि तो दर गोस कुन करतार ॥ हका कबीर करीम तू बेऐब परवदगार ॥१॥

पद्अर्थ: यक = एक। अरज = विनती। गुफतम = मैंने कही (गुफ़त = कही। म = मैंने)। पेसि = सामने, आगे। पेसि ते = तेरे आगे। दर = में। गोस = गोश, कान। दर गोस = कानों में। कुन = कर। दर गोस कुन = कानों में कर, ध्यान से सुन। करतार = हे कर्तार! हका = सच्चा। कबीर = बड़ा। करीम = कर्म करने वाला, बख्शिश करने वाला। ऐब = ऐब, विकार। बेऐब = निर विकार, पवित्र। परवदगार = पालना करने वाला।1।

अर्थ: हे कर्तार! तू सदा कायम रहने वाला है। तू (सबसे) बड़ा है, तू बख्शिश करने वाला है, तू पवित्र हस्ती वाला है, तू सबकी पालना करने वाला है। मैंने तेरे आगे एक विनती की है, (मेरी विनती) ध्यान से सुन।1।

दुनीआ मुकामे फानी तहकीक दिल दानी ॥ मम सर मूइ अजराईल गिरफतह दिल हेचि न दानी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मुकाम = जगह। फानी = फनाह होने वाला, नाशवान। मुकामे फानी = फना की जगह। तहकीक = सच। दिल = हे दिल! छानी = तू जान। मम = मेरा। सर = सिर। मूइ = बाल। मम सर मूइ = मेरे सिर के बाल। अजराईल = मौत के फरिश्ते का नाम है। गिरफतह = गिरफत, पकड़े हुए हैं। दिल = हे दिल! हेचि न = कुछ भी नहीं। दानी = तू जानता।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरे) दिल! तू सच जान कि ये दुनिया नाशवान है। हे दिल! तू कुछ भी नहीं समझता कि (मौत के फरिश्ते) अजराईल ने मेरे सिर के बाल पकड़े हुए हैं।1। रहाउ।

जन पिसर पदर बिरादरां कस नेस दसतंगीर ॥ आखिर बिअफतम कस न दारद चूं सवद तकबीर ॥२॥

पद्अर्थ: जन = स्त्री। पिसर = पुत्र। बिरादर = भाई। बिरादरां = भाईयों में। कस = कोई भी। नेस = नेसत, न अस्त, नहीं है। दसत = हाथ। गीर = पकड़ने वाला। दसतंगीर = हाथ पकड़ने वाला। आखिर = आखिर, अंत को। बिअफतम = (उफतादन = गिरना) मैं गिरूँ। कस = कोई भी। दारदु = रखता, रख सकता। (दाशतन = रखना)। चूं = जब। सवद = होगी। तकबीर = वह नमाज जो मुर्दे के दबाने के वक्त पढ़ी जाती है, जनाजा।2।

अर्थ: स्त्री, पुत्र, पिता, (सारे) भाई, (इनमें से) कोई भी मदद करने वाला नहीं है, (जब) आखिर में मैं गिरूँ (भाव, जब मौत आ गई), जब मुर्दे को दबाने के वक्त की नमाज़ (तकबीर) पढ़ी जाती है, कोई भी (मुझे यहाँ) रख नहीं सकता।2।

सब रोज गसतम दर हवा करदेम बदी खिआल ॥ गाहे न नेकी कार करदम मम ईं चिनी अहवाल ॥३॥

पद्अर्थ: सब = शब, रात। रोज = रोज़, दिन। गसतम = गशतम, मैं फिरता रहूँ। दर = में। हवा = हिरस, लालच। करदेम = हम करते हैं, मैं करता रहूँ। करद = किया। बदी = बुराई। खिआल = विचार। बदी खिआल = बुराई का ख्याल। गाहे = कभी। गाहे न = कभी भी ना। करदम = मैंने की। ई = ये। चिनी = जैसा। इ चिनी = ऐसा, इस जैसा। अहवाल = हाल।3।

अर्थ: (सारी जिंदगी) मैं रात-दिन लालच में फिरता रहा, मैं बदी के ही ख्याल करता रहा। मैंने कभी कोई नेकी का काम नहीं किया। (हे कर्तार!) मेरा इस तरह का हाल है।3।

बदबखत हम चु बखील गाफिल बेनजर बेबाक ॥ नानक बुगोयद जनु तुरा तेरे चाकरां पा खाक ॥४॥१॥

पद्अर्थ: बद = बुरा। बखत = नसीब। बद बखत = बुरे नसीब वाला। हम = हम। चू = जैसा। हम चू = हमारे जैसा, मेरे जैसा। बखील = चुगली करने वाला। गाफिल = गफ़लत करने वाला, सुस्त, लापरवाह। नजर = नज़र। बेनजर = ढीठ, निलज्ज। बे = बिना। बाक = डर। बेबाक = निडर। बुगोयद = कहता है (गुफ़तन = कहना)। जनु = दास। तुरा = तुझे। पा खाक = पैरों की ख़ाक, चरण धूल। चाकर = सेवक।4।

अर्थ: (हे कर्तार!) मेरे जैसा (दुनिया में) कोई अभागा, निंदक, लापरवाह, ढीठ और निडर नहीं है (पर तेरा) दास नानक तुझे कहता है कि (मेहर कर, मुझे) तेरे सेवकों के चरणों की धूल मिले।4।1।

तिलंग महला १ घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

भउ तेरा भांग खलड़ी मेरा चीतु ॥ मै देवाना भइआ अतीतु ॥ कर कासा दरसन की भूख ॥ मै दरि मागउ नीता नीत ॥१॥

पद्अर्थ: भउ = डर, अदब। भांग = भांग। खलड़ी = गुत्थी। देवाना = नशई, मस्ताना। अतीतु = विरक्त। कर = दोनों हाथ। कासा = प्याला। दरि = (तेरे) दर से। मागउ = मैं मांगता हूँ। नीता नीत = सदा ही।1।

अर्थ: तेरा डर-अदब मेरे लिए भांग (के समान) है, मेरा मन (इस भांग को संभाल के रखने के लिए) गुत्थी है। (तेरे डर-अदब की भांग से) मैं नशई व विरक्त हो गया हूँ। मेरे दोनों हाथ (तेरे दर से ख़ैर लेने के लिए) प्याला है, (मेरी आत्मा को तेरे) दीदार की भूख (लगी हुई) है, (इस वास्ते) मैं (तेरे) दर से सदा (दीदार की ही मांग) माँगता हूँ।1।

तउ दरसन की करउ समाइ ॥ मै दरि मागतु भीखिआ पाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: तउ = तेरा। करउ = मैं करता हूँ। समाइ = सदाअ, आवाज़। मागतु = भिखारी। पाइ = दे।1। रहाउ।

अर्थ: (हे प्रभु!) मैं तेरे दर का भिखारी हूँ, मैं तेरे दीदार के लिए सदाअ (आवाज) देता हूँ, मुझे (अपने दीदार की) ख़ैर दे।1। रहाउ।

केसरि कुसम मिरगमै हरणा सरब सरीरी चड़्हणा ॥ चंदन भगता जोति इनेही सरबे परमलु करणा ॥२॥

पद्अर्थ: कुसम = फूल। मिरगमै = मृग मद, कस्तूरी। हरणा = (हिरण्य) सोना। सरीरी = शरीरों पर। जोति = स्वभाव। इनेही = ऐसी। परमलु = सुगंधी।2।

अर्थ: केसर, फूल, कस्तूरी और सोना (इनको अपवित्र कोई नहीं मानता, ये) सभी के शरीरों पर बरते जाते हैं। चंदन सबको सुगंधि देता है, ऐसा ही स्वभाव (तेरे) भक्तों का है।2।

घिअ पट भांडा कहै न कोइ ॥ ऐसा भगतु वरन महि होइ ॥ तेरै नामि निवे रहे लिव लाइ ॥ नानक तिन दरि भीखिआ पाइ ॥३॥१॥२॥

पद्अर्थ: घिअ भांडा = घी का बर्तन। पट = रेशम। कहै न कोइ = कोई नहीं पूछता। वरन महि = (भले ही किसी भी) जाति में। तेरै नामि = तेरे नाम में। निवे = विनम्रता वाले। तिन दरि = उनके दर पर। भीखिआ = ख़ैर।3।

नोट: अंक 3 से आगे का अंक 1 बताता है कि ‘घर २’ का ये पहला शब्द है।

अर्थ: रेशम और घी के बर्तनों के बारे में कोई भी मनुष्य पूछ-ताछ नहीं करता (कि इनको किस-किस का हाथ लग चुका है)। (हे प्रभु! तेरा) भक्त भी ऐसा ही होता है, चाहे वह किसी भी जाति में (पैदा) हुआ हो।

हे नानक! (प्रभु दर पर अरदास कर और कह: हे प्रभु!) जो बंदे तेरे नाम में लीन रहते हैं लगन लगा के रखते हैं, उनके दर पर (रख के मुझे अपने दर्शनों की) ख़ैर डाल।3।1।2।

तिलंग महला १ घरु ३    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

इहु तनु माइआ पाहिआ पिआरे लीतड़ा लबि रंगाए ॥ मेरै कंत न भावै चोलड़ा पिआरे किउ धन सेजै जाए ॥१॥

पद्अर्थ: माइआ पाहिआ = माया के साथ लिप्त हो गया। पाहिआ = लाग लगा हुआ, लिप्त।

(नोट: कपड़े को कोई पक्का रंग चढ़ाने से पहले नमक फिटकरी व सोडे की लाग दी जाती है। सोडा, नमक, अथवा फिटकरी को पानी में घोल के कपड़ा उस में डुबोया जाता है; फिर रंग पानी में घोल के वह लाग वाला कपड़ा उसमें डाल दिया जाता है)।

लबि = जीभ से, चस्के से। लबु = जीभ का चस्का। रंगाए लीतड़ा = रंगा लिया है। चोला = शरीर। चोलड़ा = बेकार चोला। मेरै कंत = मेरे पति को। भावै = अच्छा लगता है। धन = स्त्री, जीव-स्त्री। सेजै = (प्रभु की) सेज पर, प्रभु के चरणों में। जाए = पहुँचे।1।

अर्थ: जिस जीव-स्त्री के इस शरीर को माया (के मोह) की लाग लगी हो, और फिर उसने इसको लालच से रंगा लिया हो, वह जीव-स्त्री पति-प्रभु के चरणों में नहीं पहुँच सकती, क्योंकि (जिंद का) ये चोला (ये शरीर, ये जीवन) पति-प्रभु को पसंद नहीं आता।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh