श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कलिआन महला ४ ॥ मेरे मन जपु जपि जगंनाथे ॥ गुर उपदेसि हरि नामु धिआइओ सभि किलबिख दुख लाथे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! जपु जगंनथे = जगत के नाथ (के नाम) का जाप। जपि = जपा कर। उरदेसि = उपदेश से। सभि = सारे। किलबिख = पाप। दुख = (सारे) दुख।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! जगत के नाथ (के नाम) का जाप जपा कर। (जिस मनुष्य ने) गुरु के उपदेश से परमात्मा का नाम स्मरण किया, उसके सारे पाप सारे दुख दूर हो गए।1। रहाउ।

रसना एक जसु गाइ न साकै बहु कीजै बहु रसुनथे ॥ बार बार खिनु पल सभि गावहि गुन कहि न सकहि प्रभ तुमनथे ॥१॥

पद्अर्थ: रसना = जीभ। जसु = गुण, महिमा। कीजै = बना दे। बहु रसुनथे = बहुत सारी रसनाओं के नाथ, बहुत सारी जीभों वाले। बार बार = दोबारा दोबारा। सभि = सारे (जीव)। गावहि = गाते हैं (बहुवचन)। प्रभ = हे प्रभु! तुमनथे = तेरे।1।

अर्थ: हे प्रभु! (मनुष्य की) एक जीभ (तेरा) यश (पूरे तौर पर) गा नहीं सकती, (इसको) बहुत जीभों वाला बना दे। हे प्रभु! सारे जीव बार-बार हरेक पल तेरे गुण गाते हैं, पर तेरे (सारे) गुण बयान नहीं कर सकते।1।

हम बहु प्रीति लगी प्रभ सुआमी हम लोचह प्रभु दिखनथे ॥ तुम बड दाते जीअ जीअन के तुम जानहु हम बिरथे ॥२॥

पद्अर्थ: हम लोचह = हम तमन्ना करते हैं। दिखनथे = देखने के लिए। जीअ के दाते = जिंद के दाते। जीअन के दाते = सारे जीवों के दाते। बिरथे = (व्यथा) दिल की पीड़ा।2।

अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभु! मेरे अंदर तेरे प्रति बहुत सारी प्रीति पैदा हो चुकी है; मैं तुझे देखने की तमन्ना रखता हूँ। हे प्रभु! तू सारे जीवों को जिंद देने वाला है, तू ही हम जीवों के दिल की पीड़ा जानता है।2।

कोई मारगु पंथु बतावै प्रभ का कहु तिन कउ किआ दिनथे ॥ सभु तनु मनु अरपउ अरपि अरापउ कोई मेलै प्रभ मिलथे ॥३॥

पद्अर्थ: मारगु = रास्ता। पंथु = रास्ता। तिन कउ = उन (संत जनों) को। किआ दिनथे = क्या दिया जाए? अरपउ = अर्पित करूँ, मैं भेटा कर दूँ। अरपि = भेटा कर के। अरापउ = अर्पित करूँ, भेटा कर दूँ। प्रभ मिलबे = प्रभु को मिला हुआ।3।

अर्थ: हे भाई! अगर कोई (संत जन मुझे) प्रभु (के मिलाप) का रास्ता बता दे, तो ऐसे (संत-) जनों को क्या देना चाहिए? अगर प्रभु को मिला हुआ कोई प्यारा मुझे प्रभु से मिला दे तो मैं तो अपना सारा तन सारा मन सदा के लिए भेट कर दूँ।3।

हरि के गुन बहुत बहुत बहु सोभा हम तुछ करि करि बरनथे ॥ हमरी मति वसगति प्रभ तुमरै जन नानक के प्रभ समरथे ॥४॥३॥

पद्अर्थ: तुछ = बहुत कम। करि = कर के। हम बरनथे = हम जीव बयान करते हैं। वसगति = वश में। प्रभ = हे प्रभु! समरथे = सब ताकतों के मालिक।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के गुण बहुत ही बेअंत हैं, बहुत बेअंत हैं, हम जीव बहुत ही कम बयान करते हैं (पर जीवों के वश की बात नहीं है)। हे दास नानक के समर्थ प्रभु! हम जीवों की मति तेरे वश में है (जितनी मति तू देता है उतनी ही तेरी शोभा हम बयान कर सकते हैं)।4।3।

कलिआन महला ४ ॥ मेरे मन जपि हरि गुन अकथ सुनथई ॥ धरमु अरथु सभु कामु मोखु है जन पीछै लगि फिरथई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! जपि = जपा कर। अकथ = अ+कथ, जिसके सारे गुण बयान ना किए जा सकें। सुनथई = सुना जाता है। सभु = सारे का सारा। लगि = लग के। जन पीछे = भक्त के पीछे। फिरथई = फिरता।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! उस परमात्मा के गुण याद किया कर जो अकथ सुना जा रहा है। धर्म अर्थ काम मोक्ष- (यही है) सारा (मनुष्य का उद्देश्य, पर इनमें से हरेक ही परमात्मा के) भक्त के पीछे-पीछे लगा फिरता है।1। रहाउ।

सो हरि हरि नामु धिआवै हरि जनु जिसु बडभाग मथई ॥ जह दरगहि प्रभु लेखा मागै तह छुटै नामु धिआइथई ॥१॥

पद्अर्थ: धिआवै = स्मरण करता है। जिसु मथई = जिसके माथे पर। जह = जहाँ। मागै = मांगता है (एकवचन)। छुटै = आजाद होता है। धिआइथई = स्मरण करके।1।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के माथे पर बड़े भाग्य (जाग उठते) हैं, वह भक्त-जन परमात्मा का नाम सदा स्मरण करता है। जहाँ (अपनी) दरगाह में परमात्मा (मनुष्य के किए कर्मों का) लेखा माँगता है परमात्मा का नाम स्मरण करके ही वहाँ मनुष्य सुर्ख-रू होता है।1।

हमरे दोख बहु जनम जनम के दुखु हउमै मैलु लगथई ॥ गुरि धारि क्रिपा हरि जलि नावाए सभ किलबिख पाप गथई ॥२॥

पद्अर्थ: दोख = ऐब, पाप। जनम जनम के = अनेक जन्मों के। लगथई = लगा रहता है। गुरि = गुरु ने। हरि जलि = हरि नाम जल में। नावाए = स्नान कराया। किलबिख = पाप। गथई = दूर हो गया।2।

अर्थ: हम जीवों के (अंदर) अनेकों जन्मों के ऐब इकट्ठे हुए पड़े हैं, (हमारे भीतर) दुख (बना रहता है), अहंकार की गंदगी लगी रहती है। (जिन भाग्यशाली लोगों को) गुरु ने कृपा करके प्रभु-नाम-जल में स्नान करा दिया, (उनके भीतर से) पापों-विकारों की सारी (मैल) दूर हो गई।2।

जन कै रिद अंतरि प्रभु सुआमी जन हरि हरि नामु भजथई ॥ जह अंती अउसरु आइ बनतु है तह राखै नामु साथई ॥३॥

पद्अर्थ: रिद = हृदय। कै रिद अंतरि = के दिल में। भजथई = भजता है, भजन करता है, स्मरण करता है। अउसरु = अवसर, मौका। अंती = आखिरी। तह = वहाँ। साथई = साथी (बन के)।3।

अर्थ: हे भाई! भक्त-जनों के हृदय में मालिक-प्रभु बसा रहता है, भक्त-जनों ने सदा परमात्मा का नाम जपा है। जहाँ आखिरी वक्त आ बनता है, वहाँ परमात्मा का नाम साथी (बन के) रक्षा करता है।3।

जन तेरा जसु गावहि हरि हरि प्रभ हरि जपिओ जगंनथई ॥ जन नानक के प्रभ राखे सुआमी हम पाथर रखु बुडथई ॥४॥४॥

पद्अर्थ: गावहि = गाते हैं। हरि हरि = हे हरि! जगंनथई = जगंनाथ, जगत का नाथ। प्रभ = हे प्रभु! राखे सुआमी = हे रक्षा करने वाले स्वामी! रखु = रक्षा कर। बुडथई = डूबते हुओं को।4।

अर्थ: हे हरि! (तेरे) भक्त तेरा यश (सदा) गाते रहते हैं। हे जगत के नाथ प्रभु! (तेरे भक्तों ने) सदा तेरा नाम जपा है। हे दास नानक के रखवाले मालिक प्रभु! हम पत्थरों (की तरह) डूबते जीवों की रक्षा कर।4।4।

कलिआन महला ४ ॥ हमरी चितवनी हरि प्रभु जानै ॥ अउरु कोई निंद करै हरि जन की प्रभु ता का कहिआ इकु तिलु नही मानै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: चितवनी = सोच, भावनी। जानै = जानता है (एकवचन)। अउरु कोई = कोई और मनुष्य। कहिआ = कहा हुआ। इकु तिलु = रक्ती भर भी। मानै = मानता।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! हम जीवों की (हरेक) भावनी को परमात्मा (स्वयं) जानता है। अगर कोई और (निंदक मनुष्य) परमात्मा के भक्त की निंदा करता हो, परमात्मा उसका कहा हुआ (निंदा का वचन) रक्ती भर भी नहीं मानता।1। रहाउ।

अउर सभ तिआगि सेवा करि अचुत जो सभ ते ऊच ठाकुरु भगवानै ॥ हरि सेवा ते कालु जोहि न साकै चरनी आइ पवै हरि जानै ॥१॥

पद्अर्थ: तिआगि = त्याग के, छोड़ के। अचुत = (अ+च्युत) अविनाशी। सभ ते ऊच = सबसे ऊँचा। सेवा ते = सेवा भक्ति से। कालु = मौत, आत्मिक मौत। जोहि न सकै = देख नहीं सकती। हरि जानै चरनी = जन जन के चरणों पर।1।

अर्थ: हे भाई! और हरेक (उम्मीद) छोड़ के उस अविनाशी परमात्मा की भक्ति किया कर, जो सब से ऊँचा मालिक भगवान है। हे भाई! परमात्मा की सेवा-भक्ति की इनायत से आत्मिक मौत (भक्त की ओर) देख भी नहीं सकती, वह तो भक्त के चरणों में आ गिरती है (भक्त के अधीन हो जाती है)।1।

जा कउ राखि लेइ मेरा सुआमी ता कउ सुमति देइ पै कानै ॥ ता कउ कोई अपरि न साकै जा की भगति मेरा प्रभु मानै ॥२॥

पद्अर्थ: कउ = को। राखि लेइ = रख लेता है। देइ = देता है। पै काने = कान में, बड़े ध्यान से। अपरि न साकै = बराबरी नहीं कर सकता। मानै = स्वीकार करता है।2।

अर्थ: हे भाई! प्यारा मालिक-प्रभु जिस मनुष्य की रक्षा करता है, उसको प्यार से ध्यान से श्रेष्ठ मति बख्शता है। हे भाई! परमात्मा जिस मनुष्य की भक्ति स्वीकार कर लेता है, कोई और मनुष्य उसकी बराबरी नहीं कर सकता।2।

हरि के चोज विडान देखु जन जो खोटा खरा इक निमख पछानै ॥ ता ते जन कउ अनदु भइआ है रिद सुध मिले खोटे पछुतानै ॥३॥

पद्अर्थ: चोज = करिश्मे तमाशो। विडान = आश्चर्य। जन = हे जन! निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। ता ते = इसलिए। रिद सुध = शुद्ध हृदय वाले।3।

अर्थ: हे सज्जन! देख, उस परमात्मा के करिश्मे बड़े हैरान करने वाले हैं जो आँख झपकने जितने समय में ही खोटे-खरे मनुष्य को पहचान लेता है। शुद्ध हृदय वाले मनुष्य उसको मिल जाते हैं, खोटे मनुष्य पछताते ही रह जाते हैं। तभी भक्त के अंदर आनंद बना रहता है (क्योंकि भक्त को प्रभु अपने चरणों में जोड़े रखता है)।3।

तुम हरि दाते समरथ सुआमी इकु मागउ तुझ पासहु हरि दानै ॥ जन नानक कउ हरि क्रिपा करि दीजै सद बसहि रिदै मोहि हरि चरानै ॥४॥५॥

पद्अर्थ: हरि = हे हरि! समरथ = सब ताकतों के मालिक! मागउ = मैं माँगता हूँ। करि = कर के। दीजै = देह। सद = सदा। रिदै मोहि = मेरे हृदय में। चरानै = चरण।4।

अर्थ: हे हरि! तुम सभ दातें देने वाले सभ ताकतों के मालिक हो। हे हरि! मैं तुझसे एक ख़ैर माँगता हूँ। मेहर करके (अपने) दास नानक को (यह दान) दे कि, हे हरि! तेरे चरण मेरे हृदय में सदा बसते रहें।4।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh