श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मिलि आए नगर महा जना गुर सतिगुर ओट गही ॥ गुरु सतिगुरु गुरु गोविदु पुछि सिम्रिति कीता सही ॥ सिम्रिति सासत्र सभनी सही कीता सुकि प्रहिलादि स्रीरामि करि गुर गोविदु धिआइआ ॥ देही नगरि कोटि पंच चोर वटवारे तिन का थाउ थेहु गवाइआ ॥ कीरतन पुराण नित पुंन होवहि गुर बचनि नानकि हरि भगति लही ॥ मिलि आए नगर महा जना गुर सतिगुर ओट गही ॥६॥४॥१०॥

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। महा जना = बड़े लोग, मुखिया लोग। नगर महा जना = नगर के मुखिया लोग। ओट = शरण। गही = पकड़ी। पुछि = (गुरु को) पूछ के। सही कीता = निर्णय निकाला। गुरु सतिगुरु गुरु गोविंद सिम्रिति = गुरु सतिगुरु को, गुरु गोविंद का (हृदय में बसाना ही) असल समृति है।

सभनी = सारे महान व्यक्तियों ने। सुकि = सुकदेव ने। प्रहिलादि = प्रहलाद ने। स्री रामि = श्री राम (चंद्र) ने। करि = कर के, कह कह के। करि गुर गोविदु = ‘गुर गोविंद’ उचार उचार के। देही = शरीर। देही नगरि = शरीर नगर में। देही कोटि = शरीर किले में। वटवारे = राह मार, डाकू। थाउ थेहु = सारा ही निशान।

कीरतन नित होवहि = नित्य कीर्तन हो रहे हैं, हर वक्त कीर्तन होने लग जाएं। गुर बचनि = गुरु के उपदेश से। नानकि = (गुरु) नानक से। लही = पा ली, ढूँढ ली।6।

अर्थ: हे भाई! नगर के मुखी जन मिल के (गुरु अमरदास जी के पास) आए। (उन्होंने) गुरु की ओट ली, सतिगुरु का पल्ला पकड़ा। (गुरु से) पूछ के उन पाँचों ने ये निर्णय कर लिया कि ‘गुरु सतिगुरु’ ‘गुरु गोविंद’ को (हृदय में बसाना ही असल) स्मृति है।

हे भाई! उन सारे महा जनों (मुखिया जनों) ने (गुरु से पूछ कर) ये निर्णय कर लिया (कि जैसे) सुक देव ने प्रहलाद ने श्री राम चंद्र ने ‘गोविंद, गोविंद’ कह: कह के ‘गुर गोविंद’ का नाम स्मरण किया था (वैसे ही गुर गोविंद को स्मरणा ही असल) स्मृतियाँ और शास्त्र हैं। (उन सुकदेव, प्रहलाद श्रीराम ने) शरीर-नगर में बसने वाले शरीर-किले में बसने वाले (कामादिक) पांच चोरों को पाँच डाकुओं को (मार के) उनका (अपने अंदर से) निशान ही मिटा दिया था।

हे भाई! (नगर के पँचों ने गुरु) नानक के द्वारा गुरु के उपदेश के द्वारा परमात्मा की भक्ति करने की दाति हासिल कर ली। (नगर में) सदा कीर्तन होने लग पड़े- (यही उन मुखी जनों के लिए) पुराणों के पाठ और पुण्य-दान (हो गए)।

हे भाई! नगर मुखिया मनुष्य मिल के (गुरु अमरदास जी के पास) आए। (उन्होंने) गुरु की ओट ली, (उन्होंने) सतिगुरु का पल्ला पकड़ा।6।4।10।

छंत महला १--------06 शब्द
छंत महला ४--------04 शब्द
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तुखारी छंत महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

घोलि घुमाई लालना गुरि मनु दीना ॥ सुणि सबदु तुमारा मेरा मनु भीना ॥ इहु मनु भीना जिउ जल मीना लागा रंगु मुरारा ॥ कीमति कही न जाई ठाकुर तेरा महलु अपारा ॥ सगल गुणा के दाते सुआमी बिनउ सुनहु इक दीना ॥ देहु दरसु नानक बलिहारी जीअड़ा बलि बलि कीना ॥१॥

पद्अर्थ: घोलि = मैं सदके। घुमाई = मैं वारने। लालना = हे लालन! हे सुंदर लाल! गुरि = गुरु के द्वारा। सुणि = सुन के। भीना = (नाम रस में) भीग गया है।

जल मीना = पानी की मछली (पानी के बिना जी नहीं सकती)। रंगु = प्रेम। मुरारा = हे मुरारी! (मुर+अरि = मुर दैत्य का वैरी) हे परमात्मा! ठाकुर = हे ठाकुर! हे मालिक! अपारा = अ+पार, बेअंत।

दाते = हे देने वाले! सुआमी = हे मालिक! बिनउ = विनय, विनती। बिनउ दीना = दीन की विनती। बलिहारी = कुर्बान। जीअड़ा = छोटी सी जीवात्मा। बलि बलि = कुर्बान।1।

अर्थ: हे सुंदर लाल! गुरु के द्वारा (गुरु की शरण पड़ कर) मैंने अपना (यह) मन (तुझको) दे दिया है, मैं तुझसे सदके जाता हूँ। हे लाल! तेरी महिमा की वाणी सुन के मेरा मन (तेरे नाम-रस से) भीग गया है।

हे मुरारी! (मेरा यह) मन (तेरे नाम-रस से यूँ) भीग गया है (मेरे अंदर तेरा इतना) प्यार बन गया है (कि इस नाम-जल के बिना यह मन जी ही नहीं सकता) जैसे पानी की मछली (पानी के बिना नहीं रह सकती)। हे मेरे मालिक! तेरा मूल्य नहीं आँका जा सकता (तू किसी दुनियावी पदार्थ के बदले में नहीं मिल सकता), तेरे ठिकाने का दूसरा छोर नहीं मिल सकता।

हे सारे गुण देने वाले मालिक! मेरी गरीब की एक विनती सुन- (मुझे) नानक को अपने दर्शन बख्श, मैं तुझसे सदके हूँ, मैं अपनी यह निमाणी सी जिंद तुझ पर से वारता हूँ।1।

इहु तनु मनु तेरा सभि गुण तेरे ॥ खंनीऐ वंञा दरसन तेरे ॥ दरसन तेरे सुणि प्रभ मेरे निमख द्रिसटि पेखि जीवा ॥ अम्रित नामु सुनीजै तेरा किरपा करहि त पीवा ॥ आस पिआसी पिर कै ताई जिउ चात्रिकु बूंदेरे ॥ कहु नानक जीअड़ा बलिहारी देहु दरसु प्रभ मेरे ॥२॥

पद्अर्थ: सभि गुण = सारे गुण। वंञा = मैं (सदके) जाता हूँ। खंनीऐ वंञा = मैं टुकड़े-टुकड़े होता हूँ। प्रभ मेरे = हे मेरे प्रभु! निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। द्रिसटि = दृष्टि, निगाह। पेखि = देख के। जीवा = जीऊँ, मैं जीता हूँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। सुनीजै = सुना जाता है। करहि = अगर तू करे। त = तो। पीवा = पीऊँ, मैं पी सकता हूँ।

पिआसी = प्यासी। आस पिआसी = (प्रभु पति के दर्शनों की) आस की प्यासी। कै ताई = की खातिर। पिर कै ताई = प्रभु पति (के दर्शन) की खातिर। चात्रिकु = पपीहा। बूंदेरे = (स्वाति नक्षत्र की वर्षा की) बूँद के लिए।2।

अर्थ: हे मेरे प्रभु! (मेरा) यह शरीर तेरा (दिया हुआ है), (मेरा) यह मन तेरा (बख्शा हुआ है), सारे गुण भी तेरे ही बख्शे मिलते हैं। मैं तेरे दर्शनों से कुर्बान जाता हूँ।

हे मेरे प्रभु! (मैं) तेरे दर्शन (से सदके जाता हूँ)। आँख झपकने जितने समय के लिए ही (मेरी ओर) निगाह कर। (तुझे) देख के मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। हे प्रभु! तेरा नाम आत्मिक जीवन देने वाला सुनते हैं। अगर तू (मेरे ऊपर) मेहर करे तो ही मैं (तेरा नाम-जल) पी सकता हूँ।

हे मेरे प्रभु-पति! तेरे दर्शनों की खातिर मेरे अंदर तमन्ना पैदा हो रही है, उस चाहत की (जैसे) प्यास लगी हुई है (दर्शनों के बिना वह प्यास मिटती नहीं), जैसे पपीहा (स्वाति-नक्षत्र की वर्षा की) बूँद का इन्तजार करता रहता है। हे नानक! कह: हे मेरे प्रभु! मुझे (अपने) दर्शन दे, मैं अपनी यह जिंद तुझसे कुरबान करता हूँ।2।

तू साचा साहिबु साहु अमिता ॥ तू प्रीतमु पिआरा प्रान हित चिता ॥ प्रान सुखदाता गुरमुखि जाता सगल रंग बनि आए ॥ सोई करमु कमावै प्राणी जेहा तू फुरमाए ॥ जा कउ क्रिपा करी जगदीसुरि तिनि साधसंगि मनु जिता ॥ कहु नानक जीअड़ा बलिहारी जीउ पिंडु तउ दिता ॥३॥

पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। साहिबु = मालिक। अमिता = सीमा से परे का। प्रान हित = मेरे प्राणों का हितैषी। हित चिता = मेरे चिक्त का हितैषी मेरी जीवात्मा की हितैषी।

सुखदाता = सुख देने वाला। प्रान दाता = प्राण देने वाला। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला। जाता = पहचानता है, सांझ डालता है। सगल = सारे। रंग = आत्मिक आनंद। करमु = कर्म। फुरमाए = फरमाया, हुक्म किया होता है।

जा कउ = जिस (मनुष्य) पर। जगदीसुरि = जगत के ईश्वर को, जगत के मालिक ने। तिनि = उस (मनुष्य) ने। साध संगि = गुरु की संगति में। जिता = जीत लिया। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। तउ दिता = तेरा दिया हुआ।3।

अर्थ: हे प्रभु! तू सदा कायम रहने वाला मालिक है, तू बेअंत बड़ा शाहु है। हे प्रभु! तू (हमारा) प्रीतम है, (हमारा) प्यारा है। तू हमारे प्राणों का रक्षक है, तू हमारी जीवात्मा का रखवाला है।

हे प्रभु! तू (हमें) जिंद देने वाला है, सारे सुख देने वाला है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रह के तेरे साथ गहरी सांझ डालता है, उसके अंदर सारे आत्मिक आनंद पैदा हो जाते हैं। हे प्रभु! जिस तरह का हुक्म तूने किया होता है, जीव वही काम करता है।

हे भाई! जगत के मालिक प्रभु ने जिस मनुष्य पर मेहर की, उसने गुरु की संगति में (रह के अपने) मन को वश में कर लिया।

हे नानक! कह: (हे प्रभु! मेरी यह) निमाणी जिंद तुझसे सदके है। ये जिंद ये शरीर तेरा ही दिया हुआ है।3।

निरगुणु राखि लीआ संतन का सदका ॥ सतिगुरि ढाकि लीआ मोहि पापी पड़दा ॥ ढाकनहारे प्रभू हमारे जीअ प्रान सुखदाते ॥ अबिनासी अबिगत सुआमी पूरन पुरख बिधाते ॥ उसतति कहनु न जाइ तुमारी कउणु कहै तू कद का ॥ नानक दासु ता कै बलिहारी मिलै नामु हरि निमका ॥४॥१॥११॥

पद्अर्थ: निरगुण = गुण हीन। का सदका = की इनायत से। संतन का सदका = संतों की शरण पड़ने की इनायत से। सतिगुरि = सतिगुरु ने। मोहि पापी = मेरे पापी का।

ढाकनहारे = हे (हमारे पर्दे) ढकने की समर्थता वाले! जीअ दाते = हे जिंद देने वाले! प्रान दाते = हे प्राण देने वाले! सुखदाते = हे सुख देने वाले! अबिगत = हे अविगत! हे अदृष्ट! पूरन = हे सब गुणों से भरपूर प्रभु! पुरख = हे सर्व व्यापक! बिधाते = हे विधाता!

उसतति = स्तुति, महिमा, बड़ाई। कउणु कहै = कौन कह सकता है? कोई नहीं बता सकता। कद का = कब का? ता कै = उस (गुरु) से। निमका = निमेष मात्र, आँख झपकने जितने समय के लिए।4।

अर्थ: हे मेरे प्रभु! संत जनों की शरण पड़ने की इनायत से तूने मुझ गुणहीन को (भी विकारों से) बचा लिया है। सतिगुरु ने मुझ पापी का पर्दा ढक लिया है (मेरे पाप जग-जाहिर नहीं होने दिए)।

हे हम जीवों के मालिक! हे सब जीवों का पर्दा ढकने की समर्थता वाले! हे जिंद देने वाले! हे प्राण देने वाले! हे सुख देने वाले! हे नाश-रहित स्वामी! हे अदृष्य स्वामी! हे सब गुणों से भरपूर प्रभु! हे सर्व व्यापक! हे विधाता! तेरी स्तुति बयान नहीं की जा सकती। कोई नहीं बता सकता कि तू कब का है।

दास नानक उस (गुरु) से कुर्बान है (जिसकी कृपा से) परमात्मा का नाम आँख झपकने जितने समय में ही मिल जाता है।4।1।11।

गिनती का वेरवा:
छंत महला १--------06 शब्द
छंत महला ४--------04 शब्द
छंत महला ५--------01 शब्द
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh