श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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तन महि कामु क्रोधु हउ ममता कठिन पीर अति भारी ॥ गुरमुखि राम जपहु रसु रसना इन बिधि तरु तू तारी ॥२॥

पद्अर्थ: हउ = मैं मैं, अहंम्। मम = मेरा। ममता = मल्कियतों की चाहत। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। रसु = (स्मरण का) स्वाद। रसना = जीभ से। इन बिधि = इन तरीकों से।2।

अर्थ: हे प्राणी! तेरे शरीर में काम (जोर डाल रहा) है, क्रोध (प्रबल) है, अहंकार है, मल्कियतों की तमन्ना है, इन सबकी बहुत ज्यादा पीड़ा उठ रही है (इन विकारों में डूबने से तू कैसे बचे?)।

हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का भजन कर, जीभ से (स्मरण का) स्वाद ले। इन तरीकों से (इन विकारों के गहरे पानी में से स्मरण की) तारी लगा के पार हो जा।2।

बहरे करन अकलि भई होछी सबद सहजु नही बूझिआ ॥ जनमु पदारथु मनमुखि हारिआ बिनु गुर अंधु न सूझिआ ॥३॥

पद्अर्थ: बहरे = जिसे सुनाई ना देता हो। करन = कान। अकलि = मति, समझ। होछी = थोड़े दायरे वाली। सहजु = अडोल अवस्था, शांत रस। सबद सहजु = महिमा का शांत रस। मनमुखि = मन की ओर मुँह कर के, मन के पीछे चल के। अंधु = अंधा।3।

अर्थ: हे प्राणी! (महिमा के प्रति) तेरे कान बहरे (ही रहे), तेरी बुद्धि तुच्छ हो गई है (थोड़ी-थोड़ी बात पर आपे से बाहर हो जाना तेरा स्वभाव बन गया है), महिमा का शांत-रस तू समझ नहीं सका। अपने मन के पीछे लग के तूने कीमती मनुष्य-जन्म गवा लिया है। गुरु की शरण ना आने के कारण तू (आत्मिक जीवन के प्रति) अंधा ही रहा, तुझे (आत्मिक जीवन की) समझ ना आई।3।

रहै उदासु आस निरासा सहज धिआनि बैरागी ॥ प्रणवति नानक गुरमुखि छूटसि राम नामि लिव लागी ॥४॥२॥३॥

पद्अर्थ: उदासु = उपराम, निर्लिप। निरासा = आशाओं से निराला। सहज धिआनि = अडोलता की समाधि में। धिआनि = ध्यान में, समाधि में। बैरागी = वैरागवान, निर्मोह। छूटसि = माया की मौत से बचेगा। नामि = नाम में।4।

अर्थ: (हे प्राणी!) नानक विनती करता है (और तुझे समझाता है कि) जो मनुष्य गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलता है वह (विकारों के फंदों से) मुक्ति पा लेता है, प्रभु के नाम में उसकी तवज्जो टिकी रहती है, वह (दुनिया में विचरता हुआ भी दुनिया से) उपराम रहता है, आशाओं से निर्लिप रहता हहै, अडोलता की समाधि में टिका रह के वह (दुनिया से) निर्मोह रहता है।4।2।3।

भैरउ महला १ ॥ भूंडी चाल चरण कर खिसरे तुचा देह कुमलानी ॥ नेत्री धुंधि करन भए बहरे मनमुखि नामु न जानी ॥१॥

पद्अर्थ: भूंडी = अनुचित, बेढबी, भद्दी। कर = हाथ। खिसरे = ढीले हो गए। तुचा = त्वचा, चमड़ी। देह = शरीर (की)। नेत्री = आँखों में। करन = कान। बहरे = बोले। मनमुखि = मन के पीछे चलने वाला व्यक्ति।1।

अर्थ: (हे अंधे जीव! अब बुढ़ापे में) तेरी चाल बेढबी हो चुकी है, तेरे हाथ-पैर निढाल हो चके हैं, तेरे शरीर की चमड़ी पर झुरड़ियां पड़ रही हैं, तेरी आँखों के आगे अंधेरा होने लग पड़ा है, तेरे कान बहरे हो चुके हैं, पर अभी भी अपने मन के पीछे चल के तूने परमात्मा के नाम के साथ सांझ नहीं डाली।1।

अंधुले किआ पाइआ जगि आइ ॥ रामु रिदै नही गुर की सेवा चाले मूलु गवाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जगि = जगत में। आइ = आ के, जनम ले के। रिदै = हृदय में। मूलु = राशि-पूंजी।1। रहाउ।

अर्थ: हे (माया के मोह में) अंधे हुए जीव! तूने जगत में जन्म ले के (आत्मिक जीवन के असली लाभ के तौर पर) कुछ भी नहीं कमाया, बल्कि तूने मूल भी गवा लिया (जो पहले कोई आत्मिक जीवन था वह भी नाश कर लिया, क्योंकि) तूने परमात्मा को अपने हृदय में नहीं बसाया, और तूने गुरु द्वारा बताए हुए कर्म नहीं किए।1। रहाउ।

जिहवा रंगि नही हरि राती जब बोलै तब फीके ॥ संत जना की निंदा विआपसि पसू भए कदे होहि न नीके ॥२॥

पद्अर्थ: रंगि = रंग में, प्रेम में। राती = रंगी। फीके = खरवें। विआपसि = व्यस्त रहता है। नीके = अच्छे।2।

अर्थ: (हे अंधे जीव!) तेरी जीभ प्रभु के प्यार की याद में नहीं भीगी, जब भी बोलती है फीके बोल ही बोलती है। तू सदा भले लोगों की निंदा में व्यस्त रहता है, तेरे सारे काम पशुओं वाले होए हुए हैं, (इस तरह रहने से) ये कभी भी अच्छे नहीं हो सकेंगे।2।

अम्रित का रसु विरली पाइआ सतिगुर मेलि मिलाए ॥ जब लगु सबद भेदु नही आइआ तब लगु कालु संताए ॥३॥

पद्अर्थ: सतिगुर मेलि = गुरु की संगति में। सबद भेदु = शब्द का भेद, शब्द का रस। कालु = मौत (का डर)।3।

अर्थ: (पर जीवों के भी क्या वश?) आत्मिक जीवन देने वाले श्रेष्ठ नाम के जाप का स्वाद उन विरले लोगों को आता है जिन्हें (परमात्मा स्वयं) सतिगुरु की संगति में मिलाता है। मनुष्य को जब तक महिमा का रस नहीं आता तब तक (ये ऐसे काम करता रहता है जिनके कारण) इसको मौत का डर सताता रहता है।3।

अन को दरु घरु कबहू न जानसि एको दरु सचिआरा ॥ गुर परसादि परम पदु पाइआ नानकु कहै विचारा ॥४॥३॥४॥

पद्अर्थ: अन को = (प्रभु के बिना) किसी और का। सचिआरा = सदा कायम रहने वाले प्रभु का। परसादि = कृपा से। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। विचारा = विचार की बात।4।

अर्थ: नानक यह विचार की बात कहता है कि गुरु की कृपा से जो मनुष्य सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के दर पर ही टिका रहता है और परमात्मा के बिना किसी और का दरवाजा किसी और का घर नहीं तलाशता वह सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है।4।3।4।

भैरउ महला १ ॥ सगली रैणि सोवत गलि फाही दिनसु जंजालि गवाइआ ॥ खिनु पलु घड़ी नही प्रभु जानिआ जिनि इहु जगतु उपाइआ ॥१॥

पद्अर्थ: रैणि = रात। सोवत = कामादिक विकारों में मस्त रहता है। गलि = गले में। जंजालि = माया इकट्ठी करने के धंधे में। जानिआ = सांझ डाली। जिनि = जिस (प्रभु) ने।1।

अर्थ: हे भाई! सारी रात कामादिक विकारों की नींद में रहता है, (इन विकारों के संस्कारों के) फंदे तेरे गले में पड़ते जाते हैं। सारा दिन माया कमाने के धंधों में गुजार देता है। एक छिन एक पल एक घड़ी तू उस परमात्मा के साथ सांझ नहीं डालता जिसने यह सारा संसार पैदा किया है।1।

मन रे किउ छूटसि दुखु भारी ॥ किआ ले आवसि किआ ले जावसि राम जपहु गुणकारी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: दुखु = माया के मोह का दुख। किआ ले आवसि = क्या साथ ले कर आता है? खाली हाथ आता है। गुण कारी = आत्मिक गुण पैदा करने वाले।1। रहाउ।

अर्थ: हे मन! तू माया के मोह का भारी दुख सह रहा है (यदि तू प्रभु स्मरण नहीं करता तो इस दुख से) कैसे निजात पाएगा? (दिन-रात माया की खातिर भटक रहा है, बता, जब पैदा हुआ था) कौन सी माया अपने साथ ले कर आया था? यहाँ से चलने के वक्त भी कोई चीज साथ ले के नहीं जा सकेगा। परमात्मा का नाम जप, यही है आत्मिक जीवन के गुण पैदा करने वाला।1। रहाउ।

ऊंधउ कवलु मनमुख मति होछी मनि अंधै सिरि धंधा ॥ कालु बिकालु सदा सिरि तेरै बिनु नावै गलि फंधा ॥२॥

पद्अर्थ: ऊंधउ = उल्टा। कवलु = हृदय कमल। होछी = तुच्छ। मनि = मन से। मनि अंधै = अंधे मन से। धंधा = जंजाल, माया के मोह का झमेला। बिकालु = बि कालु, (मौत के उलट) जन्म।2।

अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने के कारण तेरा हृदय-कवल प्रभु की याद से उल्टा (बेमुख) होया हुआ है, तेरी समझ तुच्छ हुई पड़ी है, (माया के मोह में) अंधे हुए मन (की अगुवाई) के कारण तेरे सिर पर माया के जंजालों की गठड़ी बंधी पड़ी है। जनम-मरन (का चक्कर) सदा तेरे सिर के ऊपर टिका हुआ है। प्रभु का नाम स्मरण के बिना तेरे गले में मोह के फंदे पड़े हुए हैं।2।

डगरी चाल नेत्र फुनि अंधुले सबद सुरति नही भाई ॥ सासत्र बेद त्रै गुण है माइआ अंधुलउ धंधु कमाई ॥३॥

पद्अर्थ: डगरी = अकड़ भरी। फुनि = भी। अंधुले = (विकारों में) अंधे। नही भाई = अच्छी नहीं लगी। त्रैगुण माइआ = त्रिगुणी माया का (प्रभाव)। अंधलउ = माया में अंधा हुआ जीव। धंधु = माया की खातिर दौड़ भाग।3।

अर्थ: अकड़-भरी तेरी चाल है, तेरी आँखें भी (विकारों में) अंधी हुई पड़ी हैं, परमात्मा की महिमा की ओर ध्यान देना तुझे अच्छा नहीं लगता। वेद-शास्त्र पढ़ता हुआ भी (तू) त्रिगुणी माया के मोह में फसा हुआ है। तू (मोह में) अंधा हुआ पड़ा है, और माया की खातिर ही दौड़-भाग करता है।3।

खोइओ मूलु लाभु कह पावसि दुरमति गिआन विहूणे ॥ सबदु बीचारि राम रसु चाखिआ नानक साचि पतीणे ॥४॥४॥५॥

पद्अर्थ: मूलु = वह आत्मिक जीवन जो पहले से पल्ले था। कह = कहाँ से? बीचारि = विचार के। साचि = सदा स्थिर प्रभु (की याद) में। पतीणे = पतीजे हुए, प्रसन्न।4।

अर्थ: हे ज्ञान-हीन जीव! बुरी मति के पीछे लग के तू वह आत्मिक जीवन भी गवा बैठा है जो पहले तेरे पल्ले था (यहाँ जन्म ले कर और) आत्मिक लाभ तो तूने क्या कमाना था? हे नानक! जिस लोगों ने महिमा की वाणी को मन में बसा के प्रभु-नाम (के स्मरण) का स्वाद चखा, वह उस सदा-स्थिर प्रभु (की याद) में मस्त रहते हैं।4।4।5।

भैरउ महला १ ॥ गुर कै संगि रहै दिनु राती रामु रसनि रंगि राता ॥ अवरु न जाणसि सबदु पछाणसि अंतरि जाणि पछाता ॥१॥

पद्अर्थ: कै संगि = की संगति में। गुर कै संगि = गुरु की याद में। रसनि = रसना पर, जीभ पर। रंगि = प्रेम में। राता = रंगा हुआ, मस्त। अंतरि = अंदर बसता। जाणि = जान के, समझ के।1।

अर्थ: ऐसा दास दिन-रात गुरु की संगति में रहता है (भाव, गुरु को अपने मन में बसाए रखता है), परमात्मा (के नाम) को अपनी जीभ पर बसाए रखता है, और प्रभु के प्रेम में रंगा रहता है। वह दास सदा महिमा के साथ सांझ डालता है (निंदा आदि किसी) और (बल) को नहीं जानता, प्रभु को अपने अंदर बसता जान के उसके साथ सांझ डाले रखता है।1।

सो जनु ऐसा मै मनि भावै ॥ आपु मारि अपर्मपरि राता गुर की कार कमावै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जनु = दास। मै मनि = मेरे मन में। भावै = प्यारा लगता है। आपु = स्वै भाव। अपरंपरि = अपरंपर में, बेअंत प्रभु में, उसमें जो परे से परे है।1। रहाउ।

अर्थ: मेरे मन में तो (परमात्मा का) ऐसा दास प्यारा लगता है जो स्वैभाव (स्वार्थ) खत्म करके बेअंत प्रभु (के प्यार) में मस्त रहता है और सतिगुरु के द्वारा बताए हुए कर्म करता है (उन पद्चिन्हों पर चलता है जो सतिगुरु ने डाले हुए हैं)।1। रहाउ।

अंतरि बाहरि पुरखु निरंजनु आदि पुरखु आदेसो ॥ घट घट अंतरि सरब निरंतरि रवि रहिआ सचु वेसो ॥२॥

पद्अर्थ: पुरखु = व्यापक। निरंजनु = माया के प्रभाव से रहित प्रभु। पुरख आदेसो = व्यापक प्रभु को नमस्कार। घट = शरीर, हृदय। सरब निरंतरि = एक रस सब में। सचु वेसो = जिसका स्वरूप सदा कायम रहने वाला है।2।

अर्थ: (मुझे वह दास प्यारा लगता है जो) उस अकाल पुरख को (सदा) नमस्कार करता है जो सारे संसार का आदि है। (उस दास को परमात्मा) अंदर-बाहर हर जगह व्यापक दिखाई देता है, उस प्रभु पर माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता। (उस सेवक को) वह सदा-स्थिर प्रभु हरेक शरीर में एक-रस सब जीवों के अंदर मौजूद प्रतीत होता है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh