श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु नट नाराइन महला ४

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

मेरे मन जपि अहिनिसि नामु हरे ॥ कोटि कोटि दोख बहु कीने सभ परहरि पासि धरे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अहि = दिन। निसि = रात। कोटि = करोड़। दोख = पाप। परहरि = दूर करके। पासि धरे = किनारे रखे रह जाते हैं।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम दिन-रात (सदा) जपा कर। अगर अनेक और करोड़ों पाप भी किए हुए हों, तो (परमात्मा का नाम) सबको दूर कर के (मनुष्य के हृदय में से) किनारे फेंक देता है।1। रहाउ।

हरि हरि नामु जपहि आराधहि सेवक भाइ खरे ॥ किलबिख दोख गए सभ नीकरि जिउ पानी मैलु हरे ॥१॥

पद्अर्थ: जपहि = जपते हैं। आराधहि = जपते हैं। सेवक भाइ = सेवकों वाली भावना से। खरे = अच्छे, सच्चे जीवन वाले। किलबिख = पाप। गए नीकरि = निकल गए। हरे = दूर करता है।1।

अर्थ: हे मेरे मन! जो मनुष्य सेवक-भावना से परमात्मा का नाम जपते हैं, वह सच्चे जीवन वाले बन जाते हैं। (जो प्राणी नाम जपता है उसके अंदर से) सारे विकार सारे पाप (इस तरह) निकल जाते हैं, जैसे पानी (कपड़ों की) मैल दूर कर देता है।1।

खिनु खिनु नरु नाराइनु गावहि मुखि बोलहि नर नरहरे ॥ पंच दोख असाध नगर महि इकु खिनु पलु दूरि करे ॥२॥

पद्अर्थ: नरु नाराइनु = परमात्मा (कृष्ण जी का नाम)। मुखि = मुँह से। नर नरहरे = परमात्मा। पंच = पाँच। असाध = काबू में ना आ सकने वाले। करे = कर देता है। नगर = शरीर नगर।2।

अर्थ: हे मेरे मन! (जो मनुष्य) हर छिन (हर पल) परमात्मा की महिमा के गीत गाते हैं मुँह से परमात्मा का नाम उचारते रहते हैं, (कामादिक) पाँच विकार जो काबू में नहीं आ सकते और जो (आम तौर पर जीवों के) शरीर में (टिके रहते हैं), (परमात्मा का नाम उनके शरीर में से) एक पल एक छिन में ही दूर कर देता है।2।

वडभागी हरि नामु धिआवहि हरि के भगत हरे ॥ तिन की संगति देहि प्रभ जाचउ मै मूड़ मुगध निसतरे ॥३॥

पद्अर्थ: वडभागी = भाग्यशाली। हरे = हरि के। प्रभू = हे प्रभु! जाचउ = याचना करता हूँ, मैं माँगता हूँ। मुगध = मूर्ख। निसतरे = निस्तारा हो जाता है, पार लांघ जाते हैं।3।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा की भक्ति करने वाले लोग बहुत भाग्यशाली लोग परमात्मा का नाम (हर वक्त) स्मरण करते रहते हैं। हे प्रभु! ऐसे भक्तों की संगति मुझे बख्श! मेरे जैसे अनेक मूर्ख (उनकी संगति में रह के संसार समुंदर से) पार लांघ जाते हैं।3।

क्रिपा क्रिपा धारि जगजीवन रखि लेवहु सरनि परे ॥ नानकु जनु तुमरी सरनाई हरि राखहु लाज हरे ॥४॥१॥

पद्अर्थ: जग जीवन = हे जगत के जीवन प्रभु! जनु = दास। लाज = इज्जत। हरे = हे हरि!।4।

अर्थ: हे जगत के आसरे प्रभु! मेहर कर, मेहर कर, मैं तेरी शरण आ पड़ा हूँ, मुझे (इन पाँचों से) बचा ले। हे हरि! तेरा दास नानक तेरी शरण आया है (नानक की) इज्जत रख ले।4।1।

नट महला ४ ॥ राम जपि जन रामै नामि रले ॥ राम नामु जपिओ गुर बचनी हरि धारी हरि क्रिपले ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जपि = जप के। नामि = नाम में। रले = लीन हो जाते हैं। जन = दास। गुर बचनी = गुरु के वचनों द्वारा। क्रिपले = कृपा।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम जप के परमात्मा के सेवक परमात्मा के नाम में ही लीन हो जाते हैं। (पर) गुरु के वचन पर चल के परमात्मा का नाम (सिर्फ उस मनुष्य ने) जपा है (जिस पर) परमात्मा ने खुद मेहर की है।1। रहाउ।

हरि हरि अगम अगोचरु सुआमी जन जपि मिलि सलल सलले ॥ हरि के संत मिलि राम रसु पाइआ हम जन कै बलि बलले ॥१॥

पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु) इन्द्रियों की पहुँच से परे। मिलि = मिल के। सलल = पानी। सलले = पानी में। जन कै = जनों से। बलि बलले = बलिहार, सदके।1।

अर्थ: हे भाई! मालिक प्रभु अगम्य (पहुँच से परे) है, इन्द्रियों के माध्यम से उस तक पहुँच नहीं हो सकती। उसके भक्त उसका नाम जप के (ऐसे हो जाते हैं जैसे) पानी में पानी मिल के (एक रूप हो जाता है)। हे भाई! जिस संत जनों ने (साधु-संगत में) मिल के परमात्मा के नाम का स्वाद चखा है, मैं उन संत जनों से सदके हूँ, कुर्बान हूँ।1।

पुरखोतमु हरि नामु जनि गाइओ सभि दालद दुख दलले ॥ विचि देही दोख असाध पंच धातू हरि कीए खिन परले ॥२॥

पद्अर्थ: पुरखोतमु = उत्तम पुरख, सर्व व्यापक प्रभु। जनि = (जिस) जन ने। सभि = सारे। दालद = दलिद्र। दलले = दले गए। देही = शरीर। पंच धातू = पाँच कामादिक विकार। परले = प्रलय, नाश।2।

अर्थ: हे भाई! जिस सेवक ने उत्तम पुरख प्रभु का नाम जपा, प्रभु ने उसके सारे दुख-दलिद्र नाश कर दिए। मानव-शरीर में कामादिक पाँच बली विकार बसते हैं, (नाम जपने वाले के अंदर से) प्रभु ये विकार एक छिन में नाश कर देता है।2।

हरि के संत मनि प्रीति लगाई जिउ देखै ससि कमले ॥ उनवै घनु घन घनिहरु गरजै मनि बिगसै मोर मुरले ॥३॥

पद्अर्थ: मनि = मन में। ससि = चंद्रमा। कमले = कमल फूल को। उनवै = झुकता है। घनु = बादल। घन = बहुत। घनिहरु = बादल। गरजै = गरजता है। बिगसै = खुश होता है। मोर मुरले = नृत्य करने वाला मोर।3।

अर्थ: हे भाई! संत-जनों के मन में परमात्मा ने (अपने चरणों में) प्रीति इस तरह लगाई है, जैसे (चकोर) चंद्रमा को (प्यार से) देखता है, जैसे (भँवरा) कमल के फूल को देखता है, जैसे नाचता हुआ मोर अपने मन में (तब) खुश होता है (जब) बादल झुकते हैं और बहुत गरजते हैं।3।

हमरै सुआमी लोच हम लाई हम जीवह देखि हरि मिले ॥ जन नानक हरि अमल हरि लाए हरि मेलहु अनद भले ॥४॥२॥

पद्अर्थ: लोच = तमन्ना, लगन। जीवह = हम जीते हैं, आत्मिक जीवन हासिल करते हैं। मिले = मिल के। अमल = (अफीम आदि जैसा) नशा। भले = सोहणे।4।

अर्थ: हे भाई! मेरे मालिक प्रभु ने मेरे अंदर (अपने नाम की) लगन लगा दी है, मैं उसको देख-देख के उसके चरणों में जुड़ के आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। हे दास नानक! (कह:) हे हरि! तूने खुद ही मुझे अपने नाम का नशा लगाया है, मुझे (अपने चरणों में) जोड़े रख, इसी में ही मुझे सुंदर आनंद है।4।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh