श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आखहि ईसर आखहि सिध ॥ आखहि केते कीते बुध ॥
आखहि दानव आखहि देव ॥ आखहि सुरि नर मुनि जन सेव ॥

पद्अर्थ: इसर = शिव। केते = कई, बेअंत। कीते = अकाल-पुरख के पैदा किए हुए। बुध = महात्मा बुध। दानण = दानव, दैंत, राक्षस। देव’ = देवते। सुरि नर = सुरों के स्वभाव वाले नर। मुनि जन = मुनी लोग। सेव = सेवक।

अर्थ: कई शिव और सिद्ध, अकाल-पुरख के पैदा किये हुए बेअंत बुद्ध, राक्षस और देवते, देव स्वभाव मनुष्य, मुनि जन तथा सेवक अकाल-पुरख का अंदाजा लगाते हैं।

केते आखहि आखणि पाहि ॥ केते कहि कहि उठि उठि जाहि ॥
एते कीते होरि करेहि ॥ ता आखि न सकहि केई केइ ॥

पद्अर्थ: केते = कई जीव। आखणि पाहि = कहने का प्रयत्न करते हैं। कहि कहि = कह कह के, अकाल-पुरख का मुल्य लगा लगा के, अकाल-पुरख का अंदाजा लगा लगा के। उठि उठि जाहि = जहाँ से चले जाते हैं। एते कीते = इतने जीव पैदा किए हुए हैं। होरि = और बेअंत जीव। करेहि = यदि तू पैदा कर दे (हे हरि!)। ता = तो भी। न केई केइ = कोई भी मनुष्य नहीं। आखि सकहि = कह सकते हैं।

अर्थ: बेअंत जीव अकाल-पुरख का अंदाजा लगा रहे हैं, और बेअंत ही लगाने का प्रयत्न कर रहे हैं। बेअंत जीव अंदाजा लगा लगा के इस जगत से चले जा रहे हैं। जगत में इतने (बेअंत) जीव पैदा किये हुए हैं (जो बयान कर रहे हैं), (पर, हे हरि!) अगर तू और भी (बेअंत जीव) पैदा कर दे तो भी कोई जीव तेरा अंदाजा नहीं लगा सकता।

जेवडु भावै तेवडु होइ ॥ नानक जाणै साचा सोइ ॥
जे को आखै बोलुविगाड़ु ॥ ता लिखीऐ सिरि गावारा गावारु ॥२६॥

पद्अर्थ: जेवडु = जितना बड़ा। भावै = चाहता है। तेवडु = उतना बड़ा। साचा सोइ = वह सदा स्थिर रहने वाला अकाल-पुरख। बोलु विगाड़ु = बड़बोला, बढ़ा चढ़ा के बातें करने वाला। लिखिऐ = (वह बड़बोला) लिखा जाता है। सिरि गावारा गावारु = गावारों का भी गावार, मूर्खों के सिर मूर्ख, महा मूर्ख।

अर्थ: हे नानक! परमात्मा जितना चाहता है उतना ही बड़ा हो जाता है (अपनी कुदरत बढ़ा लेता है)। वह सदा स्थिर रहने वाला हरि स्वयं ही जानता है (कि वह कितना बड़ा है)। अगर कोई बड़बोला मनुष्य ये बताने लगे (कि अकाल पुरख कितना बड़ा है) तो वह मनुष्यों में महा मूर्ख गिना जाता है।26।

भाव: जगत में बेअंत विद्वान हो चुके हैं और पैदा होते रहेंगे। पर, अभी तक ना कोई मनुष्य ये लेखा कर सका है, और ना ही आगे कोई कर सकेगा कि प्रभु में कितनी महानतायें हैं, और वह कितनी रहमतें जीवों पर कर रहा है। बेअंत हैं उसके गुण, बेअंत हैं उसकी दातें। इस भेद को उस परमेश्वर के बिना और कोई नहीं जानता। ये काम मनुष्य की ताकत से बहुत परे का है। वह मनुष्य महा गावार है, जो प्रभु के गुणों और दातों की सीमाएं ढूँढ सकने का दावा करता है।26।

सो दरु केहा सो घरु केहा जितु बहि सरब समाले ॥
वाजे नाद अनेक असंखा केते वावणहारे ॥
केते राग परी सिउ कहीअनि केते गावणहारे ॥

पद्अर्थ: केहा = कैसा, आश्चर्य भरा। दरु = दरवाजा। जितु = जहाँ। बहि = बैठ के। सरब = सारे जीवों को। समाले = तू संभाल करता है। नाद = आवाज, शब्द, राग। वावणहारे = बजाने वाले। परी = रागनी। सिउ = समेत। परी सिउ = रागनियों समेत। कहिअनि = कहे जाते हैं।

अर्थ: वह दर बड़ा ही आश्चर्य भरा है जहाँ बैठ के (हे निरंकार!) तू सारे जीवों की संभाल कर रहा है। (तेरी इस रची हुई कुदरत में) अनेक और अनगिनत वाजे (संगीत-यंत्र) और राग हैं; बेअंत ही जीव उन बाजों को बजाने वाले हैं, रागनियों समेतबेअंत ही राग कहे जाते हैं, और अनेको ही जीव (इन रागों के) गाने वाले हैं (जो तुझे गा रहे हैं)।

गावहि तुहनो पउणु पाणी बैसंतरु गावै राजा धरमु दुआरे ॥
गावहि चितु गुपतु लिखि जाणहि लिखि लिखि धरमु वीचारे ॥

पद्अर्थ: तुहनो = तुझे (हे अकाल-पुरख!)। राजा धरमु = धर्मराज। दुआरे = तेरे दर पे (हे निरंकार!)। चितु गुपतु = वे व्यक्ति जो यमलोक में रह के संसारी जीवों के अच्छे-बुरे कर्मों का लेखा लिखते हैं। प्राचीन हिन्दू मत की धर्म-पुस्तकों में ये विचार चले आ रहे हैं। धरमु = धर्म राज। लिखि लिखि = लिख लिख के, अर्थात, जो कुछ वह चित्रगुप्त लिखते हैं। बैसंतरु = आग।

अर्थ: (हे निरंकार!) पवन, पानी, अग्नि तेरा गुण गान कर रहे हैं। धर्मराज तेरे दर पे (खड़ा होकर) तेरी स्तुति कर रहा है। वह चित्रगुप्त भी जो (जीवों के अच्छे-बुरे कर्मों के लेखे) लिखने जानते हैं और जिनके लिखे हुए को धर्मराज विचारता है, तेरी महानताओं का गुणगान कर रहे हैं।

गावहि ईसरु बरमा देवी सोहनि सदा सवारे ॥
गावहि इंद इदासणि बैठे देवतिआ दरि नाले ॥

पद्अर्थ: ईसरु = शिव। बरमा = ब्रह्मा। देवी = देवियां। सोहनि = सुशोभित होते हैं, सुंदर लगते हैं। सवारे = तेरे द्वारा सवाँरे हुए। इंद = इंद्र देवते। इदासणि = (इंद-आसणि) इंद्र के आसन पर। देवतिआं नाले = देवताओं के साथ।

अर्थ: (हे अकाल पुरख!) देवियां, शिव व ब्रह्मा, जो तेरे संवारे हुए हैं, तुझे गा रहे हैं। कई इंद्र अपने तख्त पे बिराजमान देवताओं समेत तेरी स्तुति कर रहे हैं।

गावहि सिध समाधी अंदरि गावनि साध विचारे ॥
गावनि जती सती संतोखी गावहि वीर करारे ॥

पद्अर्थ: समाधी अंदरि = समाधि में लीन हो के। सिध = प्राचीन संस्कृत पुस्तकों में सिध वह व्यक्ति मानें गये हैं जो मनुष्य श्रेणी से ऊपर और देवताओं से नीचे। ये सिध पवित्रता के पुँज थे और आठों प्रकार की सिद्धियों के मालिक समझे जाते थे। विचारे = विचार विचार के। सती = दानी, दान करने वाले। वीर करारे = तगड़े शूरवीर।

अर्थ: सिद्ध लोग समाधियां लगा के तुझे गा रहे हैं, साधु जन चिंतन कर कर के तुझे सालाह रहे हैं। जत-धारी, दान करने वाले और संतोषी पुरष तेरा गुणगान कर रहे हैं और (बेअंत) महाबली योद्धे तेरी स्तुति कर रहे हैं।

गावनि पंडित पड़नि रखीसर जुगु जुगु वेदा नाले ॥
गावहि मोहणीआ मनु मोहनि सुरगा मछ पइआले ॥

पद्अर्थ: पढ़नि = पढ़ते हैं। रखीसर = (ऋषि ईसर) महाऋषि। जुग जुग = हरेक युग में, सदैव। वेदा नाले = वेदों समेत। मोहणीआं = सुंदर स्त्रीयां। मछ = मात लोक में। पइआले = पाताल में।

अर्थ: (हे अकाल-पुरख!) पण्डित और महाऋिषी जो (वेदों को) पढ़ते हैं। वेदों समेत तुझे गा रहे हैं। सुंदर स्त्रीयां जो स्वर्ग, मात लोक व पाताल लोक में (अर्थात, हर जगह) मानव मन को मोह लेती हैं, भी तुझे गा रही हैं।

गावनि रतन उपाए तेरे अठसठि तीरथ नाले ॥
गावहि जोध महाबल सूरा गावहि खाणी चारे ॥
गावहि खंड मंडल वरभंडा करि करि रखे धारे ॥

पद्अर्थ: उपाए तेरे = तेरे पैदा किये हुए। अठ सठि = अड़सठ की गिनती। तीरथ नाले = तीर्तों समेत। जोध = योद्धा। महा बल = महाबली। सूरा = शूरवीर, सूरमे। खाणी चारे = चारों खाणीआं, उत्पत्ति के चारों तरीके: अण्डज, जेरज, सेतज व उत्भुज। खाणी = खान, जिसकी खुदायी करके बीच में से धातुऐं, रतन आदि पदार्थ निकाले जाते हैं। ये संस्कृत का शब्द है। धातु ‘खन’ है, जिसका अर्थ है ‘खुदायी करना’। खाणी चारे, पुरातन समय से ये ख्याल हिंदू धर्म पुस्तकों में चला आ रहा है कि जगत के सारे जड़-चेतन पदार्तों की उत्पत्ति की चार खानें हैं। अण्डा, जिउर (जेरज), पसीना व स्वै उत्पत्ति। ‘चारे खाणी’ का यहाँ भाव है कि चारों ही खानों के जीव जन्तु, सारी रचना। खण्ड = टुकड़ा, ब्रहिमण्ड का टुकड़ा, भाव हरेक धरती। मण्डल = चक्कर, ब्रहिमण्ड का एक चक्कर, जिसमें एक सुरज, एक चंद्रमां व धरती आदिक गिने जाते हैं। वरभंडा = सारी सृष्टि। करि करि = बना के, रच के। धारे = धारित किए हुए, टिकाए हुआ।

अर्थ: (हे निरंकार!) तेरे पैदा किए हुए रतन अढ़सठ तीर्तों समेत तुझे गा रहे हैं। महाबली योद्धे व शूरवीर भी तेरी स्तुति कर रहे हैं। चारों खानों के जीव-जन्तु तुझे गा रहे हैं। सारी सृष्टि, सृष्टि के सारे खण्ड और चक्कर, जो तूने पैदा करके टिका रखे हैं, तुझे गाते हैं।

सेई तुधुनो गावहि जो तुधु भावनि रते तेरे भगत रसाले ॥
होरि केते गावनि से मै चिति न आवनि नानकु किआ वीचारे ॥

पद्अर्थ: सेई = वही जीव। तुधु भावन = तुझे अच्छे लगते हैं। रते = रंगे हुए, प्रेम में डूबे हुए। रसाले = रस+आलय, रस का घर, रसिए। होरि केते = अनेक और जीव। मै चिति = मेरे चित्त में। मै चिति न आवनि = मेरे चित्त में नहीं आते, मुझसे गिने नहीं जा सकते, मेरे विचारों से परे। किआ विचारे = क्या विचार करे?

अर्थ: (हे अकाल-पुरख!) (असल में तो) वही तेरे प्रेम में रंगे हुए रसिए भक्तजन तुझे गाते हैं (भाव उनका गाना ही सफल है) जो तुझे अच्छे लगते हैं। अनेक और जीव तुझे गा रहे हैं, जो मुझसे गिने भी नहीं जा सकते। (भला) नानक (विचारा) क्या विचार कर सकता है?

सोई सोई सदा सचु साहिबु साचा साची नाई ॥
है भी होसी जाइ न जासी रचना जिनि रचाई ॥

पद्अर्थ: सचु = स्थिर रहने वाला, अटल। नाई = वडियाई, महानता। होसी = होवेगा, स्थिर रहेगा। जाइ न = पैदा नहीं होगा। न जासी = ना ही मरेगा। जिनि = जिस अकाल-पुरख ने। रचाई = पैदा की है।

अर्थ: जिस अकाल-पुरख ने यह सृष्टि पैदा की है, वह इस वक्त मौजूद है, सदैव रहेगा, ना वह जन्मा है ना ही मरेगा। वह अकाल-पुरख सदा स्थिर है, वह सच्चा मालिक है, उसकी महानता भी सदा अटल है।

रंगी रंगी भाती करि करि जिनसी माइआ जिनि उपाई ॥
करि करि वेखै कीता आपणा जिव तिस दी वडिआई ॥

पद्अर्थ: रंगी रंगी = रंगों रंगों की, कई रंगों की। भाती = कई किस्मों की। करि करि = पैदा कर के। जिनसी = कई जिन्सों की। जिनि = जिस अकाल-पुरख ने। वेखै = संभाल करता है। कीता आपणा = अपना रचा हुआ जगत। जिव = जैसे। वडिआई = रज़ा।

अर्थ: जिस अकाल-पुरख ने कई रंगों, किस्मों, जिनसों की माया रच दी है, वह जैसे उसकी रज़ा है, (भाव, जितना बड़ा वह स्वयं है उतने बड़े जिगरे से जगत को रच के) अपने पैदा किये हुए की संभाल भी कर रहा है।

जो तिसु भावै सोई करसी हुकमु न करणा जाई ॥
सो पातिसाहु साहा पातिसाहिबु नानक रहणु रजाई ॥२७॥

पद्अर्थ: करसी = करेगा। न करण जाइ = नहीं किया जा सकता। साहा पाति साहिबु = शाहों का बादशाह। रहणु = रहना (हो सकता है), रहना फबता है। रजाई = अकाल-पुरख की रजा में।

अर्थ: जो कुछ अकाल-पुरख को भाता है, वह वही करता है। कोई भी जीव अकाल-पुरख को आगे से हुक्म नहीं कर सकता (उसे ये नहीं कह सकता कि “तू एैसे कर, एैसे ना कर”)। अकाल-पुरख बादशाह है, बादशाहों का भी बादशाह है। हे नानक! (जीवों का) उसकी रजा में रहना (ही फबता है)।27।

नोट: पवन, पानी, बैसंतर (अग्नि) आदिक अचेतन पदार्थ कैसे अकाल-पुरख की महिमा कर रहे हैं। इस का भाव ये है कि उसके पैदा किये हुए सारे तत्व भी उसी की रज़ा में चल रहे हैं। रज़ा में चलना उसकी महिमा करना है।

भाव: कई रंगों, कई किस्मों, कई जिन्सों की बेअंत रचना कर्तार ने रची है। इस बेअंत सृष्टि की संभाल भी वह खुद ही कर रहा है, क्योंकि वह स्वयं ही एक ऐसा है जो सदैव कायम रहने वाला है। जगत में ऐसा कौन है जो ये दम भर सके कि किस तरह की जगह बैठ के वह निर्माता इस बेअंत रचना की संभाल करता है? किसी भी मनुष्य में ऐसी स्मर्था ही नहीं। मनुष्य को सिर्फ एक बात ही फबती है कि वह प्रभु रजा में रहे। यही एक तरीका है ईश्वर से दूरी मिटाने का, और यही है इसके जीवन का उद्देश्य। देखें! हवा, पानी आदि तत्वों से लेकर उच्च जीवन वाले महाँपुरुषों तक सभी अपने-अपने अस्तित्व के उद्देश्य सफल कर रहे हैं, भाव, उसके हुक्म में मिली जिंमेदारियों को निभा रहे हैं।27।

नोट: इससे आगे नंबर २८ से ३१ तक की चार पउड़ियों का समूचा भाव ये है कि सारे संसार के पैदा करने वाले व सदैव स्थिर रहने वाले प्रमात्माका नाम जपना ही रज़ा में टिका के प्रभु से जीव की दूरी मिटा सकता है।

मुंदा संतोखु सरमु पतु झोली धिआन की करहि बिभूति ॥
खिंथा कालु कुआरी काइआ जुगति डंडा परतीति ॥

पद्अर्थ: मुंदा = मुंद्रां। सरमु = उद्यम,मेहनत। पतु = पात्र, ख्प्पर। श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में ये शब्द तीन रूपों में आया है, ‘पति’, ‘पत’, ‘पतु’। पंजाबी में यद्यपि ये एक ही शब्द प्रतीत होता हो, पर ये अलग अलग तीनों ही संस्कृत से आये हैं। शब्द ‘पति’ का संस्कृत में अर्थ है‘खसम, मालिक’। पंजाबी में ये एक और अर्थ के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है ‘इज्जत, आबरू’।

शब्द ‘पतु’ एकवचन है। संस्कृत में ‘पात्र’ है जिसका अर्थ है ‘भांडा, प्याला, खप्पर। इसका बहुवचन है: ‘पत’, पर इस ऊपर लिखे अर्थ में ये शब्द ‘पत’ श्री गुरु ग्रंथ साहिब में नहीं आया। सो, शब्द ‘पत’ वास्ते संस्कृत में एक और शब्द है ‘पत्र’, जिसका अर्थ है ‘वृक्षों के पत्ते’।

करहि = अगर तू बनाए। बिभूति = गोबर की राख। खिंथा = गुदड़ी। कालु = मौत। कुआरी काइआ = कुआरा शरीर, विकारों से अछूती काया। जुगति = योग मति की मर्यादा। परतीत = श्रद्धा, यकीन।

अर्थ: (हे योगी!) अगर तू संतोष को अपनी मुंद्राएं बनाए, मेहनत को खप्पर और झोली, और अकाल-पुरख के ध्यान की राख (शरीर पर मले), मौत (का भय) तेरी गुदड़ी हो, शरीर को विकारों से बचा के रखना तेरे लिये योग की रहित मर्यादा हो और श्रद्धा को डंडा बनाए (तो अंदर से झूठ की दीवार टूट सकती है।)

आई पंथी सगल जमाती मनि जीतै जगु जीतु ॥
आदेसु तिसै आदेसु ॥ आदि अनीलु अनादि अनाहति जुगु जुगु एको वेसु ॥२८॥

पद्अर्थ: आई पंथु = जोगियों के 12 फिरके हैं, उनमें सबसे ऊँचा ‘आई पंथ’ गिना जाता है। पंथी = आई पंथी वाला, आई पंथ के साथ संबंध रखने वाला। सगल = सारे जीव। जमाती = एक ही पाठशाला में, एक ही श्रेणी में पढ़ने वाले, एक जगह मिल बैठने वाले मित्र सज्जन। मनि जीतै = मन को जीतने से, यदि मन को जीता जाए। इस तरह के वाक्यांश श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में अनेक आते है।, जैसे:

नाइ विसारिऐ = यदि नाम बिसर जाए।

नाइ मंनिऐ = यदि नाम को मान लें।

आदेसु = प्रणाम। तिसै = उसी ही अकाल-पुरख को। आदि = शुरू से। अनीलु = कलंक रहित, पवित्र, शुद्ध स्वरूप। अनादि = जिसका कोई आरम्भ नहीं है। अनाहति = (अन-आहत, आहति = नाश, क्षय; इस शब्द की संस्कृत धातु ‘हन’ है, जिसका अर्थ है ‘मारना, नाश करना’) नाश रहित, एक रस। जुग जुग = हरेक युग में, सदा। वेसु = रूप।

अर्थ: जो मनुष्य सारी सृष्टि को अपने सज्जन-मित्र समझता है (असल में) वही आई पंथ वाला है। अगर अपना मन जीत लिया जाए तो सारा जगत ही जीत लिया जाता है (भाव, तब जगत की माया परमात्मा से विछोड़ नहीं सकती)। (सो, झूठ की दीवार गिराने के लिए) केवल उस को (अकाल-पुरख) प्रणाम करो, जो (सब का) आरम्भ है, जो शुद्ध-स्वरूप है, जिसका कोई अंत नहीं (ढूँढ सकता), जो नाश रहित है और जो सदैव इकसार रहता है।28।

भाव: योग मत के खिंथा, मुंद्रा, झोली आदि प्रभु से जीव की दूरी नहीं मिटा सकते। ज्यों ज्यों सदा स्थिर ईश्वर की याद में जुड़ते जाओगे, संतोष वाला जीवन बनता जाएगा और सारी लोगों में वह प्रभु ही व्याप्त दिखेगा।28।

भुगति गिआनु दइआ भंडारणि घटि घटि वाजहि नाद ॥
आपि नाथु नाथी सभ जा की रिधि सिधि अवरा साद ॥
संजोगु विजोगु दुइ कार चलावहि लेखे आवहि भाग ॥

पद्अर्थ: भुगति = चूरमा। भंडारणि = भण्डारा बाँटने वाली। घटि घटि = हरेक शरीर में। वाजहि = बज रहे हैं। नाद = शब्द (योगी भण्डारा खाने के समय एक नादी बजाते हैं, जिसे उन्होंने अपने गले में लटकाया हुआ होता है)। आपि = अकाल-पुरख स्वयं। नाथी = नाथ डाली हुई, वश में। सभ = सारी सृष्टि। रिधि = प्रताप, महानता। सिधि = जोगी-सफलता, करामात।

(जोगियों में आठ बड़ी सिद्धियां मानी गई हैं। आठ सिद्धियां ये हैं: अणिमा, लघिमा, प्राप्ती, प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व, वशित्व, कामावासायता। अणिमा: एक अणु जितना छोटा बन जाना। लघिमा: बहुत ही हलके भार का हो जाना। प्राप्ती: हरेक पदार्थ प्राप्त करने की स्मर्था। प्राकाम्य: स्वतंत्र मर्जी, जिसकी कोई विरोधता ना कर सके। महिमा: अपने आप को जितना चाहे उतना बड़ा बनाने की ताकत। ईशित्व: प्रभुता। वशित्व: दूसरे को अपने वश में कर लेना। कामावासायता: काम आदि विकारों को काबू में रखने का बल।

अवरा = अन्य, अकाल-पुरख से परे ले जाने वाले। साद = स्वाद, चस्के। संजोगु = संयोग, मेल, अकाल-पुरख की रज़ा का वह अंश जिससे जीव मिलते हैं, या संसार के अन्य कार्य होते हैं। विजोग = विछोड़ा, अकाल-पुरख की रज़ा का वह अंश जिसके द्वारा जीव विछड़ते है या कोई अस्तित्व वाले पदार्थ नाश हो जाते हैं। दुइ = दोनों। कार = संसारिक कार्य। चलावहि = चला रहे हैं। (जोगियों में भंडारे के वास्ते एक आदमी रसद लाने वाला होता है; इसे अकाल-पुरख की ‘संजोग रूप’ सत्ता समझ लें। दूसरा बाँटने वाला होता है, जो ‘विजोग’सत्ता है)। लेखे = किये हुए कर्मों केलेखे मुताबिक। आवहि = आते हैं, मिलते हैं। भाग = अपने-अपने हिस्से, अपने-अपने छांदे। (जोगी भंडारा बाँटने के समय हरेक को दर्जा-ब-दर्जा छांदा दिए जाते हैं, अकाल-पुरख की ‘संजोग’ ‘विजोग’ की सत्ता सब जीवों को उनके किये कर्मों के लेख अनुसार सुख दुख के छांदे बाँट रही है।)

अर्थ: (हे जोगी! यदि) अकाल-पुरख की सर्वव्यापकता का ज्ञान तेरे लिए भण्डारा (चूरमा) हो, दया इस (ज्ञान रूप) भण्डारे को बाँटने वाली हो, हरेक जीव के अंदर जो (जिंदगी की) लहर चल रही है, (भण्डारा खाने के समय यदि तेरे अंदर) यह नादी बज रही हो, तेरा नाथ स्वयं अकाल-पुरख हो, जिसके वस में सारी सृष्टि है (तो झूठ की दीवार तेरे अंदर से टूट के परमात्मा से तेरी दूरी खतम हो सकती है। योग साधनों से प्राप्त हुई रिद्धियां व्यर्थ हैं, ये) रिद्धियां और सिद्धियां (तो) दूसरास्वाद हैं (ईश्वर की राह से परे ले जाते हैं)। अकाल-पुरख की ‘संजोग’ सत्ता व ‘विजोग’ सत्ता दोनों (मिल के इस संसार की) कार को चला रहे हैं (भाव, पिछले संयोगों सदके परिवार आदि के जीव यहाँ आ के एकत्र होते हैं। फिर रजा में बिछड़ के अपनी-अपनी बारी यहाँ से चले जाते हैं) और (सभ जीवों के किये कर्मों के) लेख अनुसार (दर्जा-ब-दर्जा सुख-दुख के) छांदे मिल रहे हैं (अगर ये यकीन बन जाए तो अंदर से झूठ की दीवार टूट जाती है।)

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh