श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 95 माझ महला ४ ॥ हरि गुण पड़ीऐ हरि गुण गुणीऐ ॥ हरि हरि नाम कथा नित सुणीऐ ॥ मिलि सतसंगति हरि गुण गाए जगु भउजलु दुतरु तरीऐ जीउ ॥१॥ पद्अर्थ: पढ़ीऐ = (आओ मिल के) पढ़ें। गुणीऐ = (आओ मिल के) विचारें। मिलि = मिल के। गाए = गा के। भउजलु = संसार समुंदर। दुतरु = दुस्तर, जिससे पार लांघना दुश्वार हो।1। अर्थ: (हे सत्संगी मित्र, आओ मिल के हम) परमात्मा के गुणों वाली वाणी पढ़ें और विचारें। परमात्मा के नाम की कथा ही सुनाते व सुनते रहें। साधु-संगत में मिल के परमात्मा की (महिमा) के गुण गा के इस जगत से इस संसार समुंदर से पार लांघ जाता है। (महिमा के बिना) इससे पार लांघना बहुत मुश्किल है।1। आउ सखी हरि मेलु करेहा ॥ मेरे प्रीतम का मै देइ सनेहा ॥ मेरा मित्रु सखा सो प्रीतमु भाई मै दसे हरि नरहरीऐ जीउ ॥२॥ पद्अर्थ: सखी = हे सहेली, हे सत्संगी। हरि मेलु = हरि की प्राप्ति वाला इकट्ठ, सतसंग। करेहा = हम करें। मैं = मुझे। देइ = देता है। सखा = मित्र, साथी। नरहरीऐ = नरहरी, परमात्मा।2। अर्थ: हे सतसंगी मित्र! आओ, परमात्मा (की प्राप्ति) वाला सत्संग बनाएं। जो गुरमुख मुझे मेरे प्रीतम का संदेशा दे, मुझे परमात्मा (का पता ठिकाना) बताए वही मेरा मित्र है मेरा साथी है, मेरा सज्जन है मेरा भाई है।2। मेरी बेदन हरि गुरु पूरा जाणै ॥ हउ रहि न सका बिनु नाम वखाणे ॥ मै अउखधु मंत्रु दीजै गुर पूरे मै हरि हरि नामि उधरीऐ जीउ ॥३॥ पद्अर्थ: बेदन = पीड़ा। हउ = मैं। अउखधु = (वेदना दूर करने के लिए) दवा। गुर पूरे = हे पूरे गुरु! नामि = नाम में (जोड़ के)। उधरीऐ = पार लंधाए, उद्धार।3। अर्थ: (हे सत्संगी मित्र!) परमात्मा (का रूप) पूरा गुरु ही मेरी पीड़ा जानता है कि परमात्मा के नाम उच्चारण के बिनां मुझे धैर्य नहीं आ सकता (इस वास्ते मैं गुरु के आगे बिनती करता हूं और कहता हूँ-) हे पूरे सतिगुरु! मुझे (अपना) उपदेश दे (यही) दवाई (है जो मेरी वेदना दूर कर सकती है)। हे पूरे सतिुगुरू! मुझे परमात्मा के नाम में (जोड़ के संसार से) पार लंघाऔ3। हम चात्रिक दीन सतिगुर सरणाई ॥ हरि हरि नामु बूंद मुखि पाई ॥ हरि जलनिधि हम जल के मीने जन नानक जल बिनु मरीऐ जीउ ॥४॥३॥ पद्अर्थ: चात्रिक = पपीहे। मुखि = मुंह में। जल निधि = पानी का खजाना, समुंदर। मीने = मछलियां।4। नोट: प्रचलित ख्याल है कि पपीहा स्वाति नक्षत्र के समय पर पड़ी बूंद को ही पीता है। अर्थ: हे दास नानक! (कह:) हम अदने से चात्रिक हैं और गुरु की शरण आए हैं। (गुरु की कृपा से हमनें) परमात्मा का नाम मुंह में डाल लिया है (जैसे चात्रिक स्वाति) बूंद (मुंह में पीता है)। परमात्मा पानी का समुंदर है, हम उस पानी की मछलियां हैं। उस नाम जल के बिना आत्मिक मौत आ जाती है (जैसे, मछली पानी के बिना मर जाती है)।4।3। माझ महला ४ ॥ हरि जन संत मिलहु मेरे भाई ॥ मेरा हरि प्रभु दसहु मै भुख लगाई ॥ मेरी सरधा पूरि जगजीवन दाते मिलि हरि दरसनि मनु भीजै जीउ ॥१॥ पद्अर्थ: हरि जन संत = हे हरि जनो! हे संत जनो! भाई = हे भाईयो! मै = मुझे। जगजीवन = हे जग जीवन! हे जगत के जीवन! मिलि = मिल के। दरसनि = दर्शन में।1। अर्थ: हे हरि जनों! हे संत जनों!! हे मेरे भाईयो! (मुझे) मिलो। मुझे मेरे हरि प्रभु परमात्मा का पता बताओ। मुझे (उसके दीदार की) भूख लगी हुई है। हे जगत के जीवन प्रभु! हे दातार! हे हरि! मेरी ये श्रद्धा पूरी करो कि तेरे दीदार में लीन हो के मेरा मन (मेरे नाम अंम्रित से) तरो तर हो जाए।1। मिलि सतसंगि बोली हरि बाणी ॥ हरि हरि कथा मेरै मनि भाणी ॥ हरि हरि अम्रितु हरि मनि भावै मिलि सतिगुर अम्रितु पीजै जीउ ॥२॥ पद्अर्थ: सतसंगि = सतसंगति में। बोली = मैं बोलूं, बोली। मेरै मनि = मेरे मन में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल।2। अर्थ: (मेरा मन लोचता है कि) साधु-संगत में मिल के मैं परमात्मा के महिमा की वाणी उचारूँ। परमात्मा के महिमा की बातें मेरे मन को प्यारी लग रही हैं। आत्मिक जीवन देने वाले प्रभु का नाम-जल मेरे मन में अच्छा लग रहा है। ये नाम जल सतिगुरु को मिल के ही पिया जा सकता है।2। वडभागी हरि संगति पावहि ॥ भागहीन भ्रमि चोटा खावहि ॥ बिनु भागा सतसंगु न लभै बिनु संगति मैलु भरीजै जीउ ॥३॥ पद्अर्थ: वडभागी = बड़े भाग्यों वाले। भ्रमि = भटकनों में पड़ के। भरीजै = भर जाते, लिबड़ जाते हैं।3। अर्थ: भाग्यशाली मनुष्य प्रभु का मिलाप कराने वाली साधु-संगत प्राप्त करते हैं। पर अभागे लोग भटकनों में पड़ कर चोटें खाते हैं (विकारों की चोटें बर्दाश्त करते हैं)। अच्छी किस्मत के बगैर साधु-संगत नहीं मिलती। साधु-संगत के बिना (मनुष्य का मन विकारों की) मैल के साथ लिबड़ा रहता है।3। मै आइ मिलहु जगजीवन पिआरे ॥ हरि हरि नामु दइआ मनि धारे ॥ गुरमति नामु मीठा मनि भाइआ जन नानक नामि मनु भीजै जीउ ॥४॥४॥ पद्अर्थ: मै = मुझे। आइ = आ के। दइआ धारे = दया धार के। नामि = नाम में।4। अर्थ: हे जगत को जीवन देने वाले प्यारे प्रभु! आ के मुझे मिल। हे हरि! अपने मन में दया धार के मुझे अपना नाम दे। हे दास नानक! (कह:) गुरु की मति की इनायत से (जिस मनुष्य के) मन में परमात्मा का नाम मीठा लगने लगता है, प्यारा लगने लगता है, उसका मन (सदा) नाम में ही भीगा रहता है।4।4। माझ महला ४ ॥ हरि गुर गिआनु हरि रसु हरि पाइआ ॥ मनु हरि रंगि राता हरि रसु पीआइआ ॥ हरि हरि नामु मुखि हरि हरि बोली मनु हरि रसि टुलि टुलि पउदा जीउ ॥१॥ पद्अर्थ: गिआनु = जान-पहिचान, गहरी सांझ। रंगि = रंग में। राता = रंगा हुआ। मुखि = मुंह में। बोली = बोली, मैं बोलता हूं। हरि रसि = हरि नाम के रस में। टुलि टुलि = डुल डुलके, उछल उछल के। पउदा = पड़ता है।1। अर्थ: मैंने गुरु की दी हुई परमात्मा के साथ गहरी सांझ प्राप्त कर ली है। मुझे परमात्मा का नाम रस मिल गया है। मेरा मन परमात्मा के नाम रंग में रंगा गया है। मुझे (गुरु ने) परमात्मा का नाम-रस पिला दिया है। (अब) मै सदा परमात्मा का नाम मुंह से उचारता रहता हूँ। परमात्मा के नाम रस से मेरा मन उछल-उछल पड़ता है।1। आवहु संत मै गलि मेलाईऐ ॥ मेरे प्रीतम की मै कथा सुणाईऐ ॥ हरि के संत मिलहु मनु देवा जो गुरबाणी मुखि चउदा जीउ ॥२॥ पद्अर्थ: गलि = गले से। मै = मुझे। देवा = मैं दे दूँ। चउदा = बोलता।2। अर्थ: हे संत जनों! आओ, मुझे अपने गले से लगा लो। और मुझे मेरे प्रीतम प्रभु के महिमा की बातें सुनाओ। हे प्रभु के संत जनों! मुझे मिलो। जो कोई सतिगुरु की वाणी मुंह से उचारता है (और मुझे सुनाता है) मैं अपना मन उसके हवाले करता हूँ।2। वडभागी हरि संतु मिलाइआ ॥ गुरि पूरै हरि रसु मुखि पाइआ ॥ भागहीन सतिगुरु नही पाइआ मनमुखु गरभ जूनी निति पउदा जीउ ॥३॥ पद्अर्थ: संतु = गुरु। गुरि पूरे = पूरे गुरु ने। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। निति = सदा।3। अर्थ: मेरे बड़े भाग्यों से परमात्मा ने मुझे गुरु से मिला दिया, और (उस) पूरे गुरु ने परमात्मा का नाम रस मेरे मुंह में डाल दिया है। अभागे लोगों को ही सतिगुरु नहीं मिलता। जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता रहता है, वह सदा जोनियों के चक्कर में पड़ा रहता है।3। आपि दइआलि दइआ प्रभि धारी ॥ मलु हउमै बिखिआ सभ निवारी ॥ नानक हट पटण विचि कांइआ हरि लैंदे गुरमुखि सउदा जीउ ॥४॥५॥ पद्अर्थ: दइआलि = दयाल ने। प्रभि = प्रभु ने। दइआल प्रभि = दयाल प्रभु ने। बिखिआ = माया। निवारी = दूर कर दी। पटण = शहर। कांइआ = काया, शरीर। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य।4। अर्थ: दया के घर प्रभु ने जिस मनुष्य पर मेहर की, उसने (अपने अंदर से) अहंकार की मैल, माया की मैल सारी ही दूर कर ली।? हे नानक! जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होते हैं, वह (अपने) शरीर रूपी दुकान में ही, शरीर-रूपी शहर में ही (टिक के) परमात्मा के नाम का सौदा खरीदते हैं।4।5। माझ महला ४ ॥ हउ गुण गोविंद हरि नामु धिआई ॥ मिलि संगति मनि नामु वसाई ॥ हरि प्रभ अगम अगोचर सुआमी मिलि सतिगुर हरि रसु कीचै जीउ ॥१॥ पद्अर्थ: मिलि = मिल के। मनि = मन में। वसाई = मैं बसाऊँ। हउ = मैं। प्रभ = हे प्रभु! अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु। अगोचर = वह प्रभु जिस तक ज्ञानेंद्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। कीचै = किया जा सके।1। अर्थ: (मेरी अरदास है कि) मैं गोबिंद के गुण गाऊँ। मैं हरि का नाम स्मरण करूँ। और साधु-संगत में मिल के मैं परमात्मा का नाम अपने मन में बसाऊँ। हे हरि! हे प्रभु! हे अगम्य (प्रभु)! हे अगोचर (प्रभु)! हे स्वामी! (अगर तेरी मेहर हो तो) सतिगुरु को मिल के तेरे नाम का आनंद पाया जा सकता है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |