श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रामकली बाणी बेणी जीउ की    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ इड़ा पिंगुला अउर सुखमना तीनि बसहि इक ठाई ॥ बेणी संगमु तह पिरागु मनु मजनु करे तिथाई ॥१॥ संतहु तहा निरंजन रामु है ॥ गुर गमि चीनै बिरला कोइ ॥ तहां निरंजनु रमईआ होइ ॥१॥ रहाउ ॥ देव सथानै किआ नीसाणी ॥ तह बाजे सबद अनाहद बाणी ॥ तह चंदु न सूरजु पउणु न पाणी ॥ साखी जागी गुरमुखि जाणी ॥२॥ उपजै गिआनु दुरमति छीजै ॥ अम्रित रसि गगनंतरि भीजै ॥ एसु कला जो जाणै भेउ ॥ भेटै तासु परम गुरदेउ ॥३॥ दसम दुआरा अगम अपारा परम पुरख की घाटी ॥ ऊपरि हाटु हाट परि आला आले भीतरि थाती ॥४॥ जागतु रहै सु कबहु न सोवै ॥ तीनि तिलोक समाधि पलोवै ॥ बीज मंत्रु लै हिरदै रहै ॥ मनूआ उलटि सुंन महि गहै ॥५॥ जागतु रहै न अलीआ भाखै ॥ पाचउ इंद्री बसि करि राखै ॥ गुर की साखी राखै चीति ॥ मनु तनु अरपै क्रिसन परीति ॥६॥ कर पलव साखा बीचारे ॥ अपना जनमु न जूऐ हारे ॥ असुर नदी का बंधै मूलु ॥ पछिम फेरि चड़ावै सूरु ॥ अजरु जरै सु निझरु झरै ॥ जगंनाथ सिउ गोसटि करै ॥७॥ चउमुख दीवा जोति दुआर ॥ पलू अनत मूलु बिचकारि ॥ सरब कला ले आपे रहै ॥ मनु माणकु रतना महि गुहै ॥८॥ मसतकि पदमु दुआलै मणी ॥ माहि निरंजनु त्रिभवण धणी ॥ पंच सबद निरमाइल बाजे ॥ ढुलके चवर संख घन गाजे ॥ दलि मलि दैतहु गुरमुखि गिआनु ॥ बेणी जाचै तेरा नामु ॥९॥१॥ {पन्ना 974}

पद्अर्थ: ईड़ा = बाई नासिका की नाड़ी, जिस रास्ते जोगी लोग प्राणायाम करने के समय श्वास ऊपर को खींचते हैं। पिंगुला = दाहिनी नासिका की नाड़ी, जिस रास्ते प्राण उतरते हैं। सुखमना = (सं: सुषमणा) नाम के ऊपर की नाड़ी जहाँ प्राणायाम के वक्त प्राण टिकाते हैं। तीनि = ईड़ा, पिंगला और सुखमना तीनों ही नाड़ियाँ। इक ठाई = एक जगह पर (जहाँ निरंजन प्रभू बसता है)। बेणी = त्रिवेणी। बेणी संगमु = त्रिबेणी का मूल, वह जगह जहाँ गंगा-जमुना-सरस्वती तीनों ही नदियाँ मिलती हैं। तह = वहीं ही (जहाँ निरंजन राम प्रकट हुआ है)। पिरागु = प्रयाग तीर्थ। मजनु = स्नान।1।

तहा = वहाँ (जहाँ मन डुबकी लगता है)। गमि = पहुँच के। गुर गमि = गुरू तक पहुँच के, गुरू की शरण पहुँच के। चीनै = पहचानता है, सांझ बनाता है। रमईआ = सुंदर राम।1। रहाउ।

देव सथान = प्रभू के रहने की जगह, वह जगह जहाँ प्रभू प्रकट हो गया है। बाजे = बजता है।

(नोट: घर में चाहे कई बढ़िया-बढ़िया साज पड़े रहें, जब तक वे बजाए ना जाएं, उनके बजने से जो उत्साह पैदा होता है, वह पैदा नहीं हो सकता) आनंद लाता है, हुलारा लाता है। सबद बाजे, बाणी बाजे, सतिगुरू का शबद, प्रभू की सिफत सालाह की बाणी, हुलारा पैदा करते हैं।

तह = उस अवस्था में (जब निरंजन राम प्रकट होता है)। साखी = शिक्षा से। जागी = (सुरति) जाग उठती है। जाणी = सूझ पड़ जाती है।2।

छीजै = नाश हो जाती है। अंम्रित रसि = नाम अमृत के रस से। गगनंतरि = गगन+अंतरि, गगन में, आकाश में, ऊँची उड़ान में। भीजै = (मन) भीग जाता है, रस जाता है। कला = हुनर। भेउ = भेद। तासु = उसको। परम = सबसे ऊँचा।3।

दुआर = दरवाजा, द्वार (जहाँ से किसी मकान के बाहरी हिस्से का संबंध मकान के अंदरूनी हिस्से से बनता है। मनुष्य शरीर के दस दरवाजे हैं, जिनके माध्यम से बाहरी पदार्थों का संबंध शरीर से और अंदर का बाहर से बनता है। नौ दरवाजे तो जगत से साधारण सांझ बनाने के लिए हैं, पर दिमाग एक ऐसा दरवाजा है जिसकी बरकति से मनुष्य प्रभू से सांझ बना सकता है, क्योंकि सोच-विचार इसी 'द्वार' के माध्यम से हो सकती है)। दसम दुआर = शरीर का दसवाँ द्वार, दिमाग़। घाटी = जगह। थाती = (सं: स्थिति) टिकाउ।

पलोवै = दौड़ जाते हैं, प्रभाव नहीं डाल सकते। उलटि = ('तीन तिलोक' की ओर से) पलट के। गहै = (ठिकाना) पकड़ता है।5।

अलीआ = (सं: अलीक) झूठ। साखी = शिक्षा। चीति = चिक्त में। क्रिशन = प्रभू।6।

कर = हाथ की (उंगलियाँ)। पलव = पत्र। साखा = शाखा, टहणियाँ। असुर नदी = विकारों की नदी। मूलु = श्रोत। बंधै = रोक देता है, बंद कर देता है। फेरि = मोड़ के, हटा के। पछमि = पश्चिम, उतरता पासा, वह दिशा जिधर सूरज डूबता है, वह पासा जिधर ज्ञान के सूर्य के डूबने का खतरा होता है, अज्ञानता। सूरु = ज्ञान का सूर्य। निझरु = चश्मा, झरना। गोसटि = मिलाप। अजरु = अ+जरा, जिसको कभी बुढ़ापा ना आए।7।

पलू = पल्लव, पक्तियाँ, पंखुड़ियाँ। अनत = अनंत। रहै = रहता है। रतन = प्रभू के गुण। गुहै = छुपा रहता है, जुड़ा रहता है। सरब कला = सारी ताकतों वाला प्रभू।8।

मसतकि = माथे पर। पदमु = कमल फूल। मणी = हीरे। माहि = धुर अंदर। धणी = मालिक। पंच सबद = पाँचों ही किस्मों के साजों की आवाज। निरमाइल = निर्मल, पवित्र, सोहाने। ढुलके = झूल रहा है। घन = बहुत। दलि = दलै, दल देता है। दैतहु = दैत्यों को, कामादिक विकारों को। जाचै = मांगता है।9।

अर्थ: हे संत जनो! माया-रहित राम उस अवस्था में (मनुष्य के मन में) बसता है, निरंजन सोहाना राम प्रकट होता है, जिस अवस्था से सांझ कोई विरला मनुष्य सतिगुरू की शरण पड़ कर बनाता है।1। रहाउ।

(जो मनुष्य गुरू की कृपा से उस मिलन-अवस्था में पहुँचा है, उसके वास्ते) ईड़ा, पिंगला और सुखमना तीनों ही एक ही जगह बसती हैं, त्रिबेणी संगम प्रयाग तीर्थ भी (उस मनुष्य के लिए) वहीं बसते हैं। भाव, उस मनुष्य को ईड़ा, पिंगुला सुखमना के अभ्यास की आवश्यक्ता नहीं रह जाती; उसको तृवेणी और प्रयाग के स्नान की जरूरत नहीं रहती। (उस मनुष्य का) मन प्रभू के (मिलाप रूप तृवेणी में) स्नान करता है।1।

(अगर कोई पूछे कि) जिस अवस्था में प्रभू (मन के अंदर) आ टिकता है, उसकी पहचान क्या है (तो उक्तर ये है कि) उस अवस्था में सतिगुरू का शबद प्रभू की सिफत सालाह की बाणी (मनुष्य के हृदय में) हिल्लौरे पैदा करती हैं; (जगत के अंधेरे को दूर करने के लिए) चाँद और सूरज (उतने समर्थ) नहीं (जितना वह हिलौरा मन के अंधेरे को दूर करने के लिए होता है), पवन पानी (आदि तत्व जगत को उतना सुख) नहीं (दे सकते, जितना सुख ये हिलौरा मनुष्य के मन को देता है); मनुष्य की सुरति गुरू की शिक्षा के साथ जाग उठती है, गुरू के द्वारा सूझ पड़ जाती है।2।

(प्रभू-मिलाप वाली अवस्था में मनुष्य की) प्रभू के साथ गहरी जान-पहचान बन जाती है। दुमर्ति नाश हो जाती है; ऊँची उड़ान में (पहुँचा हुआ मन) नाम-अमृत के रस के साथ रस जाता है; जो मनुष्य इस (अवस्था में पहुँच सकने वाले) हुनर का भेद जान लेता है, उसको अकाल-पुरख मिल जाता है।3।

अपहुँच, बेअंत और परम पुरख प्रभू के प्रकट होने का ठिकाना (मनुष्य के शरीर का दिमाग़-रूप) दसवाँ-द्वार है; शरीर के ऊपरी हिस्से में (सिर, मानो) एक हाट है, उस हाट में (दिमाग़, मानो) एक आला है, इस आले के द्वारा प्रभू का प्रकाश होता है।4।

(जिसके अंदर परमात्मा प्रकट हो गया) वह सदा जागता रहता है (सचेत रहता है), (माया की नींद में) कभी सोता नहीं; वह एक ऐसी समाधि में टिका रहता है जहाँ से माया के तीनों गुण और तीनों लोकों की माया परे ही रहती है; वह मनुष्य प्रभू का नाम-मंत्र अपने हृदय में टिका के रखता है, (जिसकी बरकति से) उसका मन माया की ओर से पलट के (सचेत रहता है), उस अवस्था में ठिकाना पकड़ता है जहाँ कोई फुरना नहीं उठता।5।

वह मनुष्य सदा जागता है, (सचेत रहता है), कभी झूठ नहीं बोलता; पाँचों ही इन्द्रियों को अपने काबू में रखता है, सतिगुरू का उपदेश अपने मन में संभाल के रखता है, अपना मन, अपना शरीर प्रभू के प्यार से सदके करता है।6।

वह मनुष्य (जगत को) हाथ (की उंगलियाँ, वृक्ष की) टहनियाँ और पत्ते समझता है (इसलिए मूल प्रभू को छोड़ के इसके पसारे में फंस के) अपनी जिंदगी जूए के खेल में नहीं गवाता; विकारों की नींद का श्रोत ही बंद कर देता है, मन को अज्ञानता के अंधेरे से पलट के (इसमें ज्ञान का) सूरज चढ़ाता है; (सदा के लिए) परमात्मा के साथ मेल कर लेता है, (मिलाप का उसके अंदर) एक चश्मा फूट पड़ता है, (वह एक ऐसी मौज) का आनंद लेता है, जिसको कभी बुढ़ापा नहीं (भाव, कभी खत्म नहीं होता)।7।

प्रभू की ज्योति द्वारा उसके अंदर (मानो) चार मुँह वाला दीपक जग उठता है (जिसके कारण हर तरफ प्रकाश ही प्रकाश रहता है); (उसके अंदर, मानो, एक ऐसा फूल खिल उठता है, जिसके) बीच में प्रभू-रूप मकरंद होता है और उसकी बेअंत पक्तियाँ होती हैं (अनंत रचना वाला प्रभू उसके अंदर प्रकट हो जाता है) वह मनुष्य सारी ताकतों के मालिक प्रभू को अपने अंदर बसा लेता है, उसका मन मोती (बन के प्रभू के गुण रूप) रत्नों में जुड़ा रहता है।8।

उस बंदे के धुर अंदर त्रिलोकी का मालिक प्रभू आ टिकता है। (उसकी बरकति से) उसके माथे पर (मानो) कमल फूल (खिल उठता है, और) उस फूल के चारों तरफ हीरे (परोए जाते हैं); (उसके अंदर मानो एक ऐसा सुंदर राग होता है कि) पाँचों ही किस्मों के सुंदर साज बज उठते हैं, बड़े शंख बजने लग जाते हैं, उसके ऊपर चवर झूलने लगता है (भाव, उसका मन शहनशाहों का शाह बन जाता है)। सतिगुरू से मिला हुआ प्रभू के नाम का ये प्रकाश कामादिक विकारों को मार खत्म कर देता है।

हे प्रभू! (तेरा दास) बेणी (भी तेरे दर से) (ये) नाम ही माँगता है।9।1।

नोट: बेणी जी इस अष्टपदी में कई अलंकारों के माध्यम से वह सुख बयान करते हैं जो मन को प्रभू के चरणों में जोड़ने से मिलता है; माया के तीन गुणों और कामादिक की मार से मन ऊँचा हो जाता है। अगर निरी कविता का ही ख्याल करें तो भी बहुत सुंदर रचना है, पर अलंकारों के कारण मुश्किल जरूर लगती है।

ऐसा प्रतीत होता है जैसे गुरू नानक देव जी ने सादे शब्दों में अपनी एक अष्टपदी के माध्यम से इस शबद के भाव को बयान कर दिया है; कई शब्द सांझे मिलते थे; जैसे: सुंन समाधि, दुरमति, नामु रतनु, अनाहद, जागि रहे, पंच तसकर, वाजै आदि। गुरू नानक देव जी वाली अष्टपदी भी इसी राग में ही है।

रामकली महला १॥ खटु मटु देही मनु बैरागी॥ सुरति सबदु धुनि अंतरि जागी॥ वाजै अनहदु मेरा मनु लीणा॥ गुर बचनी सचि नामि पतीणा॥१॥ प्राणी राम भगति सुखु पाईअै॥ गुरमुखि हरि हरि मीठा लागै हरि हरि नामि समाईअै॥१॥ रहाउ॥ माइआ मोहु बिवरजि समाऐ॥ सतिगुरु भेटै मेलि मिलाऐ॥ नामु रतनु निरमोलकु हीरा॥ तितु राता मेरा मनु धीरा॥२॥ हउमै ममता रोगु न लागै॥ राम भगति जम का भउ भागै॥ जंमु जंदारु न लागै मोहि॥ निरमल नामु रिदै महि सोहि॥३॥ सबदु बीचारि भऐ निरंकारी॥ गुरमति जागे दुरमति परहारी॥ अनदिनु जागि रहे लिव लाई॥ जीवन मुकति गति अंतरि पाई॥४॥ अलिपत गुफा महि रहहि निरारे॥ तसकर पंच सबदि संघारे॥ पर घर जाइ न मनु डोलाऐ॥ सहज निरंतरि रहउ समाऐ॥५॥ गुरमुखि जागि रहे अउधूता॥ सद बैरागी ततु परोता॥ जगु सूता मरि आवै जाइ॥ बिनु गुर सबद न सोझी पाइ॥६॥ अनहद सबदु वजै दिनु राती॥ अविगत की गति गुरमुखि जाती॥ तउ जानी जा सबदि पछानी॥ ऐको रवि रहिआ निरबानी॥७॥ सुंन समाधि सहजि मनु राता॥ तजि हउ लोभा ऐको जाता॥ गुर चेले अपना मनु मानिआ॥ नानक दूजा मेटि समानिआ॥८॥३॥ (पन्ना ९०३-९०४)

भगत बाणी के विरोधी सज्जन जी भगत-बाणी को गुरबाणी गुरमति के उलट समझ के भगत बेणी जी के बारे में यूँ लिखते हैं- 'आप जाति के ब्राहमण थे, जोग-अभ्यास के पक्के श्रद्धालु थे, कर्म-काण्ड की भी बहुत हिमायत करते थे।'

इससे आगे बेणी जी का रामकली राग वाला ये उपरोक्त शबद दे के फिर लिखते हैं- 'उक्त शबद के अंदर भगत जी ने 'अनहत शबद', निउली करम, योग-अभ्यास का उपदेश दे के जोरदार शब्दों द्वारा मंडन किया है। इससे साबित होता है कि भगत जी योग-अभ्यास और वैश्णव मत के पक्के श्रद्धालु थे'।

पर, पाठक सज्जन बेणी जी के शबद में देख आए हैं कि नियोली करम का कोई वर्णन नहीं है, विरोधी सज्जन ने शबद के प्रति उपरामता पैदा करने के लिए बढ़ा-चढ़ा के बात लिखी है। जोग-अभ्यास का भी भगत जी ने उपदेश नहीं किया, बल्कि खण्डन किया है और कहा है कि प्रभू-मेल की अवस्था के बीच ही योग-अभ्यास और त्रिवेणी का स्नान आ जाते हैं। अब रहा भगत जी का 'अनहद शबद' का उपदेश। ऊपर लिखी गुरू नानक पातशाह की अष्टपदी पढ़ें; साहिब कहते हैं- 'वाजै अनहदु, अलिपत गुफा महि रहहि निरारे, अनहद सबदु वजै, सुंन समाधि सहजि मनु राता।' इसे पढ़ कर विरोधी सज्जन क्या गुरू नानक साहिब को योग-अभ्यास व वैश्णव मत का श्रद्धालू समझ लेगा? जल्दबाजी त्याग के, धैर्य से एक-एक शब्द की संरचना समझ के, उस समय की व्याकरण के अनुसार शब्दों के परस्पर संबंध को ध्यान से समझ के, पक्षपात से ऊपर उठ कर, अगर शबद को पढ़ेंगे, तो ये शबद निरोल गुरमति अनुसार दिखाई दे जाएगा। भगत जी तो आरम्भ में ही 'रहाउ' की तुकों में कहते हैं कि परमात्मा उस आत्मिक अवस्था में प्रकट होता है, जिस अवस्था की सूझ गुरू की शरण पड़ने से मिलती है। आखिरी तुक में फिर कहते हैं कि 'गुरमुखि गिआनु' गुरू से मिला हुआ ज्ञान (विकार) दैत्यों को नाश कर देता है। ये कह के प्रभू से नाम की दाति माँगते हैं।

अफसोस! जल्दबाजी और बे-प्रतीती में इस शबद को पढ़ के विरोधी सज्जन गलत अर्थ लगा रहे हैं।

विरोधी सज्जन सिर्फ गलती ही नहीं कर रहे, खुद को कुछ हद तक धोखा भी दे रहे हैं। देखिए, भगत बेणी जी के बाकी शबदों को सामने पेश किए बिना उनके बारे में ऐसा लिखना- "भगत जी के दो और शबद सिरी राग और प्रभाती राग में आए हैं, पर उन शबदों से भी गुरमति के किसी सिद्धांत पर रौशनी नहीं पड़ती। इससे साबित हुआ कि भगत बेणी जी की रचना गुरमति का कोई प्रचार नहीं करती, बल्कि गुरमति की विरोधी है।"

रामकली राग के शबद को तो पाठक पढ़ ही चुके हैं और देख चुके हैं कि ये हू-ब-हू आशय से मिलता है। बेणी जी का सिरी राग वाला शबद पहले विचारा जा चुका है। हम यहाँ सिर्फ 'रहाउ' का बंद फिर देते हैं।

'फिरि पछुतावहिगा मूढ़िआ, तूं कवन कुमति भ्रमि लागा। चेति रामु, नाही जमपुरि जाहिगा, जनु बिचरै अनराधा'।1। रहाउ।

क्यों भाई साहब! प्रभू के नाम सिमरन के लिए प्रेरणा करनी भी गुरमति के उलट ही है? इससे तो ऐसा लगता है कि जानबूझ के विरोधता की जा रही है।

बेणी जी का अगला शबद प्रभाती राग वाला भी पढ़ कर देखना। जाति के ब्राहमण बेणी जी, ब्राहमण द्वारा डाले गए कर्म-काण्ड के जाल का पाज और किस तगड़े ढंग साफ शब्दों में खोलते? लगता है भाई साहब ने ये शबद पढ़ा ही नहीं। हठ-अधीन हो के सच्चाई से दूर ही जा पड़ते हैं।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh