श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोक महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

रते सेई जि मुखु न मोड़ंन्हि जिन्ही सिञाता साई ॥ झड़ि झड़ि पवदे कचे बिरही जिन्हा कारि न आई ॥१॥

पद्अर्थ: रते = (प्रेम रंग में) रंगे हुए। सोई = वह (मनुष्य) ही (बहुवचन)। जि = जो (मनुष्य)। जिनी = जिन्हों ने। सिञाता = समझा, गहरी सांझ डाली हुई है। साई = साई, पति प्रभु। झड़ि झड़ि पवदे = बार बार झड़ते हैं। कचे बिरही = कमजोर प्रीत वाले। कारि = कारी, मुआफिक (देखो, ‘गुर की मति जीइ आई कारि’ = पंन्ना 220)।1।

अर्थ: हे भाई! वे मनुष्य ही (प्रेम-रंग में) रंगे हुए हैं, जो (पति-प्रभु की याद से कभी भी) मुँह नहीं मोड़ते (कभी भी प्रभु की याद नहीं भुलाते), जिन्होंने पति-प्रभु के साथ गहरी सांझ डाली हुई है। पर जिनको (प्रेम की दवाई) मुआफिक नहीं बैठती (ठीक असर नहीं करती,) वह कमजोर प्रेम वाले मनुष्य (प्रभु चरणों से इस तरह) बार-बार टूटते हैं (जैसे कमजोर कच्चे फल टाहनी से)।1।

धणी विहूणा पाट पट्मबर भाही सेती जाले ॥ धूड़ी विचि लुडंदड़ी सोहां नानक तै सह नाले ॥२॥

पद्अर्थ: धणी = मालिक प्रभु। विहूणा = बिना। पाट = रेशम। पटंबर = पट+अंबर, पाट/रेशम के कपड़े। भाहि = आग। सेती = से। भाही सेती = आग से। जाले = जला दिए हैं। लुडंदड़ी = लेटती। सोहां = मैं सुंदर लगती है। नानक = हे नानक! सह नाले = पति से। तै नाले = तेरे साथ। तै सह नाले = हे पति! तेरे साथ।2।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) (मैंने तो वह) रेशमी कपड़े (भी) आग के साथ जला दिए हैं (जिनके कारण जीवन) पति-प्रभु (की याद) से वंचित ही रहे। हे पति-प्रभु! तेरे साथ (तेरे चरणों में रह के) मैं धूल-मिट्टी में लिबड़ी हुई भी (अपने आप को) सुंदर लगती हूँ।2।

गुर कै सबदि अराधीऐ नामि रंगि बैरागु ॥ जीते पंच बैराईआ नानक सफल मारू इहु रागु ॥३॥

पद्अर्थ: कै सबदि = के शब्द से। अराधीऐ = स्मरणा चाहिए। नामि = नाम में (जुड़ने से), नाम से। रंगि = प्रेम रंग से। बैरागु = विकारों से उपरामता। जीते = जीते जाते हैं, वश में आ जाते हैं। पंच बैराईआ = (कामादिक) पाँचों वैरी। सफल = कामयाब। मारू = खत्म कर देने वाली (दवा)। रागु = हुलारा, प्यार का हुलारा (emotion, feeling)।3।

अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द में जुड़ के परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए। (प्रभु के) नाम की इनायत से, (प्रभु के प्रेम-) रंग की इनायत से (मन में विकारों की ओर से) उपरामता (पैदा हो जाती है), (कामादिक) पाँचों वैरी बस में आ जाते हैं। हे नानक! ये प्रेम-हिलौरे (विकार-रोगों को) खत्म कर देने वाली कारगर दवा हैं।3।

जां मूं इकु त लख तउ जिती पिनणे दरि कितड़े ॥ बामणु बिरथा गइओ जनमु जिनि कीतो सो विसरे ॥४॥

पद्अर्थ: जां = जब। मूं = मेरा, मेरी ओर। त = तब। लख = लाखों ही (मेरी ओर)। तउ = तेरी। जिती = जितनी भी। तउ जिती = तेरी जितनी भी (सृष्टि है)। दरि = (तेरे) दर पर। कितड़े = कितने ही, अनेक, यह सारे अनेक। पिनड़े = माँगने वाले, भिखारी। बामणु जनंमु = (सबसे ऊँचा समझे जाने वाला) ब्राहमण (के घर का) जनम (भी)। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। कीतो = पैदा किया है। सो = वह (परमात्मा)।4।

अर्थ: हे प्रभु! जब तू एक मेरी ओर है, तब (तेरे) पैदा किए हुए लाखों ही (जीव मेरी ओर हो जाते हैं)। (ये) तेरी जितनी भी (पैदा की हुई सृष्टि है, तेरे) दर पर (यह सारे) अनेक ही भिखारी हैं।

हे भाई! जिस परमात्मा ने पैदा किया है, अगर वह भूला रहे (मनुष्य को पैदा करने वाला वह भूल जाए), तो (सबसे ऊँचा समझे जाना वाला) ब्राहमण (के घर का) जनम (भी) व्यर्थ चला गया।4।

सोरठि सो रसु पीजीऐ कबहू न फीका होइ ॥ नानक राम नाम गुन गाईअहि दरगह निरमल सोइ ॥५॥

पद्अर्थ: सोरठि = एक रागिनी। सो रसु = वह (नाम-) रस। पीजीऐ = पीना चाहिए। कबहू = कभी भी। फीका = बेस्वादा। गाईअहि = गाने चाहिए। सोइ = शोभा। निरमल सोइ = बेदाग शोभा।5।

अर्थ: हे भाई! वह (हरि-नाम-) रस पीते रहना चाहिए, जो कभी भी बेस्वादा नहीं होता। हे नानक! परमात्मा के नाम के गुण (सदा) गाए जाने चाहिए (इस तरह परमात्मा की) हजूरी में बेदाग़ शोभा मिलती है।5।

जो प्रभि रखे आपि तिन कोइ न मारई ॥ अंदरि नामु निधानु सदा गुण सारई ॥ एका टेक अगम मनि तनि प्रभु धारई ॥ लगा रंगु अपारु को न उतारई ॥ गुरमुखि हरि गुण गाइ सहजि सुखु सारई ॥ नानक नामु निधानु रिदै उरि हारई ॥६॥

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। न मारई = ना मारे, नहीं मारता, नहीं मार सकता। निधानु = खजाना। सारई = संभालता है, हृदय में बसाए रखता है। अगंम = अगम्य (पहुँच से परे)। टेक अगंम = अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु का आसरा। मनि = मन में। तनि = तन में। धारई = धारे, बसाता है, बसाए रखता है। रंगु = प्रेम रंग। अपार = कभी ना खत्म होने वाला (अ+पार)। को = कोई जीव। न उतारई = न उतारे, दूर नहीं कर सकता। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। गाइ = गाता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सारई = सारे, संभालता है। रिदै = हृदय में। उरि = हृदय में। हारई = धारे, टिकाए रखता है।6।

अर्थ: हे भाई! जिस (मनुष्यों) की प्रभु ने खुद रक्षा की, उनको कोई मार नहीं सकता। हे भाई! (जिस मनुष्य के) हृदय में परमात्मा का नाम खजाना बस रहा है, वह सदा परमात्मा के गुण याद करता रहता है। जिसको एक अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु का (सदा) आसरा है, वह अपने मन में तन में प्रभु को बसाए रखता है। (जिसके हृदय में) कभी ना खत्म होने वाला प्रभु-प्रेम बन जाता है, उस प्रेम-रंग को कोई उतार नहीं सकता।

हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य परमात्मा के गुण गाता रहता है, और आत्मिक अडोलता में (टिक के आत्मिक) आनंद माणता रहता है। हे नानक! (गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य) परमात्मा के नाम का खजाना अपने हृदय में (इस तरह) टिकाए रखता है (जैसे हार गले में डाल के रखा जाता है)।6।

करे सु चंगा मानि दुयी गणत लाहि ॥ अपणी नदरि निहालि आपे लैहु लाइ ॥ जन देहु मती उपदेसु विचहु भरमु जाइ ॥ जो धुरि लिखिआ लेखु सोई सभ कमाइ ॥ सभु कछु तिस दै वसि दूजी नाहि जाइ ॥ नानक सुख अनद भए प्रभ की मंनि रजाइ ॥७॥

पद्अर्थ: करे = (जो काम परमात्मा) करता है। सु = उस (काम) को। मानि = मान, मसझ। दुयी = दूसरी, और-और, अन्य। गणत = चिन्ता। लाहि = दूर कर। नदरि = मेहर की निगाह से। निहालि = देख के। आपे = खुद ही। लेहु लाइ = (अपने चरणों में) जोड़ ले। मती = मति, बुद्धि। उपदेसु = शिक्षा। विचहु = (सेवक के) अंदर से। भरमु = भटकना। जाइ = दूर हो जाए। धुरि = धुर दरगाह से। सोई = वह (लिखा लेख) ही। सभ = सारी लुकाई। तिस दै वसि = उस (परमात्मा) के वश में। जाइ = जगह। भए = हो जाते हैं। मनि = मान के। रजाइ = रजा, भाणा, हुक्म।7।

नोट: ‘तिस दै’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘दै’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! (जो काम परमात्मा) करता है, उस (काम) को अच्छा समझ, (और अपने अंदर से) और तरह की चिन्ता-फिकरें दूर कर।

हे प्रभु! (जीवों के किए कर्मों के अनुसार) धुर दरगाह से जो लेख (इनके माथे पर) लिखा जाता है, सारी दुनिया (उस लेख के अनुसार ही हरेक) कार करती है (क्योंकि) हरेक कार उस (परमात्मा) के वश में है; (उसके बिना जीवों के लिए) और कोई जगह (आसरा) नहीं है।

हे नानक! परमात्मा की रजा को मान के (जीव के अंदर आत्मिक) सुख-आनंद बने रहते हैं।7।

गुरु पूरा जिन सिमरिआ सेई भए निहाल ॥ नानक नामु अराधणा कारजु आवै रासि ॥८॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (जिस) ने। सेई = वह (सारे) ही। निहाल = प्रसन्न चिक्त। कारजु आवै रासि = (हरेक) काम सिरे चढ़ जाता है, सफल हो जाता है।8।

अर्थ: हे भाई! जिस जिस मनुष्य ने पूरे गुरु को (गुरु के उपदेश को) याद रखा, वह सारे प्रसन्न-चिक्त हो गए। हे नानक! (गुरु का उपदेश यह है कि परमात्मा का) नाम स्मरणा चाहिए (नाम-जपने की इनायत से) जीवन का लक्ष्य सफल हो जाता है।8।

पापी करम कमावदे करदे हाए हाइ ॥ नानक जिउ मथनि माधाणीआ तिउ मथे ध्रम राइ ॥९॥

पद्अर्थ: करदे हाइ हाइ = दुखी होते रहते हैं। मथनि = मथती रहती हैं। ध्रमराइ = धरमराज।9।

अर्थ: हे भाई! विकारी मनुष्य (विकारों के) काम करते रहते हैं। हे नानक! (विकारियों को) धरमराज (हर वक्त) इस तरह दुखी करता रहता है जैसे मथानियां (दूध) मथती हैं।9।

नामु धिआइनि साजना जनम पदारथु जीति ॥ नानक धरम ऐसे चवहि कीतो भवनु पुनीत ॥१०॥

पद्अर्थ: धिआइनि = (बहुवचन) ध्याते हैं। पदारथु = कीमती चीज। जीति = जीत के। चवहि = बोलते हैं। ऐसे = इस तरह। भवनु = जगत, संसार। पुनीत = पवित्र।10।

अर्थ: हे भाई! जो भले मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, वे इस कीमती मनुष्य जीवन की बाज़ी जीत के (जाते हैं)। हे नानक! जो मनुष्य (मनुष्य के जीवन का) उद्देश्य (हरि-नाम) उचारते रहते हैं, वे जगत को भी पवित्र कर देते हैं।10।

खुभड़ी कुथाइ मिठी गलणि कुमंत्रीआ ॥ नानक सेई उबरे जिना भागु मथाहि ॥११॥

पद्अर्थ: खुभड़ी = बुरी तरह चुभी रहती है। कुथाइ = गलत जगह में। गलणि = जिल्लत। मंत्र = उपदेश, शिक्षा। कुमंत्र = बुरी शिक्षा। कुमंत्रीआ = बुरी मति लेने वाली। सेई = वह लोग ही। उबरे = बचते हैं। जिना मथाहि = जिनके माथे पर।11।

अर्थ: हे भाई! बुरी मति लेने वाली (जीव-स्त्री माया के मोह की जिल्लत में) गलत जगह पर बुरे हाल चुभी (धँसी) रहती है, (पर यह) जिल्लत (उसको) मीठी (भी लगती है)। हे नानक! वह मनुष्य ही (माया के मोह की इस जिल्लत में से) बच निकलते हैं, जिनके माथे पर भाग्य (जाग उठते हैं)।11।

सुतड़े सुखी सवंन्हि जो रते सह आपणै ॥ प्रेम विछोहा धणी सउ अठे पहर लवंन्हि ॥१२॥

पद्अर्थ: सुतड़े = प्रेम लगन में मस्त रहने वाले। सवंन्हि = सोते हैं, जीवन व्यतीत करते हैं। सहु = पति। सह आपणै = अपने शहु के (प्रेम रंग) में। रते = रंगे हुए। विछोहा = विछोड़ा। धणी = मालिक प्रभु। सउ = से। लवंन्हि = लौ लौ करते रहते हैं (बिना मतलब बोलते रहते हैं)।12।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपने पति-प्रभु के प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं, प्रेम-लगन में मस्त रहने वाले वे मनुष्य आनंद से जीवन व्यतीत करते हैं। पर, जिस मनुष्यों को पति से प्रेम का विछोड़ा रहता है, वह (माया की खातिर) आठों पहर (कौऐ की तरह) काँव-काँव करते रहते हैं।12।

सुतड़े असंख माइआ झूठी कारणे ॥ नानक से जागंन्हि जि रसना नामु उचारणे ॥१३॥

पद्अर्थ: असंख = अनगिनत। कारणे = की खातिर। से = वे (बहुवचन)। जि = जो।13।

अर्थ: हे भाई! नाशवान माया की खातिर अनगिनत जीव (मोह की नींद में) सोए रहते हैं। हे नानक! (मोह की इस नींद में से सिर्फ) वही लोग जागते रहते हैं, जो (अपनी) जीभ से परमात्मा का नाम जपते रहते हैं।13।

म्रिग तिसना पेखि भुलणे वुठे नगर गंध्रब ॥ जिनी सचु अराधिआ नानक मनि तनि फब ॥१४॥

पद्अर्थ: म्रिग तिसना = मृग तृष्णा, ठग नीरा। पेखि = देख के। वुठे = जब आ बसे, जब दिखाई दे गए। नगर गंध्रब = गंधर्व नगर, हरी चंद की नगरी, हवाई किला। सचु = सदा कायम रहने वाला हरि नाम। मनि = मन में। तनि = तन में। छब = सुंदरता, फब।4।

अर्थ: हे भाई! (जैसे) मृगतृष्णा को देख के (हिरण भूल जाते हैं कि और जान गवा लेते हैं, वैसे ही माया की) बनी गंधर्व-नगरी को देख के (जीव) गलत राह पर पड़े रहते हैं। हे नानक! जिस मनुष्यों ने सदा-स्थिर हरि-नाम स्मरण किया, उनके मन में उनके तन में (आत्मिक जीवन की) सुंदरता पैदा हो गई।14।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh