श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1 ੴ सतिगुर प्रसादि॥ जपु जी का भाव पउड़ी-वार भाव: (अ) १ से ३- “झूठ” (माया) के कारण जीव की जो दूरी परमात्मा से बनती जा रही है वह प्रमात्मा के ‘हुक्म’ में चलने से ही मिट सकती है। जब से जगत बना है तब से ही यही असूल चला आ रहा है।१। प्रभु का ‘हुक्म’ एक ऐसी सत्ता है, जिसके अधीन सारा ही जगत है। उस हुक्म-सत्ता का मुकम्मल स्वरूप् बयान नहीं हो सकता, पर जो मनुष्य उस हुक्म मंर चलना सीख लेता है, उस का स्वै-भाव मिट जाता है।२। प्रभु के भिन्न-भिन्न कार्यों को देख के मनुष्य अपनी-अपनी समझ अनुसार प्रभु की हुक्म-सत्ता का अंदाजा लगाते चले आ रहे हैं। करोड़ों ने ही प्रयत्न किया है, पर किसी भी तरफ से अंदाजा नहीं लग सका। बेअंत दातें उस के हुक्म में बेअंत लोगों को मिल रही हैं। प्रभु की हुक्म-सत्ता ऐसी ख़ूबी के साथ जगत का प्रबंध कर रही है कि बावजूद बेअंत उलझनों व गुँझलदार होते हुए भी उस प्रभु को कोई थकावट या खीज नहीं है।३। (आ) ४ से ७ दान-पुण्य करने वाले या किसी तरह के पैसे के चढ़ावे से जीव की प्रभु से यह दूरी नहीं मिट सकती, क्योंकि ये दातें तो उस प्रमात्मा की ही दी हुई हैं। उस प्रभु से बातें उसकी अपनी बोली में ही हो सकती हैं, और वह बोली है ‘प्रेम’। जो मनुष्य अमृत बेला (प्रात: काल) में उठ के उस प्रभु की याद में जुड़ता है उसको ‘प्रेम-पटोला’ मिलता है। जिसकी बरकत से उसको हर जगह प्रमात्मा ही दिखाई देने लग जाता है। ४। प्रेम को मन में बसा के जो मनुष्य प्रभु की याद में जुड़ता है, उसके हृदय में सदा सुख और शांति का निवास रहता है। पर यह याद, यह बंदगी गुरु के द्वारा ही मिलती है। गुरु ही ये दृढ़ करवाता है कि प्रभु हर जगह बस रहा है। गुरु के द्वारा ही जीव की प्रभु से दूरी दूर होती है। इसलिए गुरु से ही बंदगी की दात मांगें। ५। तीर्तों का स्नान भी होते प्रभु की प्रसन्नता व प्यार की प्राप्ति का साधन नहीं है। जिस पे मेहर हो वह गुरु के राह पर चल कर प्रभु की याद में जुड़े। बस! उस मनुष्य की मति में ऊँचे हिलौरे आते हैं।६।१ प्रणायाम की मदद् से उम्र लम्बी करके जगत में भले ही मनुष्य का मान-आदर बन जाए, पर यदि वह बंदगी के गुण से रहित है तो प्रभु की मेहर का पात्र नहीं बना। प्रभु की नजरों में तो बल्कि वह नाम-रहित जीव एक छोटा सा कीड़ा ही है।७। (इ) ८ से ११: सो, प्रभु की याद में चिक्त जोड़ना है। जिन्होंने जोड़ा है उनके मन सदा खिले रहते हैं। सिफ़त-सलाह में जुड़ के साधारण मनुष्य भी ऊँची आत्मक अवस्था प्राप्त कर लेते हैं। उन्हें प्रत्यक्ष प्रतीत होता है कि प्रभु सारे खण्डों-ब्रह्मण्डों में व्यापक है और धरती-आकाश का आसरा है। इस तरह हर जगह प्रभु का दीदार होने से उन्हें मौत का डर भी नहीं सता सकता।८। जैसे-जैसे श्रुति (सुर्त) नाम में जुड़ती है, जो मनुष्य पहले विकारी था वो भी विकार छोड़ के सिफ़्त-सलाह करने वाला स्वभाव परिपक्व कर लेता है। इसी तरह ये समझ आ जाता है कि गलत रास्ते पड़ी हुईं ज्ञान-इंद्रिय कैसे प्रभु से दूरी करवाए जातीं है तथा इस दूरी को मिटाने का तरीका क्या है। नाम में सुर्ति जोड़ने से ही धर्म-पुस्तकों का ज्ञान मनुष्य मन में खुलता है।९। नाम में ध्यान जोड़ने से ही मन विशाल होता है, जरूरतमंदों की सेवा व संतोषी जीवन बनता है। नाम में डुबकी ही अठसठ् तीर्तों का स्नान है। दुनियावी किसी भी मान-आदर की परवाह नहीं रह जाती। मन सहज अवस्था में, अडोलता में, मगन रहता है।१०। जैसे-जैसे ध्यान नाम में जुड़ता है, आदमी ईश्वरीय गुणों के समुंदर में डुबकी लगाता है। संसार एक अथाह समुंदर है, जहाँ विछड़ा हुआ जीव अन्धे की तरह हाथ-पैर मारता है। पर नाम के साथ जुड़ा हुआ जीव जीवन की सही राह ढूंढ लेता है।११। (ई) १२ से १५: प्रभु माया के प्रभाव से बेअंत ऊँचा है। उस के नाम में ध्यान जोड़-जोड़ के जिस मानव के मन में उस की लगन लग जाती है, उस की भी आत्मा माया की मार से ऊपर उठ जाती है। जिस मनुष्य की प्रभु के साथ लगन लग जाए, उसकी आत्मिक उच्चता का ना कोई बयान कर सकता है ना ही कोई लिख सकता है।१२। प्रभु चरणों की प्रीत मनुष्य के मन में रोशनी कर देती है। सारे संसार में उसे परमात्मा ही दिखता है। उसे विकारों की चोटें नहीं लगतीं और ना ही उसे मौत डरा सकती है।१३। याद की बरकत के साथ ज्यों-ज्यों मनुष्य का प्यार परमात्मा के साथ बनता है, इस स्मरण-रूप धर्म के साथ उसका इतना गहरा संबंध बन जाता है कि कोई भी रुकावट उसको इस सही निशाने से हटा नहीं सकते। और भटकाने वाली पगडंडियां उसे गलत राह पर नहीं भटका सकतीं।१४। इस लगन की बरकत के साथ वे सारे बंधन टूट जाते हैं, जिन्होंने प्रभु से दूरी बनायी हुई थी। ऐसी लगन वाला सख्श केवल खुद ही नहीं बचता, अपने परिवार के जीवों को भी पति-प्रभु के साथ जोड़ लेता है। ये दात कृपा जिस पे गुरु जी के द्वारा होती है, वे प्रभु द्वार छोड़ के और तरफ नहीं भटकते।१५। (उ) १६ से १९: भाग्यशली वे मनुष्य हैं जिन्होंने गुरु के बताए रास्ते को अपना जीवन उद्देश्य बनाया है, जिन्होंने ‘नाम’ से ध्यान जोड़ा है और जिन्होंने प्रभु से प्यार का रिश्ता गाँठा है। इस रास्ते पे चल के प्रभु की रज़ा में राज़ी रहना ही उन्हें भाता है। ये नाम जपने का ‘धर्म’ उनकी ज़िन्दगी का सहारा बनता है, फलस्वरूप वे संतोषी जीवन व्यतीत करते हैं। पर इस बंदगी का ये नतीजा नहीं निकल सकता कि कोई मनुष्य प्रभु की रची सृष्टि का अंत पा सके। इधर तो ज्यों-ज्यों ज्यादा गहराई में जाओगे, ये सृष्टि और बेअंत, और बेअंत प्रतीत होगी। असल में इस बेमतलब प्रयत्नों का ही नतीजा था कि लोगों ने ये धारणा मिथ ली कि हमारी धरती को एक बैल ने उठाया हुआ है। प्रमात्मा और उसकी कुदरत का अंत ढूंढना मनुष्य की जिन्दगी का मकसद् बन ही नहीं सकता।१६। वर्ना, जगत में अगर आप उन लोगों की ही गिनती करने लगो, जो जप, तप, पूजा, धार्मिक पुस्तकों का पाठ, योग-समाधि आदि भले काम करते चले आ रहे हैं तो ये लेखा खत्म होने वाला ही नहीं।१७। दूसरी तरफ, अगर आप चोर, डाकू, ठग, निंदक आदि जैसे लोगों का हिसाब लगाने लग जाएं तो यहाँ भी कोई अंत नहीं। जब से जगत बना है बेअंत जीव विकारों में ही ग्रसे चले आ रहे हैं।१८। वैसे, कितनियों धरतियों के कितने जीव प्रभु ने रचे हैं? मनुष्य की किसी भी ‘बोली’ में कोई शब्द ही नहीं जो ये लेखा बयान कर सके। ‘बोली’ भी प्रभु द्वारा एक दात मिली है, पर ये मिली है महिमा करने के लिए। ये नहीं हो सकता कि इस द्वारा मनुष्य प्रभु का अंत पा सके। देखिए! बेअंत है उसकी कुदरत, और इसमें जहाँ देखो वह स्वयं ही मौजूद है। कौन अंदाजा लगा सकता है कि वह कितना बड़ा है और उसकी रचना कितनी है? १९। (ऊ) २० से २७: माया के प्रभाव के कारण मनुष्य विकारों में पड़ जाता है और इसकी मति मैली हो जाती है। ये मैल इसे शुद्ध-स्वरूप प्रमात्मा से विछोड़ के रखती है और जीव दुखीरहता है। नाम जपना ही ऐकमेव तरीका है जिससे मन की यह मैल धुल सकती है। (सो, स्मरण तो विकारों की यह मैल धो के मन को प्रभु के साथ मिलाप के वास्ते है, प्रभु व उसकी रचना का अंत पाने के लिए जीव को समर्थ नहीं बना सकता)।२०। जिस मनुष्य ने नाम में चित्त जोड़ा है, जिसको नाम जपने की लगन लग गयी है, जिसके मन में प्रभु का प्यार उपजा है, उसकी आत्मा शुद्ध पवित्र हो जाती है। पर ये भक्ति उसकी मेहर से ही मिलती है। बंदगी का फल ये नहीं हो सकता कि मनुष्य ये बता सके कि जगत कब बना। ना पण्डित, ना काज़ी, ना जोगी, कोई भी ये भेद नहीं पा सके। प्रमात्मा बेअंत बड़ा है, उसका बड़प्पन भी बेअंत है, उसकी रचना भी बेअंत है।२१। प्रभु की कुदरत का हिसाब करते हुए ‘हजारों’ व ‘लाखों’ की गिनती के पैमानों का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। इतनी बेअंत कुदरत है कि इसका लेखा-जोखा करते हुए गिनती के पैमाने ही खत्म हो जाते हैं।२२। सो, बंदगी से प्रभु का अंत नहीं पाया जा सकता। पर, इसका ये भाव नहीं कि बंदगी का कोई लाभ नहीं। बंदगी की बरकत से मनुष्य शाहों-पातशाहों की भी परवाह नहीं करता, ‘नाम’ के सामने बेअंत धन भी उसे तुच्छ प्रतीत होता है।२३। प्रभु बेअंत गुणों का मालिक है, उसकी पैदा की हुई रचना भी बेअंत है। ज्यों-जयों ये कहें कि वह बड़ा है, त्यों-त्यों वह और बड़ा प्रतीत होने लगता है। जगत में ना कोई उस प्रभु जितना बड़ा है, और इसलिए कोई भी ये नहीं बता सकता कि प्रभु कितना बड़ा है। २४। प्रभु का बड़प्पन बयान करना तो कहाँ रहा, उसकी बख्शिश ही इतनी बड़ी है कि लिखने में नहीं समेटी जा सकती। जगत में जो बड़े-बड़े दिखाई देते हैं ये सभी उस प्रभूके दर से माँगते हैं। वह तो बल्कि इतना बड़ा है कि जीवों द्वारा मांगे बिना ही इनकी जरूरतें समझ के अपने-आप ही दातें दिए जाता है। और जीव की मूर्खता देखो, जो कुछ ईश्वर से मिला है उसको इस्तेमाल करते-करते देने वाले दातार (ईश्वर) को विसार के विकारों में खचित हो जाता है, और कई दुख-कष्टों को आमंत्रित कर लेता है। पर ये दुख-कष्ट भी प्रभु की दात ही हैं, कयोंकि इन्हीं दुख-कष्टों के कारण ही मनुष्य को दुबारा हुक्म (रज़ा) में चलने की प्रेरणा मिलती है, और वह महिमा करने लग जाता है। ये महिमा ही सबसे ऊँची दात है।२५। जगत में बेअंत विद्वान हो चुके हैं और पैदा होते रहेंगे। पर, ना तो अब तक कोई लेखा कर सका है और ना ही आगे कोई कर सकेगा कि प्रभु में कितना बड़प्पन है, कितने गुण हैं, कितनी बख्शिशें जीवों पे वह कर रहा है। बेअंत हैं उसके गुण, बेअंत हैं उसकी दातें। इस भेद को उस प्रभु के अलावा और कोई नहीं जानता, ये काम मनुष्य की ताकत से बहुत परे का है। उस मनुष्य को होछा जानों जो प्रभु के गुणों व दातों की सीमां ढूढने का दावा करता है।२६। कई रंगों की, कई किस्मों की, कई अनाजों की, बेअंत रचना कर्तार ने रची है। इस बेअंत सृष्टि की संभाल भी वह स्वयं ही कर रहा है। क्योंकि वह स्वयं ही एक ऐसा है जो सदा कायम रहने वाला है, और जिसका प्रताप भी सदा टिके रहने वाला है। जगत में एैसा कौन है जो ये बताने का दम भर सके कि कैसे स्थान पे बैठ के वह निर् इस बेअंत रचना की संभाल कर रहा है? किसी भी मनुष्य में ऐसी सामर्थ्य ही नहीं। मनुष्य को बस यही फबता है कि वह प्रभु की रज़ा में रहे। यही एक तरीका है प्रभु से दूरी मिटाने का, और यही है इसके जीवन का उद्देश्य। देखिए! हवा,पानी आदि तत्वों से लेकर ऊँचे जीवन वाले महापुरुषों तक सभी अपने-अपने अस्तित्व के उदृश्य को सफल करने का प्रयत्न कर रहे हैं, अर्थात, उसके हुक्म में मिले हुए कर्म को किए जा रहे हैं।२७। (ए) २८ से ३३: समूचे संसार को पैदा करने वाले तथा सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का नाम जपना ही जीवन का लक्ष्य है। नाम जपना ही रज़ा मे टिका के प्रभु से जीव की दूरी को मिटा सकता है। योग मत की खि्ांथा, मुंद्रा, झोली आदिक भी जीव की प्रभु से दूरी मिटाने में समर्थ नहीं है। ज्यों-ज्यों याद में जुड़ोंगे, संतोषी जीवन बनेगा। हक की मेहनत करने का तरीका आ जाएगा। मौत सिर पे याद रहेगी और विकारों से बचे रहोगे। प्रभु की हस्ती में यकीन बनेगा, और सारी सृष्टि में वह व्यापक दिखाई देगा।२८। नाम जपने की बरकत से यह ज्ञान पैदा होगा कि प्रभु हर जगह रमा हुआ है और सबका सांई है, उसकी रज़ा में जीव यहाँ आ के इकट्ठे होते हैं और रज़ा में ही चले जाते हैं; इस तरह लोगों से प्यार करने का तरीका आ जाएगा। योगाभ्यास द्वारा प्राप्त हुईं रिद्धियों-सिद्धियों को ऊँचा जीवन समझ लेना भूल है, ये तो बल्कि गलत रास्ते पे ले जाती हैं (इनकी सहायता से योगी लोग, आम जनता पे दबाव डाल के उन्हें इन्सानियत से गिराते हैं)।२९। ज्यों-ज्यों मनुष्य प्रभु की याद में जुड़ता है, त्यों-त्यों उसे ये ख्याल कच्चे प्रतीत होने लगते हैं कि ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदिक कोई अलग हस्तियां जगत का प्रबंध चला रही हैं। नाम-जपने वाले को यकीन है कि प्रभु स्वयं अपनी रज़ा में अपनी हुक्म-सत्ता जगत को चला रहा है, हलांकि, जीवों को इन आँखों से वह दिखता नहीं।३०। बंदगी की बरकत से ही ये समझ पड़ती है कि भले ही कर्तार की पैदा की सृष्टि बेअंत है फिर भी उसकी पालना करने के लिए उसके भण्डार भी बेअंत हैं, कभी खत्म नहीं हो सकते; उसके इस प्रबंध के राह में कोई रोक नहीं पड़ सकती।३१। (‘कूड़ की पालि’ (झूठ का पर्दा/ झूठ की दीवार) में घिरा हुआ जीव दुनिया के चिन्ता-फिक्र, दुख-क्लेशों के गड्ढों में गिरा रहता है, तथा प्रभु का निवास स्थान, मानो एक ऊँचा ठिकाना है जहाँ ठंड ही ठंड, शांति ही शांति है)। इस नीची जगह से उस ऊँची अर्शी अवस्था पे मनुष्य तब ही पहुँच सकता है, जब ‘स्मरण’ की सीढ़ी का आसरा ले, ‘तूँ तूँ’ करता ‘तूँ’ में ही स्वै-लीन कर दे। इस ‘स्वै’ समर्पण के बिना इस ‘याद’ वाला उद्यम यूँ ही है जैसे आकाश की बातें सुनकर कीड़ियों को भी वहाँ पहुँचने का शौक पैदा हो जाए, पर चलें अपनी कीड़ी वाली रफतार ही। ये भी ठीक है कि प्रभु की मर्ज़ी में अपनी मर्ज़ी को वही मनुष्य मिटाते हैं जिस पे प्रभु की मेहर हो।३२। भलाई के रास्ते पे चलना या गलत रास्ते पड़ जाना जीवों के अपने बस की बात नहीं, जिस प्रभु ने पैदा किए हैं, वही इन पुतलियों को खिला रहा है। सो, जो कोई जीव प्रभु की महिमा कर रहा है तो ये प्रभु की अपनी मेहर है; जो कोई इस पक्ष से छूटा रह गया तो ये भी मालिक की मर्ज़ी है। अगर हम उसके दर से दातें मांगते हैं तो ये प्रेरणा भी वो स्यवं ही करने वाला है और फिर दातें देता भी खुद ही है। अगर कोई जीव राज और धन के नशे में धुत है तो ये भी रज़ा प्रभु की है। यदि किसी की ध्यान प्रभु-चरणों में है व जीवन-जुगति साफ है तो ये मेहर भी प्रभु की ही है।३३। (ऐ) ३४ से ३८: जिस मनुष्य पे प्रभु की कृपा होती है, उसे पहले ये समझ आ जाती है कि मनुष्य धरती पे किसी खास उद्देश्य को निभाने आया है। यहाँ जो अनेक जीव पैदा होते हैं इन सभी का अपने-अपने किए कर्मों अनुसार ये निस्तारा होता है कि किस-किस ने मानव जन्म उद्देश्यों को पूरा किया है। जिनकी मेहनत स्वीकार होती है वो प्रभु की हज़ूरी में आदर पाते हैं। यहाँ संसार में किसी का बड़ा-छोटा कहलाना कोई मायनेनहीं रखता।३४। मानव-जन्म के ‘धर्म’ (फर्ज़) के समझ आ जाने से मनुष्य का मन बड़ा ही विशाल हो जाता है। पहले एक छोटे से परिवार से बंधा हुआ ये जीव बहुत तंग-दिल था; अब इसे ये ज्ञान हो जाता है कि बेअंत प्रभु का पैदा किया हुआ जगत एक बड़ा परिवार है, जिसमें बेअंत कृष्ण, बेअंत विष्णू, बेअंत ब्रह्मा, बेअंत धरतियां, बेअंत ध्रू भक्त, बेअंत इन्द्र, बेअंत चंद्रमा, बेअंत सूर्य आदि हैं। इस ज्ञान की बरकत से तंग-दिली हट के इसके अंदर जगत प्यार की लहर चल के खुशी ही खुशी बनी रहती है।३५। अब जैसे जैसे सारा जगत एक सांझा परिवार दिखता है, जीव लोगों की सेवा की मेहनत का भार उठाता है। मन की पहली तंग-दिली हट के विशालता व उदारता की कसौटी पे नए सिरे से मन खूबसूरती से तराषा जाता है। मन में एक नई जागृति आती है, एकाग्रता ऊँची होने लग जाती है।३६। इस आत्मक अवस्था तक पहुँचे जीव पे प्रमात्मा की कृपा का दरवाज़ा खुलता है। उसे सभी अपने ही दिखते हैं, हर तरफ प्रभु ही नजर आता है। ऐसे मनुष्यों की एकाग्रता हमेशा प्रभु की महिमा में जुड़ी रहती है, अब माया इसे ठग नहीं सकती, आत्मा बलवान हो जाती है, प्रभु से दूरी नहीं पड़ सकती। अब उसे प्रत्यक्ष प्रतीत होता हैकि बेअंत कुदरत रच के प्रभु सबको अपनी रज़ा में चला रहा है, और सभी पे मेहर की नज़र कर रहा है।३७। पर ये उच्च आत्मक अवस्था तभी बनती है जब आचरण पवित्र हो, दूसरों की आक्रामक-वृति के बर्दाश्त का हौसला हो, ऊँची व विशाल समझ हो,प्रभु का डर हृदय में टिका रहे, सेवा की कमायी कर दे, ख़ालक व लोगों का प्यार दिल में हो। ये जत, धीरज, मति, ज्ञान, भय, कमाई व प्रेम के गुण एक सच्ची टकसाल हैं, जिसमें गुरु-शबद की मोहर घड़ी जाती है (भाव, जिस अवस्था में सत्गुरू जी ने वाणी उचारी है, ऊपर वर्णन किए गए व्यक्तिव वाले सिख को भी वाणी उसी अवस्था में ले पहुँचती है)।३८। सिद्धांत (जो आखिरी श्लोक में है) - ये जगत एक रंग-भूमि है, जिसमें जीव-खिलाड़ी अपनी अपनी खेल खेल रहे हैं। हरेक जीव के खेल की पड़ताल बड़े ध्यान से की जा रही है। जो सिर्फ माया की खेल ही खेल गए, वो प्रभु से दूरी बनाते गए। पर जिन्होंने ‘स्मरण’ की खेल खेली, वे अपनी मेहनत सफल कर गए, व और भी कई जीवों को इस सही राह पे डालते हुए खुद प्रभु की हज़ूरी में सुर्ख़्रू हुए।१।
‘जपु’ जी का समूचा भाव (प्र:) मनुष्य की ईश्वर से जो दूरी बनी हुई है यह कैसे हट सकती है? (उ:) ईश्वर का हुक्म मानने से, उसके स्वभाव से अपना स्वभाव मिलाने से (जैसे, अगर पुत्र पिता का हुक्म मानता रहे तो पिता-पुत्र में कोई दूरी नहीं पैदा होती)। दान देने से, तीर्तों पे स्नान करने या प्राणायाम द्वारा उम्र बढ़ा लेने से भी यह दूरी दूर नहीं हो सकती। (पौड़ी १ से ७) (प्र:) हुक्म मानने का तरीका क्या है? (उ:) जैसे जैसे मनुष्य गुरु के बताए रास्ते पे चल के प्रमात्मा का भजन करता है, तैसे तैसे इसे प्रभु की रज़ा मीठी लगने लगती है। सो, रज़ा में, हुक्म में चलने के लिए जीव ने प्रभु की महिमा में ध्यान जोड़ना है। एकाग्रता भी इतनी जोड़नी है कि मन प्रभु में पतीज जाए। महिमा में से निकलने को जी ही ना करता हो। (८ से १५) ध्यान जोड़ने का का कभी भी ये फल नहीं निकलेगा कि जीव प्रमात्मा या उसकी रचना का अंत पा सके। वह स्वयं खुद बेअंत है, उसकी रचना भी बेअंत है। महिमा में ध्यान जोड़ने का एक ही फल होगा कि उसकी रज़ा में रहने का स्वभाव मज़बूत होगा। (१६ से २७) जैसे ना दान, ना तीर्थ स्नान, ना प्राणायाम और ना रचना बारे उपनिषदों की फिलासफी जीव की ईश्वर से दूरी दूर करने में समर्थ है, उसी प्रकार जोगियों की मुंद्रा-खिंथा आदिक भी यह दरार दूर नहीं कर सकते। स्मरण और याद ही ऐकमात्र तरीका है। (जिसको याद करते रहें, उसके साथ प्यार बढ़ता जाता है। प्यार की सहायता से स्वभाव भी मिल जाता है।) जब प्रभु की मेहर हो, जीव ‘स्वैभाव’ को मिटा के स्मरण करता है, दूरी मिटाने का, बस! यही एक उपाय है। (पौड़ी २८ से ३३) प्रभु की मेहर से मनुष्य साधारण हालात से ऊँचा हो के पहले ये सूझ हासिल करता है कि जगत में उसके आने का उद्देश्य क्या है, किस फर्ज को अदा करने के लिए यह भेजा गया है। यह समझ आने पर जीव अपने छोटे से परिवार के मोह की तंगदिली में से निकलता है, सारा जगत उसको प्रमात्मा पिता का एक बड़ा परिवार दिखता है। फिर वह इस बड़े परिवार की सेवा के लिए मेहनत-मुशक्कत करता है, मालिक की याद में जुड़ता है, ख़ालक की याद व लोगों की सेवा से ज्यों ज्यों जीव का मन स्वार्थ की हदें पार करके बेअंत विशाल होता है, त्यों त्यों प्रभु की कृपा के दरवाजे इस पे खुलते हैं, ये प्रभु से एकरूप हो जाता है। पर जैसे सोनार की कुठाली में सोना तपश बर्दाश्त करता है, अहिरण (एक प्रकार की हथौड़ी) की चोट खाता है, ठीक उसी प्रकार जीव ने भी नाम जपने की सच्ची टकसाल में मन को तराषना है, घड़ना है। वह टकसाल क्या है? - जत, धीरज, मति, ज्ञान, भउ, मेहनत और प्रेम (अर्थात, सबसे पहले आचरण पवित्र हो, दूसरों की आक्रामक वृति का बर्दाश्त करने के लायक हो और विशाल हो, ईश्वर का डर हृदय में टिका रहे, सेवा की कमाई किए व कायनात का प्यार दिल में हो)। (३४ से ३८) (प्र:) इस वाणी का नाम ‘जपु’ क्यों रखा गया? गुरु अर्जुन साहिब ने इसे श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के आरम्भ में क्यों दर्ज किया? इसका हर रोज़ पाठ क्यूँ करना है? (उ:) 1. इस वाणी की पहिली ही पौड़ी में प्रश्न है कि जीव की प्रमात्मा से दूरी कैसे दूर हो सकती है। इसका उक्तर ये किया गया है कि प्रभु की रज़ा में चलने से प्रभु से फासला मिट जाता है। प्रभु की रज़ा मिठी कैसे लगे? प्रभु का स्मरण करने से, ज्यों ज्यों जीव प्रभु को याद करता है त्यों त्यों उससे जीव का प्यार बनता है तथा प्यार की वजह से उसके किए काम अच्छे लगने लग पड़ते हैं, उसकी रज़ा मीठी लगती है। सो, स्मरण’ या ‘जप’ ही एक ऐसा तरीका है जो जीव की प्रभु से दूरी को मिटा सकता है। इस सारी वाणी में सिर्फ यही विचार है कि दान-पुण्य, तीर्थ यात्रा, प्राणयाम, जगत-रचना बारे में विचार, योग की खिंथा-मुंद्रा आदिक चिन्हों--इनमें से कोई भी प्रभु से विछड़े जीव को प्रभु से नहीं मिला सकता। प्रभु का ‘स्मरण’ ही एकमात्र तरीका है, ‘स्मरण’ की ही इस वाणी में व्याख्या है। इस वास्ते इसका नाम भी ‘जपु’ ही रखा गया है। ‘जपु’ का अर्थ है स्मरण, बंदगी, भजन। गुरु ग्रंथ साहिब की सारी वाणी की तरतीब अगर ध्यान से देखें तो हरेक ‘राग’ में सबसे पहले गुरु नानक देव जी की वाणी दर्ज मिलती है, इसके बाद गुरु अमरदास जी की, फिर गुरु रामदास जी, गुरु अरजन देव और गुरु तेग बहादर जी की वाणी दर्ज है। हरेक ‘राग’ में पहले ‘शबद’, फिर अष्टपदियां, फिर छंत आदि उपरोक्त तरतीब अनुसार ही दर्ज हैं। सो, गुरु ग्रंथ साहिब के आरम्भ में गुरु नानक देव जी की ही वाणी हो सकती थी। • सिख धर्म का मुख्य उद्देश्य है ‘स्मरण’। ‘स्मरण’, मानों, एक ऐसी केन्द्रीय नींव है जिसके ऊपर ‘धर्म’ की इमारत निर्मित की गई है। सो, गुरु ग्रंथ साहिब के आरम्भ में भी उसी ही वाणी का दर्ज किया जाना फबता था जो इस केन्द्रीय असूल पर खुली व्याख्या हो। और, इस विषय पर सबसे सटीक वाणी है, ‘जपु’। सो, गुरु अर्जुन साहिब ने इसी वाणी को गुरु ग्रंथ साहिब के आरम्भ में दर्ज किया है। • प्रभु की बेअंत दातें मिलने के बावजूद भी जीव दुखी है, क्योंकि यह सुख के श्रोत प्रभु से विछड़ा हुआ है। यह विछड़ना कैसे मिटे? प्रभु की रजा में चल के, प्रभु के स्वभाव में अपना स्वभाव मिलाके। स्वभाव तभी मिल सकता है अगर जीव प्रभु को सदा याद करके उसके साथ प्यार का रिश्ता जोड़ ले। ये एक ऐसा ज़रूरी सवाल है जिसकी हरेक प्राणी मात्र को अपने दुख-कष्ट, त्रिष्णा आदि मिटाने के लिए विचारने की हमेशा जरूरत है। ये सवाल गुरु नानक देव जी की लिखी वाणी ‘जपु’ में विशेष तौर पे बिचारा गया है। तभी तो इस वाणी का हर रोज पाठ करने की सत्गुरू जी द्वारा हिदायत है, ताकि सिखों को एक ही बात याद आती रहे कि प्रभु से बने फासले को मिटाने के एक मात्र उपाय है और वह है परमात्मा का स्मरण, उस के नाम की याद; उस के गुणों का ‘जपु’। काव्य संरचना पुराने जमाने से ये आम रिवाज चला आ रहा है कि कोई लिखारी या कवि कोई काव्य रचना करने के समय सबसे पहले अपने ईष्ट की स्तुति करता है। इसे ‘मंगलाचरण’ कहते हैं। पुस्तक के आखिर में लिखारी अपने ईष्ट का धन्यवाद करता है, या उससे कोई वर मांगता है, या अपनी लिखी रचना का ‘सिद्धांत’ एक-दो बंदों में लिख देता है। गुरु नानक देव जी ने ‘जपु’ के आरम्भ मेंव आखिर में वही पुरातन तरीका इस्तेमाल किया है। इस वाणी के असल विषय-वस्तु की 38 पौड़ियां हैं। पहली पौड़ी में मानव जीवन के एक जरूरी पहिलू के बारे में जो सवाल छेड़ा है कि जीव की प्रभु से बनी हुई दूरी कैसे दूर हो सकती है, उसके विभिन्न पहिलुओं को ले के इन सभी पौड़ियों में सविस्तार विचार किया गया है। लफ्ज़ ‘जपु’ से पहले ‘१ओअंकार’ से ‘गुर प्रसादि’ तक मूल-मन्त्र है। ‘जपु’ जी की वाणी के अस्तित्व से इस मूलमंत्र का कोई संबंध नहीं है। ये तो गुरु ग्रंथ साहिब के आरम्भ में उसी तरह लिखा गया है, जिस तरह हरेक ‘राग’ के शुरू में दर्ज है। (प्र:) जपु जी कब लिखी गई? (उ:) 1. पुस्तक ‘पुरातन जन्मसाखी’ की साखी नं: 10 ‘वेंई प्रवेश’ अनुसार ‘जपु’ जी परमात्मा की हजूरी में उच्चारित हुई। अभी जब उदासियां (गुरु नानक देव जी की प्रचार यात्राएं) शुरू नहीं हुईं थीं, और सत्गुरू जी अभी सुल्तानपुर ही रहते थे। वेंई नदी वाली साखी 1507 (संवत1564) में हुई थी। साखी वाला लिखता है कि जब परमेश्वर के सेवक वेंई नदी में स्नान कर रहे सत्गुरू नानक देव जी को परमेश्वर की दरगाह में ले गए ‘तबि अवाजु होआ: नानक! मेरा हुक्म तेरीनदरी आया है, तू मेरे हुक्म की सिफ़त कर। तब बाबा बोला। धुनि उठी: रागु आसा जपु म: १। सलोक। आदि सचु जुगादि सचु। है भी सचु। नानक होसी भी सचु।१। जपु संपूरणू कीता’। • डाक्टर मोहन सिंह जी ने (जो कि पंजाब यूनिवर्सिटी के ओरिएण्टल कॉलेज के पंजाबी डिपार्टमैंट के मुख्याध्यापक हैं व पंजाबी के प्रसिद्ध विद्वान लिखारी हैं) अपनी पुस्तक ‘पंजाबी भाखा ते छंदा-बंदी’ में एक हस्त-लिखावट का हवाला दिया है, जिसे वे बोली के आधार पर सतारहवीं सदी के मध्य की लिखी गई मानते हैं। ये हस्त-लिखत अब पश्चिमी पंजाब यूनिवर्सिटी की लाईब्रेरी में है। उसके मुताबक गुरु नानक देव जी करतारपुर में टिके हुए थे, तो ‘दरगाह परमेसर की बुलइआ’। वापस आ के अपने सिख अंगद को कहने लगे, ‘पुरखा! परब्रहम का हुक्म है कि सिफति मेरी करणी।’ ‘गुरु नानक देव जी ने अपणा ख़ज़ाना अंगद दे हवाले कीता। कहिओसि-पुरखा! हुण तूं जपु रच। तब गुरु बाबे नानक दे हजूरि गुरु अंगद बाबे दी वाणी दा जोड़ बंधिआ। जपु का। अठतीस पउड़ीआं सारी वाणी विचहु मथि करि कढी है।’ • इस हस्त-लिखावट अनुसार ‘जपु’ जीगुरू नानक देव जी की पहली रचना नहीं है, बल्कि उनकी सारी वाणी का सार है। और, ये तब रची गई जब बाबा लहिणा जी गुरु नानक देव जी के पास करतारपुर आ चुके थे। वैसे इस साखीकार को ये पता नहीं है कि करतारपुर कहाँ है, वह ब्यासा नदी के किनारे समझता है। लिखता है, ‘तब ब्यास नदी के किनारे करतारपुरि एहु उपदेसु गुरु बाबे अंगद सिख के ताईं कहिआ’। बाबा लहिणा जी का जन्म सन्1504 में हुआ था, और 28 सालों की उम्र में वो गुरु नानक जी के पास सन् 1532 में करतारपुर आए थे। साखी से ये बात भी स्पष्ट होती है कि बाबा लहिणा जीगुरू नानक देव जी के बहुत ही नज़दीकी हो चुके थे। उन्हें अंगद नाम भी मिल चुका हुआ था। इससे यही अंदाजा लग सकता है कि जपु जी गुरु नानक देव जी की पिछली उम्र में लिखी गई थी। तब तक सारी ही ‘उदासियों’ को पूरा हुए चोखा समय हो चुका था। नोट: यहाँ इस हस्त-लिखावट का ये इशारा भी पाठक याद रखें कि गुरु नानक देव जी ने अपनी सारी वाणी जो उन्होंने खुद ही लिख के रखी हुई थी, श्री गुरु अंगद देव जी को दे दी थी: ‘आपणा खज़ाना अंगद सिख के हवाले कीता’। डा: मोहन सिंह जी भी इस हस्त-लिखावट का हवाला दे के आखिर में भाई गुरदास जी की वार के हवाले से लिखते हैं: ‘मक्के बग़दाद मदीने से मुड़ के बाबे जी ने उदासी वेष उतार के करतारपुर मे टिकाना किया। तथा, ‘इससे स्पष्ट है कि जपु जी, रहिरास, गोसटि, सोदर, आरती वाणी करतारपुर में उचारी गई, जहाँ वाणी रूप गंगा को धारण करने वाले अंगद जी मौजूद थे।’ • बहुत सज्जन कहते हैं कि सत्गुरू नानक साहिब ने इस वाणी के द्वारा सिखों को उपदेश दिया था। बहुत विद्वान इस ख्याल के हैं कि बाबा लहिणा जी को उपदेश देने के लिए ये वाणी उचारी थी। बहुत सज्जन इस वाणी का टीका करने के समय ये मिथ लेते हैं कि कोई जिज्ञासु सत्गूरू जी से प्रश्न पूछता जा रहा है और सत्गुरू जी इन पौड़ियों द्वारा तरतीबवार उत्तर दिए जा रहे हैं। • ये सारे ही ख्याल कल्पना से प्रतीत होते हैं। ज्यों ज्यों पाठक सज्जन ध्यान लगा के इस वाणी के साथ जुड़ेंगे, ये बात साफ दिखने लग जाएगी कि ये सारी विचार एक ही तुक के इर्द-गिर्द केन्द्रित है: ‘किव सचिआरा होईअै, किव कूड़ै तुटै पालि’। बड़ी ऊँची आत्मक उड़ान है, मानव जीवन के एक अत्यंत जरूरी पहिलू पे गहिरी विचार है। समूचे तौर पे ये वाणी यह प्रगट कर रही है कि किसी एकांत समय में, एकांत स्थल पर, एकांत चिक्त हो कर लिखी गई है। गुरु नानक देव जी की तीन ‘वारें’ हैं, जो माझ, आसा व मलार राग में दर्ज हैं। इनकी सिर्फ पौड़ियों को ही ध्यान से पढ़ कर देखिए। तीनों की अलग-अलग विषय-वस्तु ही स्पष्ट कर देती है कि ‘आसा दी वार’ उम्र के दूर आखिरी हिस्से में कहीं एकांत जगह पर लिखी गई है। इस वार का अहम विषय-वस्तु है ‘मानव जीवन की उद्देश्य’। आसा दी वार की तरह ही ‘जपु’ भी मानव जीवन के एक अहम पहिलू पर गहरी विचार है कि मनुष्य की प्रमात्मा से बनी हुई दूरी कैसे दूर हो सकती है। आसा दी वार की तरह ही ये भी उम्र के आखिरी हिस्से में किसी एकांत जगह में बैठ के लिखी गई है, किसी जिज्ञासु आदि के प्रश्नों के उक्तरों का निष्कर्श नहीं है। प्रश्नोंक्तरों को त्याग के ज्यों ज्यों इस वाणी की गहराई में उुबकी लगाएंगे, त्यों त्यों ये मजेदार भाव समझ में आएगा कि ये सारी विचार ‘किव कूड़ै तुटै पालि’ की केन्द्र के इर्द-गिर्द घूम रही है। जो किसी जुड़े हुए मन की आत्मिक उड़ान का ही नतीजा हो सकता है, प्रश्न-उक्तरों का नहीं। ___________________0000___________________
ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु पद्अर्थ: १ओअंकार का उच्चारण करने के लिए इसके तीन हिस्से किए जाते हैं: १, ਓ, और ͡ । इसका पाठ है ‘इक ओअंकार’। तीनों हिस्सों का अलग-अलग उच्चारण ऐसे बनता है: १ = इक। ਓ = ओअं। ͡ = कार। ਓਂ ‘ओअं’ संस्कृत का शब्द है। अमर कोश के अनुसार इसके तीन अर्थ हैं: वेद आदि धर्म पुस्तकों के आरम्भ तथा अंत में, प्रार्थना व किसी पवित्र धार्मिक कार्य आरम्भ में अक्षर ‘ओं’ पवित्र अक्षर मान के इस्तेमाल किया जाता है। किसी आदेश व प्रश्न आदि के उत्तर में आदर व सत्कार से ‘जी हाँ’ कहना। सो, ‘ओं’ का अर्थ है ‘जी हाँ’। ओअं = ब्रह्म। इनमें से कौन सा अर्थ इस शब्द का यहाँ लिया जाना है: इसे दृढ़ करने के लिए शब्द ‘ओअं’ से पहले ‘१’ लिख दिया है। इसका भाव ये है कि यहां ‘ओअं’ का अर्थ है ‘वह हस्ती जो एक है। जिस जैसा और कोई नहीं है और जिसमें ये सारा जगत समा जाता है’। तीसरा हिस्सा ͡ है, जिसका उच्चारण है ‘कार’। ‘कार’ संस्कृत का एक पिछोत्तर (प्रत्यय) है। आम तौर पर ये प्रत्यय ‘संज्ञा’ के आखिर में इस्तेमाल किया जाता है। इसका अर्थ है ‘एक रस, जिस में परिवर्तन ना आए’। इस प्रत्ययके लगाने से ‘संज्ञा’ के लिंग में कोई फर्क नहीं पड़ता। भाव अगर ‘संज्ञा’ पहिले ‘पुलिंग’ है, तो इसके पीछे प्रत्यय लग जाने के बाद भी पुल्रिग ही रहता है। अगर, पहले स्त्रीलिंग हो तो इस प्रत्यय के समेत भी स्त्रीलिंग ही रहता है। जैसे कि, पुलिंग: नंनाकारु न कोइ करेई। राखै आपि वडिआई देई।2।2। (गउड़ी म: १) कीमति सो पावै आपि जणावै आपि अभुलु न भुलए। जै जैकारु करहि तुधु भावहि गुर कै सबदि अमुलए।9।2।5 (सूही म: १) सहजे रुणझुणकार सुहाइआ। ता कै घरि पारब्रहमु समाइआ।7।3। (गउड़ी म: ५) स्त्रीलिंग: दइआ धारी तिनि धारणहार। बंधन ते होई छुटकार।7।4। (रामकली म: ५) मेघ समै मोर निरतिकार। चंदु देखि बिगसहि कउलार।4।2। (बसंत म: ५) देखि रूपु अति अनूपु मोह महा मग भई। किंकनी सबद झनतकार खेलु पाहि जीउ।1।6। (सवईए महले चउथे के) इस प्रत्यय के लगने से इन शब्दों के अर्थ इस प्रकार करने हैं: नंनकार = एक-रस इन्कार, सदा के लिए इन्कार। जैकार = लगातार ‘जै जै’ की गूँज। निरतिकार = एक रस नाच। झनतकार = एक रस सुंदर आवाज़। प्रत्यय ‘कार’ लगाने के बिना और लगाने से, दोनों तरह से शब्दों के अर्तों में फर्क नीचे दिए प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है: “घरि महि घरु दिखाइ देइ, सो सतिगुरु पुरखु सुजाणु। पंच सबदि धुनिकार धुनि, तह बाजै सबदु नीसाणु।1।27। धुनि = आवाज। धुनिकार = लगातार नाद, निरंतर आवाज। इसी तरह: मनु भूलो सिरि आवै भारु। मनु मानै हरि एकंकार।2।2। (गउड़ी म: १) एकंकारु = एक ओअंकार, वह एक ओं जो एक रस है, जो हर जगह व्यापक है। सो, ੴ का उच्चारण है‘इक (एक) ओअंकार’ और इसके अर्थ है “एक अकाल पुरख, जो एक रस सर्व-व्यापक है”। सतिनामु = जिसका नाम ‘सति’ है। लफ्ज़ सति का संस्कृत स्वरूप सत्य है, इसका अर्थ है ‘अस्तित्व वाला’। इस का धातु ‘अस’ है, जिसके अर्थ हैं ‘होना’। इस तरह ‘सतिनाम’ के अर्थ हैं “वह एक ओअंकार, जिसका नाम है अस्तित्व वाला’। पुरखु = संस्कृत मेंव्योतिपत्ति अनुसार इस शब्द के अर्थ यूँ किए गए हैं, ‘पूरिशेते इति पुरष: ’, अर्थात जो शरीर में लेटा हुआ है। संस्कृत में आम प्रचलित अर्थ है ‘मनुष्य’। भगवत गीता में ‘पुरखु’, ‘आत्मा’ के अर्तों में इस्तेमाल हुआ है। ‘रघुवंश’ में ये शब्द ‘ब्राह्मण्ड वा आत्मा’ के अर्तों में आया है, इसी तरह पुस्तक ‘शिशुपाल वध’ में भी। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में ‘पुरखु’ का अर्थ है ‘वह ओअंकार जो सारे जगत में व्यापक है, वह आत्मा जो सारी सृष्टि में रम रही है’। ‘मनुख’ और ‘आत्मा’ अर्तों में भी ये शब्द कई जगह आया है। अकाल मूरति = शब्द ‘मूर्ति’ स्त्रीलिंग है, ‘अकाल’ इसका विशषण है, ये भी स्त्रीलिंग रूप में लिखा गया है। अगर शब्द ‘अकाल’ अकेला ही ‘पुरखु’, ‘निरभउ’, ‘निरवैर’ की तरह ‘इक ओअंकार’ का गुणवाचक होता तो पुलिंग रूप में होता, तो इसके अंत में भी (ु) की मात्रा होती। नोट: शब्द ‘मूरति’ (मूर्ति) तथा ‘मूरतु’ का भेद जानना जरूरी है। ‘मूरति’ के साथ सदा (ि) की मात्रा लगती है और स्त्रीलिंग है। इसका अर्थ है ‘स्वरूप’। संस्कृत का शब्द है। लफ्ज़ ‘मुरतु’ संस्कृत का शब्द ‘महूरत’ है। महूरत आदि शब्द समय के लिए इस्तेमाल होते हैं। ये शब्द पुलिंग है। अजूनी = योनियों से रहित, जो जन्म में नहीं आता। सैभं = स्वयंभू (स्व = स्वयं। भं = भू) अपने आप से होने वाला, जिसका प्रकाश अपने आप से हुआ है। गुर प्रसादि = गुरु के प्रसाद से, गुरु की कृपा द्वारा, भाव, उपरोक्त ‘इक (एक) ओअंकार’ गुरु की कृपा से प्राप्त होता है। अर्थ: अकाल-पुरख एक है, जिसका नाम ‘अस्तित्व वाला’ है जो सृष्टि का रचनहार है, (करता है) जो सभ में व्यापक है, भय से रहित है (निर्भय), वैर से रहित है (निर्वेर), जिसका स्वरूप काल से परे है, (भाव, जिसका शरीर नाश-रहित है), जो यौनियों में नहीं आता,जिसका प्रकाश अपने आप से हुआ है और जो सत्गुरू की कृपा से मिलता है। नोट: ये उपरोक्त वाणी गुरसिख्खी का मूलमंत्र है। इससे आगे लिखी गई वाणी का नाम है ‘जपु’। ये बात याद रखने वाली है कि ये ‘मूलमंत्र’ अलग है और वाणी ‘जपु’ अलग। श्री गुरु ग्रंथ साहिब के आरम्भ में ये मूलमंत्र लिखा है। जैसे हरेक राग के शुरू में भी लिखा मिलता है। वाणी ‘जपु’ लफ्ज़ ‘आदि सचु’ से शुरू होती है। वाणी ‘आसा दी वार’ के शुरू में भी यही मूलमंत्र है, पर ‘वार’ से इसका कोई संबंध नहीं है। ठीक वैसे ही यहाँ भी है। ‘जपु’ के आरम्भ में मंगलाचरण के तौर पर एक शलोक उच्चारा गया है, फिर ‘जपु’ साहिब की 38 पौड़ियां हैं। ॥ जपु ॥ आदि सचु जुगादि सचु ॥ पद्अर्थ: आदि = आरम्भ से। सचु = अस्तित्व वाला। शब्द ‘सचु’ संस्कृत के ‘सत्य’ का प्राकृत है, जिसकी धातु ‘अस’ है। ‘अस’ का अर्थ है ‘होना’। जुगादि = युगों के आरम्भ से। है = अर्थात, इस समय भी है। नानक = हे नानक। होसी = होगा, रहेगा।१। अर्थ: हे नानक! अकाल पुरख आरम्भ से ही अस्तित्व वाला है, युगों के आरम्भ से मौजूद है। इस समय भी मौजूद है और आगे भी अस्तित्व में रहेगा।१। नोट: ये श्लोक मंगलाचरण के तौर पर है। इस में गुरु नानक देव जी ने अपने ईष्ट का स्वरूप बयान किया है। जिसका जप, स्मरण करने का उपदेश इस सारी वाणी ‘जपु’ में किया गया है। इससे आगे वाणी ‘जपु’ की रचना शुरू होती है।
सोचै सोचि न होवई जे सोची लख वार ॥ पद्अर्थ: सोचै = स्वच्छता रखने से, पवित्रता कायम रखने से। सोचि = सुचि, पवित्रता, सुच। न होवई = नहीं हो सकती। सोची = मैं स्वच्छता रखूँ। चुपै = चुप कर रहने से। चुप = शांति, मन की चुप, मन का टिकाउ। लाइ रहा = मैं लगायी रखूँ। लिव तार = लगन की तार, लगन की डोर, एक तार समाधि। नोट: इस पौड़ी की पाँचवीं लाइन पढ़ने से ये पता चलता है कि इस पौड़ी में गुरु नानक साहिब मन को ‘सचिआरा’ (सत्यनिष्ठ) करने का तरीका बता रहे हैं। सबसे पहले उन साधनों का ज़िकर करते हैं जो और लोग इस्तेमाल कर रहे हैं। तीर्तों का स्नान, जंगलों में जा के समाधी लगानी, मन की भूख को पहले माया से तृप्त करने की कोशिश, शास्त्रों की फिलासफी; ये आम प्रचलित तरीके थे। पर सत्गुरू जी इनसे अलग वह साधन बताते हैं, जिसे गुरु सिखी का मौलिक सिद्धांत समझ लेना चाहिए, भाव, अकाल पुरखु की रजा में चलना। पहली चार लाईनों के ठीक अर्थ समझने के लिए पाँचवीं लाइन पर खास ध्यान देना जरूरी है। ‘किव सचिआरा होइअै किव कूड़ै तुटै पालि।’ इस लाइन को पहली हर एक लाइन के साथ पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि पहिली हरेक लाइन में ‘मन’का ही जिकर है। पहली लाइन में ‘मन की सुच’, दूसरी में ‘मन की चुप’, तीसरी में ‘मन की भूख’ और चौथी में ‘मन की चतुराई’ का हाल बताया है। (प्र:) लफ्ज़ ‘सोचि’ के अर्थ ‘स्वच्छता’ से क्यूँ किए गए हैं? (उ:) मन की सोचों और चतुराईयों का तो चौथी लाइन में वर्णन कर दिया गया है, इस वास्ते पहिली लाइन में कुछ और ख्याल है, जो नीचे लिखी तुकों को पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है: कहु नानक सचु धिआईऐ॥ सोच करै दिनसु अरु राति॥ न सुचि संजमु तुलसी माला॥ ‘सोच’ का अर्थ है ‘स्नान’, तथा ‘सुचि’ का अर्थ है ‘पवित्रता’। इन दो शब्दों को मिलाने से बना है ‘सोचि’। जिसका अर्थ है शुचिता, पवित्रता, स्नान। शब्द ‘सुचि’ स्त्रीलिंग है। संस्कृत में भी ये इसी रूप में है। जैसे शब्द ‘मन’ से ‘मनि’ बना है और जिसका अर्थ है ‘मन में’। लेकिन, इस तरह ‘सोच’ से ‘सोचि’ नहीं बन सकता, क्योंकि शब्द ‘मन’ पुलिंग है और ‘सोच’ (जिसका अर्थ ‘विचार’ है) स्त्रीलिंग है। सो, शब्द ‘सोचि’ अधिकर्ण कारक की (ि) मात्रा के बिना ही असल रूप वाला संस्कृत का ही शब्द ‘सुचि’ है, जिसके अर्थ हैं पवित्रता। अर्थ: अगर में लाखों बार (भी) (स्नान आदि से शरीर की) स्वच्छता रखूँ, (तो भी इस तरह) स्वच्छता रखने से (मन की) स्वच्छता नहीं रहि सकती। यदि मैं (शरीर की) एक-तार समाधि लगाई रखूँ; (तो भी इस तरह) चुप कर के रहने से मन शांत नहीं हो सकता। भुखिआ भुख न उतरी जे बंना पुरीआ भार ॥ पद्अर्थ: भुख = त्रिष्णा, लालच। भुखिआ = त्रिष्णा के अधीन रहने से। न उतरी = दूर नहीं हो सकती। बंना = बांध लूँ, सम्भाल लूँ। पुरी = लोक, भवण। पुरीआ भार = सारे लोकों के भार। भार = पदार्तों के समूह। सहस = हजारों। सिआणपा = चतुराईयां। होहि = हों। इक = एक भी चतुराई। अर्थ: यदि मैं सारे भवनों के पदार्तों के ढेर (भी) संभाल लूँ, तो भी त्रिष्णा के अधीन रहने से त्रिष्णा दूर नहीं हो सकती। यदि, (मेरे में) हजारों व लाखों ही चतुराईयां हों, (तो भी उनमें से) एक भी चतुराई साथ नहीं देती। किव सचिआरा होईऐ किव कूड़ै तुटै पालि ॥ पद्अर्थ: किव = किस तरह। होईऐ = हो सकते हैं। कूड़ै पालि = झूठ की पाल, झूठ की दीवार, झूठ का पर्दा। सचिआरा = (सच आलय) सच का घर, सत्य के प्रकाश के योग्य। हुकमि = हुक्म में। रजाई = रजा वाला, अकाल पुरख। नालि = जीव के साथ ही, शुरू से ही जब से जगत बना है।1। अर्थ: (तो फिर) अकाल पुरख के प्रकाश होने योग्य कैसे बन सकते हैं (और हमारे अंदर का) झूठ का पर्दा कैसे कैसे टूट सकता है? रजा के मालिक अकाल पुरख के हुक्म में चलना- (यही एक मात्र विधि है)। हे नानक! (ये विधि) आरम्भ से ही जब से जगत बना है, लिखी चली आ रही है।1। भाव: प्रभु से जीव की दूरी मिटाने का एक ही तरीका है कि जीव उसकी रजा में चले। ये उसूल धुर से ही ईश्वर द्वारा जीव के लिए जरूरी हैं। पिता के कहने पर पुत्र चलता रहे तो प्यार, ना चले तो दूरी पड़ती जाती है। हुकमी होवनि आकार हुकमु न कहिआ जाई ॥ पद्अर्थ: हुकमी = हुक्म में, अकाल-पुरख के हुक्म अनुसार। होवनि = होते हैं, अस्तित्व में आते हैं, बन जाते हैं। आकार = स्वरूप, शक्लें, शरीर। न कहिआ जाई = कथन नहीं किया जा सकता। जीअ = जीव जन्तु। हुकमि = हुक्म अनुसार। वडिआई = आदर, शोभा। अर्थ: अकाल पुरख के हुक्म के अनुसार सारे शरीर बनते हैं, (पर ये) हुक्म कहा नहीं जा सकता कि कैसा है। ईश्वर के आदेश मुताबिक ही सारे जीव पैदा हो जाते हैं और आदेशानुसार ही (ईश्वर के दर पर) शोभा मिलती है। हुकमी उतमु नीचु हुकमि लिखि दुख सुख पाईअहि ॥ पद्अर्थ: उतमु = श्रेष्ठ, बढ़िया। लिखि = लिख के, लिखे अनुसार। पाईअहि = प्राप्त होते हैं, भोगते हैं। इकना = कई मनुष्यों को। बखसीस = दात, बख्शिश। इकि = एक मनुष्य। भवाईअहि = भ्रमित होते हैं, जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़े रहते हैं। अर्थ: रब के हुक्म में कोई मनुष्य अच्छा (बन जाता) है, काई बुरा। उसके हुक्म में ही (अपने किए कर्मों के) लिखे अनुसार दुख व सुख भोगते हैं। हुक्म में ही कई मनुष्यों पर (अकाल पुरख के दर से) कृपा होती है, और उसके हुक्म में ही कई मनुष्य नित्य जन्म-मरण के चक्कर में फसे रहते हैं। हुकमै अंदरि सभु को बाहरि हुकम न कोइ ॥ पद्अर्थ: अंदरि = रब के हुक्म में। सभु को = हर एक जीव। बाहरि हुकम = हुक्म से बाहर। हकमै = हुक्म को। बुझै = समझ ले। हउमै कहै न = अहंकार भरे बोल नहीं बोलता, मैं मैं नहीं कहता, स्वार्थी नहीं बनता। अर्थ: हरेक जीव ईश्वर के हुक्म में ही है, कोई जीव हुक्म से बाहर नहीं हो सकता। हे नानक! अगर कोई मनुष्य अकाल पुरख के हुक्म को समझ ले तो फिर वो स्वार्थ भरी बातें नहीं करता (अर्थात, स्वार्थी जीवन छोड़ देता है)।2। भाव: प्रभु के हुक्म का सही स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, पर वह छोटे दायरे में नहीं है। गावै को ताणु होवै किसै ताणु ॥ पद्अर्थ: को = कोई मनुष्य। ताणु = बल, अकाल पुरख की ताकत। किसै = जिस किसी मनुष्य को। ताणु = सामर्थ्य। दाति = बख्शे हुए पदार्थ। नीसाणु = (कृपा का) निशान। अर्थ: जिस किसी मनुष्य की स्मर्था होती है, वह ईश्वर की ताकत को गाता है, (भाव, उसकी महिमा करता है और उसके उन कर्मों का कथन करता है जिनसे उनकी बड़ी ताकत प्रगट हो) कोई मनुष्य उसकी दातों को ही गाता है, (क्योंकि, इन दातों को वह ईश्वर की कृपा का) निशान समझता है। गावै को गुण वडिआईआ चार ॥ पद्अर्थ: चार = सुंदर। विदिआ = विद्या द्वारा। विखमु = कठिन, मुष्किल। विचारु = ज्ञान। शब्द ‘चार’ विशेषण है, जो एकवचन पुलिंग के साथ ‘चारु’ हो जाता है और बहुवचन के साथ या स्त्रीलिंग के साथ ‘चार’ रहता है। पर शब्द ‘चारि’ ‘चहुँ’ (4) की गिनती का वाचक है। जैसे: 1. चारि कुंट दह दिस भ्रमे, थकि आए प्रभ की साम। 2. चारि पदारथ कहै सभु कोई। 3. चचा चरन कमल गुर लागा। 4. तटि तीरथि नही मनु पतीआइ। अर्थ: कोई मनुष्य ईश्वर के सुन्दर गुण और अच्छी बढ़ाईयों का वर्णन करता है। कोई मनुष्य विद्या के बल से अकाल पुरख के कठिन ज्ञान को गाता है (भाव, शास्त्र आदि विद्या द्वारा आत्मिक फिलासफीजैसे मुश्किल विषयों पर विचार करता है)। गावै को साजि करे तनु खेह ॥ पद्अर्थ: साजि = पैदा करके, बना के। तनु = शरीर को। खेह = स्वाह, राख। जीअ = जीवात्मा। लै = ले के। देह = दे देता है। नोट: ‘जीउ’ तथा ‘जीअ’ बहुवचन है। यहाँ शब्द ‘देह’ का ‘ह’ पहली तुक के ‘खेह’ के साथ मिलाने के वास्ते बरता गया है। वैसे शब्द ‘देह’ संज्ञा का अर्थ है ‘शरीर’, जैसे कि ‘भरीअै हथु पैरु तनु देह’। शब्द ‘दे’, ‘देहि’ और ‘देह’ को अच्छी तरह समझने के लिए जपु जी में से ही नीचे लिखीं तुकें दी जा रही हैं: देंदा दे लैदे थकि पाहि। पउड़ी३। आखहि मंगहि देहि देहि, दाति करे दातारु।४। गुरा इक देहि बुझाई।५। नानक निरगुणि गुणु करे गुणवंतिआ गुण दे।७। भरीअै हथु पैरु तनु देह।२०। ले साबूणु लईअै ओहु धोइ।२०। आपे जाणै आपे देइ।२५। दे = देता है। दे = दे के। देइ = देता है। देइ = दे के देह = शरीर। देहि = देह (हुकमी भविष्यत काल)। अर्थ: कोई मनुष्य ऐसे गाता है, ‘अकाल पुरख शरीर को बना के फिर राख कर देता है। कोई ऐसे गाता है, ‘हरि (शरीरों में से) जान निकाल के फिर (दूसरे शरीरों में) डाल देता है’। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |