श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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तूं दाना ठाकुरु सभ बिधि जानहि ॥ ठाकुर के सेवक हरि रंग माणहि ॥ जो किछु ठाकुर का सो सेवक का सेवकु ठाकुर ही संगि जाहरु जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: सभ बिधि = सारी हालातें। दाना = माहिर, सियाणा, जानने वाला। जाहरु = प्रगट।3।

अर्थ: हे प्रभु! (अपने सेवकों के दिल की) तू जानता है।, तू (अपने सेवकों का) पालणहार है, तू (सेवकों को माया के मोह से बचाने के) सब तरीके जानता है।

(हे भाई!) पालनहार प्रभु के सेवक प्रभु के मिलाप का आत्मिक आनंद प्राप्त करते हैं। पालणहार प्रभु का स्वै उसके सेवक का स्वै बन जाता है। (ठाकुर और उसके सेवक के आत्मिक जीवन में कोई फर्क नहीं रह जाता)। ठाकुर के चरणों में जुड़ा रह के सेवक (लोक परलोक में) प्रगट हो जाता है।3।

अपुनै ठाकुरि जो पहिराइआ ॥ बहुरि न लेखा पुछि बुलाइआ ॥ तिसु सेवक कै नानक कुरबाणी सो गहिर गभीरा गउहरु जीउ ॥४॥१८॥२५॥

पद्अर्थ: ठाकुरि = ठाकुर ने। जो = जिस को। पहिराइआ = सिरोपा दिया, आदर दिया। बहुरि = मुड़, फिर। पुछि = पूछ के। कै = से।4।

अर्थ: जिस (सेवक) को प्यारे ठाकुर प्रभु ने (सेवा भक्ति का) सिरोपा (सम्मान) बख्शा है, उसे फिर (उसके कर्मों का) लेखा नहीं पूछा। (लेखा पूछने के लिए) नहीं बुलाया (भाव, वह सेवक बुरे कर्मों की तरफ जाता ही नहीं)।

हे नानक! (कह:) मैं उस सेवक से सदके जाता हूँ। वह सेवक गहरे स्वभाव वाला, बड़े जिगरे वाला और ऊँचे स्वाभाव वाला और उच्च अमोलक जीवन वाला हो जाता है।4।18।25।

माझ महला ५ ॥ सभ किछु घर महि बाहरि नाही ॥ बाहरि टोलै सो भरमि भुलाही ॥ गुर परसादी जिनी अंतरि पाइआ सो अंतरि बाहरि सुहेला जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: सभ किछु = सारा कुछ, सारा आत्मिक आनंद। घरि महि = हृदय घर में (टिके रहने से)। टोले = (सुख की) तलाश करता है। भरमि = भटकना में (पड़ कर)। भुलाही = गलत राह पर भटके रहते हैं। परसादी = कृपा से। अंतरि = अंदर, हृदय में। अंतरि बाहरि = प्रभु चरणों में जुड़ा हुआ और जगत से प्रेम से रहता हुआ। सुहेला = सुखी।1।

अर्थ: गुरु की कृपा से जिस मनुष्यों ने अपने हृदय मेंही टिक के परमात्मा को पा लिया है, वे अंतरात्मे स्मरण करते हुए भी जगत से प्रेम का इस्तेमाल करते हुए भी सदा सुखी रहते हैं। सारा आत्मिक सुख हृदय में टिके रहने में है, बाहर भटकने में नहीं। जो मनुष्य बाहर सुख की तलाश करता है वह सुख नहीं पा सकता। ऐसे लोग तो भटकना में पड़े रहके कुमार्ग पर पड़े रहते हैं।1।

झिमि झिमि वरसै अम्रित धारा ॥ मनु पीवै सुनि सबदु बीचारा ॥ अनद बिनोद करे दिन राती सदा सदा हरि केला जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: झिमि झिमि = मध्यम मध्यम सुर से। सुनि = सुन के। अनद बिनोद = आत्मिक सुख आनंद। केला = केल, खेल तमाशे, आनंद।2।

अर्थ: (जैसे मध्यम-मध्यम बरखा होती है और वह धरती को सींचती जाती है उसी तरह जब) आत्मिक अडोलता की हालत में नाम अमृत की धार धीरे-धीरे बरसती है तब मनुष्य का मन गुरु का शब्द सुन के (प्रभु के गुणों की) विचार सुन के उस अमृत धारा को पीता जाता है (अपने अंदर टिकाए जाता है) (उस अवस्था में मन) हर समय आत्मिक आनंद लेता रहता है, सदैव परमात्मा के मिलाप का सुख प्राप्त करता है।2।

जनम जनम का विछुड़िआ मिलिआ ॥ साध क्रिपा ते सूका हरिआ ॥ सुमति पाए नामु धिआए गुरमुखि होए मेला जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: साध = गुरु। ते = से, साथ। सूका = सूखा हुआ। सुमति = अच्छी अक्ल। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के।3।

अर्थ: (महिमा की इनायत से) जन्मों जन्मांतरों का बिछुड़ा हुआ जीव प्रभु चरणों से मिलाप हासिल कर लेता है। मनुष्य का रूखा हो चुका मन गुरु की कृपा से प्यार रस से तर हो जाता है। गुरु से जब मनुष्य श्रेष्ठ मति लेता है, तब परमात्मा का नाम स्मरण करता है। गुरु की शरण पड़ने से जीव का परमात्मा से मिलाप हो जाता है।3।

जल तरंगु जिउ जलहि समाइआ ॥ तिउ जोती संगि जोति मिलाइआ ॥ कहु नानक भ्रम कटे किवाड़ा बहुड़ि न होईऐ जउला जीउ ॥४॥१९॥२६॥

पद्अर्थ: तरंग = लहर। जलहि = जल ही, जल में ही। भ्रम किवाड़ा = भटकना के तख्ते। जउला = (फारसी शब्द ‘जउला’ = दौड़ता) दौड़ भाग करने वाला, भटकनेवाला।4।

अर्थ: जैसे (नदी आदि के) पानी की लहिर (उस नदी में से उभर के फिर उस) नदी के पानी में ही समा जाती है वैसे ही (गुरु की शरण पड़ कर स्मरण करने से मनुष्य की) तवज्जो (ज्योति) प्रभु की ज्योति में मिली रहती है।

हे नानक! कह: (गुरु के सन्मुख हो के स्मरण करने से मनुष्य के) भटकनों रूपी किवाड़ (दरवाजे) खुल जाते हैं, और फिर मनुष्य माया के पीछे दौड़-भाग करने वाले स्वभाव का नहीं रहता।4।19।26।

माझ महला ५ ॥ तिसु कुरबाणी जिनि तूं सुणिआ ॥ तिसु बलिहारी जिनि रसना भणिआ ॥ वारि वारि जाई तिसु विटहु जो मनि तनि तुधु आराधे जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। तूं = तुझे, तेरी महिमा, तेरा नाम। रसना = जीभ (से)। भणिआ = उचारा। वारि वारि जाई = मैं सदके जाता हूँ। विटहुं = से।1।

अर्थ: (हे प्रभु!) जिस मनुष्य ने तेरा नाम सुना है (जो सदा तेरी महिमा सुनता है), मैं उससे सदके जाता हूं। जिस मनुष्य ने अपनी जिहवा से तेरा नाम उचारा है (जो तेरी महिमा करता रहता है), उससे मैं वारने जाता हूँ। (हे प्रभु!) उस मनुष्य से (बार बार) कुर्बान जाता हूं, जो अपने मन से अपने शरीर से तुझे याद करता रहता है।1।

तिसु चरण पखाली जो तेरै मारगि चालै ॥ नैन निहाली तिसु पुरख दइआलै ॥ मनु देवा तिसु अपुने साजन जिनि गुर मिलि सो प्रभु लाधे जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: पखाली = मैं धोता हूं। मारगि = रास्ते पे। निहाली = मैं देखता हूं। गुर मिलि = गुरु को मिल के। लाधे = मिला।2।

अर्थ: (हे प्रभु!) जो मनुष्य तेरे मिलाप के राह पे चलता है, मैं उसके पैर धोता रहूँ।

(हे भाई!) दया के श्रोत अकाल-पुरख को मैं अपनी आँखें से देखना चाहता हूँ (इस वास्ते) मैं अपना मन अपने उस सज्जन के हवाले करने को तैयार हूँ जिसने गुरु को मिल के उस प्रभु को पा लिया है।2।

से वडभागी जिनि तुम जाणे ॥ सभ कै मधे अलिपत निरबाणे ॥ साध कै संगि उनि भउजलु तरिआ सगल दूत उनि साधे जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: से = वह लोग। जिनि = जिस जिस ने। तुम = तुझे। अलिपत = निर्लिप। निरबाणे = वासना रहित। उनि = उस आदमी ने। भउजल = संसार समुंदर।3।

नोट: ‘जिनि’ एकवचन है। ‘से’ बहुवचन है। ‘सो’ एकवचन है।

अर्थ: (हे प्रभु!) जिस जिस मनुष्य ने तेरे साथ सांझ डाली है, वे सब सौभाग्यशाली हैं।

(हे भाई!) परमात्मा सब जीवों के अंदर बसता है (फिर भी वह) निर्लिप है और वासना रहित है। (जिस मनुष्य ने उसके साथ सांझ डाली है) साधु-संगत में रह के उसने संसार समुंदर तैर लिया है, उसने (कामादिक) सारे विकार अपने वश में कर लिए हैं।3।

तिन की सरणि परिआ मनु मेरा ॥ माणु ताणु तजि मोहु अंधेरा ॥ नामु दानु दीजै नानक कउ तिसु प्रभ अगम अगाधे जीउ ॥४॥२०॥२७॥

पद्अर्थ: तजि = त्याग के। अगाधे = अथाह। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)।4।

अर्थ: (हे भाई! दुनिया वाले) आदर मान छोड़ के (दुनिया वाली) ताकतें छोड़के (जीवन-राह में) अंधकार (पैदा करने वाली माया का) मोह त्याग के मेरा मन उनकी शरण पड़ता है (जिन्होंने सारे दूत वश कर लिए हैं, और उनके आगे अरदास करते हैं कि) मुझ नानक को (भी) उस अगम्य (पहुँच से परे) अथाह प्रभु का नाम दान के रूप में दो।4।20।27।

माझ महला ५ ॥ तूं पेडु साख तेरी फूली ॥ तूं सूखमु होआ असथूली ॥ तूं जलनिधि तूं फेनु बुदबुदा तुधु बिनु अवरु न भालीऐ जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: पेडु = पेड़, वृक्ष। साख = शाखा, टाहणियां। फूली = फूटी हुई, स्फुटित हुई। सूखमु = सुक्ष्म (subtle, minute) अदृष्ट। असथूल = स्थूल (gross, course) दृष्टमान जगत। जलनिधि = समुंदर। फेन = झाग। बुद बुदा = बुलबुला।1।

अर्थ: हे प्रभु! तू (मानो, एक) वृक्ष है (ये संसार तेरे वृक्ष से) फूटी हुई (निकली) टहनियां हैं। हे प्रभु! तू अदृष्ट है (अपने अदृष्ट रूप से) दिखता जगत बना हैं। हे प्रभु! तू (मानों, एक) समुंदर है (ये सारा जगत पसारा, जैसे) झाग और बुलबुला (भी) तू स्वयं ही है। तेरे बिना और कोई भी नहीं दिखता।1।

तूं सूतु मणीए भी तूंहै ॥ तूं गंठी मेरु सिरि तूंहै ॥ आदि मधि अंति प्रभु सोई अवरु न कोइ दिखालीऐ जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: सूतु = धागा, डोरी। मणीए = मणके। गंठी = गांठ। मेरु = सिरे का मणका। सिरि = (मणकों के) सिर पे। आदि = शुरू में। मधि = बीच में। अंति = आखिर में।2।

अर्थ: (ये सारा जगत पसारा तुझसे बना तेरा ही स्वरूप, जैसे एक माला है। उस माला का) धागा तू खुद है, मणके भी तू ही है। (मणकों पर) गाँठ भी तू ही है, (सब मणकों के) सिर पर मेरू मणका भी तू ही है।

(हे भाई!) (जगत रचना के) शुरू में, मध्य में और अंत में प्रभु स्वयं ही स्वयं है। उससे बगैर और कोई नहीं दिखता।2।

तूं निरगुणु सरगुणु सुखदाता ॥ तूं निरबाणु रसीआ रंगि राता ॥ अपणे करतब आपे जाणहि आपे तुधु समालीऐ जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: निरगुण = माया के तीन गुणों से रहित। सरगुण = माया के तीन गुणों वाला। निरबाणु = वासना रहित। रसीआ = आनंद लेने वाला, भोगने वाला। रंगि = माया के रंग में। समालिये = संभालता है।3।

अर्थ: हे प्रभु! तू (अपनी रची माया के) तीन गुणों से परे है। तीनों गुणों से बना जगत पसारा भी तू स्वयं ही है। सब जीवों को सुख देने वाला भी तू स्वयं ही है। तू वासना रहित है (सब जीवों में व्यापक हो के) रसों को भोगने वाला भी है और रसों के प्यार में मस्त भी है। हे प्रभु! अपने खेल तमाशे तू स्वयं ही जानता है। तू स्वयं ही सारी संभाल भी कर रहा है।3।

तूं ठाकुरु सेवकु फुनि आपे ॥ तूं गुपतु परगटु प्रभ आपे ॥ नानक दासु सदा गुण गावै इक भोरी नदरि निहालीऐ जीउ ॥४॥२१॥२८॥

पद्अर्थ: फुनि = फिर, दुबारा। आपे = स्वयं ही। प्रभ = हे प्रभु! इक भोरी = रत्ती भर समय। निहालीऐ = देखें।4।

अर्थ: हे प्रभु! मालिक भी तू है और सेवक भी तू स्वयं ही है। हे प्रभु! (सारे संसार में) तू छुपा हुआ भी है और (संसार रूप हो के) तू प्रत्यक्ष भी दिखायी दे रहा है।

हे नानक! (कह: तेरा ये) दास सदा तेरे गुण गाता है। छण भर के लिए ही (इस दास की ओर) मेहर की निगाह से देख।4।21।28।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh