श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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काहे कलरा सिंचहु जनमु गवावहु ॥ काची ढहगि दिवाल काहे गचु लावहु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: काहे सिंचहु = क्यों पानी सींचते हो? पानी देने का कोई लाभ नहीं। ढहगि = ढह जाएगी। गचु = चूने का पलस्तर।1। रहाउ।

अर्थ: (हे ब्राहमण! मूर्ति और तुलसी की पूजा करके) तू अपना जनम (व्यर्थ) गवा रहा है (तेरा यह उद्यम यूँ ही है जैसे कोई किसान बंजर धरती को पानी दिए जाए, कल्लर में फसल नहीं उगेगी) तू व्यर्थ ही कल्लर को सींच रहा है। (गारे की) कच्ची दीवार (अवश्य ही) ढहि जाएगी (अंदरूनी आचरण को बिसार के तू बाहर तुलसी आदि की पूजा कर रहा है, तू तो गारे की कच्ची दीवार पर) चूने का पलस्तर व्यर्थ ही कर रहा है।1। रहाउ।

कर हरिहट माल टिंड परोवहु तिसु भीतरि मनु जोवहु ॥ अम्रितु सिंचहु भरहु किआरे तउ माली के होवहु ॥२॥

पद्अर्थ: कर = (दोनों) हाथ, हाथों से की सेवा। हरिहट = रहट। माल = माल। तिसु भीतरि = उस हाथों से की सेवा में। मनु जोवहु = (जैसे रहट के आगे बैल जोते जाते हैं, वैसे ही सेवा में) मन जोड़ो। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। माली = जगत बाग़ की पालना करने वाला प्रभु।2।

अर्थ: (किसान अपने खेत के क्यारे सींचने के लिए अपने कूँए में रहट लगवाता है, बैल जोह के कूएं को चलाता है और पानी से क्यारे भरता है, इसी तरह हे ब्राहमण!) हाथों से सेवा करने को रहट और रहट की माला और उस माला में डब्बों (टिंडों) का जोड़ बना। (हाथों से सेवा वाले घड़े की माला वाले कूँएं) में अपना मन जोह, आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल सींच के अपनी ज्ञान-इंद्रिय के क्यारे इस नाम-जल से नाको-नाक भर। तब तू इस जगत-बाग़ के पालनहार प्रभु का प्यारा बनेगा।2।

कामु क्रोधु दुइ करहु बसोले गोडहु धरती भाई ॥ जिउ गोडहु तिउ तुम्ह सुख पावहु किरतु न मेटिआ जाई ॥३॥

पद्अर्थ: बसोले = रंबे। भाई = हे भाई! किरतु = किया हुआ काम, की मेहनत। न मेटिआ जाई = व्यर्थ नहीं जाएगी।3।

अर्थ: (किसान उगी हुई खेती को खुरपी से गोडता है। फसल के हरेक पौधे को प्यार से संभाल के बचाता जाता है, और फालतू घास-बूटी नदीन को, मानो, गुस्से से बार उखाड़-उखाड़ के फेंकता जाता है, तू भी) हे भाई! अपनी शरीर-धरती को गोड़, प्यार और गुस्सा ये दो खुरपे बना (दैवी-गुणों को प्यार से बचाए रख, विकारों को गुस्से से जड़ से उखाड़ता जा)। ज्यों-ज्यों तू इस तरह गोड़ी करेगा, त्यों-त्यों आत्मिक सुख पाएगा। तेरी की हुई यह मेहनत व्यर्थ नहीं जाएगी।3।

बगुले ते फुनि हंसुला होवै जे तू करहि दइआला ॥ प्रणवति नानकु दासनि दासा दइआ करहु दइआला ॥४॥१॥९॥

पद्अर्थ: फुनि = दोबारा पलट के। प्रणवति = विनती करता है।4।

अर्थ: हे प्रभु! हे दयालु प्रभु! अगर तू मेहर करे तो (तेरी मेहर से मनुष्य पाखण्डी) बगुले से सुंदर हँस बन सकता है। तेरे दासों का दास नानक विनती करता है (और कहता है कि) हे दयालु प्रभु! मेहर कर (और बगुले से हँस करने वाला अपना नाम बख्श)।4।1।9।

नोट: अंक नंबर 1 बताता है कि ‘घरु २’ का यह पहला शब्द है।

नोट: इस शब्द के शीर्षक में दो रागों का नाम आया है: बसंत और हिंडोल। इस का भाव यह है कि इन दोनों रागों को मिला के इस शब्द का कीर्तन करना है।

नोट: पिछले 8 शब्द ‘घरु १’ में गाने हैं। अब ‘घरु २’ शुरू हुआ है।

बसंतु महला १ हिंडोल ॥ साहुरड़ी वथु सभु किछु साझी पेवकड़ै धन वखे ॥ आपि कुचजी दोसु न देऊ जाणा नाही रखे ॥१॥

पद्अर्थ: साहुरड़ी वथु = वह वस्तु जो पति प्रभु की तरफ से मिली है, आत्मिक जीवन की दाति। साझी = सबके साथ बाँटे जाने वाली। पेवकड़ै = पेके घर में, सांसारिक जीवन में। धन = स्त्री, जीव-स्त्री। वखे = अलग अलग रहने वाली, भेदभाव करने वाली। कुचजी = जिसको अच्छी जीवन जुगति नहीं आती हो। देऊ = मैं देती हूँ। जाणा नाही = मैं नहीं जानती। नाही रखे जाणा = रखि न जाणा, संभाल के रखने की मुझे विधि नहीं।1।

अर्थ: आत्मिक जीवन की दाति जो पति-प्रभु की तरफ से मिली थी वह तो सबके साथ बाँटी जा सकने वाली (सांझी) थी, पर जगत-पेके घर में रहते हुए (माया के मोह के प्रभाव तले) मैं जीव-स्त्री भेद-भाव ही सीखती रही। मैं स्वयं ही दुष्ट रही, (भाव, मैंने सुंदर जीवन-जुगति ना सीखी। इस दुष्टता में दुख सहेड़े हैं, पर) मैं किसी और पर (इन दुखों के लिए) कोई दोष नहीं लगा सकती। (पति-प्रभु द्वारा मिली आत्मिक जीवन की दाति को) संभाल के रखने की मुझे विधि नहीं आई।1।

मेरे साहिबा हउ आपे भरमि भुलाणी ॥ अखर लिखे सेई गावा अवर न जाणा बाणी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। आपे = आप ही। भरमि = भटकना में। भुलाई = मैं भूली हुई हूँ, मैं गलत रास्ते पर पड़ी हुई हूँ। अखर = पिछले किए कर्मों के संस्कार रूप लेख। सेई गावा = वही अक्षर गाऊँ, वही अक्षर मैं गाती हूँ, उन ही संस्कारों वाले काम मैं बार बार करती हूँ। बाणी = बणतर, बनावट, घाड़त। न जाणा = मैं नहीं जानती।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मालिक-प्रभु! मैं स्वयं ही (माया के मोह की) भटकना में पड़ के जीवन के सही रास्ते से भटकी हुई हूँ। (माया के मोह में फंस के जितने भी कर्म मैं जन्मों-जन्मांतरों से करती आ रही हूँ, उनके जो) संस्कार मेरे मन में उकरे हुए हैं, मैं उनको गाती चली जा रही हूँ (उनकी ही प्रेरणा से बार-बार वैसे ही कर्म करती जा रही हूँ) मैं (मन की) कोई घाड़त (घड़नी) नहीं जानती हूँ (मैं कोई ऐसा कर्म करना नहीं जानती जिनसे मेरे अंदर से माया के मोह के संस्कार समाप्त हो)।1। रहाउ।

कढि कसीदा पहिरहि चोली तां तुम्ह जाणहु नारी ॥ जे घरु राखहि बुरा न चाखहि होवहि कंत पिआरी ॥२॥

पद्अर्थ: कढि कसीदा = कसीदा काढ़ के, सुंदर चित्र बना के, शुभ गुणों के सुंदर चित्र बना के। पहिरहि = (यदि स्त्रीयां) पहनें। चोली = पटोला, प्रेम पटोला।2।

अर्थ: जो जीव-सि्त्रयाँ शुभ-गुणों के सुंदर चित्र (अपने मन में बना के) प्रेम-पटोला पहनती हैं उनको ही चतुर (सदाचारी) स्त्रियां समझो। जो सि्त्रयाँ अपने (आत्मिक जीवन का) घर संभाल के रखती हैं कोई विकार कोई बुराई नहीं चखतीं (भाव, जो बुरे रसों में प्रवृत नहीं होतीं) वे पति-प्रभु को प्यारी लगती हैं।2।

जे तूं पड़िआ पंडितु बीना दुइ अखर दुइ नावा ॥ प्रणवति नानकु एकु लंघाए जे करि सचि समावां ॥३॥२॥१०॥

पद्अर्थ: बीना = समझदार, सियाना। दुइ अखर = राम नाम, हरि नाम। नावा = नाव, बेड़ी। प्रणवति = विनती करता है। एकु = एक हरि नाम। सचि = सच में।3।

अर्थ: हे भाई! अगर तू सचमुच पढ़ा-लिखा विद्वान है समझदार है (तो यह बात पक्की तरह समझ ले कि संसार-समुंदर के विकारों के पानियों में से पार लांघने के लिए) हरि-नाम ही बेड़ी है। नानक विनती करता है कि हरि-नाम ही (संसार-समुंदर से) पार लंघाता है और मैं सदा कायम रहने वाले प्रभु के नाम में टिका रहूँ।3।2।10।

बसंतु हिंडोल महला १ ॥ राजा बालकु नगरी काची दुसटा नालि पिआरो ॥ दुइ माई दुइ बापा पड़ीअहि पंडित करहु बीचारो ॥१॥

पद्अर्थ: राजा = हुक्म चलाने वाला, मन। बालकु = अंजान। काची = कच्ची, मिट्टी आदि की बनी हुई जो बाहरी बैरियों का मुकाबला ना कर सके। दुसट = दुर्जन, बुरे। माई = माँ। दुइ माई = दो माताएं (बुद्धि और अविद्या)। दुइ बापा = दो पिता (परमात्मा और माया ग्रसित ईश्वर)। पढ़ीअहि = पढ़े जाते हैं, बताए जाते हैं। पंडित = हे पंडित!।1।

अर्थ: हे पण्डित! (अगर कोई विचार की बात करनी है तो) यह सोचो कि (शरीर-नगरी पर) राज करने वाला मन अंजान है, यह शरीर-नगर भी कच्चा है (बाहर से विकारों के हमलों का मुकाबला करने के योग्य नहीं है क्योंकि ज्ञानेन्द्रियाँ कमजोर हैं)। (फिर इस अंजान मन का) प्यार भी कामादिक बुरे साथियों के साथ ही है। इसकी माताएँ भी दो सुनी जाती हैं (बुद्धि और अविद्या), इसके पिता भी दो ही बताए जाते हैं (परमात्मा और माया ग्रसित जीवात्मा। आम तौर पर यह अंजान मन अविद्या और माया-ग्रसित जीवात्मा की बातों में आया रहता है)।1।

सुआमी पंडिता तुम्ह देहु मती ॥ किन बिधि पावउ प्रानपती ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: किन बिधि = किस तरीके से? पावउ = मैं पा सकूँ।1। रहाउ।

अर्थ: हे पंडित जी महाराज! तुम तो और ही तरह की शिक्षा दे रहे हो, (ऐसी दी हुई मति के साथ) मैं अपने प्राणों के मालिक परमात्मा को कैसे मिल सकता हूँ?।1। रहाउ।

भीतरि अगनि बनासपति मउली सागरु पंडै पाइआ ॥ चंदु सूरजु दुइ घर ही भीतरि ऐसा गिआनु न पाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: भीतरि = (बनस्पति के) अंदर। मउली = हरी भरी रहती है। सागरु = समुंदर। पंडै = पंड में। चंदु = शीतलता। सूरजु = ईश्वरीय तेज। घर ही भीतरि = हृदय घर के अंदर ही। गिआनु = समझ।2।

अर्थ: (हे पण्डित! तू तो और ही किस्म की शिक्षा दे रहा है, तेरी दी हुई शिक्षा से अंजान मन को) यह समझ नहीं आती कि शीतलता (-शांति) और ईश्वरीय-तेज दोनों मनुष्य के शरीर के अंदर मौजूद हैं। (समझ ना आ सकने का कारण यह है कि) शरीर के अंदर विकारों की आग (मची हुई है) जवानी भी लहरें ले रही है (जैसे हरी-भरी वनस्पति के अंदर आग छुपी रहती है), मायावी वासना का समुंदर इस शरीर के अंदर ठाठा मार रहा है (मानो, समुंदर एक गाँव में छुपा हुआ है। सो, शिक्षा तो वह चाहिए जो इस अंदरूनी बाढ़ को रोक सके)।2।

राम रवंता जाणीऐ इक माई भोगु करेइ ॥ ता के लखण जाणीअहि खिमा धनु संग्रहेइ ॥३॥

पद्अर्थ: रवंता = स्मरण करता। जाणीऐ = समझना चाहिए। इक माई = (दो माताओं में से) एक माँ अविद्या को। भोगु करेइ = खा जाए, खत्म कर दे। ता के लखण = उसके लक्षण, उसकी निशानियाँ। खिमा = दूसरों की ज्यादतियों को शांत-चिक्त सहने का गुण। संग्रहेइ = इकट्ठा करता है।3।

अर्थ: वही मनुष्य परमात्मा का स्मरण करता समझा जा सकता है जो (बुद्धि और अविद्या- दो माताओं में से) एक माँ (अविद्या को) समाप्त कर दे। (जो मनुष्य अविद्या माता का समाप्त कर देता है) उसके (रोजाना जीवन के) लक्षण ये दिखते हैं कि वह दूसरों की ज्यादतियाँ ठंडे-जिगर से सहने का आत्मिक धन (सदा) इकट्ठा करता है।3।

कहिआ सुणहि न खाइआ मानहि तिन्हा ही सेती वासा ॥ प्रणवति नानकु दासनि दासा खिनु तोला खिनु मासा ॥४॥३॥११॥

पद्अर्थ: कहिआ = बताई हुई नसीहत। न खाइआ मानहि = यह नहीं मानते कि हमने कुछ खाया है (भाव, सदा तृष्णालु रहते हैं, विषौ-विकारों से कभी अघाते ही नहीं)। सेती = साथ। खिनु = छिन में। मासा = तोले का बारहवाँ हिस्सा।4।

अर्थ: (हे प्रभु! तेरे) दासों का दास विनती करता है (कि इन्सानी मन बेबस है) इसका संग सदा उन (ज्ञान-इंद्रिय) के साथ रहता है जो कोई शिक्षा सुनते ही नहीं हैं और जो विषौ-विकारों से कभी तृप्त भी नहीं होते। (यही कारण है कि यह मन) कभी तोला हो जाता है, कभी मासा रह जाता है (कभी मुकाबला करने की हिम्मत करता है और कभी घबरा जाता है)।4।3।11।

नोट: मन में दो किस्म के संस्कार मौजूद हैं, भले भी और बुरे भी। भले संस्कार उन कर्मों का नतीजा होते हैं जो मनुष्य श्रेष्ठ बुद्धि की अगुवाई में करता है। बुरे कर्म अविद्या अधीन रहने से होते हैं। इसलिए बुद्धि और अविद्या मन की दो माताएं हैं।

बसंतु हिंडोल महला १ ॥ साचा साहु गुरू सुखदाता हरि मेले भुख गवाए ॥ करि किरपा हरि भगति द्रिड़ाए अनदिनु हरि गुण गाए ॥१॥

पद्अर्थ: साहु = शाहु, वह धनी जो और व्यापारियों को वणज-व्यापार करने के लिए राशि-पूंजी देता है। साचा = सदा कायम रहने वाला, सदा ही धनाढ टिके रहने वाला। भुख = माया का लालच। गवाए = दूर करता है। करि = कर के। द्रिढ़ाए = (मन में) पक्का कर देता है। अनदिनु = हर रोज।1।

अर्थ: गुरु ऐसा शाहु है जिसके पास प्रभु के नाम का धन सदा ही टिका रहता है, (इस वास्ते) गुरु सुख देने के समर्थ है, गुरु प्रभु के साथ मिला देता है, और माया इकट्ठी करने की भूख मनुष्य के मन में से निकाल देता है। गुरु मेहर करके (शरण आए सिख के मन में) प्रभु को मिलने की तमन्ना पक्की कर देता है (क्योंकि गुरु स्वयं) हर वक्त परमात्मा की महिमा करता रहता है (अपनी तवज्जो सदा प्रभु की महिमा में टिकाए रखता है)।1।

मत भूलहि रे मन चेति हरी ॥ बिनु गुर मुकति नाही त्रै लोई गुरमुखि पाईऐ नामु हरी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मत भूलहि = कहीं भुला ना देना। चेति = याद कर, स्मरण कर। मुकति = माया की लालच से खलासी। त्रै लोई = तीनों ही लोकों में, सारी ही सृष्टि में कहीं भी। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। नामु हरी = हरि का नाम।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा को (सदा) याद रख। (देखना, माया की भूख में फंस के) कहीं (उसको) भुला ना देना। (पर) गुरु की शरण पड़ने से ही परमात्मा का नाम मिलता है, गुरु की शरण पड़े बिना माया की भूख से खलासी नहीं हो सकती (भले ही) तीनों लोकों में ही (दौड़-भाग कर के देख ले), (इस वास्ते, हे मन! गुरु का पल्ला पकड़)।1। रहाउ।

बिनु भगती नही सतिगुरु पाईऐ बिनु भागा नही भगति हरी ॥ बिनु भागा सतसंगु न पाईऐ करमि मिलै हरि नामु हरी ॥२॥

पद्अर्थ: भगती = लगन, दिली आकर्षण, श्रद्धा। भगति हरी = प्रभु को मिलने की तमन्ना। सत्संगु = भले लोगों की संगति। करमि = (प्रभु की) मेहर से।2।

अर्थ: दिली-आकर्षण के बिना सतिगुरु भी नहीं मिलता (भाव, गुरु की कद्र नहीं पाई जा सकती), और भाग्यों के बिना (पिछले संस्कारों की राशि-पूंजी के बिना) प्रभु को मिलने की तमन्ना (मन में) नहीं उपजती। (पिछले संस्कारों की राशि-पूंजी वाले) भाग्यों के बिना गुरमुखों की संगति नहीं मिलती (भाव, सत्संग की कद्र नहीं पड़ सकती), प्रभु की अपनी मेहर के साथ ही उसका नाम प्राप्त होता है।2।

घटि घटि गुपतु उपाए वेखै परगटु गुरमुखि संत जना ॥ हरि हरि करहि सु हरि रंगि भीने हरि जलु अम्रित नामु मना ॥३॥

पद्अर्थ: घटि = घट में, शरीर में। घटि घटि = हरेक शरीर में। उपाए = पैदा करता है। वेखै = संभाल करता है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। करहि = करते हैं। सु = वह बंदे। रंगि = रंग में, प्यार में। भीने = भीगे हुए, मस्त। मना = मनि, (उनके) मन में।3।

अर्थ: जो प्रभु स्वयं सारी सृष्टि पैदा करता है और उसकी संभाल करता है, वह हरेक शरीर में छुपा बैठा है, गुरु की शरण पड़ने वाले संत-जनों को वह हर जगह प्रत्यक्ष दिखाई देने लग जाता है। वह संत जन सदा प्रभु का नाम जपते हैं, और उसके प्यार-रंग में मस्त रहते हैं, उनके मन में प्रभु का आत्मिक जिंदगी देने वाला नाम-जल सदा बसता रहता है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh