श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सिरीरागु महला १ घरु ३ ॥ अमलु करि धरती बीजु सबदो करि सच की आब नित देहि पाणी ॥ होइ किरसाणु ईमानु जमाइ लै भिसतु दोजकु मूड़े एव जाणी ॥१॥

पद्अर्थ: अमलु = करणी, आचरण। धरती = भूमि (जिसमें बीज बीजना है)। सबदो = शब्द, गुरु का शब्द। आब = चमक, खूबसूरती। इमान = श्रद्धा। जंमाइ लै = उगा ले। एव = इस तरह।1।

अर्थ: (हे काजी!) अपने (रोजमर्रा के) हरेक कर्म को जमीन बना, (इस कर्म-भूमि में) गुरु के शब्द का बीज डाल, स्मरण से पैदा होने वाली आत्मिक सुंदरता का पानी (उस कर्म-भूमि में) सदा देता रह। किसान (जैसा उद्यमी बन), (तेरी इस किरसानी में) श्रद्धा (की खेती) उगेगी। हे मूर्ख! सिर्फ इस तरीके से समझ आएगी कि बहिश्त क्या है और दोजक क्या।1।

मतु जाण सहि गली पाइआ ॥ माल कै माणै रूप की सोभा इतु बिधी जनमु गवाइआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मतु जाणसहि = ये ना समझना। गली = सिर्फ बातें करके। माणै = अहंकार में। इतु = इसके द्वारा। इतु बिधि = इस तरह।1। रहाउ।

अर्थ: (हे काजी!) ये ना समझना कि सिर्फ बातों से ही (रब) मिल जाता है। अगर (बेईमानियां करके इकट्ठे किये हुए) धन के अहंकार में टिके रहे, अगर (कामातुर हो के) रूप की शोभा में (मन जुड़ा रहा) तो (बाहर से की गई मजहब की बातें कुछ नहीं सवार सकतीं)। इस तरह मानव जन्म बेकार चला जाता है।1। रहाउ।

ऐब तनि चिकड़ो इहु मनु मीडको कमल की सार नही मूलि पाई ॥ भउरु उसतादु नित भाखिआ बोले किउ बूझै जा नह बुझाई ॥२॥

पद्अर्थ: तनि = शरीर में। मीडको = मेंढक। सार = कद्र। मूलि = बिल्कुल। उस्तादु = गुरु। भाखिआ = बोली, उपदेश। बुझाई = समझ।2।

अर्थ: (जब तक) शरीर के अंदर विकारों का कीचड़ है, और ये मन (उस कीचड़ में) मेंढक (बन के रहता है), (कीचड़ में उगे हुए) कमल के फूल की कद्र (इस मेंढक मन) को नहीं पड़ सकती (हृदय में बसते प्रभु की सूझ नहीं आ सकती)। (भंवरा आ के कमल फूल पर गुँजार डालता है, पर कमल फूल के पास ही कीचड़ में मस्त मेंढक फूल की कद्र नहीं जानता) गुरु भंवरा सदैव (हरि स्मरण का) उपदेश करता है, पर ये मेंढक-मन उस उपदेश को नहीं समझता, इसे ऐसी समझ ही नहीं है।2।

आखणु सुनणा पउण की बाणी इहु मनु रता माइआ ॥ खसम की नदरि दिलहि पसिंदे जिनी करि एकु धिआइआ ॥३॥

पद्अर्थ: पउण की वाणी = हवा जैसी, एक कान में आकर दूसरे कान से निकल गई, बे-असर। रता = रंगा हुआ। दिलहि पसिंदे = दिल में पसंद। करि एक = एक करके पूरी श्रद्धा से।3।

अर्थ: (हे काजी! जब तक) ये मन माया के रंग में ही रंगा हुआ है (मजहबी किताब के मसले) सुनने सुनाने बे-असर हैं। वही बंदे मालिक-रब की नजर में हैं, वही बंदे उसकी नजर में प्यारे हैं जिन्होंने पूरी श्रद्धा से उसको स्मरण किया है।3।

तीह करि रखे पंज करि साथी नाउ सैतानु मतु कटि जाई ॥ नानकु आखै राहि पै चलणा मालु धनु कित कू संजिआही ॥४॥२७॥

पद्अर्थ: तीह = तीस रोजे। पंज = पाँच नमाजें। मतु कटि जाई = शायद इस तरह कट जाए, शायद इस तरह मुझे कोई शैतान (बुरा आदमी) न कहे। राहि = रास्ते पे। कित कू = किस लिए? संजिआही = तूने एक़त्र किया है।4।

अर्थ: (हे काजी!) तू तीस रोज़े गिन के रखता है, पाँच नमाजों को साथी बनाता है। (पर, ये सब कुछ दिखावे के लिए करता है, ता कि) शायद इस तरीके से लोग मुझे उच्छा मुसलमान कहने लग जाएं। पर, नानक कहता है (हे काजी!) जीवन के सही रास्ते पर चलना चाहिए, तू (ठगी फरेब करके) माल-धन क्यूँ इकट्ठा कर रहा है? (तू निरी बाते करके लोगों को खुश करता है, पर अंदर से धन के लालच में और काम-वासना में अंधा हुआ पड़ा है,ये रास्ता आत्मिक मौत का है)।4।27।

सिरीरागु महला १ घरु ४ ॥ सोई मउला जिनि जगु मउलिआ हरिआ कीआ संसारो ॥ आब खाकु जिनि बंधि रहाई धंनु सिरजणहारो ॥१॥

पद्अर्थ: मउला = मालिक। जिनि = जिस (मौला) ने। मउलिआ = खिलाया है, प्रफुल्लित किया है। आब = पानी। खाकु = मिट्टी। बंधि रहाई = बांध के रख दी है।1।

अर्थ: जिस मालिक ने सारा जगत प्रफुल्लित किया है, जिस ने सारे संसार को हरा-भरा किया है, जिसने पानी और मिट्टी (विरोधी तत्व) इकट्ठे करके रख दिए हैं, वह निर्माता धन्य है (उसकी महिमा करो), वही (असल) मालिक है (मौत का मालिक भी वही है, विरोधी तत्वों वाली खेल आखिर खत्म होनी है, और वही खत्म करता है)।1।

मरणा मुला मरणा ॥ भी करतारहु डरणा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मुला = हे मुल्ला! मरणा = मौत, मौत का डर। भी = उससे। करतारहु = कर्तार से।1। रहाउ।

अर्थ: हे मुल्ला! मौत (का डर) हरेक के सिर पर है, इस वास्ते रब से ही डरना चाहिए (रब के डर में रहना ही फबता है। अर्थात, रब के डर में रहने से मौत का डर दूर हो सकता है)।1। रहाउ।

ता तू मुला ता तू काजी जाणहि नामु खुदाई ॥ जे बहुतेरा पड़िआ होवहि को रहै न भरीऐ पाई ॥२॥

पद्अर्थ: नामु खुदाई = खुदा का नाम। भरीऐ पाई = जब घड़ा भर जाता है, जब स्वास पूरे भर जाते हैं। पाई = पन घड़ी (उस के नीचे छेद होता है, जिस के रास्ते उस घड़ी में पानी आता रहता है, और आखिर जब सारा पानी से भर जाती है, तो पानी में डूब जाती है। वक्त का हिसाब रखने का एक यह पुरातन तरीका था)।2।

अर्थ: (सिर्फ मजहबी किताबें पढ़ लेने से असली काजी-मुल्ला नहीं बन सकते) तभी तू अपने आप को मुल्ला समझ और तभी काजी, जब तू रब के नाम के साथ गहरी सांझ पा लेगा (और मौत का डर खत्म कर लेगा, नही तो) चाहे तू कितनी ही (मजहबी किताबें) पढ़ जाएं (मौत फिर भी नहीं टलेगी), जब स्वास पूरे हो जाते है, कोई यहां रह नहीं सकता।2।

सोई काजी जिनि आपु तजिआ इकु नामु कीआ आधारो ॥ है भी होसी जाइ न जासी सचा सिरजणहारो ॥३॥

आपु = स्वै भाव। आधारो = आसरा। होसी = कायम रहेगा। जाइन = ना पैदा होता है। सचा = सदा स्थिर रहने वाला।3।

अर्थ: वही मनुष्य काजी है जिसने स्वैभाव त्याग दिया है, और जिसने उस रब के नाम को अपनी जिंदगी का आसरा बनाया है। जो अब भी है, आगे भी रहेगा। जो ना जन्मता है ना ही मरता है। जो सदा कायम रहने वाला है और सभ को पैदा करने वाला है।3।

पंज वखत निवाज गुजारहि पड़हि कतेब कुराणा ॥ नानकु आखै गोर सदेई रहिओ पीणा खाणा ॥४॥२८॥

पद्अर्थ: निवाज गुजारहि = तू नमाज पढ़ता है। कतेब = मुसलमानी मत की किताबें। गोर = कब्र। सदेई = पुकारी जाती है। गोर सदेई = जब कब्र बुलाती है, जब मौत आती है। रहिओ = रहि जाती है, खतम हो जाती है।4।

अर्थ: (हे काजी!) तू पाँचों वक्त नमाज़ पढ़ता है, तू कुरान व अपनी अन्य मजहबी किताबें भी पढ़ता है (फिर भी स्वार्थ में बंधा रह के मौत से डरता है)। नानक कहता है (हे काजी!) जब मौत आवाज देती है तो दाना-पानी यहीं का यहीं धरा धराया रह जाता है (सो, मौत के डर से बचने के लिए रब के डर में टिका रह)।4।28।

सिरीरागु महला १ घरु ४ ॥ एकु सुआनु दुइ सुआनी नालि ॥ भलके भउकहि सदा बइआलि ॥ कूड़ु छुरा मुठा मुरदारु ॥ धाणक रूपि रहा करतार ॥१॥

पद्अर्थ: सुआनु = कुत्ता, लोभ। दुइ = दो। सुआनी = कुत्तियां (आशा और तृष्णा)। भलके = नित्य। बइआलि = सवेरे। कूड़ु = झूठ। मुठा = माया में ठगा जा रहा हूँ। धाणक = सांहसी कबीला। रूपि = रूप वाला, भेस वाला।1।

अर्थ: हे कर्तार! मैं सहंसियों वाले रूप में रहता हूँ। मेरे साथ एक कुत्ता (लोभ) है, दो कुत्तियां (आशा और तृष्णा) हैं। (मेरे हाथ में) झूठ रूपी छुरा है, मैं माया में ठगा जा रहा हूँ (और पराया हक) मुरदार (खाता हूँ)।1।

मै पति की पंदि न करणी की कार ॥ हउ बिगड़ै रूपि रहा बिकराल ॥ तेरा एकु नामु तारे संसारु ॥ मै एहा आस एहो आधारु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पंदि = नसीहत, शिक्षा। करणी की कार = जो कर्म करने चाहिए, उत्तम करनी। बिकराल = डरावना। आधारु = आसरा।1। रहाउ।

अर्थ: हे पति-प्रभु! ना मैं तेरी नसीहत पे चलता हूँ, ना मेरी करनी बढ़िया है, मैं सदा डरावने विगड़े रूप वाला बना रहता हूँ। मुझे अब सिर्फ यही आस है यही आसरा है कि तेरा जो नाम सारे संसार को पार लंघाता है (वह मुझे भी पार लंघा लेगा)।1। रहाउ।

मुखि निंदा आखा दिनु राति ॥ पर घरु जोही नीच सनाति ॥ कामु क्रोधु तनि वसहि चंडाल ॥ धाणक रूपि रहा करतार ॥२॥

पद्अर्थ: मुखि = मुंह से। पर घरु = पराया घर। जोही = जोहना, मैं देखता हूँ। सनाति = नीच असलियत वाला, नीच कर्मों वाला। तनि = तन में, शरीर में।2।

अर्थ: मैं दिन-रात मुंह से (दूसरों की) निंदा करता रहता हूँ, मैं नीच और नीची असलीयत वाला हो गया हूँ, पराया घर देखता हूँ। मेरे शरीर में काम व क्रोध जैसे चण्डाल बस रहे हैं। हे कर्तार! मैं साहंसियों वाले रूप में ही घूमता फिरता हूँ।2।

फाही सुरति मलूकी वेसु ॥ हउ ठगवाड़ा ठगी देसु ॥ खरा सिआणा बहुता भारु ॥ धाणक रूपि रहा करतार ॥३॥

पद्अर्थ: सुरति = ध्यान। फाही सुरति = ध्यान इस तरफ है कि लोगों को फसा लूँ। मलूकी वेसु = फरिश्तों वाला पहिरावा, फकीरों वाला लिबास। ठगवाड़ा = ठगी का अड्डा। ठगी = ठगीं, मैं ठगता हूँ। खरा = बहुत। भारु = पापों का बोझ।3।

अर्थ: मेरा ध्यान इस तरफ रहता है कि लोगों को किसी ठगी में फसाऊँ। और मैंने फकीरों वाला लिबास पहना हुआ ह। मैंने ठगी का अड्डा बनाया हुआ है, देश को ठग रहा हूँ। (ज्यों ज्यों) मैं बहुत चतुर बनता हूँ, पापों का और-और भार (अपने सिर पर उठाता जाता हूँ)। हे कर्तार! मैं सांसियों वाला रूप धारण किये बैठा हूँ।3।

मै कीता न जाता हरामखोरु ॥ हउ किआ मुहु देसा दुसटु चोरु ॥ नानकु नीचु कहै बीचारु ॥ धाणक रूपि रहा करतार ॥४॥२९॥

पद्अर्थ: हरामखोरु = पराया हक खाने वाला। हउ = मैं। किआ मुहु देसा = मैं क्या मुंह दूंगा, मैं किस मुंह से तेरे सामने हाजिर होऊँगा? तेरे सामने पेश होते हुए मुझे बड़ी शर्म आएगी। नीच = मंद कर्मी। करतार = हे कर्तार! 4।

अर्थ: हे कर्तार! मैंने तेरी दातों की कद्र नहीं जानी, मैं पराया हक खाता हूँ। मैं विकारी हूँ, मैं (तेरा) चोर हूँ, तेरे सामने मैं किस मुंह से हाजिर होऊँगा? मंदकर्मी नानक यही बात कहता है: हे कर्तार! मैं तो सांहसीं रूप में जीवन व्यतीत कर रहा हूँ।4।29।

सिरीरागु महला १ घरु ४ ॥ एका सुरति जेते है जीअ ॥ सुरति विहूणा कोइ न कीअ ॥ जेही सुरति तेहा तिन राहु ॥ लेखा इको आवहु जाहु ॥१॥

पद्अर्थ: सुरति = सूझ। एका सुरति = एक (परमात्मा की दी हुई) सूझ। जीअ = जीव। जेते = जितने। विहूणा = बगैर। कीअ = पैदा किया। तिन राहु = उन जीवों का जीवन रास्ता। लेखा इको = एक परमात्मा ही ये लेखा रखता है। आवहु जाहु = (मिली सुरति अनुसार) जीव आते हैं जाते हैं।1।

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

अर्थ: जितने भी जीव हैं (इन सबके अंदर) एक परमात्मा की ही बख्शी हुई सूझ काम कर रही है, (परमात्मा ने) कोई भी ऐसा जीव पैदा नहीं किया जिसे सूझ से वंचित रखा हो। जैसी सूझ (प्रभु जीवों को देता है) वैसा ही जीवन रास्ता वे पकड़ लेते हैं। (उसी मिली सूझ अनुसार) जीव (जगत में) आते हैं और (यहां) से चले जाते हैं। ये मर्यादा चलाने वाला प्रभु खुद ही है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh