श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सिरीरागु महला ५ ॥ भलके उठि पपोलीऐ विणु बुझे मुगध अजाणि ॥ सो प्रभु चिति न आइओ छुटैगी बेबाणि ॥ सतिगुर सेती चितु लाइ सदा सदा रंगु माणि ॥१॥

पद्अर्थ: भलके = नित्य हर रोज। उठि = उठ के,उद्यम से। पपोलीऐ = पालना पोसना है। मुगध = मूर्ख। अजाणि = बेसमझ। चिति = चिक्त में। छुटैगी = अकेली छोड़ दी जाएगी। बेबाणि = बीआबान में, जंगल में, मसाणों में। सेती = साथ। रंगु = आत्मिक आनंद।1।

अर्थ: हर रोज उद्यम से इस शरीर को पालते पोसते हैं, (जिंदगी का उद्देश्य) समझे बगैर यह मूर्ख ही रह जाता है। इसे कभी उस परमात्मा (जिसने इसे पैदा किया है) याद नहीं आता, और आखिर में इसे मसाणों में फेक दिया जाएगा।

(हे प्राणी! अभी भी वक्त है, अपने) गुरु के साथ चिक्त जोड़ ले, और (परमात्मा का नाम स्मरण करके) सदा कायम रहने वाला आत्मिक आनंद ले।1।

प्राणी तूं आइआ लाहा लैणि ॥ लगा कितु कुफकड़े सभ मुकदी चली रैणि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: लाहा = लाभ। लैणि = लेने के वास्ते। कितु = किस में? कुफकड़े = फक्करी पड़ने वाले काम में, खुआरी पड़ने वाले काम में। रैणि = (उम्र की) रात।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्राणी! तू (जगत में परमात्मा के नाम का) लाभ लेने के लिए आया है। तू किस खुआरी वाले काम में उलझा हुआ है? तेरी जिंदगी की सारी रात खत्म होती जा रही है।1। रहाउ।

कुदम करे पसु पंखीआ दिसै नाही कालु ॥ ओतै साथि मनुखु है फाथा माइआ जालि ॥ मुकते सेई भालीअहि जि सचा नामु समालि ॥२॥

पद्अर्थ: कुदमु = कलोल। पंखीआं = पक्षी। काल = मौत। ओतै साथि = उस टोले में, उस तरह का। जालि = जाल में। मुकते = (जाल में से) आजाद। सेई = वही लोग। भालीअहि = मिलते हैं। जि = जो।2।

अर्थ: पशु कलोल करते हैं, पंक्षी कलोल करते हैं। (पशु और पंक्षी को) मौत नहीं दिखती। (पर) मनुष्य भी उसके साथ ही जा मिला है (पशु पक्षी की तरह इसे भी मौत याद नहीं, और यह) माया के जाल में फंसा हुआ है। माया के जाल से बचे हुए वही लोग दिखते हैं जो परमात्मा का सदा कायम रहने वाला नाम हृदय में बसाते हैं।2।

जो घरु छडि गवावणा सो लगा मन माहि ॥ जिथै जाइ तुधु वरतणा तिस की चिंता नाहि ॥ फाथे सेई निकले जि गुर की पैरी पाहि ॥३॥

पद्अर्थ: तुधु = तू। चिंता = ख्याल। पाहि = पड़ते हैं।3।

अर्थ: (हे प्राणी!) जो (ये) घर छोड़ के सदा के लिए चले जाना है, वह तुझे अपने मन में (प्यारा) लग रहा है। और जहां जा के तेरा वास्ता पड़ना है, उसका तूझे (रत्ती भर भी) फिक्र नहीं। (सभ जीव माया के मोह में फंसे हुए हैं, इस मोह में) फंसे हुए वही बंदे निकलते हैं जो गुरु के चरणों में पड़ जाते हैं।3।

कोई रखि न सकई दूजा को न दिखाइ ॥ चारे कुंडा भालि कै आइ पइआ सरणाइ ॥ नानक सचै पातिसाहि डुबदा लइआ कढाइ ॥४॥३॥७३॥

पद्अर्थ: न दिखाइ = नहीं दिखाई देता। चारे कुंडा = चारों तरफ, सारी दुनिया (कुंड)। सचै पातशाहि = सच्चे पातशाह ने, सत्गुरू ने।4।

अर्थ: (पर, माया का मोह है ही बड़ा प्रबल, इस में से गुरु के बिना) और कोई बचा नहीं सकता। (गुरु के बिना ऐसी स्मर्था वाला) कोई दिखाई नहीं देता। मैं तो सारी सृष्टि ढूंढ के गुरु की शरण आ पड़ा हूँ। हे नानक (कह) सच्चे पातशाह ने, गुरु ने मुझे (माया के मोह समुंदर में) डूब रहे को निकाल लिया है।4।3।73।

सिरीरागु महला ५ ॥ घड़ी मुहत का पाहुणा काज सवारणहारु ॥ माइआ कामि विआपिआ समझै नाही गावारु ॥ उठि चलिआ पछुताइआ परिआ वसि जंदार ॥१॥

पद्अर्थ: मुहत = मुहुर्त, दो घड़ीआं। पाहुणा = प्राहुणा। कामि वासना = काम-वासना में। विआपिआ = फसा हुआ। गावारु = मूर्ख। उठि = उठ के। वसि जंदार = जंदार के बस में, यम के वस में। जंदार = जंदाल, अवैड़ा, यम।1।

अर्थ: (किसी के घर घड़ी दो घड़ी के लिये गया हुआ मेहमान उस घर के काम संवारने वाला बन बैठे तो हास्यास्पद ही होता है, उसी तरह से जीव इस जगत में) घड़ी दो घड़ियों का मेहमान ही है, पर इस के ही काम-धंधे निपटाने वाला बन जाता है। मूर्ख (जीवन का सही रास्ता) नहीं समझता, माया के मोह में और कामवासना में फंसा रहता है। जब (यहां से) उठ के चल पड़ता है तो पछताता है (पर, उस वक्त पछताने से क्या होता है?) यमों के तो बस पड़ जाता है।1।

अंधे तूं बैठा कंधी पाहि ॥ जे होवी पूरबि लिखिआ ता गुर का बचनु कमाहि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कंधी = नदी का किनारा। पाहि = पास। पूरबि = शुरू से।1। रहाउ।

अर्थ: हे (माया के मोह में) अंधे हुए जीव! (जैसे कोई पेड़ नदी के किनारे पर उगा हुआ हो तो किसी भी समय नदी के किनारे के टूटने से वृक्ष नदी में बह सकता है, ठीक उसी तरह) तू (मौत रूपी नदी के) किनारे पर बैठा हुआ है (पता नहीं किस वक्त मौत आ जाए)। अगर (तेरे माथे पर) पूर्व जन्म में (की हुई कमाई के अच्छे लेख) लिखे हुए हों तो तू गुरु का उपदेश कमा ले (गुरु के उपदेश मुताबक अपना जीवन बनाए, और आत्मिक मौत से बच जाए)।1। रहाउ।

हरी नाही नह डडुरी पकी वढणहार ॥ लै लै दात पहुतिआ लावे करि तईआरु ॥ जा होआ हुकमु किरसाण दा ता लुणि मिणिआ खेतारु ॥२॥

पद्अर्थ: डडुरी = वह खेती जिसमें दाने पड़ चुके हैं पर अभी कच्चे और नर्म हैं। दात = दातरी, हसिया। पहुतिआ = पहुँच गए। लावे = फसल काटने वाले। करि = कर के। किरसाण = किसान, खेत का मालिक। लुणि = काट के। खेतारु = सारा खेत।2।

अर्थ: यह जरूरी नहीं कि हरी खेती ना काटी जाए, डोडियों पर आई अधपकी फसल ना काटी जाए, और सिर्फ पकी हुई ही काटी जाए। जब खेत के मालिक का हुक्म होता है, वह काटने वाले तैयार करता है जो हसिए ले ले के (खेत में) आ पहुंचते हैं। (वह काटने वाले खेत को) काट के सारा खेत नाप लेते हैं। (इस तरह जगत का मालिक प्रभु जब हुक्म करता है जम आ के जीवों को ले जाते हैं, चाहे बाल उम्र हो, चाहे जवान हो और चाहे बुजुर्ग हो चुके हों)।2।

पहिला पहरु धंधै गइआ दूजै भरि सोइआ ॥ तीजै झाख झखाइआ चउथै भोरु भइआ ॥ कद ही चिति न आइओ जिनि जीउ पिंडु दीआ ॥३॥

पद्अर्थ: धंधे = धंधे में, जंजाल में। भरि = भर के, अघा के, पेट भर के। झाख झखाइआ = विषौ भोगे। भोरु = भोर, सुबहु, दिन। चिति = चित्त में। जिनि = जिस प्रभु ने। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर।3।

अर्थ: (माया में ग्रसे मूर्ख मनुष्य की जीवन की रात का) पहिला पहर दुनिया के धंधों में बीत जाता है। दूसरे पहर (मोह की नींद में) जी भर के सोता रहता है, तीसरे पहर विषय भोगता रहता है। और चौथे पहर (आखिर) दिन चढ़ जाता है (बुढ़ापा आ के मौत आ पुकारती है)। जिस प्रभु ने ये जीवात्मा और शरीर दिया है वह कभी भी इसके चिक्त में नहीं आता (उसे कभी भी याद नहीं करता)।3।

साधसंगति कउ वारिआ जीउ कीआ कुरबाणु ॥ जिस ते सोझी मनि पई मिलिआ पुरखु सुजाणु ॥ नानक डिठा सदा नालि हरि अंतरजामी जाणु ॥४॥४॥७४॥

पद्अर्थ: वारिआ = कुर्बान, सदके। मनि = मन मे। सुजाण = सियाना, होशियार। पाणु = सियाना।4।

अर्थ: हे नानक! (कह) मैं साधु-संगत पर सदके जाता हूं, साधु-संगत के ऊपर अपनी जीवात्मा कुर्बान करता हूं। क्योंकि, साधु-संगत से ही मन में (प्रभु के स्मरण की) सूझ पैदा होती है, (साधु-संगत द्वारा ही) सभ के दिल की जानने वाला अकाल-पुरख मिलता है। अंतरयामी सुजान प्रभु को (साधु संगति की कृपा से ही) मैंने सदा अपने अंग-संग देखा है।4।4।74।

सिरीरागु महला ५ ॥ सभे गला विसरनु इको विसरि न जाउ ॥ धंधा सभु जलाइ कै गुरि नामु दीआ सचु सुआउ ॥ आसा सभे लाहि कै इका आस कमाउ ॥ जिनी सतिगुरु सेविआ तिन अगै मिलिआ थाउ ॥१॥

पद्अर्थ: विसरनु = बेशक विसर जाएं। गुरि = गुरु के। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। सुआउ = उद्देश्य। लाहि कै = दूर कर के। कमाउ = मैं कमाता हूं। जिनी = जिस मनुष्यों ने। तिन = उनको। अगै = प्रभु की दरगाह में। थाउ = जगह, आदर।1।

नोट: ‘विसरनि’ और ‘विसरनु’ का फर्क समझने योग्य है। ‘विसरनु’ हुकमी भविष्यत अन पुरख बहुवचन है।

अर्थ: (मेरी तो सदा यही अरदास है कि) और सारी बातें बे-शक भूल जाएं, पर एक परमात्मा का नाम मुझे (कभी) ना भूले। गुरु ने (दुनिया के) धंधों से मेरा सारा मोह जला के मुझे प्रभु का नाम दिया है। यह सदा स्थिर नाम ही अब मेरा (जीवन) उद्देश्य है। मैं (दुनिया की) सारी आशाएं मन से दूर करके एक परमात्मा की आस (अपने अंदर) पक्की करता हूं।

जिस लोगों ने सतिगुरु का आसरा लिया है उनको परलोक में (प्रभु की दरगाह में) आदर मिलता है।1।

मन मेरे करते नो सालाहि ॥ सभे छडि सिआणपा गुर की पैरी पाहि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: नो = को। पाहि = पड़ जाना।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! कर्तार की महिमा कर। (पर, यह महिमा की दात गुरु से ही मिलती है। सो तू) सभी चतुराईयां छोड़ के गुरु के चरणों पर गिर जा।1। रहाउ।

दुख भुख नह विआपई जे सुखदाता मनि होइ ॥ कित ही कमि न छिजीऐ जा हिरदै सचा सोइ ॥ जिसु तूं रखहि हथ दे तिसु मारि न सकै कोइ ॥ सुखदाता गुरु सेवीऐ सभि अवगण कढै धोइ ॥२॥

पद्अर्थ: विआपई = जोर डाल सकता। मनि = मन में। कितु = किसी में। कंमि = काम में। कित ही कंमि = किसी भी काम में।

नोट: शब्द ‘कितु’ की ‘ु’ की मात्रा ‘ही’ लगने के कारण नहीं लगाई गई।

छिजीऐ = (आत्मिक जीवन में) कमजोर होते हैं। दे = दे के। सभि = सारे। धोइ = धो के।2।

अर्थ: अगर, सुख देने वाला परमात्मा मन में बस जाए, तो ना दुनिया के दुख जोर डाल सकते हैं, ना माया की तृष्णा ही कमजोर कर सकती है। जब, हृदय में वह सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा बसता हो, तो किसी भी काम में लगें आत्मिक जीवन कमजोर नहीं होता।

हे प्रभु! जिस मनुष्य को तू अपना हाथ दे के (विकारों से) बचाता है, कोई (विकार) उसे (आत्मिक मौत) मार नहीं सकते। (हे भाई!) आत्मिक आनंद देने वाले सतिगुरु की शरण लेनी चाहिए, सत्गुरू (मन में से) सारे अवगुण निकाल के धो देता है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh