श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जिस ते सुख पावहि मन मेरे सो सदा धिआइ नित कर जुरना ॥ जन नानक कउ हरि दानु इकु दीजै नित बसहि रिदै हरी मोहि चरना ॥४॥३॥

पद्अर्थ: कर = हाथ (बहुवचन)। जुरना = जोड़ के। कउ = को। हरि = हे हरि! मोहि रिदै = मेरे हृदय में।4।

नोट: ‘जिस ते’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे मेरे मन! जिस प्रभु से तू सारे सुख पा रहा है, उसको सदा ही दोनों हाथ जोड़ के (पूरी निम्रता से) स्मरण किया कर। हे हरि! (अपने) दास नानक को एक ख़ैर डाल कि तेरे चरण मेरे हृदय में सदा ही बसते रहें।4।3।

गोंड महला ४ ॥ जितने साह पातिसाह उमराव सिकदार चउधरी सभि मिथिआ झूठु भाउ दूजा जाणु ॥ हरि अबिनासी सदा थिरु निहचलु तिसु मेरे मन भजु परवाणु ॥१॥

पद्अर्थ: उपराव = अमीर लोग। सिकदार = सरदार। सभि = सारे। मिथिआ = नाशवान। भाउ दूजा = प्रभु के बिना और प्यार। जाणु = समझ ले। थिरु = कायम रहने वाला। निहचलु = अटल। परवाणु = स्वीकार।1।

अर्थ: हे मन! (जगत में) जितने भी शाह-पातशाह अमीर सरदार चौधरी (दिखाई देते हैं) ये सारे नाशवान हैं, (ऐसे) माया के प्यार को झूठा समझ। सिर्फ परमात्मा ही नाश-रहित है, सदा कायम रहने वाला है, अटल है। हे मेरे मन! उस परमात्मा का नाम जपा कर, तभी स्वीकार होगा।1।

मेरे मन नामु हरी भजु सदा दीबाणु ॥ जो हरि महलु पावै गुर बचनी तिसु जेवडु अवरु नाही किसै दा ताणु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: दीबाणु = आसरा। भजु = स्मरण कर, उचार। जो = जो मनुष्य। ताणु = ताकत।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! सदा प्रभु का नाम स्मरण किया कर, यही अटल आसरा है। जो मनुष्य गुरु के वचन पर चल कर प्रभु के चरणों में निवास हासिल कर लेता है, उस मनुष्य के आत्मिक बल जितना और किसी का बल नहीं।1। रहाउ।

जितने धनवंत कुलवंत मिलखवंत दीसहि मन मेरे सभि बिनसि जाहि जिउ रंगु कसु्मभ कचाणु ॥ हरि सति निरंजनु सदा सेवि मन मेरे जितु हरि दरगह पावहि तू माणु ॥२॥

पद्अर्थ: कुलवंत = ऊँचे कुल वाले। मिलखवंत = जमीनों के मालिक। दीसहि = दिखते हें। कचाणु = कच्चा। सति = सदा कायम रहने वाला। निरंजनु = (निर+अंजनु) माया के प्रभाव से परे। जितु = जिससे।2।

अर्थ: हे मेरे मन! (दुनिया में) जितने भी धनवान, ऊँची कुल वाले, जमीनों के मालिक दिखाई दे रहे हैं, ये सारे नाश हो जाएंगे, (इनका बड़प्पन वैसे ही कच्चा है) जैसे कुसंभ का रंग कच्चा है। हे मेरे मन! उस परमात्मा को सदा स्मरण कर, जो सदा कायम रहने वाला है, जो माया के प्रभाव से परे है, और जिसके माध्यम से तू प्रभु की हजूरी में आदर हासिल करेगा।2।

ब्राहमणु खत्री सूद वैस चारि वरन चारि आस्रम हहि जो हरि धिआवै सो परधानु ॥ जिउ चंदन निकटि वसै हिरडु बपुड़ा तिउ सतसंगति मिलि पतित परवाणु ॥३॥

पद्अर्थ: सूद = शूद्र। चारि आस्रम = ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास। परधानु = श्रेष्ठ। निकटि = नजदीक। हिरडु बपुड़ा = बेचारा अरिण्ड। मिलि = मिल के। पतित = विकारी।3।

अर्थ: (हे मन! हमारे देश में) ब्राहमण, क्षत्रीय, वैश्य, शूद्र - ये चार (प्रसिद्ध) वर्ण हैं, (ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व सन्यास- ये) चार आश्रम (प्रसिद्ध) हैं। इनमें से जो भी मनुष्य नाम स्मरण करता है, वही (सबसे) श्रेष्ठ है (जाति आदि के कारण नहीं)। जैसे चंदन के नजदीक बेचारा अरिण्ड बसता है (और सुगंधित हो जाता है) वैसे ही साधु-संगत में मिल के विकारी भी (पवित्र हो के) स्वीकार हो जाता है।3।

ओहु सभ ते ऊचा सभ ते सूचा जा कै हिरदै वसिआ भगवानु ॥ जन नानकु तिस के चरन पखालै जो हरि जनु नीचु जाति सेवकाणु ॥४॥४॥

पद्अर्थ: ते = से। सूचा = पवित्र। जा कै हिरदै = जिसके हृदय में। नानकु पखालै = नानक धोता है। सेवकाण = सेवक। नीच जाति = नीच जाति का।4।

अर्थ: हे मन! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा आ बसता है, वह मनुष्य और सब मनुष्यों से ऊँचा हो जाता है, स्वच्छ हो जाता है। (हे भाई!) दास नानक उस मनुष्य के चरण धोता है, जो प्रभु का सेवक है प्रभु का भक्त है, चाहे वह जाति के आधार पर नीच ही (गिना जाता) है।4।4।

गोंड महला ४ ॥ हरि अंतरजामी सभतै वरतै जेहा हरि कराए तेहा को करईऐ ॥ सो ऐसा हरि सेवि सदा मन मेरे जो तुधनो सभ दू रखि लईऐ ॥१॥

पद्अर्थ: अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। सभतै = हर जगह। वरतै = मौजूद है। को = कोई मनुष्य। करईऐ = करता है। सेवि = स्मरण कर। मन = हे मन! सभदू = सभ (दुखों) से। रखि लईऐ = बचा लेता है।1।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा हरेक के दिल की जानने वाला है, हरेक जगह में मौजूद है, (हरेक जीव के अंदर व्यापक हो के) जैसा काम (किसी जीव से) करवाता है, वैसा ही काम जीव करता है। हे मन! ऐसी ताकत वाले प्रभु को सदा स्मरण करता रह, वह तुझे हरेक दुख-कष्ट से बचा सकता है।1।

मेरे मन हरि जपि हरि नित पड़ईऐ ॥ हरि बिनु को मारि जीवालि न साकै ता मेरे मन काइतु कड़ईऐ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पढ़ईऐ = पढ़ना चाहिए, जपना चाहिए। काइतु = क्यों? किसलिए? कढ़ईऐ = झुरना चाहिए, चिन्ता फिक्र करनी चाहिए।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! सदा प्रभु का नाम जपना चाहिए, उचारना चाहिए। (जब) परमात्मा के बिना (और) कोई नहीं मार सकता है ना जीवित कर सकता है, तो फिर, हे मेरे मन! (किसी तरह का) चिन्ता-फिक्र नहीं करना चाहिए।1। रहाउ।

हरि परपंचु कीआ सभु करतै विचि आपे आपणी जोति धरईऐ ॥ हरि एको बोलै हरि एकु बुलाए गुरि पूरै हरि एकु दिखईऐ ॥२॥

पद्अर्थ: परपंचु = यह दिखाई देता संसार। सभु = सारा। करतै = कर्तार ने। धरईऐ = धरी हुई है। गुरि = गुरु ने। दिखईऐ = दिखाया है।2।

अर्थ: हे मन! ये सारा दिखाई देता जगत कर्तार ने खुद बनाया है, इस जगत में उसने खुद ही अपनी ज्योति रखी हुई है। (सब जीवों में वह) कर्तार स्वयं ही बोल रहा है। (हरेक जीव को) वह प्रभु खुद ही बोलने की ताकत दे रहा है। पूरे गुरु ने (मुझे हर जगह) वह एक प्रभु ही दिखा दिया है।2।

हरि अंतरि नाले बाहरि नाले कहु तिसु पासहु मन किआ चोरईऐ ॥ निहकपट सेवा कीजै हरि केरी तां मेरे मन सरब सुख पईऐ ॥३॥

पद्अर्थ: अंतरि = (हमारे) अंदर। नाले = अंग संग। कहु = बताओ। पासहु = के पास से। किआ चोरईऐ = क्या छुपाया जा सकता है? निह कपट = निरछल (हो के)। सेवा = भक्ति। कीजै = करनी चाहिए। केरी = की। सरब = सारे।3।

अर्थ: हे मन! (हरेक जीव के) अंदर प्रभु स्वयं ही अंग-संग बसता है, बाहर सारे जगत में भी प्रभु ही हर जगह बसता है। बताओ! हे मन! उस (सर्व-व्यापक) से कौन सी बात छुपाई जा सकती है? मेरे मन! उस प्रभु की सेवा भक्ति निर्छल हो के करनी चाहिए, तब ही (उससे) सारे सुख हासिल किए जा सकते हैं।3।

जिस दै वसि सभु किछु सो सभ दू वडा सो मेरे मन सदा धिअईऐ ॥ जन नानक सो हरि नालि है तेरै हरि सदा धिआइ तू तुधु लए छडईऐ ॥४॥५॥

पद्अर्थ: दै वसि = के वश में। सब दू = सबसे। तुधु = तुझे।4।

नोट: ‘जिस दै’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘दै’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे मेरे मन! जिस परमात्मा के वश में हरेक चीज है, वह सबसे बड़ा है, सदा ही उसका ध्यान धरना चाहिए। हे दास नानक! (कह: हे मन!) वह परमात्मा सदा तेरे साथ बसता है, उसका ध्यान धरा कर, तुझे वह (हरेक दुख-कष्ट से) बचाने वाला है।4।5।

गोंड महला ४ ॥ हरि दरसन कउ मेरा मनु बहु तपतै जिउ त्रिखावंतु बिनु नीर ॥१॥

पद्अर्थ: कउ = को, के लिए। तपतै = तप रहा है, तड़प रहा है। त्रिखावंतु = प्यासा मनुष्य। नीर = पानी।1।

अर्थ: (हे सहेलिए! उस प्रेम के तीर के कारण अब) मेरा मन परमात्मा के दर्शनों के लिए (इस प्रकार) व्याकुल है (तड़प रहा है) जैसे पानी के बिना प्यासा मनुष्य।1।

मेरै मनि प्रेमु लगो हरि तीर ॥ हमरी बेदन हरि प्रभु जानै मेरे मन अंतर की पीर ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मेरै मनि = मेरे मन में। बेदन = (वेदना) पीड़ा। अंतर की = अंदरूनी। पीर = पीड़ा।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का प्यार मेरे मन को तीर की तरह लगा हुआ है। (उस प्रेम-तीर के कारण पैदा हुई) मेरे मन की अंदरूनी पीड़ा-वेदना मेरा हरि मेरा प्रभु ही जानता है।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh