श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

रागु सिरीरागु महला पहिला १ घरु १ ॥

नोट: ‘महला १’ के अंक से पहले शब्द ‘पहिला’ से स्पष्ट है कि अंक १ को पढ़ना है ‘पहला’। इसी तरह ‘घर १’ के अंक १ को भी पढ़ना है ‘पहला’। देखें पृष्ठ 23 पे शब्द नं: 25 का शीर्षक ‘सिरीरागु महला १ घर दूजा २’। यहाँ ‘घर २’ के अंक 2 को लिखा है ‘दूजा’। देखें पृष्ठ 163 के शीर्षक ‘गउड़ी गुआरेरी महला ४ चउथा’। यहां, महला ४ के अंक को लिखा है ‘चउथा’। इसी तरह और भी ज्यादा तसल्ली वास्ते पाठक 1430 पन्नों वाली श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बीड़ के पंन्ना नं: 892, 524, 582, 605, 636, 661, 664 और 1169 पर देख सकते हैं।

मोती त मंदर ऊसरहि रतनी त होहि जड़ाउ ॥ कसतूरि कुंगू अगरि चंदनि लीपि आवै चाउ ॥ मतु देखि भूला वीसरै तेरा चिति न आवै नाउ ॥१॥

पद्अर्थ: त = यदि। उसरहि = उसर पड़ना, बन जाना। कुंगू = केसर। अगरि = अगर से, ऊद की सुगंध भरी लकड़ी के साथ। चंदनि = चंदन से। लीपि = लिपाई करके। देखि = देख के। चिति = चिक्त में।1।

अर्थ: अगर (मेरे लिए) मोतियों के महल बन जाएं, यदि (वह महल-माड़ियां) रत्नों से जड़ी हों, (उन महल-माड़ियों को) कस्तूरी केसर व चंदन आदि से लिपाई करके (मेरे अंदर) चाव चढ़े, (तो भी यह सब कुछ व्यर्थ है, मुझे खतरा है कि महल माड़ियों) को देख के मैं कहीं (हे प्रभु!) तुझे भुला ना बैठूँ, कहीं तू मुझे विसर ना जाए, कहीं तेरा नाम मेरे चिक्त में टिके ही ना।1।

हरि बिनु जीउ जलि बलि जाउ ॥ मै आपणा गुरु पूछि देखिआ अवरु नाही थाउ ॥१॥ रहाउ॥

अर्थ: मैंने अपने गुरु को पूछ के देख लिया है (मैंने अपने गुरु को पूछा है और मुझे यकीन भी आ गया है) कि प्रभु से बिछुड़ के ये जिंद जल-बल जाती है (तथा प्रभु की याद के बिना) और कोई जगह भी नहीं है (जहाँ वह जलन खतम हो सके)।1। रहाउ।

धरती त हीरे लाल जड़ती पलघि लाल जड़ाउ ॥ मोहणी मुखि मणी सोहै करे रंगि पसाउ ॥ मतु देखि भूला वीसरै तेरा चिति न आवै नाउ ॥२॥

पद्अर्थ: पलघि = पलंग पे। मोहणी = मोहक स्त्री, सुंदर स्त्री। मुखि = मुह पर। रंगि = प्यार से। पसाओ = पसारा, खेल। रंगि पसाओ = प्यार भरी खेल। हाव = भाव।2।

अर्थ: यदि (मेरे रहने के वास्ते) धरती हीरे लालों से जड़ी जाए, अगर (मेरे सोने वाले) पलंघ पर लाल जड़े हों, यदि (मेरे सामने) वह सुंदर स्त्री हाव-भाव करे जिसके माथे पे मणी शोभायमान हो, (तो भी यह सब कुछ व्यर्थ है, मुझे खतरा है कि ऐसे सुंदर स्थान पे ऐसी सुंदरी को) देख के मैं कहीं (हे प्रभु!) तुझे भुला ना बैठूँ, कहीं तू मुझे बिसर ना जाए, कहीं तेरा नाम मेरे चिक्त में टिके ही ना।2।

सिधु होवा सिधि लाई रिधि आखा आउ ॥ गुपतु परगटु होइ बैसा लोकु राखै भाउ ॥ मतु देखि भूला वीसरै तेरा चिति न आवै नाउ ॥३॥

पद्अर्थ: सिधु = योग साधना में खचित योगी। सिधि = योग कमाई में कामयाबी। लाई = लगाऊँ। रिधि = योग से प्राप्त हुई बरकतें। बैसा = मैं बैठूँ। भाउ = आदर, सत्कार।3।

अर्थ: अगर मैं माहिर जोगी बन जाऊँ, अगर मैं योग-समाधियों की कामयाबियां हासिल कर लूँ, अगर मैं योग से प्राप्त हो सकने वाली बरकतों को आवाज मारूँ और वे (मेरे पास) आ जाएं, अगर (योग की ताकत से) मैं कभी छुप सकूँ कभी प्रत्यक्ष हो के बैठ जाऊँ, यदि (सारा) जगत मेरा आदर करे, (तो भी ये सब कुछ व्यर्थ है मुझे खतरा है कि इन रिद्धियों-सिद्धियों को देख के) मैं कहीं (हे प्रभु!) तुझे भुला ना बैठूँ, कहीं तू मुझे बिसर ना जाए, कहीं तेरा नाम मेरे चिक्त में टिके ही ना।3।

सुलतानु होवा मेलि लसकर तखति राखा पाउ ॥ हुकमु हासलु करी बैठा नानका सभ वाउ ॥ मतु देखि भूला वीसरै तेरा चिति न आवै नाउ ॥४॥१॥

पद्अर्थ: मेलि = एकत्र करके। लसकर = फौजें। तखति = तख़्त पे। हासलु करी = मैं हासल करूँ, मैं चलाऊँ। वाउ = हवा समान, व्यर्थ। करी = मैं करूँ।4।

अर्थ: अगर मैं फौजें इकट्ठी करके बादशाह बन जाऊँ, यदि मैं (तख़्त पे) बैठा (बादशाही का) हुक्म चला सकूँ, तो भी, हे नानक! (ये) सब कुछ व्यर्थ है (मुझे खतरा है कि ये राज-भाग) देख के मैं कहीं (हे प्रभु!) तुझे भुला ना बैठूँ, कहीं तू मुझे बिसर ना जाए, कहीं तेरा नाम मेरे चिक्त में टिके ही ना।4।1।

नोट: इस शब्द के 4 बंद हैं। आखिरी बंद के बाद अंक 1 का भाव है कि यह पहला शब्द समाप्त हुआ है।

भाव: प्रभु की याद भुला के जिंद जल-बल जाती है। योग की रिद्धियां-सिद्धियां, व बादशाहियत् प्रभु के विछोड़े से पैदा हुई उस जलन को शांत नहीं कर सकते। ये तो बल्कि, परमात्मा से दूरी और बढ़ा के जलन पैदा करते हैं।

सिरीरागु महला १ ॥ कोटि कोटी मेरी आरजा पवणु पीअणु अपिआउ ॥ चंदु सूरजु दुइ गुफै न देखा सुपनै सउण न थाउ ॥ भी तेरी कीमति ना पवै हउ केवडु आखा नाउ ॥१॥

पद्अर्थ: कोटी = कोटि। कोटी कोटि = करोड़ों ही (साल)। आरजा = उम्र। पीअणु = पीना। अपिआउ = खाना, भोजन। गुफै = गुफा में (रह के)। सउणु थाउ = सोने की जगह। भी = फिर भी। हउ = मैं। केवडु = कितना बड़ा। नाउ = मशहूरी, शोभा।1।

अर्थ: यदि मेरी उम्र करोडों ही साल हो जाए, अगर हवा मेरा खाना-पीना (भोजन) बन जाए (यदि मैं हवा के आसरे जी सकूँ), यदि (किसी) गुफा में (बैठ के) चाँद सूरज दोनों को कभी ना देखूँ (भाव, कि रात-दिन गुफा में बैठ के मैं समाधि लगाए रखूँ), अगर सपनों में भी सोने की जगह ना मिले (यदि कभी ना सो सकूँ) तो भी (हे प्रभु! इतनी लम्बी समाधियां लगा के भी) मैं तेरा मुल्य नहीं पा सकता (तेरे बराबर का मैं किसी और को नहीं ढूँढ सकता), मैं तेरी कितनी महानता बयान करूँ? (मैं तेरी बड़ाई महानता बताने के काबिल नहीं हूँ)।1।

साचा निरंकारु निज थाइ ॥ सुणि सुणि आखणु आखणा जे भावै करे तमाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: थाइ = जगह में, स्वरूप में। निज थाइ = अपने आप में, अपने स्वरूप में। सुणि सुणि = बार बार सुन के। आखणु = बयान। जे भावै = जो प्रभु को ठीक लगे। तमाइ = आकर्षण, (जीव के अंदर महिमा करने की) ललक। करे = पैदा कर देता है।1। रहाउ।

अर्थ: सदा कायम रहने वाला निराकार परमात्मा अपने आप में टिका हुआ है (उस को किसी और के आसरे की अधीनता नहीं है) हम जीव एक दूसरे से सुन सुन के ही (उस की प्रतिभा का) बयान कर देते हैं। (पर ये कोई नहीं कह सकता कि वह कितना बड़ा है)। अगर प्रभु को ठीक लगे तो (जीव के अंदर अपनी महिमा की) उमंग पैदा कर देता है।1। रहाउ।

कुसा कटीआ वार वार पीसणि पीसा पाइ ॥ अगी सेती जालीआ भसम सेती रलि जाउ ॥ भी तेरी कीमति ना पवै हउ केवडु आखा नाउ ॥२॥

पद्अर्थ: कुसा = कोह दूँ, यदि मैं (अपने शरीर को) कष्ट दे दे के घायल कर दूँ। कटीआ = कटा दूँ, यदि मैं (अपने आप को) कटा डालूँ। वार वार = बार बार, दुबारा। पीसणि = चक्की में। पाइ = पा के। सेती = साथ। जालीआ = यदि मैं जला दूँ।2।

अर्थ: यदि मैं (तप द्वारा अपने शरीर को कष्ट) दे दे के घायल कर लूँ, बारंबार रत्ती-रत्ती कटा दूँ, चक्की में डाल के पीस दूँ, आग से जला दूँ, और (स्वयं को) राख में मिला डालूँ (इतना तप साधु के भी हे प्रभु!) तेरे बराबर का किसी और को मैं ढूँढ नहीं सकता, मैं तेरी बड़ाई महानता बताने के काबिल नहीं हूँ।2।

पंखी होइ कै जे भवा सै असमानी जाउ ॥ नदरी किसै न आवऊ ना किछु पीआ न खाउ ॥ भी तेरी कीमति ना पवै हउ केवडु आखा नाउ ॥३॥

पद्अर्थ: सै = सैकड़ो। नदरी न आवऊ = मैं ना दिखूँ।3।

अर्थ: अगर मैं पंछी बन के उड़ सकूँ और सैकड़ों आसमानों तक पहुँच सकूँ, अगर (उड़ के इतना ऊँचा चला जाऊं कि) मैं किसी को दिखाई ही ना दे सकूँ, खाऊं-पीऊँ भी कुछ नहीं (इतनी पहुँच रखते हुए) भी हे प्रभु! मैं तेरे बराबर का कोई और नहीं ढूँढ सकता, मैं तेरी बड़ाई महानता बताने के काबिल नहीं हूँ।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh