श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कतकि किरतु पइआ जो प्रभ भाइआ ॥ दीपकु सहजि बलै तति जलाइआ ॥ दीपक रस तेलो धन पिर मेलो धन ओमाहै सरसी ॥ अवगण मारी मरै न सीझै गुणि मारी ता मरसी ॥ नामु भगति दे निज घरि बैठे अजहु तिनाड़ी आसा ॥ नानक मिलहु कपट दर खोलहु एक घड़ी खटु मासा ॥१२॥

पद्अर्थ: कतकि = कार्तिक (के महीने) में (जब किसान मूँजी मक्की आदि सावणी की फसल काट के घर ले के आता है)। किरतु = किए कर्मों के संस्कारों का समूह। पइआ = मिल जाता है। जो = जो जीव। प्रभ भाइआ = प्रभु को अच्छा लग जाता है। दीपकु = दीया, (आत्मिक जीवन की सूझ देने वाली रौशनी का) दीया। सहजि = आत्मिक अडोलता में। बलै = जल उठता है। तति = तत्व ने, प्रभु के साथ गहरी जान पहचान ने। जाइआ = जला दिया। दीपक रस तेलो = आत्मिक जीवन के सूझ के आनंद का तेल। धन = जीव-स्त्री। ओमाहै = उत्साह में, उमंग में। सरसी = स+रसी, आनंद पाती हैं मारी = आत्मिक मौत मार दिया। मरै = आत्मिक मौत मर जाती है। सीझै = कामयाब होती। गुणि = गुण ने, प्रभु की महिमा ने। मारी = विकारों की तरफ से मार दी। मरसी = विकारों से बची रहेगी। दे = देता है। घरि = घर में। निज घरि = अपने घर में, अपने हृदय धर में। तिनाड़ी = उनकी। नानक = हे नानक! कपट = कपाट, किवाड़। कपट दर = दरवाजे के किवाड़। दर = दरवाजा। खटु मासा = छह महीने।12।

अर्थ: हे भाई! (जैसे) कार्तिक (के महीने) में (किसान को मुँजी मकई आदि सावणी की फसल की की हुई कमाई मिल जाती है, वैसे ही हरेक जीव को अपने) किए कर्मों का फल (मन में इकट्ठे हुए संस्कारों के रूप में) मिल जाता है।

हे भाई! (अपने किए भले कर्मों के अनुसार) जो मनुष्य परमात्मा को प्यारा लग जाता है (उसके हृदय में) आत्मिक अडोलता के कारण (आत्मिक जीवन की सूझ देने वाले प्रकाश का) दीपक जग उठता है (ये दीया उसके अंदर) प्रभु के साथ गहरी जान-पहचान ने जगाया हुआ होता है। जिस जीव-स्त्री का प्रभु-पति के साथ मिलाप हो जाता है (उसके अंदर) आत्मिक जीवन की सूझ देने वाले प्रकाश के आनंद का (मानो, दीए में) तेल जल रहा है, वह जीव-स्त्री उत्साह उमंग में आत्मिक आनंद पाती है।

(हे भाई! जिस जीव-स्त्री के जीवन को) विकारों ने खत्म कर दिया वह आत्मिक मौत मर गई, वह (जिंदगी में) कामयाब नहीं होती, पर जिस जीव-स्त्री को प्रभु की महिमा ने (विकारों को उदास कर दिया) मार दिया वह विकारों से बची रहेगी।

हे नानक! जिनको परमात्मा अपना नाम देता है अपनी भक्ति देता है वह (वे विकारों में भटकने की बजाय) अपने हृदय-गृह में टिके रहते हैं, (उनके अंदर) सदा ही (प्रभु-मिलाप की) चाहत बनी रहती है (वे सदा अरदास करते हैं: हे पातशाह! हमें) मिल, (हमारे अंदर से विछोड़ा डालने वाले) किवाड़ खोल दे, (तुझसे) एक घड़ी (का विछोड़ा) छह महीने (का विछोड़ा प्रतीत होता) है।12।

भाव: जिस मनुष्य को परमात्मा अपनी महिमा की दाति देता है, उसके अंदर आत्मिक जीवन की सूझ वाली रौशनी का, मानो, दीपक जल उठता है। वह मनुष्य परमात्मा की याद से एक घड़ी-पल का विछोड़ा भी सहन नहीं कर सकता।

मंघर माहु भला हरि गुण अंकि समावए ॥ गुणवंती गुण रवै मै पिरु निहचलु भावए ॥ निहचलु चतुरु सुजाणु बिधाता चंचलु जगतु सबाइआ ॥ गिआनु धिआनु गुण अंकि समाणे प्रभ भाणे ता भाइआ ॥ गीत नाद कवित कवे सुणि राम नामि दुखु भागै ॥ नानक सा धन नाह पिआरी अभ भगती पिर आगै ॥१३॥

पद्अर्थ: गुण = गुणों के कारण, महिमा के कारण। अंकि = हृदय में। हरि समावए = प्रभु आ बसता है। गुण रवै = जो (जीव-स्त्री) प्रभु के गुण याद करती है। मै पिरु = मेरा पति, प्यारा प्रभु पति। निहचलु = सदा कायम रहने वाला। भावए = (उसको) प्यारा लगता है। बिधाता = विधाता, निर्माता। चंचलु = नाशवान। सबाइआ = सारा। गिआनु = प्रभु के साथ जान पहचान। धिआनु = तवज्जो का टिकाव। गुण = प्रभु की महिमा। प्रभ भाणे = जब प्रभु की रजा हुई। ता = तब। गीत नाद कवित कवे = प्रभु की महिमा के गीत वाणी काव्य। सुणि = सुन के। नामि = नाम में (जुड़ने से)। नाह पिआरी = पति प्रभु को प्यारी। अभ = हृदय। नाह = नाथ, पति। अभ भगती = दिली प्यार।

अर्थ: प्रभु की महिमा की इनायत से जिस जीव-स्त्री के हृदय में प्रभु आ बसता है, उसको माघ का महीना अच्छा लगता है।

और सारा जगत तो नाशवान है, एक विधाता ही जो चतुर है समझदार है, सदा कायम रहने वाला है। ये सदा-स्थिर प्यारा प्रभु-पति उस गुणों वाली जीव-स्त्री को प्यारा लगता है जो उसके गुण चेते करती रहती है। उसको प्रभु के साथ गहरी सांझ प्राप्त होती है, उसकी तवज्जो प्रभु-चरणों में टिकती है, प्रभु के गुण उसके हृदय में आ बसते हैं; प्रभु की रज़ा के अनुसार यह सब कुछ उस जीव-स्त्री को अच्छा लगने लग जाता है।

प्रभु की महिमा के गीत वाणी कावि सुन-सुन के प्रभु के नाम में (जुड़ के) उसका और सारा दुख दूर हो जाता है।

हे नानक! वह जीव-स्त्री प्रभु-पति को प्यारी हो जाती है, वह अपना दिली प्यार प्रभु के आगे (भेट) पेश करती है।13

भाव: जो मनुष्य परमात्मा की महिमा में टिका रहता है, परमात्मा के साथ उसकी पक्की प्यार की गाँठ बँध जाती है। जगत का कोई भी दुख उस पर अपना जोर नहीं डाल सकता।

पोखि तुखारु पड़ै वणु त्रिणु रसु सोखै ॥ आवत की नाही मनि तनि वसहि मुखे ॥ मनि तनि रवि रहिआ जगजीवनु गुर सबदी रंगु माणी ॥ अंडज जेरज सेतज उतभुज घटि घटि जोति समाणी ॥ दरसनु देहु दइआपति दाते गति पावउ मति देहो ॥ नानक रंगि रवै रसि रसीआ हरि सिउ प्रीति सनेहो ॥१४॥

पद्अर्थ: पोखि = पोह (के महीने) में। तुखारु = कक्कर, कोहरा। रसु = नमी। सोखै = सुखा देता है। वसहि = तू बसता। मुखे = मुख में। जग जीवनु = जगत का जीवन, जगत का आसरा। माणी = माणता है। अंडज = अंडे से पैदा होने वाले जीव। जेरज = जियोर से पैदा होने वाले। सेतज = पसीने सें पैदा होने वाले। उतभुज = धरती में से उगने वाले। घटि घटि = हरेक घट में। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। पावउ = मैं पा लूँ, प्राप्त कर लूँ। मति = अकल। रंगि = प्यार में। रसि = रस से, आनंद से। रसीआ = प्रेमी। सनेहो = प्यार।

अर्थ: पोह (के महीने) में कोहरा पड़ता है, वह वन के घास को (हरेक वण-तृण पौधे के) रस को सुखा देता है (प्रभु की याद भुलाने से जिस मनुष्य के अंदर कोरापन जोर डालता है, वह उसके जीवन में से प्रेम-रस सुखा देता है)। हे प्रभु! तू आ के मेरे मन में मेरे तन में मेरे मुँह में क्यों नहीं बसता? (ताकि मेरा जीवन रूखा ना हो जाए)।

जिस जीव के मन में तन में सारे जगत का आसरा प्रभु आ बसता है, वह गुरु के शब्द में जुड़ के प्रभु के मिलाप का आनंद लेता है। उसको चारों खाणियों के जीवों में हरेक घट में प्रभु की ही ज्योति समाई दिखती है।

हे दयालु दातार! मुझे अपना दर्शन दे, मुझे (उत्तम) बुद्धि दे, (जिसके वजह से) मैं ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर सकूँ (और तुझे हर जगह देख सकूँ)।

हे नानक! जिस मनुष्य की प्रीति जिसका प्यार परमात्मा से बन जाता है, वह प्रेमी प्रभु के प्यार में (जुड़ के) उस के गुण आनंद से याद करता है।14।

भाव: परमात्मा की याद भुलाने से मनुष्य के अंदर कोरा-पन प्रभाव डाल देता है, वह कोरा-पन उसके जीवन में से प्रेम-रस को सुखा देता है। परमात्मा की महिमा ही मनुष्य के अंदर ऊँची आत्मिक अवस्था पैदा करती है और कायम रखती है।

माघि पुनीत भई तीरथु अंतरि जानिआ ॥ साजन सहजि मिले गुण गहि अंकि समानिआ ॥ प्रीतम गुण अंके सुणि प्रभ बंके तुधु भावा सरि नावा ॥ गंग जमुन तह बेणी संगम सात समुंद समावा ॥ पुंन दान पूजा परमेसुर जुगि जुगि एको जाता ॥ नानक माघि महा रसु हरि जपि अठसठि तीरथ नाता ॥१५॥

पद्अर्थ: माघि = माघ (महीने) में। पुनीत = पवित्र। तीरथु = पवित्र स्थान (विशेष तौर पर वह) जो किसी नदी आदि के नजदीक हो। अंतरि = हृदय में। जानिआ = पहचान लिया, पा लिया। सहजि = सहज में, अडोल अवस्था में। गहि = ग्रहण करके। अंके = अंक में, हृदय में। सुणि = (तेरे गुण) सुन के। बंके = सुंदर। सरि = सरोवर में, तीर्थ पर। नावा = नहाऊँ, स्नान कर लेता हूँ। तह = उस आत्मिक अवस्था में। बेणी संगम = त्रिवेणी, गंगा यमुना सरस्वती तीनों पवित्र नदियों का मिलाप स्थान। जपि = जप के। जाता = गहरी सांझ डाल ली।

अर्थ: माघ (महीने) में (लोग प्रयाग आदि तीरथ पर स्नान करने में पवित्रता मानते हैं पर) जिस जीव ने अपने हृदय में ही तीर्थ पहचान लिया है उसकी जीवात्मा पवित्र हो जाती है। जो जीव परमात्मा के गुण अपने हृदय में बसा के उसके चरणों में लीन होता है, वह अडोल अवस्था में टिक जाता है जहाँ उसको सज्जन प्रभु मिल जाता है।

हे सोहाने प्रीतम प्रभु! अगर तेरे गुण मैं अपने दिल में बसा के तेरी महिमा सुन के तुझे अच्छा लगने लग जाऊँ, तो मैंने तीर्थ पर स्नान कर लिया (समझता हूँ)। तेरे चरणों में लीनता वाली अवस्था ही गंगा यमुना व सरस्वती तीनों नदियों के मिलाप की जगह है त्रिवेणी है, वहीं मैं सातों समुंदर समाए हुए मानता हूँ।

जिस मनुष्य ने हरेक युग में व्यापक परमेश्वर के साथ सांझ डाल ली उसने (तीर्थ-स्नान आदिक) सारे पून्य कर्म दान और पूजा कर्म कर लिए।

हे नानक! माघ महीने में (तीर्थ-स्नान आदि की जगह) जिसने प्रभु का नाम स्मरण करके प्रभु-नाम का महा रस पी लिया, उसने अढ़सठ ही तीर्थों का स्नान कर लिया।15।

भाव: माघी वाले दिन लोग प्रयाग आदि तीर्थ पर स्नान करने में पवित्रता मानते हैं। पर परमात्मा की महिमा हृदय में बसानी ही अढ़सठ तीर्थों का स्नान है।

फलगुनि मनि रहसी प्रेमु सुभाइआ ॥ अनदिनु रहसु भइआ आपु गवाइआ ॥ मन मोहु चुकाइआ जा तिसु भाइआ करि किरपा घरि आओ ॥ बहुते वेस करी पिर बाझहु महली लहा न थाओ ॥ हार डोर रस पाट पट्मबर पिरि लोड़ी सीगारी ॥ नानक मेलि लई गुरि अपणै घरि वरु पाइआ नारी ॥१६॥

पद्अर्थ: मनि = मन में। रहसी = खुश हुई, खिल उठी। सुभाइआ = अच्छा लगा। अनदिनु = हर रोज। रहसु = आनंद, खिलना। आपु = स्वै भाव। मन मोहु = मन का मोह, मन (में पैदा हुई माया) का मोह। तिसु = उस (प्रभु) को। आओ = आगमन, निवास। घरि = हृदय घर। करी = मैं करती हूँ। महली = प्रभु के घर में, प्रभु के चरणों में। लहा न = मैं नहीं ढूँढ सकती। थाओ = जगह। पाट पटंबर = पट पट अंबर, रेशम के कपड़े। पिरि = पिर ने। लोड़ी = लोड़ ली, पसंद कर ली। गुरि अपणै = अपने गुरु के द्वारा। घरि = हृदय घर में। वरु = पति प्रभु।

अर्थ: (सर्दी ऋतु की कड़ाके की ठंड के बाद बहार के फिरने पर) फागुन के महीने में (लोग होलियों के रंग-तमाशों द्वारा खुशियां मनाते हैं, पर जिस जीव-स्त्री को अपने मन में) प्रभु का प्यार मीठा लगा, उसके मन में असल आनंद पैदा हुआ है; जिसने स्वै भाव गवाया है, उसके अंदर हर वक्त ही आनंद बना रहता है।

(पर, स्वै-भाव गवाना कोई आसान खेल नहीं है) जब प्रभु स्वयं ही मेहर करता है, तो जीव अपने मन में से माया का मोह खत्म करता है, प्रभु भी मेहर करके उसके हृदय-घर में आ प्रवेश करता है।

प्रभु-मिलाप के बिना ही मैंने बहुत सारे (धार्मिक) श्रृंगार (बाहर से दिखाई देते धार्मिक कर्म) किए, पर उसके चरणों में मुझे ठिकाना ना मिला। हाँ, जिसको प्रभु-पति ने पसंद कर लिया, वह सारे हार-श्रृंगारों रेशमी कपड़ों से श्रृंगारी गई।

हे नानक! जिस जीव-स्त्री को प्रभु-पति ने अपने गुरु के माध्यम से (अपने साथ) मिला लिया, उसको हृदय-घर में ही पति-प्रभु मिल गया।16।

भाव: जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ के महिमा के द्वारा अपने अंदर से स्वै भाव दूर करता है, उसको अपन-अंदर-बसता परमात्मा मिल जाता है। पर यह स्वै भाव दूर करना कोई आसान खेल नहीं, वह ही दूर करता है जिस पर परमात्मा मेहर करे।

बे दस माह रुती थिती वार भले ॥ घड़ी मूरत पल साचे आए सहजि मिले ॥ प्रभ मिले पिआरे कारज सारे करता सभ बिधि जाणै ॥ जिनि सीगारी तिसहि पिआरी मेलु भइआ रंगु माणै ॥ घरि सेज सुहावी जा पिरि रावी गुरमुखि मसतकि भागो ॥ नानक अहिनिसि रावै प्रीतमु हरि वरु थिरु सोहागो ॥१७॥१॥

पद्अर्थ: बे = दो। बे दस = दो और दस, बारह। बे दस माह = बारह ही महीने। रुती = ऋतुएं। थिती = तिथियां (चंद्रमा के बढ़ने घटने से एकम, दूज, तीज आदिक)। वार = दिन। भले = भाग्यशाली, सुलक्षणे, अच्छे। मूरत = महूरत। साचे = सदा स्थिर प्रभु जी (आदर वास्ते बहुवचन)। आए = आ के। सहजि = अडोल आत्मिक अवस्था में, अडोल हुए हृदय में। सारे = सिरे चढ़ गए, सफल हो गए। बिधि = जुगति, ढंग। जिनि = जिस (प्रभु) ने। सीगारी = सँवार दी, मन पवित्र कर दिया। तिसहि = उसी (प्रभु) को। रंगु = आत्मिक आनंद। घरि = हृदय में। पिरि = पिर ने। रावी = मिला ली। मसतकि = माथे पर। अहि = दिन। निसि = रात। थिरु = स्थिर, सदा कायम। सोहागो = अच्छे भाग्य।

अर्थ: जिस जीव-स्त्री के अडोल हुए हृदय में सदा-स्थिर रहने वाला परमात्मा आ टिकता है, उसको ही बारह ही महीने, सारी ऋतुएं, सारी तिथियां, सारे दिन, सारी घड़ियां, सारे महूरत और पल भाग्यशाली लगते हैं (उसको किसी संगरांद अमावस्या आदि की ही पवित्रता का भ्रम-भुलेखा नहीं रहता)।

(वह जीव-स्त्री किसी काम को आरम्भ करने के लिए कोई खास महूरत नहीं तलाशती, उसको यह यकीन होता है कि) जब प्यारा प्रभु मिल जाए (भाव, परमात्मा का आसरा लेने से) सब काम रास आ जाते हैं, कर्तार ही (सफलता देने की) सारी विधियाँ जानता है। (पर यह सिदक-श्रद्धा का आत्मि्क सोहज परमात्मा स्वयं ही देता है) प्रभु ने स्वयं ही जीव-स्त्री की आत्मा को सँवारना है, और स्वयं ही उसको प्यार करना है। (उसकी मेहर से ही) जीव-स्त्री का प्रभु-पति के साथ मेल होता है, और वह आत्मिक आनंद पाती है।

गुरु के द्वारा जिस जीव-स्त्री के माथे का लेख उघड़ा, (उसके अनुसार) जब प्रभु-पति ने उसको अपने चरणों के साथ जोड़ा, उसकी हृदय-सेज सुंदर हो गई है। हे नानक! उस सोभाग्यवती जीव-स्त्री को प्रीतम-प्रभु दिन-रात मिला रहता है, प्रभु-पति उसका सदा के लिए कायम रहने वाला सोहाग बन जाता है।17।1।

भाव: जो मनुष्य परमात्मा की महिमा को अपनी जिंदगी का आसरा बनाता है, उसको किसी संग्रांद मसिया आदि की खास पवित्रता का भ्रम-भुलेखा नहीं रहता। वह मनुष्य किसी काम को आरम्भ करने के लिए कोई खास महूरत वगैरह नहीं तलाशता, उसे दृढ़ विश्वास हो जाता है कि परमात्मा का आसरा लेने से सारे काम स्वत: ही रास आ जाते हैं।&&&

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh