श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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दूखा ते सुख ऊपजहि सूखी होवहि दूख ॥ जितु मुखि तू सालाहीअहि तितु मुखि कैसी भूख ॥३॥

पद्अर्थ: ते = से। जितु मुखि = जिस मुँह से। तितु मुखि = उस मुँह में। भूख = माया की भूख, तृष्णा।3।

अर्थ: (दुनियां वाले दुख-कष्ट भी प्रभु की बख्शिश का साधन हैं क्योंकि इन) दुखों से (इन दुखों के कारण विषौ-विकारों से पलटने पर वापस लौटने पर) आत्मिक सुख पैदा हो जाते हैं, (और दुनियावी भोगों के) सुखों से (आत्मिक और शारीरिक) रोग उपजते हैं। हे प्रभु! जिस मुँह से तेरी महिमा की जाती है, उस मुँह में माया की भूख नहीं रह जाती (और माया की भूख दूर होने पर सारे दुख-रोग नाश हो जाते हैं)।3।

नानक मूरखु एकु तू अवरु भला सैसारु ॥ जितु तनि नामु न ऊपजै से तन होहि खुआर ॥४॥२॥

पद्अर्थ: एक तू = सिफ तू ही। अवरु सैसारु = बाकी सारा संसार। जितु तनि = जिस जिस शरीर में। से तन = वह सारे शरीर।4।

अर्थ: हे नानक! (अगर तेरे अंदर परमात्मा का नाम नहीं है तो) सिर्फ तू ही मूर्ख है, तेरे से कहीं ज्यादा संसार अच्छा है। जिस जिस शरीर में प्रभु का नाम नहीं, वह शरीर (विकारों में पड़ कर) दुखी होते हैं।4।2।

प्रभाती महला १ ॥ जै कारणि बेद ब्रहमै उचरे संकरि छोडी माइआ ॥ जै कारणि सिध भए उदासी देवी मरमु न पाइआ ॥१॥

पद्अर्थ: जै = जिस। जै कारणि = जिस (परमात्मा के मिलाप) की खातिर। ब्रहमै = ब्रहमा ने। संकरि = शंकर ने, शिव ने। सिध = साधनों में माहिर जोगी। देवी = देवीं देवताओं ने। मरमु = भेद।1।

अर्थ: जिस परमात्मा के मिलाप की खातिर ब्रहमा ने वेद उचारे, और शिव जी ने दुनिया की माया त्यागी, जिस प्रभु को प्राप्त करने के लिए जोग-साधना में माहिर जोगी (दुनिया से) विरक्त हो गए (वह बड़ा बेअंत है), देवताओं ने (भी) उस (के गुणों) का भेद नहीं पाया।1।

बाबा मनि साचा मुखि साचा कहीऐ तरीऐ साचा होई ॥ दुसमनु दूखु न आवै नेड़ै हरि मति पावै कोई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बाबा = हे भाई! मनि = मन में। साचा = सदा कायम रहने वाला प्रभु। मुखि = मुँह में। तरीऐ = तैरा जाता है। होई = हुआ जाता है। न आवै नेड़ै = नजदीक नहीं आता, जोर नहीं डाल सकता। हरि मति = हरि स्मरण करने की अक्ल। कोई = जो कोई।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! अपने मन में सदा कायम रहने वाले परमात्मा को बसाना चाहिए, मुँह से सदा-स्थिर प्रभु की तारीफ करनी चाहिए, (इस तरह संसार-समुंदर की विकार-लहरों से) पार लांघा जाता है, उस सदा-स्थिर प्रभु का रूप हो जाया जाता है। जो कोई मनुष्य परमात्मा का स्मरण करने की बुद्धि सीख लेता है, कोई वैरी उस पर जोर नहीं डाल सकता, कोई दुख-कष्ट उसको दबा नहीं सकता।1। रहाउ।

अगनि बि्मब पवणै की बाणी तीनि नाम के दासा ॥ ते तसकर जो नामु न लेवहि वासहि कोट पंचासा ॥२॥

पद्अर्थ: अगनि = आग, तमो गुण। बिंब = पानी, सतोगुण। पवण = हवा, रजो गुण। बाणी = बनावट, बनतर। तीनि = ये तीनों माया के गुण। तसकर = चोर। वासहि = बसते हैं। कोट = किले। पंचासा = (पंच+अस्य: पंचास्यं सपवद) शेर। कोट पंचासा = शेरों के किलों में, कामादिक शेरों के घुरनों में।2।

अर्थ: यह सारा जगत तमो गुण, सतो गुण और रजो गुण की रचना है (सारे जीव-जंतु इन गुणों के अधीन हैं), पर यह तीनों गुण प्रभु के नाम के दास हैं (जो लोग नाम जपते हैं, उन पर ये तीन गुण अपना जोर नहीं डाल सकते)। (पर हाँ,) जो जीव प्रभु का नाम नहीं स्मरण करते वे (इन तीन गुणों के) चोर हैं (इनसे मार खाते हैं, क्योंकि) वह सदा (कामादिक) शेरों के घुरनों में बसते हैं।2।

जे को एक करै चंगिआई मनि चिति बहुतु बफावै ॥ एते गुण एतीआ चंगिआईआ देइ न पछोतावै ॥३॥

पद्अर्थ: एक चंगिआई = एक भलाई, एक भला काम। मनि = मन में। चिति = चिक्त में। बफावै = डींगे मारता है। देइ = (दातें) देता है।3।

अर्थ: (हे भाई! देखो, उस परमात्मा की दरिया-दिली) अगर कोई व्यक्ति (किसी के साथ) कोई एक भलाई करता है; तो वह अपने मन में चिक्त में बड़ी डींगे मारता है (बड़ा गुमान करता है, पर) परमात्मा में इतने बेअंत गुण हैं, वह इतने भले कार्य करता है, वह (सब जीवों को दातें) देता है, पर दातें दे दे के कभी अफसोस नहीं करता (कि जीव दातें लेकर कद्र नहीं करते)।3।

तुधु सालाहनि तिन धनु पलै नानक का धनु सोई ॥ जे को जीउ कहै ओना कउ जम की तलब न होई ॥४॥३॥

पद्अर्थ: सलाहनि = (जो जीव) सालाहते हैं, महिमा करते हैं। तिन पलै = उनके पल्ले, उनके हृदय में। सोई = वही है। को = कोई व्यक्ति। जीउ कहै = आदर सत्कार के वचन बोलता है। तलब = पूछताछ।4।

अर्थ: हे प्रभु! जो लोग तेरी महिमा करते हैं, उनके हृदय में तेरा नाम-धन है (वह असली धन है), मुझ नानक का धन भी तेरा नाम ही है। (जिनके पल्ले नाम-धन है) यदि कोई उनके साथ आदर-सत्कार के बोल बोलता है, तो जमराज (भी) उनसे कर्मों का लेखा नहीं पूछता (भाव, वे बुराई से हट जाते हैं)।4।3।

प्रभाती महला १ ॥ जा कै रूपु नाही जाति नाही नाही मुखु मासा ॥ सतिगुरि मिले निरंजनु पाइआ तेरै नामि है निवासा ॥१॥

पद्अर्थ: जा कै = जिस लोगों के पास। मासा = (शरीर पर) मास (भाव, शारीरिक बल)। सतिगुरि = सतिगुरु में, गुरु के चरणों में। मिले = जुड़े। निरंजनु = वह प्रभु जो माया की कालिख से रहित है। तेरै नामि = (हे प्रभु!) तेरे नाम में।1।

अर्थ: (हे जोगी!) जिनके पास रूप नहीं, जिनकी ऊँची जाति नहीं, जिनके सुंदर नक्श नहीं, जिनके पास शारीरिक बल नहीं, जब वे गुरु-चरणों में जुड़े, तो उनको माया-रहित प्रभु मिल गया। (हे प्रभु! गुरु की शरण पड़ने से) उनका निवास तेरे नाम में हो गया।1।

अउधू सहजे ततु बीचारि ॥ जा ते फिरि न आवहु सैसारि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अउधू = (वह साधु जिसने माया के बंधन तोड़ के किनारे फेंक दिए, वह विरक्त साधु जो शरीर पर राख मले फिरते हैं), हे अउधू! सहजे = सहजि, अडोल अवस्था में टिक के। ततु = जगत का मूल प्रभु। ततु बीचारि = जगत का मूल प्रभु (के गुणों) की विचार, प्रभु के गुणों में तवज्जो जोड़। जा ते = जिस पर, जिस (उद्यम) से। संसारि = संसार में, जनम मरण के चक्कर में।1। रहाउ।

अर्थ: हे जोगी! (तू घर-बार छोड़ के तन पर राख मल के ही यह समझे बैठा है कि तू जनम-मरण के चक्करों में से निकल गया है, तुझे भुलेखा है)। अडोल आत्मिक अवस्था में टिक के प्रभु की महिमा में तवज्जो जोड़। (यही तरीका है) जिससे तू दोबारा जनम-मरण के चक्कर में नहीं आएगा।1। रहाउ।

जा कै करमु नाही धरमु नाही नाही सुचि माला ॥ सिव जोति कंनहु बुधि पाई सतिगुरू रखवाला ॥२॥

पद्अर्थ: करमु = धार्मिक कर्म। धरम = वर्ण आश्रम वाला कोई कर्म। सुचि = चौके आदि वाली स्वच्छता सुचि। सिव जोति = कल्याण रूप परमात्मा की ज्योति। कंनहु = पास से। बुधि = (तत्व विचारने की) बुद्धि, प्रभु के गुणों में तवज्जो जोड़ने की सूझ।2।

अर्थ: (हे जोगी!) जो लोग शास्त्रों का बताया हुआ कोई कर्म-धर्म नहीं करते, जिन्होंने चौके आदि की कोई सुचि नहीं रखी, जिनके गले में (तुलसी आदि की) माला नहीं, जब उनका रखवाला गुरु बन गया, उनको कल्याण-रूप निरंकारी ज्योति से (उसकी महिमा में जुड़ने की) बुद्धि मिल गई।2।

जा कै बरतु नाही नेमु नाही नाही बकबाई ॥ गति अवगति की चिंत नाही सतिगुरू फुरमाई ॥३॥

पद्अर्थ: नेमु = कर्म कांड अनुसार रोजाना करने वाला काम। बकबाई = बकवास, हवाई बातें, व्यर्थ वचन, चतुराई के बोल। गति = मुक्ति। अवगति = (मुक्ति के उलट) नर्क आदि। चिंत = सहम, फिक्र। फुरमाई = हुक्म, उपदेश।3।

अर्थ: (हे जोगी!) जिस लोगों ने कभी कोई व्रत नहीं रखा, कोई (इस तरह का और) नियम नहीं रखा, जो शास्त्र-चर्चा के कोई चतुराई भरे बोल नहीं बोलने जानते, जब गुरु का उपदेश उनको मिला, तो मुक्ति अथवा नर्क का उनको कोई फिक्र सहम नहीं रह गया।3।

जा कै आस नाही निरास नाही चिति सुरति समझाई ॥ तंत कउ परम तंतु मिलिआ नानका बुधि पाई ॥४॥४॥

पद्अर्थ: आस = दुनियां के धन-पदार्थों की आशाएं। निरास = दुनिया से उपराम हो जाने का ख्याल। जा कै चिति = जिसके चिक्त में। समझाई = समझ, सूझ। तंत = जीवात्मा। परम तंतु = परम आत्मा अकाल पुरख। बुधि = (प्रभु के गुणों की तवज्जो जोड़ने की) अकल।4।

अर्थ: हे नानक! जिस जीव के पास धन-पदार्थ नहीं कि वह दुनिया की आशाएं चिक्त में बनाए रखे, जिस जीव के चिक्त में माया से उपराम हो के गृहस्थ-त्याग के ख्याल भी नहीं उठते, जिसको ऐसी कोई तवज्जो नहीं समझ नहीं, जब उसको (सतिगुरु से प्रभु की महिमा में जुड़ने की) अकल मिलती है, तो उस जीव को परमात्मा मिल जाता है।4।4।

प्रभाती महला १ ॥ ता का कहिआ दरि परवाणु ॥ बिखु अम्रितु दुइ सम करि जाणु ॥१॥

पद्अर्थ: ता का = उस मनुष्य का। कहिआ = बोला हुआ वचन। दरि = प्रभु के दर पर। परवाणु = स्वीकार, ठीक माना जाता है। बिखु = जहर (भाव, दुख)। अंम्रितु = (भाव, सुख)। सम = बराबर। करि = कर के। जाणु = जो जाने वाला है।1।

अर्थ: जो मनुष्य जहर और अमृत (दुख और सुख) दोनों को एक-समान समझने के लायक हो जाता है (परमात्मा की रज़ा के बारे में) उस मनुष्य का बोला हुआ वचन परमात्मा के दर पर ठीक माना जाता है (क्योंकि वह मनुष्य अच्छी तरह जानता है कि जिनको सुख व दुख मिलता है उन सबमें परमात्मा स्वयं मौजूद है)।1।

किआ कहीऐ सरबे रहिआ समाइ ॥ जो किछु वरतै सभ तेरी रजाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: किआ कहीऐ = कुछ कहा नहीं जा सकता। सरबै = सब जीवों में। रजाइ = हुक्म अनुसार।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु (जगत में) जो कुछ घटित हो रहा है सब तेरे हुक्म अनुसार घटित हो रहा है। (किसी को सुख है किसी को दुख मिल रहा है, पर इसके उलट) कुछ कहा नहीं जा सकता क्योंकि तू सब जीवों में मौजूद है (जिनको सुख अथवा दुख मिलता है उनमें भी तू स्वयं ही व्यापक है, और स्वयं ही उस सुख अथवा दुख को भोग रहा है)।1। रहाउ।

प्रगटी जोति चूका अभिमानु ॥ सतिगुरि दीआ अम्रित नामु ॥२॥

पद्अर्थ: चूका = दूर हो गया। सतिगुरि = सतिगुरु ने।2।

अर्थ: जिस मनुष्य को सतिगुरु ने आत्मिक जीवन देने वाला प्रभु का नाम दिया है, उसके अंदर परमात्मा की ज्योति कभी रौशनी हो जती है (उस रौशनी की इनायत से उसको अपनी विक्त की समझ पड़ जाती है, इस वास्ते उसके अंदर से) अहंकार दूर हो जाता है।2।

कलि महि आइआ सो जनु जाणु ॥ साची दरगह पावै माणु ॥३॥

पद्अर्थ: कलि महि = जगत में। जाणु = जानो, समझो। माणु = इज्जत।3।

अर्थ: (हे भाई!) उसी मनुष्य को जगत में जन्मा समझो (भाव, उसी व्यक्ति का जगत में आना सफल है, जो सर्व-व्यापक परमात्मा की रजा को समझता है, और इस वास्ते) सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु की दरगाह में इज्जत हासिल करता है।3।

कहणा सुनणा अकथ घरि जाइ ॥ कथनी बदनी नानक जलि जाइ ॥४॥५॥

पद्अर्थ: अकथ घरि = अकथ प्रभु के घर में। बदनी = (वद् = बोलना)। जलि जाइ = जल जाता है, व्यर्थ जाता है।4।

अर्थ: हे नानक! वही वचन बोलने और सुनने सफल हैं जिनसे मनुष्य बेअंत गुणों वाले परमात्मा के चरणों में जुड़ सकता है। (परमातमा की रज़ा से परे जाने वाली, परमात्मा के चरणों से दूर रखने वाली) और-और कहनी-कथनी व्यर्थ जाती है।4।5।

प्रभाती महला १ ॥ अम्रितु नीरु गिआनि मन मजनु अठसठि तीरथ संगि गहे ॥ गुर उपदेसि जवाहर माणक सेवे सिखु सुो खोजि लहै ॥१॥

पद्अर्थ: अंम्रितु = अटल आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। नीरु = पानी। गिआनि = ज्ञान में, गुरु से मिले आत्मिक प्रकाश में। मजनु = चुभ्भी,स्नान। अठसठि = अढ़सठ। संगि = साथ ही, गुरु तीर्थ के साथ ही। गहे = मिल जाते हैं। उपदेसि = उपदेश में। सुो = वे (सिख)

(नोट: असल शब्द है ‘सो’, पर यहाँ पढ़ना है ‘सु’)।

लहै = पा लेता है। खोजि = खोज के।1।

अर्थ: (गुरु से मिलने वाला) प्रभु-नाम (गुरु-तीर्थ का) जल है, गुरु से मिले आत्मिक प्रकाश में मन की डुबकी (उस गुरु-तीर्थ का) स्नान है, (गुरु-तीर्थ के) साथ ही अढ़सठ तीर्थों (के स्नान) मिल जाते हैं। गुरु के उपदेश (-रूप गहरे पानियों में परमात्मा की महिमा के) मोती और जवाहर है। जो सिख (गुरु-तीर्थ को) सेवता है (श्रद्धा से आता है) वह तलाश करके पा लेता है।1।

गुर समानि तीरथु नही कोइ ॥ सरु संतोखु तासु गुरु होइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: समानि = जैसा, बराबर का। सरु = तालाब। तासु = वही।1। रहाउ।

अर्थ: गुरु के बराबर का और कोई तीर्थ नहीं है। वह गुरु ही संतोख-रूप सरोवर है।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh