श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 80 मन पिआरिआ जीउ मित्रा हरि प्रेम भगति मनु लीना ॥ मन पिआरिआ जीउ मित्रा हरि जल मिलि जीवे मीना ॥ हरि पी आघाने अम्रित बाने स्रब सुखा मन वुठे ॥ स्रीधर पाए मंगल गाए इछ पुंनी सतिगुर तुठे ॥ लड़ि लीने लाए नउ निधि पाए नाउ सरबसु ठाकुरि दीना ॥ नानक सिख संत समझाई हरि प्रेम भगति मनु लीना ॥५॥१॥२॥ पद्अर्थ: लीना = मस्त। जल मिलि = जल को मिल के। मीना = मछली। पी = पी के। आघाने = पेट भर जाना, तृप्ति होना। अंम्रित = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाली। बाने = वाणी। स्रब = सरब, सारे। मनि = मन में। वुठे = आ बसते हैं। स्रीधर = श्रीधर, लक्ष्मी का आसरा, परमात्मा। मंगल = खुशी के गीत, आत्मिक आनंद देने वाले गीत, महिमा। सतिगुर तुठे = जब गुरु प्रसन्न होता है। लड़ि = लड़ से, पल्ले से, दामन से। नउ निधि = नौ ही खजाने, दुनिया का सारा ही धन पदार्थ। सरबसु = (सर्वस्व, सर्व = सारा+स्व = धन), सारा ही धन। ठाकुरि = ठाकुर ने। सिख = शिक्षा। संत = संतों ने।5। अर्थ: हे (मेरे) प्यारे मन! हे (मेरे) मित्र मन!! (जिस मनुष्य का) मन परमात्मा की प्रेमा भक्ति में मस्त रहता है, हे प्यारे मित्र मन! वह मनुष्य परमात्मा को मिल के (ऐसे) आत्मिक जीवन हासिल करता है (जैसे) मछली पानी को मिल के जीती है। सतिगुरु की प्रसन्नता का पात्र बन के जो मनुष्य परमात्मा की महिमा की आत्मिक जीवन देने वाली वाणी (-रूप) पाणी पी के (माया की प्यास से) तृप्त हो जाता है, उसके मन में सारे सुख आ बसते हैं, वह मनुष्य लक्ष्मी पति प्रभु का मेल हासिल कर लेता है, प्रभु के महिमा के गीत गाता है, उसकी सारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। हे नानक! जिस मनुष्य को संत जनों ने (परमात्मा के स्मरण की) शिक्षा समझा दी है, उसका मन परमात्मा की प्रेमा भक्ति में लीन रहता है, उसे ठाकुर ने अपने पल्ले से लगा लिया है, ठाकुर की ओर से उसे (मानो) नौ खजाने मिल गए हैं क्योंकि, ठाकुर ने उसको अपना नाम दे दिया है जो (मानो, जगत का) सारा ही धन है।5।1।2। सिरीराग के छंत महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ डखणा ॥ हठ मझाहू मा पिरी पसे किउ दीदार ॥ संत सरणाई लभणे नानक प्राण अधार ॥१॥ पद्अर्थ: डखणा = दखणा, मुल्तान (जो अब अफगानिस्तान का क्षेत्र है पहले बृहत्तर भारत में ही था) के इलाके की बोली में उच्चारित श्लोक या दोहरा। इसमें अक्षर ‘द’ की जगह ‘ड’ प्रधान है। हठ मझाहू = हृदय में। मा पिरी = मेरा प्रभु पति। पसे = दिखे। किउं = कैसे? नानक = हे नानक! प्राण अधार = जिंदगी का आसरा प्रभु।1। अर्थ: मेरा प्यारा प्रभु पति (मेरे) हृदय में (बसता है, पर उसका) दीदार कैसे हो? हे नानक! वह प्राणों का आसरा प्रभु संत जनों की शरण पड़ने से ही मिलता है।1। छंतु ॥ चरन कमल सिउ प्रीति रीति संतन मनि आवए जीउ ॥ दुतीआ भाउ बिपरीति अनीति दासा नह भावए जीउ ॥ दासा नह भावए बिनु दरसावए इक खिनु धीरजु किउ करै ॥ नाम बिहूना तनु मनु हीना जल बिनु मछुली जिउ मरै ॥ मिलु मेरे पिआरे प्रान अधारे गुण साधसंगि मिलि गावए ॥ नानक के सुआमी धारि अनुग्रहु मनि तनि अंकि समावए ॥१॥ पद्अर्थ: सिउ = साथ। रीति = मर्यादा। संतन मनि = संतों के मन में। आवए = आए, आती है, बसती है। दुतीआ भाव = (परमात्मा के प्यार के बिना कोई और) दूसरा प्यार। बिपरीति = उल्टी रीति। अनीति = अ+नीति, नीति के उलट। भावए = पसंद आती। दरसावए = दर्शन। बिहूना = विहूण, बिना, बगैर। हीना = हीन, कमजोर। गावए = गावे, गा सके। अनुग्रहु = कृपा। मनि = मन से। तनि = तन से। अंकि = (तेरी) गोद में। समावए = समाए, लीन रह सके।1। नोट: शीर्षक का शब्द ‘छंत’ बहुवचन है। यहां शब्द ‘छंतु’ एकवचन है। अर्थ: छंतु: परमात्मा के सुंदर चरणों से प्यार डाले रखने की मर्यादा संत जनों के मन में (ही) बसती है। परमात्मा के बिना किसी और के साथ प्यार डालना (संत जनों को) उल्टी रीति लगती है, प्रभु के दासों को ये पसंद नहीं आती। परमात्मा के दर्शन के बगैर (कोई और जीवन जुगति) परमात्मा के दासों को अच्छी नहीं लगती। (परमात्मा का दास परमात्मा के दर्शन के बिनां) एक पल भी धैर्य नहीं कर सकता। दास का मन दास का तन प्रभु के नाम के बिना कमजोर (क्षीर्ण) हो जाता है, (नाम के बिना उसको) आत्मिक मौत आ गई प्रतीत होती है जैसे मछली पानी के बिना मर जाती है। हे मेरे प्यारे प्रभु! हे मेरी जिंद के आसरे प्रभु!! (मुझे अपने दास को) मिल, ता कि तेरा दास साधु-संगत में मिल के तेरे गुण गा सके। हे नानक के खसम प्रभु! मिहर कर, ता कि तेरा दास नानक मन से तन से तेरी गोद में (ही) समाया रहे।1। डखणा ॥ सोहंदड़ो हभ ठाइ कोइ न दिसै डूजड़ो ॥ खुल्हड़े कपाट नानक सतिगुर भेटते ॥१॥ पद्अर्थ: हभ ठाइ = हरेक जगह में। डूजड़ो = दूसरा, परमात्मा से अलग कोई और। कपाट = किवाड़, दरवाजे, भित्ति, पर्दा। सतिगुर भेटते = सतिगुरु को मिलने से।1। अर्थ: हे नानक! गुरु को मिलने से (माया के मोह से मनुष्य की बुद्धि के बंद हुए) किवाड़ खुल जाते हैं (और मनुष्य को समझ आ जाती है कि परमात्मा) हरेक जगह में (बस रहा है और) शोभायमान है, कोई भी जीव ऐसा नहीं दिखता जो परमात्मा से अलग कोई और हो।1। छंतु ॥ तेरे बचन अनूप अपार संतन आधार बाणी बीचारीऐ जीउ ॥ सिमरत सास गिरास पूरन बिसुआस किउ मनहु बिसारीऐ जीउ ॥ किउ मनहु बेसारीऐ निमख नही टारीऐ गुणवंत प्रान हमारे ॥ मन बांछत फल देत है सुआमी जीअ की बिरथा सारे ॥ अनाथ के नाथे स्रब कै साथे जपि जूऐ जनमु न हारीऐ ॥ नानक की बेनंती प्रभ पहि क्रिपा करि भवजलु तारीऐ ॥२॥ पद्अर्थ: छंतु: अनूप = हे अनूप प्रभु! (अन+ऊप, जो उपमा से ऊपर हो, जिस जैसा और कोई नही), हे सुंदर प्रभु! अपार = हे बेअंत प्रभु! संतन अधार = हे संतों के आसरे प्रभु! बीचारीऐ = (संतों ने) विचारी है। सास गिरास = साँस लेते हुए, गिराहिआं खाते हुए, स्वास स्वास। बिसुआसु = विश्वास, श्रद्धा, निश्चय। मनहु = मन में से। बेसारीऐ = विसारें। निमख = पलक झपकने जितना समय, निमेष। टारीऐ = टाला जा सकता, हटाया जा सकता। गुणवंत = हे गुणों के मालिक प्रभु। प्रान हमारे = हे हमारी जिंद जान प्रभु! बांछत = इच्छित। जीअ की = (हरेक की) जिंद की। बिरथा = वयथा, पीड़ा। सारे = सार लेता है, संभालता है। जपि = जप के। जूऐ = जूए में। पहि = पास, नजदीक। भवजलु = संसार समुंदर। तारीऐ = पार लंघा, तर जाता है।2। अर्थ: छंतु: हे सुंदर प्रभु! हे बेअंत प्रभु!! हे संतों के आसरे प्रभु! (संतों ने तेरी महिमा के) वचन विचारे हैं (तेरी महिमा की) वाणी विचारी है (हृदय में बसाई है) स्वास स्वास (तेरा नाम) स्मरण करते हुए (उन्हें ये) पूरा भरोसा बन जाता है कि (प्रभु का नाम) कभी भी मन से नहीं भुलाना चाहिए। हे गुणों के श्रोत प्रभु! हे संतों की जिंद जान प्रभु!! (संतों को यह भरोसा बंध जाता है कि तेरा नाम) कभी भी मन से नहीं भुलाना चाहिए, पलक झपकने जितने समय के लिए भी (मन में से) परे हटाना नहीं चाहिए। (उन्हें ये निश्चय हो जाता है कि) मालिक प्रभु मन-इच्छित फल बख्शता है और हरेक जीव की पीड़ा की सार लेता है। हे अनाथों के नाथ प्रभु! हे जीवों के अंग संग रहने वाले प्रभु!! (तेरा नाम) ज पके मानव जनम (किसी जुआरिए की तरह) जूए (की बाजी) में व्यर्थ नहीं गवाया जाता। परमात्मा के पास नानक की ये विनती है: हे प्रभु! कृपा कर (मुझे अपना नाम दे और) संसार समुंदर से पार लंघा।2। डखणा ॥ धूड़ी मजनु साध खे साई थीए क्रिपाल ॥ लधे हभे थोकड़े नानक हरि धनु माल ॥१॥ पद्अर्थ: मजनु = स्नान। खे = की। साध खे धूड़ी = गुरमुखों की (चरण) धूल में। साई = सांई, प्रभु मालिक। थीए = होए। हभे = सारे। थोकड़े = सुंदर थोक में, सुंदर पदार्थ।1। अर्थ: हे नानक! (जिस भाग्यशालियों पर) खसम प्रभु कृपाल होता है, उन्हें गुरमुखों की चरण धूल में स्नान (करना नसीब होता है)। जिनको हरि नाम धन प्राप्त होता है, जिनको हरि नाम पदार्थ मिल जाता है, उन्हें (मानो) सारे ही सुंदर पदार्थ मिल जाते हैं।1। छंतु ॥ सुंदर सुआमी धाम भगतह बिस्राम आसा लगि जीवते जीउ ॥ मनि तने गलतान सिमरत प्रभ नाम हरि अम्रितु पीवते जीउ ॥ अम्रितु हरि पीवते सदा थिरु थीवते बिखै बनु फीका जानिआ ॥ भए किरपाल गोपाल प्रभ मेरे साधसंगति निधि मानिआ ॥ सरबसो सूख आनंद घन पिआरे हरि रतनु मन अंतरि सीवते ॥ इकु तिलु नही विसरै प्रान आधारा जपि जपि नानक जीवते ॥३॥ पद्अर्थ: छंतु: धाम = घर (धामन)। सुआमी धाम = प्रभु पति के चरण। बिस्राम = विश्राम, आसरा। भगतह = भगतों के वास्ते। आसा लगि = आस धार के। जीवते = आत्मिक जीवन बनाते हैं, जीवन ऊँचा करते हैं। मनि तने = मनि तनि, मन से और तन से। गलतान = मस्त, खचित। थिरु = टिके हुए, अडोल। थीवते = होते हैं। बिखै बनु = विषौ विकारों का पानी। बनु = पानी (वनं कानने जले)। फीका = बेस्वादा। निधि = खजाना। निधि मानिआ = नाम खजाने में (उनका) मन पतीज जाता है। सरबसो = सरबसु, सर्वस्व, सारा धन। घन = बहुत। मन अंतरि = मन में। सीवते = परो लेते हैं। प्रान आधरा = जिंद का आसरा।3। अर्थ: छंतु: मालिक प्रभु के सुंदर चरण भक्त जनों (के मन) वास्ते निवास स्थल होते हैं (भक्त जन प्रभु चरणों में टिके रहने की ही) आशा धार के अपना जीवन ऊँचा करते हैं। परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के (भक्त जन अपने) मन से (अपने) शरीर से प्रभु नाम में मस्त रहते हैं, और आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम जल सदा पीते रहते हैं। भक्त जन नाम अमृत सदा पीते हैं और (विषयों की ओर से) सदा अडोल-चित्त टिके रहते हैं। (नाम जपने की इनायत से उन्होंने) विषौ विकारों के पानी को बे-स्वादा जान लिया है। भक्त जनों पर गोपाल प्रभु जी दयावान होते हैं, साधु-संगत में रहके उनका मन प्रभु के नाम खजाने में आनंदित रहता है। भक्त जन प्रभु के श्रेष्ठ नाम को अपने मन में परोए रखते हैं, (प्रभु का नाम ही उनके वास्ते) सब से श्रेष्ठ धन है, (नाम में से ही) वो अनेक आत्मिक सुख आनंद भोगते हैं। हे नानक! भक्त जनों को प्राणों का आसरा प्रभु नाम रत्ती जितने समय के लिए भी नहीं भूलता। परमात्मा का नाम (हर वक्त) जप जप के वह आत्मिक जीवन हासिल करते हैं।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |