श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जिह सिमरत गति पाईऐ तिह भजु रे तै मीत ॥ कहु नानक सुनु रे मना अउध घटत है नीत ॥१०॥

पद्अर्थ: पाईऐ = प्राप्त की जाती है। तै = तू। रे मीत = हे मित्र! अउध = उम्र। नीत = नित्य।10।

अर्थ: हे मित्र! तू उस परमात्मा का भजन किया कर, जिसका नाम स्मरण करने से ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त होती है। हे नानक! कह: हे मन! सुन, उम्र घटती जा रही है (परमात्मा का स्मरण ना बिसार)।10।

पांच तत को तनु रचिओ जानहु चतुर सुजान ॥ जिह ते उपजिओ नानका लीन ताहि मै मानु ॥११॥

पद्अर्थ: पांच तत = पाँच तत्व: मिट्टी, हवा, पानी, आग, आकाश। को = का। चतुर = हे चतुर मनुष्य! सुजान = हे समझदार मनुष्य! जिह ते = जिस तत्वों से। ताहि माहि = उन (ही तत्वों) में। मानि = मान ले, यकीन जान।11।

अर्थ: हे नानक! (कह:) हे चतुर मनुष्य! हे समझदार मनुष्य! तू जानता है कि (तेरा ये) शरीर (परमात्मा ने) पाँच तत्वों से बनाया है। (ये भी) यकीन जान कि जिस तत्वों से (ये शरीर) बना है (दोबारा) उनमें ही लीन हो जाएगा (फिर इस शरीर के झूठे मोह में फंस के परमात्मा का स्मरण क्यों भुला रहा है?।11।

घट घट मै हरि जू बसै संतन कहिओ पुकारि ॥ कहु नानक तिह भजु मना भउ निधि उतरहि पारि ॥१२॥

पद्अर्थ: घट = शरीर। घट घट मै = हरेक शरीर में। जू = जी। पुकारि = पुकार के, ऊँचा ऊँचा बोल के। भउनिधि = संसार समुंदर। उतरहि = तू पार लांघ जाएगा।12।

अर्थ: हे नानक! कह: हे मन! संत जनों ने ऊँचा-ऊँचा पुकार के बता दिया है कि परमात्मा हरेक शरीर में बस रहा है। तू उस (परमात्मा) का भजन किया कर, (भजन की इनायत से) संसार-समुंदर से तू पार लांघ जाएगा।12।

सुखु दुखु जिह परसै नही लोभु मोहु अभिमानु ॥ कहु नानक सुनु रे मना सो मूरति भगवान ॥१३॥

पद्अर्थ: जिह = जिस (के मन) को। परसै = छूता। अभिमानु = अहंकार। सो = वह (मनुष्य)। मूरति भगवान = भगवान का स्वरूप।13।

अर्थ: हे नानक! कह: हे मन! सुन, जिस मनुष्य (के हृदय) को सुख-दुख नहीं छू सकता, लोभ मोह अहंकार नहीं पोह सकता (भाव, जो मनुष्य सुख-दुख के समय आत्मिक जीवन से नहीं डोलता, जिस पर लोभ-मोह-अहंकार अपना जोर नहीं डाल सकता) वह मनुष्य (साक्षात) परमात्मा का रूप है।13।

उसतति निंदिआ नाहि जिहि कंचन लोह समानि ॥ कहु नानक सुनि रे मना मुकति ताहि तै जानि ॥१४॥

पद्अर्थ: उसतति = बड़ाई। जिहि = जिस (के मन) को। कंचन = सोना। लोह = लोहा। समानि = एक जैसा। मुकति = मोह से खलासी। ताहि = उस (मनुष्य) ने (प्राप्त की है)। ते = तू। जानि = समझ ले।14।

अर्थ: हे नानक! कह: हे मन! सुन, जिस मनुष्य (के मन) को स्तुति नहीं (डाँवा-डोल कर सकती), जिसको सोना और लोहा एक समान (दिखते हैं, भाव, जो लालच में नहीं फंसता), यह बात (पक्की) समझो कि उसको मोह से छुटकारा मिल चुका है।14।

हरखु सोगु जा कै नही बैरी मीत समानि ॥ कहु नानक सुनि रे मना मुकति ताहि तै जानि ॥१५॥

पद्अर्थ: हरखु = खुशी। सोगु = चिन्ता, गम। जा कै = जिस (मनुष्य) के हृदय में। समानि = एक जैसे। मुकति = माया के मोह से खलासी।15।

अर्थ: हे नानक! कह: हे मन! सुन, जिस मनुष्य के हृदय में खुशी-ग़मी अपना जोर नहीं डाल सकती, जिसको वैरी और मित्र एक जैसे (मित्र ही) प्रतीत होते हैं, तू ये बात पक्की समझ कि उसको माया के मोह से निजात मिल चुकी है।15।

भै काहू कउ देत नहि नहि भै मानत आन ॥ कहु नानक सुनि रे मना गिआनी ताहि बखानि ॥१६॥

पद्अर्थ: भै = डरावे। आन = अन्य के। गिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ वाला मनुष्य। ताहि = उसको। बखानि = कह।16।

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे नानक! कह: हे मन! सुन, जो मनुष्य किसी को (कोई) डरावे नहीं देता, और किसी से भयभीत (भी) नहीं होता (धमकियों डरावों से घबराता नहीं) उसको आत्मिक जीवन की सूझ वाला समझ।16।

जिहि बिखिआ सगली तजी लीओ भेख बैराग ॥ कहु नानक सुनु रे मना तिह नर माथै भागु ॥१७॥

पद्अर्थ: जिहि = जिस (मनुष्य) ने। बिखिआ = माया। सगली = सारी। बिखिआ सगली = (काम क्रोध लोभ मोह अहंकार निंदा ईष्या आदि) सारी की सारी माया। तिह नर माथै = उस मनुष्य के माथे पर।17।

अर्थ: हे नानक! कह: हे मन! सुन, जिस (मनुष्य) ने (काम क्रोध लोभ मोह अहंकार निंदा ईष्या आदि) सारी की सारी माया त्याग दी, (उसने ही सही) वैराग का (सही) भेस धारण किया (समझो)। हे मन! उस मनुष्य के माथे पर (अच्छे) भाग्य (जागे समझ)।17।

जिहि माइआ ममता तजी सभ ते भइओ उदासु ॥ कहु नानक सुनु रे मना तिह घटि ब्रहम निवासु ॥१८॥

पद्अर्थ: ममता = अपनत्व। ते = से। उदासु = उदास, उपराम। तिह घटि = उस (मनुष्य) के दिल में।18।

अर्थ: हे नानक! कह: हे मन! सुन, जिस (मनुष्य) ने माया का मोह छोड़ दिया, (जो मनुष्य माया के कामादिक) सारे विकारों से उपराम हो गया, उसके दिल में (प्रत्यक्ष तौर पर) परमात्मा का निवास हो जाता है।

जिहि प्रानी हउमै तजी करता रामु पछानि ॥ कहु नानक वहु मुकति नरु इह मन साची मानु ॥१९॥

पद्अर्थ: जिहि प्रानी = जिस प्राणी ने। पछानि = पहचान के, सांझ डाल के। वहु नरु = वह मनुष्य। मुकत = विकारों से बचा हुआ। मन = हे मन!।19।

अर्थ: जिस मनुष्य ने कर्तार विधाता के साथ गहरी सांझ डाल के (अपने अंदर से) अहंकार त्याग दिया, हे नानक! कह: हे मन! ये बात सच्ची समझ कि वह मनुष्य (ही) मुक्त है।19।

भै नासन दुरमति हरन कलि मै हरि को नामु ॥ निसि दिनु जो नानक भजै सफल होहि तिह काम ॥२०॥

पद्अर्थ: भै = सारे डर। हरन = दूर करने वाला। दुरमति = खोटी मति। कलि महि = कष्ट भरे संसार में। को = का। निसि = रात। भजै = जपता है (एकवचन)। होहि = हो जाते हैं। तिह काम = उसके (सारे) काम।20।

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) इस कष्ट भरे संसार में परमात्मा का नाम (ही) सारे डर नाश करने वाला है, खोटी मति दूर करने वाला है। जो मनुष्य प्रभु का नाम रात दिन जपता रहता है उसके सारे काम सफल हो जाते हैं।20।

जिहबा गुन गोबिंद भजहु करन सुनहु हरि नामु ॥ कहु नानक सुनि रे मना परहि न जम कै धाम ॥२१॥

पद्अर्थ: जिहबा = जीभ (से)। करन = कानों से। परहि न = नहीं पड़ते। धाम = घर। जम कै धाम = जम के घर में, जम के वश में।21।

अर्थ: हे भाई! (अपनी) जीभ से परमात्मा के गुणों का जाप किया करो, (अपने) कानों से परमात्मा का नाम सुना करो। हे नानक! कह: हे मन! (जो मनुष्य नाम जपते हैं, वे) जमों के वश नहीं पड़ते।21।

जो प्रानी ममता तजै लोभ मोह अहंकार ॥ कहु नानक आपन तरै अउरन लेत उधार ॥२२॥

पद्अर्थ: ममता = अपनत्व, मोह। तजै = छोड़ता है। तरै = पार लांघ जाता है। अउरन = और लोगों को। लेत उधार = बचा लेता है।22।

अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) जो मनुष्य (अपने अंदर से माया की) ममता त्यागता है, लोभ मोह और अहंकार को दूर करता है, वह स्वयं (भी इस संसार-समुंदर से) पार लांघ जाता है और-और लोगों को भी (विकारों से) बचा लेता है।22।

जिउ सुपना अरु पेखना ऐसे जग कउ जानि ॥ इन मै कछु साचो नही नानक बिनु भगवान ॥२३॥

पद्अर्थ: अरु = और। कउ = को। जानि = समझ ले। इन महि = इन (दिखाई देते पदार्थों) में (बहुवचन)। कछु = कोई भी पदार्थ। साचो = सदा कायम रहने वाला, सदा साथ निभाने वाला।23।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जैसे (सोए हुए) सपना (आता है) और (और उस सपने में कई पदार्थ हम) देखते हैं, वैसे ही इस जगत को समझ ले। परमात्मा के नाम के बिना (जगत में दिखाई दे रहे) इन (पदार्थों) में कोई भी पदार्थ सदा साथ निभाने वाला नहीं है।23।

निसि दिनु माइआ कारने प्रानी डोलत नीत ॥ कोटन मै नानक कोऊ नाराइनु जिह चीति ॥२४॥

पद्अर्थ: निसि = रात। कारने = की खातिर। डोलत = भटकता फिरता है। नीत = नित्य, सदा। कोटन मै = करोड़ों में। कोऊ = कोई विरला। जिह चीति = जिसके चिक्त में।24।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) माया (इकट्ठी करने) की खातिर मनुष्य सदा रात-दिन भटकता फिरता है। करोड़ों (लोगों) में कोई विरला (ऐसा होता) है, जिसके मन में परमात्मा की याद टिकी होती है।24।

जैसे जल ते बुदबुदा उपजै बिनसै नीत ॥ जग रचना तैसे रची कहु नानक सुनि मीत ॥२५॥

पद्अर्थ: ते = से। बुदबुदा = बुल बुला। रची = बनाई हुई है। मीत = हे मित्र!।25।

अर्थ: हे नानक! कह: हे मित्र! सुन, जैसे पानी से सदा बुलबुला पैदा होता है और नाश होता रहता है, वैसे ही (परमात्मा ने) जगत की (यह) खेल बनाई हुई है।25।

प्रानी कछू न चेतई मदि माइआ कै अंधु ॥ कहु नानक बिनु हरि भजन परत ताहि जम फंध ॥२६॥

पद्अर्थ: न चेतई = ना चेते, नहीं सोचता। मदि = नशे में। मदि माइआ कै = माया के नशे में। अंधु = (आत्मिक जीवन से) अंधा। परत = पड़ते हैं, पड़े रहते हैं। फंध = फंदे।26।

अर्थ: पर, माया के नशे में (आत्मिक जीवन से) अंधा हुआ मनुष्य (आत्मिक जीवन के बारे में) कुछ भी नहीं सोचता। हे नानक! कह: परमात्मा के भजन के बिना (ऐसे मनुष्य को) जमों के फंदे पड़े रहते हैं।26।

जउ सुख कउ चाहै सदा सरनि राम की लेह ॥ कहु नानक सुनि रे मना दुरलभ मानुख देह ॥२७॥

पद्अर्थ: जउ = यदि। चाहै = चाहता है। लेह = ले रखे, पड़ा रहे। देह = शरीर।27।

अर्थ: हे नानक! कह: हे मन! सुन, ये मनुष्य-शरीर बड़ी मुश्किल से मिलता है (इसको माया की खातिर भटकने में ही नहीं व्यर्थ गवा देना चाहिए)। सो, जो (मनुष्य) आत्मिक आनंद (हासिल करना) चाहता है, तो (उसको चाहिए कि) परमात्मा की शरण पड़ा रहे।27।

माइआ कारनि धावही मूरख लोग अजान ॥ कहु नानक बिनु हरि भजन बिरथा जनमु सिरान ॥२८॥

पद्अर्थ: धावही = दौड़ते फिरते हैं। अजान = बेसमझ। सिरान = गुजर जाता है।28।

अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) मूर्ख बेसमझ बंदे (निरी) माया (इकट्ठी करने) के लिए भटकते रहते हैं, परमात्मा के भजन के बिना (उनका ये मनुष्य-) जनम व्यर्थ बीत जाता है।28।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh