श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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करि किरपा प्रभ मेरिआ करउ दिनु रैनि सेव ॥ नानक दास सरणागती हरि पुरख पूरन देव ॥२॥५॥८॥

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! करउ = करूँ, मैं करता रहूँ। रैनि = रात। सेव = सेवा भक्ति। सरणागती = शरण आया है। हरि = हे हरि! पूरन देव = हे सर्वगुण संपन्न देव!।2।

अर्थ: हे दास नानक! (कह:) हे मेरे प्रभु! हे हरि! हे पुरख! हे सर्व-गुण-संपन्न देव! मैं तेरी शरण आया हूँ; मेहर कर, दिन-रात मैं तेरी भक्ति करता रहूँ।2।5।8।

कलिआनु महला ५ ॥ प्रभु मेरा अंतरजामी जाणु ॥ करि किरपा पूरन परमेसर निहचलु सचु सबदु नीसाणु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अंतरजामी = हरेक के दिल में पहुँच जाने वाला। जाणु = जानने वाला। परमेसर = हे परमेश्वर। सचु = सदा कायम रहने वाला। नीसाणु = परवाना, राहदारी।1। रहाउ।

अर्थ: हे सर्व-गुण-संपन्न परमेश्वर! तू मेरा प्रभु है, तू मेरे दिल की जानने वाला है। मेहर कर, मुझे सदा अटल कायम रहने वाला (अपनी महिमा का) शब्द (बख्श। तेरे चरणों में पहुँचने के लिए यह शब्द ही मेरे लिए) परवाना है।1। रहाउ।

हरि बिनु आन न कोई समरथु तेरी आस तेरा मनि ताणु ॥ सरब घटा के दाते सुआमी देहि सु पहिरणु खाणु ॥१॥

पद्अर्थ: समरथु = ताकत वाला। मनि = मन में। ताणु = सहारा। घट = शरीर। दाते = हे दातार! देहि = जो कुछ तू देता है।

अर्थ: हे सभ जीवों को दातें देने वाले स्वामी! खाने और पहनने को जो कुछ तू हमें देता है, वही हम बरतते हैं। तेरे बिना, हे हरि! कोई और (इतनी) समर्थता वाला नहीं है। (मुझे सदा) तेरी (सहायता की ही) आस (रहती है, मेरे) मन में तेरा ही सहारा रहता है।1।

सुरति मति चतुराई सोभा रूपु रंगु धनु माणु ॥ सरब सूख आनंद नानक जपि राम नामु कलिआणु ॥२॥६॥९॥

पद्अर्थ: चतुराई = समझदारी। माणु = इज्जत। सरब = सारे। जपि = जपा कर। कलिआणु = सुख।2।

अर्थ: हे नानक! (सदा) परमात्मा का नाम जपा कर, (नाम जपने की इनायत से ही ऊँची) सोच (ऊँची) मति, (सदाचारी जीवन वाली) समझदारी (लोक-परलोक की) महिमा (बड़ाई), (सुंदर आत्मिक) रूप रंग, धन, इज्जत, सारे सुख, आनंद (ये सारी दातें प्राप्त होती हैं)।2।6।9।

कलिआनु महला ५ ॥ हरि चरन सरन कलिआन करन ॥ प्रभ नामु पतित पावनो ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कलिआन = कल्याण, सुख, आत्मिक आनंद। कलिआन करन = आत्मिक आनंद पैदा करने वाली, कल्याणकारी। प्रभ नामु = परमात्मा का नाम। पतित = विकारों में गिरे हुए। पावन = पवित्र (करने वाला)। पतित पावनो = विकारियों को पवित्र करने वाला।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के चरणों की शरण (सारे) सुख पैदा करने वाली है। हे भाई! परमात्मा का नाम विकारियों को पवित्र बनाने वाला है।1। रहाउ।

साधसंगि जपि निसंग जमकालु तिसु न खावनो ॥१॥

पद्अर्थ: साध संगि = साध संग में। जपि = जपे, जो जपता है। निसंग = शर्म उतार के। जमकालु = मौत, आत्मिक मौत।1।

अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य) साधसंगति में श्रद्धा से नाम जपता है, उसको मौत का डर भय-भीत नहीं कर सकता (उसके आत्मिक जीवन को आत्मिक मौत खत्म नहीं कर सकती)।1।

मुकति जुगति अनिक सूख हरि भगति लवै न लावनो ॥ प्रभ दरस लुबध दास नानक बहुड़ि जोनि न धावनो ॥२॥७॥१०॥

पद्अर्थ: मुकति जुगति अनिक = मुक्ति प्राप्त करने की अनेक जुगतियां। अनिक सूख = अनेक सुख। लवै न लावनो = बराबरी नहीं कर सकते। लुबध = लुब्ध, प्रेमी, तमन्ना रखने वाला। बहुड़ि = दोबारा। धावनो = भटकना।2।

अर्थ: हे दास नानक! (कह:) मुक्ति प्राप्त करने के लिए अनेक जुगतियां और अनेक सुख परमात्मा की भक्ति की बराबरी नहीं कर सकते। परमात्मा के दीदार का मतवाला मनुष्य दोबारा जूनियों के चक्करों में नहीं भटकता।2।7।10।

कलिआन महला ४ असटपदीआ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

रामा रम रामो सुनि मनु भीजै ॥ हरि हरि नामु अम्रितु रसु मीठा गुरमति सहजे पीजै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रम = रमा हुआ, सर्व व्यापक। सुनि = सुन के। भीजै = (प्रेम जल से) भीग जाता है। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में टिक के। पीजै = पीया जा सकता है।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! सर्व-व्यापक परमात्मा (का नाम) सुन के (मनुष्य का) मन (प्रेम-जाल से) भीग जाता है। यह हरि-नाम आत्मिक जीवन देने वाला है और स्वादिष्ट है। यह हरि-नाम-जल गुरु की मति से आत्मिक अडोलता में (टिक के) पीया जा सकता है।1। रहाउ।

कासट महि जिउ है बैसंतरु मथि संजमि काढि कढीजै ॥ राम नामु है जोति सबाई ततु गुरमति काढि लईजै ॥१॥

पद्अर्थ: कासट = लकड़ी। महि = में। बैसंतरु = आग। मथि = मथ के। संजमि = संयम से, विउंत से। काढि कढीजै = तरीका खोज सकते हैं, पैदा कर लेते हैं। सबाई = सारी (सृष्टि में)। ततु = निचोड़, भेद, अस्लियत।1।

अर्थ: हे भाई! जैसे (हरेक) लकड़ी में आग (छुपी रहती) है, (पर जुगति से उद्यम करके प्रकट की जाती है), वैसे ही परमात्मा का नाम (ऐसा) है (कि इसकी) ज्योति सारी सृष्टि में (गुप्त) है, इस सच्चाई को गुरु की मति द्वारा ही समझा जा सकता है।1।

नउ दरवाज नवे दर फीके रसु अम्रितु दसवे चुईजै ॥ क्रिपा क्रिपा किरपा करि पिआरे गुर सबदी हरि रसु पीजै ॥२॥

पद्अर्थ: नवे = नौ ही। दसे = दसवें (दरवाजे) से। चुईजै = टपकाया जाता है, चूआ जाता है। पिआरे = हे प्यारे! सबदी = शब्द से। पीजै = पी सकते हैं।2।

अर्थ: हे भाई! (मनुष्य शरीर के) नौ दरवाजे हैं (जिनसे मनुष्य का संबन्ध बाहरी दुनिया से बना रहता है, पर) ये नौ दरवाजे ही (नाम-रस से) रूखे (बे-रसे बने) रहते हैं। आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम-रस दसवें दरवाजे (दिमाग) से ही (मनुष्य के अंदर प्रकट होता है, जैसे अर्क आदि) चूता है (रिसता है)। हे प्यारे प्रभु! (अपने जीवों पर) सदा ही मेहर कर, (अगर तू मेहर करे तो) गुरु के शब्द की इनायत से यह हरि-नाम-रस पीया जा सकता है।2।

काइआ नगरु नगरु है नीको विचि सउदा हरि रसु कीजै ॥ रतन लाल अमोल अमोलक सतिगुर सेवा लीजै ॥३॥

पद्अर्थ: काइआ = शरीर। नीको = अच्छा, सोहणा। विचि = (काया के) अंदर। कीजै = करना चाहिए। अमोल = जो किसी मूल्य से नहीं मिल सकता। लीजै = हासिल कर सकते हैं।3।

अर्थ: हे भाई! मनुष्य शरीर (मानो, एक) शहर है, इस (शरीर-शहर) में हरि-नाम-रस (विहाजने का) वणज करते रहना चाहिए। हे भाई! (ये हरि-नाम-रस मानो) अमूल्य रत्न-लाल है, (यह हरि-नाम-रस) गुरु की शरण पड़ने से ही हासिल किया जा सकता है।3।

सतिगुरु अगमु अगमु है ठाकुरु भरि सागर भगति करीजै ॥ क्रिपा क्रिपा करि दीन हम सारिंग इक बूंद नामु मुखि दीजै ॥४॥

पद्अर्थ: अगमु = अगम्य (पहुँच से परे)। भरि = भरा हुआ (अमूल्य रत्नों लालों से)। भरि सागर भगति = (अमूल्य लाल रत्नों से) भरे हुए समुंदर-प्रभु की भक्ति। करीजै = की जा सकती है। दीन = निमाणे। सारिंग = पपीहे। मुखि = (मेरे) मुँह में। दीजै = दे।4।

अर्थ: हे भाई! गुरु अगम्य (पहुँच से परे) परमात्मा (का रूप) है। (अमूल्य रत्नों-लालों से) भरे हुए समुंदर (प्रभु) की भक्ति (गुरु की शरण पड़ कर ही) की जा सकती है। हे प्रभु! हम जीव (तेरे दर के) निमाणे पपीहे हैं। मेहर कर मेहर कर (जैसे पपीहे को वर्षा की) एक बूँद (की प्यास रहती है, वैसे मुझे तेरे नाम-जल की प्यास है, मेरे) मुँह में (अपना) नाम (-जल) दे।4।

लालनु लालु लालु है रंगनु मनु रंगन कउ गुर दीजै ॥ राम राम राम रंगि राते रस रसिक गटक नित पीजै ॥५॥

पद्अर्थ: लालनु = सोहणा लाल, सुंदर हरि नाम। रंगनु = सुदर रंग। गुर = हे गुरु! दीजै = दे। रंगि = रंग में। राते = रंगे हुए हैं। रस रसिक = नाम के रसिए। गटक = गट गट कर के, स्वाद से। पीजै = पीना चाहिए।5।

अर्थ: हे भाई! सुंदर हरि (-नाम) बड़ा सुंदर रंग है। हे गुरु! (मुझे अपना) मन रंगने के लिए (यह हरि-नाम रंग) दे। हे भाई! (जिस मनुष्यों को यह नाम-रंग मिल जाता है, वह) सदा के लिए परमात्मा के (नाम-) रंग में रंगे रहते हैं, (वह मनुष्य नाम-) रस के रसिए (बन जाते हैं)। हे भाई! (यह नाम-रस) गट-गट कर के सदा पीते रहना चाहिए।5।

बसुधा सपत दीप है सागर कढि कंचनु काढि धरीजै ॥ मेरे ठाकुर के जन इनहु न बाछहि हरि मागहि हरि रसु दीजै ॥६॥

पद्अर्थ: बसुधा = धरती। सपत = सात। दीप = द्वीप, टापू, जजीरा। सागर = (सात) समुंदर। कंचनु = सोना। इनहु = इन कीमती पदार्थों को। बाछहि = चाहते हैं। मागहि = माँगते हैं। दीजै = दे।6।

अर्थ: हे भाई! (जितनी भी) सात टापूओं वाली और सात समुंद्रों वाली धरती है (अगर इसको) खोद के (इसमें से सारा) सोना निकाल के (बाहर) रख दिया जाए, (तो भी) मेरे मालिक-प्रभु के भक्त-जन (सोना आदि) इन (कीमती पदार्थों) की तमन्ना नहीं रखते, वे सदा परमात्मा (का नाम ही) माँगते रहते हैं। हे गुरु! (मुझे भी) परमात्मा के नाम का रस ही बख्श।6।

साकत नर प्रानी सद भूखे नित भूखन भूख करीजै ॥ धावतु धाइ धावहि प्रीति माइआ लख कोसन कउ बिथि दीजै ॥७॥

पद्अर्थ: साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। सद = सदा। भूखे = माया की लालच में फंसे हुए। भूखन भूख करीजै = (माया की) भूख की ही रट लगाई जाती है। धावतु = भटकते हुए। धाइ = भटक के। धावहि धाइ धावहि = भटकते हुए भटक के भटकते हैं, सदा भटकते फिरते हैं। लख कोसन कउ = लाखों कोसों को। बिथि दीजै = दूरी बना ली जाती है।7।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य सदा माया के लालच में फसे रहते हैं, (उनके अंदर) सदा (माया की) भूख (माया की) भूख की पुकार जारी रहती है। माया के आकर्षण के कारण वे सदा ही भटकते फिरते हैं। (माया एकत्र करने की खातिर अपने मन और परमात्मा के बीच) लाखों कोसों की दूरी को बना लिया जाता है।7।

हरि हरि हरि हरि हरि जन ऊतम किआ उपमा तिन्ह दीजै ॥ राम नाम तुलि अउरु न उपमा जन नानक क्रिपा करीजै ॥८॥१॥

पद्अर्थ: हरि जन = परमात्मा के भक्त। किआ उपमा = क्या बड़ाई? दीजै = दी जाए। तुलि = बराबर। अउर उपमा = कोई और बड़ाई। क्रिपा करीजै = कृपा करें।8।

अर्थ: हे भाई! सदा हरि का नाम जपने की इनायत से परमातमा के भक्त उच्च जीवन वाले बन जाते हैं, उनकी महिमा कथन नहीं की जा सकती। परमात्मा के नाम के बराबर और कोई पदार्थ है ही नहीं। हे प्रभु! (अपने) दास नानक पर मेहर कर (और अपना नाम बख्श)।8।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh