श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सूही कबीर जीउ ललित ॥ थाके नैन स्रवन सुनि थाके थाकी सुंदरि काइआ ॥ जरा हाक दी सभ मति थाकी एक न थाकसि माइआ ॥१॥

पद्अर्थ: स्रवन = कान। सुनि थाके = सुन सुन के थक गए, कमजोर हो गए हैं। सुंदरि काइआ = सुंदर शरीर। जरा = बुढ़ापा। हाक = आवाज। दी = दी। थाकसि = थकेगी।1।

अर्थ: (तेरी) आँखें कमजोर हो चुकी हैं, कान भी (अब) सुनने से रह गए हैं, सुंदर शरीर (भी) रह गया है; बुढ़ापे ने आ के आवाज मारी है और (तेरी) सारी अक्ल भी (ठीक) काम नहीं करती, पर (तेरी) माया की कसक (अभी तक) नहीं खत्म हुई।1।

बावरे तै गिआन बीचारु न पाइआ ॥ बिरथा जनमु गवाइआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बावरे = हे कमले! तै = तूने।1। रहाउ।

अर्थ: हे बावरे मनुष्य! तूने सारी उम्र व्यर्थ गवा ली है, तूने (परमात्मा के साथ) जान-पहिचान (करने) की समझ प्राप्त नहीं की।1। रहाउ।

तब लगु प्रानी तिसै सरेवहु जब लगु घट महि सासा ॥ जे घटु जाइ त भाउ न जासी हरि के चरन निवासा ॥२॥

पद्अर्थ: सरेवहु = स्मरण करो। प्रानी = हे प्राणी! सासा = प्राण, सांस। घटु जाइ = शरीर नाश हो जाए। भाउ = (प्रभु से) प्यार।2।

अर्थ: हे बंदे! जब तक शरीर में प्राण चल रहे हैं, तब तक उस प्रभु को ही स्मरण करते रहो। (उससे इतना प्यार बनाओ कि) अगर शरीर नाश (भी) हो जाए, तो भी (उससे) प्यार ना घटे, और प्रभु के चरणों में मन टिका रहे।2।

जिस कउ सबदु बसावै अंतरि चूकै तिसहि पिआसा ॥ हुकमै बूझै चउपड़ि खेलै मनु जिणि ढाले पासा ॥३॥

पद्अर्थ: जिस कउ अंतरि = जिस मनुष्य के मन में। सबदु = महिमा की वाणी। चूकै = समाप्त हो जाती है। चउपड़ि = जिंदगी रूपी चौपड़ की खेल। जिणि = जीत के। ढाले = ढालता है।3।

अर्थ: (प्रभु स्वयं) जिस मनुष्य के मन में अपनी महिमा की वाणी बसाता है, उसकी (माया की) प्यास मिट जाती है। वह मनुष्य प्रभु की रजा को समझ लेता है (रजा में राजी रहने का) चौपड़ वह खेलता है, और मन को जीत के पासा फेंकता है (भाव, मन को जीतना- ये उसके लिए चौपड़ की खेल में पासा फेंकना है)।3।

जो जन जानि भजहि अबिगत कउ तिन का कछू न नासा ॥ कहु कबीर ते जन कबहु न हारहि ढालि जु जानहि पासा ॥४॥४॥

नोट: ये शब्द ‘सूही’ और ‘ललित’ दोनों मिश्रित रागों में गाना है।

पद्अर्थ: जानि = जान के, सोच समझ के, सांझ बना के। भजहि = स्मरण करते हैं। अबिगत = (संस्कृत: अव्यक्त = invisible) अदृष्ट प्रभु।4।

अर्थ: जो मनुष्य प्रभु के साथ सांझ बना के उस अदृश्य को स्मरण करते हैं, उनका जीवन व्यर्थ नहीं जाता। हे कबीर! कह: जो मनुष्य (स्मरण-रूपी) पासा फेंकना जानते हैं, वे जिंदगी की बाजी कभी हार के नहीं जाते।4।4।

शब्द का भाव: स्मरण के बिना मानव जनम की बाजी हार जाई जाती है, क्योंकि माया का मोह दिन-ब-दिन बढ़ता जाता है।

सूही ललित कबीर जीउ ॥ एकु कोटु पंच सिकदारा पंचे मागहि हाला ॥ जिमी नाही मै किसी की बोई ऐसा देनु दुखाला ॥१॥

पद्अर्थ: कोटु = किला। सिकदार = चौधरी। पंच = कामादिक पाँच विकार। हाला = हल की कमाई पर सरकारी वसूली, मामला। दुखाला = दुखदाई, मुश्किल।1।

अर्थ: (मनुष्य का ये शरीर, जैसे) एक किला है, (इसमें) पाँच (कामादिक) चौधरी (बसते हैं), पाँचो ही (इस मनुष्य से) मामला मांगते हैं (भाव, ये पाँचों विकार इसे दुखी करते फिरते हैं)। (पर अपने सतिगुरु की कृपा से) मैं (इन पाँचों में से)। किसी का भी मुज़ारिया नहीं बना (भाव, मैं किसी के भी दबाव में नहीं आया), इस वास्ते किसी का मामला भरना मेरे लिए मुश्किल है (भाव, इनमें से कोई भी विकार मुझे कुमार्ग पर नहीं डाल सका)।1।

हरि के लोगा मो कउ नीति डसै पटवारी ॥ ऊपरि भुजा करि मै गुर पहि पुकारिआ तिनि हउ लीआ उबारी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हरि के लोगा = हे संत जनो! मो कउ = मुझे। नीति = सदा। डसै = डंक मारता है, डराता है। पटवारी = मामले का हिसाब बनाने वाला, किए कर्मों का लेखा रखने वाला, धर्म राज। भुजा = बाँह। पहि = पास। तिनि = उस (गुरु) ने। हउ = मुझे।1। रहाउ।

अर्थ: हे संतजनो! मुझे मामले का हिसाब बनाने वाले का हर वक्त सहम रहता है (अर्थात मुझे हर वक्त डर रहता है कि कामादिक विकारों का कहीं जोर पड़ कर मेरे अंदर भी कुकर्मों का लेखा ना बनने लग जाए), सो मैंने अपनी बाँह ऊँची करके (अपने) गुरु के आगे पुकार की और उसने मुझे (इनसे) बचा लिया।1। रहाउ।

नउ डाडी दस मुंसफ धावहि रईअति बसन न देही ॥ डोरी पूरी मापहि नाही बहु बिसटाला लेही ॥२॥

पद्अर्थ: नउ = कान नाक आदि नौ श्रोत। डाडी = जरीब कश, जमीन को नापने वाले। दस = पाँच ज्ञान-इंद्रिय और पाँच कर्म इंद्रिय। मुंसफ = न्याय करने वाले। धावहि = दौड़ के आते हैं। रईअति = प्रजा, भले गुण। डोरी = जरीब। बहु = बहुत। बिसटाला = (विष्टा) गंद की कमाई, रिश्वत। बहु...लेही = अपनी सीमा से ज्यादा विषियों में फंसाते हैं (इन ज्ञान-इंद्रिय को किसी खास हद तक रहने की हिदायत है। पर इस हद के अंदर रहने की बजाय, इन्साफ की जगह बल्कि अन्याय करते हैं)।2।

अर्थ: (मनुष्य-शरीर के) नौ (श्रोत-) ज़रीब-कश (जमीन की पैमायश करने वाले) और दस (इंद्रिय) न्याय करने वाली (मनुष्य के जीवन पर ऐसे) टूट के पड़ते हैं कि (मनुष्य के अंदर भले गुणों की) प्रजा को बसने नहीं देते। (ये ज़रीबकश) जरीब पूरी नहीं नापते, ज्यादा रिश्वतें लेते हैं (भाव, मनुष्य को हद से ज्यादा विकारों में फसाते हैं, हद से ज्यादा काम आदि में फसा देते हैं)।2।

बहतरि घर इकु पुरखु समाइआ उनि दीआ नामु लिखाई ॥ धरम राइ का दफतरु सोधिआ बाकी रिजम न काई ॥३॥

पद्अर्थ: बहतरि घर = बहक्तर कोठड़ियां वाला शरीर। उनि = उस (गुरु) ने। नामु = प्रभु का नाम। लिखाई = (राहदारी) लिख के दे दी है। सोधिआ = पड़ताल की है। बाकी = (मेरे जिंमे) देने वाली रकम। रिजम = रक्ती भर भी।3।

नोट: ‘एकुो’ अक्षर ‘क’ के साथ दो मात्राएं (ो) व (ु) लगीं हैं। असल शब्द है ‘ऐकु’; यहां पढ़ना है ‘एको’।

अर्थ: (मैंने अपने गुरु के आगे पुकार की तो) उसने मुझे (उस परमात्मा का) नाम बतौर राहदारी लिख दिया, जो बहक्तर घरों वाले शरीर के अंदर ही मौजूद है। (सतिगुरु की इस मेहर के सदका जब) धर्मराज के दफतर की जाँच हुई तो मेरे जिम्मे रक्ती भर भी देनदारी नहीं निकली (भाव, गुरु की कृपा से मेरे अंदर से कुकर्मों का लेखा बिल्कुल ही खत्म हो गया)।3।

संता कउ मति कोई निंदहु संत रामु है एकुो ॥ कहु कबीर मै सो गुरु पाइआ जा का नाउ बिबेकुो ॥४॥५॥

पद्अर्थ: बिबेकुो = बिबेक रूप, पूर्ण विवेक वाला, पूर्ण ज्ञानवान।4।

अर्थ: (सो, हे भाई! ये इनायत संतजनों के संगति की है) तुम कोई भी संत की कभी निंदा ना करना, संत और परमात्मा एक रूप हैं। हे कबीर! कह: मुझे भी वही गुरु-संत ही मिला है जो पूर्ण ज्ञानवान है।4।5।

शब्द का भाव: गुरु की शरण पड़ कर प्रभु का स्मरण करो, विकार अपना जोर नहीं डाल सकेंगे।

रागु सूही बाणी स्री रविदास जीउ की    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

सह की सार सुहागनि जानै ॥ तजि अभिमानु सुख रलीआ मानै ॥ तनु मनु देइ न अंतरु राखै ॥ अवरा देखि न सुनै अभाखै ॥१॥

पद्अर्थ: सह = पति। सार = कद्र। सुहागनि = सोहाग वाली, पति के साथ प्यार करने वाली। तजि = छोड़ के। अंतरु = दूरी। देइ = हवाले करती है। अभाखै = बुरी प्रेरणा।1।

अर्थ: पति-प्रभु (के मिलाप) की कद्र पति से प्यार करने वाली ही जानती है, वह अहंकार छोड़ के (प्रभु-चरणों में जुड़ के उस मिलाप का) सुख-आनंद भोगती है, अपना तन-मन प्रभु पति के हवाले कर देती है, प्रभु-पति से (कोई) दूरी नहीं रखती, ना किसी और का आसरा देखती है, और ना ही किसी की बुरी प्रेरणा सुनती है।1।

सो कत जानै पीर पराई ॥ जा कै अंतरि दरदु न पाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पराई पीर = और (गुरमुख सुहागनों) के विछोड़े की पीड़ा। जा कै अंतरि = जिसके हृदय में। दरदु = प्रभु पति से विछोड़े की पीड़ा।1। रहाउ।

अर्थ: जिस जीव-स्त्री के हृदय में प्रभु से विछोड़े का शूल नहीं उठा, वह औरों (गुरमुख सुहागनों) के दिल की (इस) पीड़ा को कैसे समझ सकती है?।1। रहाउ।

दुखी दुहागनि दुइ पख हीनी ॥ जिनि नाह निरंतरि भगति न कीनी ॥ पुर सलात का पंथु दुहेला ॥ संगि न साथी गवनु इकेला ॥२॥

पद्अर्थ: दुइ पख = दो पक्ष (ससुराल-पेका, लोक-परलोक)। हीनी = वंचित हुई। जिनि = जिस ने। नाह भगति = पति प्रभु की बंदगी। निरंतरि = एक रस। पुरसलात = (पुल सिरात) इस्लामी ख्याल के अनुसार एक पुल दोज़क (नर्क) की आग के ऊपर बना हुआ है, बाल के जितना बारीक है, हरेक को इसके ऊपर से गुजरना पड़ता है। देहुला = मुश्किल।2।

अर्थ: पर जिस जीव-स्त्री ने पति-प्रभु की बंदगी एक-रस नहीं की, वह छुटड़ दुखी रहती है, ससुराल-पेके (लोक-परलोक) दोनों जगहों से वंचित रहती है; जीवन का ये रास्ता (जो) पुरसलात (के समान है, उसके लिए) बड़ा मुश्किल हो जाता है, (यहाँ दुखों में) कोई संगी-साथी नहीं बनता, (जीवन-सफर का) सारा रास्ता ही अकेले (लांघना पड़ता) है।2।

दुखीआ दरदवंदु दरि आइआ ॥ बहुतु पिआस जबाबु न पाइआ ॥ कहि रविदास सरनि प्रभ तेरी ॥ जिउ जानहु तिउ करु गति मेरी ॥३॥१॥

पद्अर्थ: दरि = प्रभु के दर पर। पिआस = दर्शन की तमन्ना। जबाबु = उक्तर। गति = उच्च आत्मिक हालत।3।

अर्थ: हे प्रभु! मैं दुखी मैं दर्दवंद तेरे दर पर आया हूँ, मुझे तेरे दर्शनों की बहुत तमन्ना है (पर तेरे दर से) कोई उक्तर नहीं मिलता। रविदास कहता है: हे प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ, जैसे भी बने, वैसे मेरी हालत सवार दे।3।

शब्द का भाव: परमात्मा की भक्ति की दाति के वास्ते प्रभु-दर से माँग।

सूही ॥ जो दिन आवहि सो दिन जाही ॥ करना कूचु रहनु थिरु नाही ॥ संगु चलत है हम भी चलना ॥ दूरि गवनु सिर ऊपरि मरना ॥१॥

पद्अर्थ: जो दिन = जो दिन। जाही = बीत जाते हैं, गुजर जाते हैं। रहनु = ठिकाना। थिरु = सदा का। संगु = साथ। गवनु = रास्ता, राही, मुसाफरी। दूरि गवनु = दूर का सफर। मरना = मौत।1।

अर्थ: (मनुष्य की जिंदगी में) जो जो दिन आते हैं, वह दिन (असल में साथ-साथ) गुजरते जाते हैं (भाव, उम्र में से कम होते जाते हैं), (यहाँ से हरेक ने) कूच कर जाना है (किसी की भी यहाँ) सदा ही रिहायश नहीं है। हमारा साथ चलता जा रहा है, हमने भी (यहाँ से) चले जाना है; ये दूर की यात्रा है और मौत सिर पर खड़ी है (पता नहीं कौन से वक्त आ जाए)।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh