श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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लोगा भरमि न भूलहु भाई ॥ खालिकु खलक खलक महि खालिकु पूरि रहिओ स्रब ठांई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: लोगा = हे लोगो! भाई = हे भाई! खालकु = (जगत को) पैदा करने वाला प्रभु। स्रब ठांई = सब जगहों पर।1। रहाउ।

अर्थ: हे लोगो! हे भाई! (रब की हस्ती के बारे) किसी भूलेखे में पड़ कर दुखी मत होवो। वह रब सारी सृष्टि को पैदा करने वाला है और सारी सृष्टि में मौजूद है वह सब जगह भरपूर है।1। रहाउ।

माटी एक अनेक भांति करि साजी साजनहारै ॥ ना कछु पोच माटी के भांडे ना कछु पोच कु्मभारै ॥२॥

पद्अर्थ: भांति = किस्म। साजी = पैदा की, बनाई। पोच = ऐब, कमी।2।

अर्थ: विधाता ने एक ही मिट्टी से (भाव, एक जैसे तत्वों से) अनेक किस्मों के जीव-जन्तु पैदा कर दिए हैं। (जहाँ तक जीवों की अस्लियत का खरे होने का सम्बंध है) ना इन मिट्टी के बर्तनों (भाव, जीवों) में कोई कमी है, और ना (इन बर्तनों के बनाने वाले) कुम्हार में।2।

सभ महि सचा एको सोई तिस का कीआ सभु कछु होई ॥ हुकमु पछानै सु एको जानै बंदा कहीऐ सोई ॥३॥

पद्अर्थ: सोई = वही मनुष्य।3।

अर्थ: वह सदा कायम रहने वाला प्रभु सब जीवों में बसता है। जो कुछ जगत में हो रहा है, उसी का किया हुआ हो रहा है। वही मनुष्य रब का (प्यारा) बँदा कहा जा सकता है, जो उसकी रज़ा को पहचानता है और उस एक के साथ सांझ डालता है।3।

अलहु अलखु न जाई लखिआ गुरि गुड़ु दीना मीठा ॥ कहि कबीर मेरी संका नासी सरब निरंजनु डीठा ॥४॥३॥

पद्अर्थ: अलखु = जिसका मुकम्मल स्वरूप बयान नहीं हो सकता। गुड़ु = (परमात्मा के गुणों की सूझ रूपी) गुड़। गुरि = गुरु ने। संका = शक, भुलेखा। सरब = सारों में।4।

अर्थ: वह रब ऐसा है जिसका मुकम्मल स्वरूप बयान से परे है, उसके गुण कहे नहीं जा सकते। कबीर कहता है: मेरे गुरु ने (प्रभु के गुणों की सूझ रूपी) मीठा गुड़ मुझे दिया है (जिसका स्वाद तो मैं नहीं बता सकता, पर) मैंने उस माया-रहित प्रभु को हर जगह देख लिया है, मुझे इस में कोई शक नहीं रहा (मेरा अंदर किसी जाति अथवा मज़हब के लोगों की उच्चता व नीचता का कर्म नहीं रहा)।4।3।

शब्द का भाव: सर्व-व्यापक प्रभु ही सारे जीवों का विधाता है। सबकी अस्लियत एक ही है, किसी को बुरा मत कहो।

प्रभाती ॥ बेद कतेब कहहु मत झूठे झूठा जो न बिचारै ॥ जउ सभ महि एकु खुदाइ कहत हउ तउ किउ मुरगी मारै ॥१॥

अर्थ: (हे हिन्दू और मुसलमान भाईयो!) वेदों और कुरान आदि को (एक-दूसरे की) धर्म-पुस्तकों को झूठा ना कहो। झूठा तो वह व्यक्ति है जो इन धर्म-पुस्तकों की विचार नहीं करता। (भला, हे मुल्लां!) अगर तू यह कहता है कि खुदा सब जीवों में मौजूद है तो (उस खुदा के आगे कुर्बानी देने के लिए) मुर्गी क्यों मारता है? (क्या उस मुर्गी में वह ख़ुदा नहीं है? मुर्गी में बैठे खुदा के अंश को मार के खुदा के आगे भेट करने का क्या भाव है?)।1।

मुलां कहहु निआउ खुदाई ॥ तेरे मन का भरमु न जाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मुलां = हे मुल्ला! कहहु = सुनाता है। निआउ = इन्साफ।1। रहाउ।

अर्थ: हे मुल्ला! तू (और लोगों को तो) खुदा का न्याय सुनाता है, पर तेरे अपने मन का भुलेखा अभी दूर ही नहीं हुआ।1। रहाउ।

पकरि जीउ आनिआ देह बिनासी माटी कउ बिसमिलि कीआ ॥ जोति सरूप अनाहत लागी कहु हलालु किआ कीआ ॥२॥

पद्अर्थ: आनिआ = ले आए। देह = शरीर। बिसमिल = (अरबी: बिसमिल्लाह = अल्लाह के नाम पर, ख़ुदा के वास्ते। मुर्गी आदि किसी जीव का मास तैयार करने के वक्त मुसलमान शब्द ‘बिसमिल्लाह’ पढ़ता है, भाव यह है कि मैं ‘अल्लाह के नाम पर, अल्लाह की खातिर’ इसको ज़बह करता हूँ। सो, ‘बिसमिल’ करने का अर्थ है = ‘ज़बह करना’)। जोति सरूप = वह प्रभु जिसका स्वरूप ज्योति ही ज्योति है, जो सिर्फ नूर ही नूर है। अनाहत = अविनाशी प्रभु की। लागी = हर जगह लगी हुई है, हर जगह मौजूद है। हलालु = जाइज़, भेट करने योग्य, रब के नाम पर कुर्बानी देने के लायक।2।

अर्थ: हे मुल्ला! (मुर्गी आदि) जीव को पकड़ कर तू ले आया, तूने उसका शरीर नाश कर दिया, उस (के जिस्म) की मिट्टी को तूने खुदा के नाम पर कुर्बान किया (भाव, खुदा की नज़र भेट किया)। पर, हे मुल्ला! जो खुदा निरा नूर ही नूर है, और जो अविनाशी है उसकी ज्योति तो हर जगह मौजूद है, (उस मुर्गी में भी है जो तू खुदा के नाम से कुर्बान करता है) तो फिर, बता, तूने रब के नाम पर कुर्बानी देने के लायक कौन सी चीज़ बनाई?।2।

किआ उजू पाकु कीआ मुहु धोइआ किआ मसीति सिरु लाइआ ॥ जउ दिल महि कपटु निवाज गुजारहु किआ हज काबै जाइआ ॥३॥

पद्अर्थ: उजू = नमाज़ पढ़ने से पहले हाथ पैर मुँह धोने की क्रिया। पाकु = पवित्र।3।

अर्थ: हे मुल्ला! अगर तू अपने दिल में कपट रख के नमाज़ पढ़ता है, तो इस नमाज़ का क्या फायदा? पैर हाथ आदि साफ़ करने की रस्म का क्या लाभ? मुँह धोने के क्या गुण? मस्जिद में जाकर सजदा करने की क्या जरूरत? और, काबे के हज का क्या फायदा?।3।

तूं नापाकु पाकु नही सूझिआ तिस का मरमु न जानिआ ॥ कहि कबीर भिसति ते चूका दोजक सिउ मनु मानिआ ॥४॥४॥

पद्अर्थ: नापाकु = पलीत, अपवित्र, मैला, मलीन। पाकु = पवित्र प्रभु। मरमु = भेद। चूका = चूक गया। सिउ = साथ।4।

अर्थ: हे मुल्ला! तू अंदर से तो अपवित्र ही रहा, तुझे उस पवित्र प्रभु की समझ ही नहीं पड़ी, तूने उसका भेद नहीं पाया। कबीर कहता है: (इस भुलेखे में फसे रह के) तू बहिश्त से चूक गया है, और दोजक तेरा नसीब बन गई है।4।4।

शब्द का भाव: निरी शरह- अगर दिल में ठगी है, तो नमाज़, हज आदि सभ कुछ व्यर्थ के उद्यम हैं। सबमें बसता रब मुर्गी आदि की ‘कुर्बानी’ से भी खुश नहीं होता।

(पढ़ें मेरी लिखी ‘सलोक कबीर जी सटीक’ में कबीर जी के सलोक नंबर 184 से 188 तक)

प्रभाती ॥ सुंन संधिआ तेरी देव देवाकर अधपति आदि समाई ॥ सिध समाधि अंतु नही पाइआ लागि रहे सरनाई ॥१॥

पद्अर्थ: सुंन = शून्य, अफुर अवस्था, माया के मोह का कोई विचार मन में ना उठने वाली अवस्था। संधिआ = (संध्या = The morning, noon and evening of a Brahman) सवेरे, दोपहर, और शाम के समय की पूजा जो हरेक ब्राहमण को करनी चाहिए। देवाकर = दिवाकर, सूर्य, हे रोशनी की खान! (देव+आकर)। अधपति = हे मालिक! आदि = हे सारे जगत के मूल! समाई = हे सर्व व्यापक! सिध = पुगे हुए जोगी, जोग अभ्यास में निपुन्न जोगी।1।

अर्थ: हे देव! हे उजाले की खान! हे जगत के मालिक! हे सबके मूल! हे सर्व-व्यापक प्रभु! जोगाभ्यास में निपुन्न जोगियों ने समाधियाँ लगा के भी तेरा अंत नहीं पाया वे भी आखिर में तेरी शरण लेते हैं। (तू माया से रहित है, सो) माया के फुरनों से मन को साफ रखना (और तेरे चरणों में ही जुड़े रहना) यह तेरी आरती करनी है।1।

लेहु आरती हो पुरख निरंजन सतिगुर पूजहु भाई ॥ ठाढा ब्रहमा निगम बीचारै अलखु न लखिआ जाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हो भाई = हे भाई! पुरख निरंजन आरती = माया रहित सर्व व्यापक प्रभु की आरती। ठाढा = खड़ा हुआ। निगम = वेद। अलखु = (संस्कृत: अलक्ष्य = having no particular marks) जिसके कोई खास चक्र चिन्ह नहीं।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! गुरु के बताए हुए राह पर चलो, और उस प्रभु की आरती उतारो जो माया से रहित है और जो सबमें व्यापक है, जिसका कोई खास चक्र-चिन्ह नहीं है, जिसके गुण बयान नहीं किए जा सकते और जिसके दर पर खड़ा ब्रहमा वेद विचार रहा है।1। रहाउ।

ततु तेलु नामु कीआ बाती दीपकु देह उज्यारा ॥ जोति लाइ जगदीस जगाइआ बूझै बूझनहारा ॥२॥

पद्अर्थ: ततु = ज्ञान। बाती = बाती। उज्यारा = उजियारा, उजाला। देह उज्यारा = शरीर में (तेरे नाम का) उजाला। जगदीस जोति = जगदीश के नाम की ज्योति। बूझनहारा = ज्ञानवान।2।

अर्थ: कोई विरला ज्ञानवान (प्रभु की आरती का भेद) समझता है। (जिसने समझा है उसने) ज्ञान को तेल बनाया है, नाम को बाती और शरीर में (नाम की) रौशनी को ही दीपक बनाया है। यह दीया उसने जगत के मालिक प्रभु की ज्योति (में जुड़ के) जगाया है।2।

पंचे सबद अनाहद बाजे संगे सारिंगपानी ॥ कबीर दास तेरी आरती कीनी निरंकार निरबानी ॥३॥५॥

पद्अर्थ: पंचे सबद = पाँच ही नाद; पाँच किस्मों के साजों की आवाज, (पाँच किस्मों के साज ये हैं: तंती साज, खाल से मढ़े हुए, धातु के बने हुए, घड़ा आदि, फूक मार के बजाने वाले साज़। जब यह सारी किस्मों के साज़ मिला के बजाए जाएं तो महा सुंदर राग पैदा होता है, जो मन को मस्त कर देता है)। अनाहद = बिना बजाए, एक रस। संगे = साथ ही, अंदर ही (दिखाई दे जाता है)। सारिंगपानी = (सारिंग = धनुष। पानी = हाथ) जिसके हाथ में धनुष है, जो सारे जगत का नाश करने वाला भी है।3।

अर्थ: हे वासना-रहित निरंकार! हे सारिंगपाणि! मैं तेरे दास कबीर ने भी तेरी (ऐसी ही) आरती की है (जिसकी इनायत से) तू मुझे अंग-संग दिखाई दे रहा है (और मेरे अंदर एक ऐसा आनंद बन रहा है, मानो) पाँच ही किस्मों के साज़ (मेरे अंदर) एक-रस बज रहे हैं।3।5।

नोट: कबीर जी का अपने नाम के साथ शब्द ‘दास’ लगाना जाहिर करता है कि वे मुसलमान नहीं थे।

शब्द का भाव: मूर्ति पूजा खण्डन-सर्व व्यापक परमात्मा का नाम-जपना ही सही आरती है। ज्ञान का तेल बरतो, नाम की बाती बनाओ, शरीर के अंदर आत्म-ज्ञान का प्रकाश हो जाएगा, प्रभु अंग-संग दिखेगा और अंदर सदा खिलाव बना रहेगा।

नोट: पाठक सज्जनों ने इस शब्द के अर्थ पढ़ लिए हैं। इस में सर्व-व्यापक परमात्मा के स्मरण को ही जीवन का सही रास्ता बताया है। पर इस शब्द के बारे में भक्त-वाणी का विरोधी सज्जन इस प्रकार लिखता है;

“कबीर जी ने प्रभाती राग के अंदर अपने विचारों की आरती दर्ज की है, जो गुरमति वाली आरती का विरोध करती है।” इससे आगे शब्द को पेश किया गया है। पर ‘रहाउ’ की तुकों के शब्द ‘सतिगुर’ के साथ ही ब्रेकेटों में शब्द ‘रामानंद’ भी दे दिया है। क्यों? जान-बूझ के भुलेखा डालने की खातिर। आगे लिखते हैं: ‘उक्त शब्द स्वामी रामानंद जी के आगे आरती करने के हित था।’

प्रभाती बाणी भगत नामदेव जी की    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मन की बिरथा मनु ही जानै कै बूझल आगै कहीऐ ॥ अंतरजामी रामु रवांई मै डरु कैसे चहीऐ ॥१॥

पद्अर्थ: बिरथा = (सं: व्यथा) पीड़ा, दुख। कै = अथवा। बूझल आगै = बूझनहार के आगे, अंतरजामी प्रभु के आगे। रवांई = मैं स्मरण करता हूँ। मै = मुझे। कैसे = क्यों? चाहिऐ = चाहिए, आवश्यक, हो।1।

अर्थ: मन का दुख-कष्ट अथवा (दुखिए का) अपना मन जानता है अथवा (अंतरजामी प्रभु जानता है, सो अगर कहना होतो) उस अंतरजामी के आगे ही कहना चाहिए। मुझे तो अब कोई (दुखों का) डर रहा ही नहीं, क्योंकि मैं उस अंतरजामी परमात्मा को स्मरण कर रहा हूँ।1।

बेधीअले गोपाल गुोसाई ॥ मेरा प्रभु रविआ सरबे ठाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बेधीअले = भेद लिया है।1। रहाउ।

नोट: ‘गुोसाई’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोसाई’, यहां ‘गुसाई’ पढ़ना है।

अर्थ: मेरे गोपाल गोसाई ने मुझे (अपने) चरणों में भेद लिया है, अब मुझे वह प्यारा प्रभु हर जगह बसता दिखता है।1। रहाउ।

मानै हाटु मानै पाटु मानै है पासारी ॥ मानै बासै नाना भेदी भरमतु है संसारी ॥२॥

पद्अर्थ: मानै = मन में ही। पाटु = पटण शहर। पासारी = हाट चलाने वाला। नाना भेदी = अनेक रूप रंग बनाने वाला परमात्मा। संसारी = संसार में भटकने वाला, संसार से मोह डालने वाला।2।

अर्थ: (उस अंतरजामी का मनुष्य के) मन में ही हाट है, मन में ही शहर है, और मन में ही वह हाट चला रहा है, वह अनेक रूपों-रंगों वाला प्रभु (मनुष्य के) मन में ही बसता है। पर संसार से मोह रखने वाला मनुष्य बाहर भटकता फिरता है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh