श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 116 मनमुख खोटी रासि खोटा पासारा ॥ कूड़ु कमावनि दुखु लागै भारा ॥ भरमे भूले फिरनि दिन राती मरि जनमहि जनमु गवावणिआ ॥७॥ पद्अर्थ: रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। खोटी = जो सरकारी खजाने में दाखिल नही की जाए। पासारा = बिखराव, खिलारा। भरमे = भटकना में पड़ के। भूलै = कुमार्ग पर पड़े हुए। मरि जनमहि = मर के जन्मते हैं, जनम मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं।7। अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य वही पूंजी जोड़ते हैं, वही पसारा पसारते हैं, जो ईश्वरीय टकसाल में खोटा माना जाता है। वे निरी नाशवान कमाई ही करते हैं और बहुत आत्मिक दुख-कष्ट पाते हैं। वे माया की भटकना में पड़ के दिनरात कुमार्ग पर चलते हैं और मानव जनम व्यर्थ गवा जाते हैं।7। सचा साहिबु मै अति पिआरा ॥ पूरे गुर कै सबदि अधारा ॥ नानक नामि मिलै वडिआई दुखु सुखु सम करि जानणिआ ॥८॥१०॥११॥ पद्अर्थ: मै = मुझे। कै सबदि = के शब्द से। अधारा = आसरा। नामि = नाम में (जुड़ने से)। सम = बराबर, एक सा।8। अर्थ: (हे भाई!) सदा स्थिर रहने वाला मालिक मुझे (अब) बहुत प्यारा लगता है। पूरे गुरु के शब्द में जुड़ के मैंने उस मालिक को (अपनी जिंदगी का) आसरा बना लिया है। हे नानक! प्रभु के नाम में जुड़ने से (लोक परलोक में) इज्जत मिलती है। प्रभु नाम में जुड़ने वाले लोग दुनिया के दुख सुख को एक समान ही जानते हैं।8।10।11। माझ महला ३ ॥ तेरीआ खाणी तेरीआ बाणी ॥ बिनु नावै सभ भरमि भुलाणी ॥ गुर सेवा ते हरि नामु पाइआ बिनु सतिगुर कोइ न पावणिआ ॥१॥ पद्अर्थ: खाणी = (खानि। अंडज, जेरज, उतभुज, सेतज। चौरासी लाख जोनियों के जीवों के पैदा होने के वसीले)। बाणी = बणतर। सभ = सारी सृष्टि। भरमि = भटकना में (पड़ कर)। भुलाणी = कुमार्ग पर पड़ी हुई।1। अर्थ: हे प्रभु! अंडज, जेरज, सेतज व उतभुज-चौरासी लाख जीवों की उत्पक्ति की ये) खाणियां तेरी ही बनाई हुई हैं। सब जीवों की बनतर (रचना) तेरी ही रची हुई है। (पर हे भाई! उस रचनहार प्रभु के) नाम के बिना सारी सृष्टि गलत रास्ते पे जा रही है। परतात्मा का नाम गुरु की बताई हुई सेवा करने से मिलता है। गुरु (की शरण) के बिना कोई मनुष्य (परमात्मा की भक्ति) प्राप्त नहीं कर सकता।1। हउ वारी जीउ वारी हरि सेती चितु लावणिआ ॥ हरि सचा गुर भगती पाईऐ सहजे मंनि वसावणिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सेती = साथ। सचा = सच्चा, सदा स्थिर। गुर भगती = गुरु में श्रद्धा रखने से। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में। मंनि = मन में।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) मैं उन (भाग्यशाली लोगों से) सदके कुर्बान जाता हूँ, जो परमात्मा (के चरणों) के साथ अपना चिक्त जोड़ते हैं। (पर) सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा गुरु पर श्रद्धा रखने से ही मिलता है। (जो मनुष्य गुरु पर श्रद्धा बनाते हैं वे) आत्मिक अडोकलता में टिक के (परमात्मा के नाम को अपने) मन में बसाते हैं।1। रहाउ। सतिगुरु सेवे ता सभ किछु पाए ॥ जेही मनसा करि लागै तेहा फलु पाए ॥ सतिगुरु दाता सभना वथू का पूरै भागि मिलावणिआ ॥२॥ पद्अर्थ: सभ किछु = हरेक चीज। मनसा = मनीषा, कामना। करि = कर के। वथू का = वस्तुओं का (संस्कृत के वसथु, वस्तु का प्राकृत रूप ‘वथु’ है)।2। अर्थ: अगर मनुष्य गुरु का पल्ला पकड़े तो वह हरेक चीज प्राप्त कर लेता है। मनुष्य जिस तरह की कामना मन में धार के (गुरु की चरणी लगता है, वैसा ही फल पा लेता है)। गुरु सब पदार्थों को देने वाला है। (परमात्मा जीव को उसकी) पूरी किस्मत के सदका (गुरु के साथ) मिलाता है।2। इहु मनु मैला इकु न धिआए ॥ अंतरि मैलु लागी बहु दूजै भाए ॥ तटि तीरथि दिसंतरि भवै अहंकारी होरु वधेरै हउमै मलु लावणिआ ॥३॥ पद्अर्थ: इकु = परमात्मा को। बहु = बहुत। दूजै भाए = दूजै भाइ, माया में प्यार करने के कारण। तटि = (नदी के) तट पे। तीरथि = तीर्थ पर। दिसंतरि = देस अंतरि, (और-और) देश में, देश देशांतर। अहंकारी होरु = और (ज्यादा) अहंकारी (होता है)।3। अर्थ: (जितना समय मनुष्य का) ये मन (विकारों की मैल से) मैला (रहता) है, (तब तक मनुष्य) एक परमात्मा को नहीं स्मरण करता। माया से प्यार पड़ने के कारण मनुष्य के अंदर (मन में विकारों की) बहुत मैल लगी रहती है। (ऐसे जीवन वाला मनुष्य किसी) नदी के किनारे पर जाता है, (किसी) तीर्थ पर (भी) जाता है। देश-देशांतरों में भ्रमण करता है (पर इस तरह वह तीर्थ यात्राओं आदि के गुमान से) और भी ज्यादा अहंकारी हो जाता है। वह अपने अंदर अधिक अहंकार की मैल एकत्र कर लेता है।3। सतिगुरु सेवे ता मलु जाए ॥ जीवतु मरै हरि सिउ चितु लाए ॥ हरि निरमलु सचु मैलु न लागै सचि लागै मैलु गवावणिआ ॥४॥ पद्अर्थ: जीवत मरै = जीवित मरता है, कार्य-व्यवहार करते हुए ही माया के मोह से विरक्त रहता है। सिउ = साथ। सचु = सच, सदा स्थिर रहने वाला। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।4। अर्थ: जब मनुष्य गुरु की शरण में आता है, तब (उसके मन में से अहंकार) की मैल दूर हो जाती है। वह दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ भी स्वै भाव (घमण्ड) से मरा रहता है, और परमात्मा (के चरणों) से अपना चिक्त जोड़े रखता है। परमात्मा सदा स्थिर रहने वाला है, और पवित्र स्वरूप है, उसको (अहम् आदि विकारों की) मैल छू नही सकती। जो मनुष्य उस सदा स्थिर प्रभु (की याद) में लगता है, वह (अपने अंदर से विकारों की) मैल दूर कर लेता है।4। बाझु गुरू है अंध गुबारा ॥ अगिआनी अंधा अंधु अंधारा ॥ बिसटा के कीड़े बिसटा कमावहि फिरि बिसटा माहि पचावणिआ ॥५॥ पद्अर्थ: अंध गुबारा = घोर अंधकार। बिसटा = गंद, मैला। पचावणिआ = जलते हैं।5। अर्थ: गुरु के बिना (जगत में माया के मोह का) घोर अंधकार छाया रहता है। गुरु के ज्ञान के बगैर मनुष्य (उस मोह में) अंधा हुआ रहता है। (मोह के अंधेरे में फंसे हुए की वही हालत होती है जैसे) गंदगी के कीड़े गंदगी (खाने की) कमाई ही करते हैं और फिर गंदगी में ही दुखी होते रहते हैं।5। मुकते सेवे मुकता होवै ॥ हउमै ममता सबदे खोवै ॥ अनदिनु हरि जीउ सचा सेवी पूरै भागि गुरु पावणिआ ॥६॥ पद्अर्थ: मुकता = माया के मोह से आजाद। ममता = अपनत्व। सबदे = शब्द से। सेवी = सेवा करके।6। अर्थ: जो मनुष्य (माया के मोह से) मुक्त (गुरु) की शरण लेता है, वह भी माया के मोह से स्वतंत्र हो जाता है। वह गुरु-शब्द में जुड़ के (अपने अंदर से) अहंकार व ममता को दूर कर लेता है। (गुरु की शरण की इनायत से) वह हर रोज सदा स्थिर प्रभु का स्मरण करता है। पर, गुरु (भी) पूरी किस्मत से ही मिलता है।6। आपे बखसे मेलि मिलाए ॥ पूरे गुर ते नामु निधि पाए ॥ सचै नामि सदा मनु सचा सचु सेवे दुखु गवावणिआ ॥७॥ पद्अर्थ: मेलि = मेल में, चरणों में। ते = से। निधि = खजाना। नामि = नाम में।7। अर्थ: जिस मनुष्य को प्रभु स्वयं ही बख्शिश करता है और गुरु चरणों में मिलाता है, वह मनुष्य पूरे गुरु से नाम खजाना हासिल कर लेता है। सदा स्थिर प्रभु के नाम में सदा टिके रहने के कारण उसका मन (विकारों की तरफ से) अडोल हो जाता है। सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का स्मरण करके वह अपना (हरेक किस्म का) दुख मिटा लेता है।7। सदा हजूरि दूरि न जाणहु ॥ गुर सबदी हरि अंतरि पछाणहु ॥ नानक नामि मिलै वडिआई पूरे गुर ते पावणिआ ॥८॥११॥१२॥ पद्अर्थ: हजूरि = हाजिर नाजर, अंग संग। पछाणहु = जान पहिचान बनाओ।8। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा सदैव (सब जीवों के) अंग-संग (बसता) है। उसे अपने से दूर बसता ना समझो। गुरु के शब्द में जुड़ के उस परमात्मा के साथ अपने हृदय में जान-पहिचान बनाओ! हे नानक! प्रभु के नाम में जुड़ने से (लोक परलोक में) सत्कार मिलता है, (पर, प्रभु का नाम) पूरे गुरु से ही मिलता है।8।11।12। माझ महला ३ ॥ ऐथै साचे सु आगै साचे ॥ मनु सचा सचै सबदि राचे ॥ सचा सेवहि सचु कमावहि सचो सचु कमावणिआ ॥१॥ पद्अर्थ: ऐथै = इस लोक में, इस मानव जनम में। साचे = सदा स्थिर प्रभु के साथ एक मेक, अडोल चिक्त। सु = वह लोग। आगै = परलोक में। सचा = सदा स्थिर, अडोल।1। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य इस लोक में अडोल चिक्त रहते हैं, वे परलोक में भी प्रभु के साथ एकमेक हो के रहते हैं। जो लोग सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में रचे रहते हैं, उनका मन अडोल हो जाता है। वे सदा ही सदा स्थिर प्रभु का स्मरण करते हैं, नाम जपने की ही कमाई करते हैं, सदा स्थिर प्रभु को ही स्मरण करते रहते हैं।1। हउ वारी जीउ वारी सचा नामु मंनि वसावणिआ ॥ सचे सेवहि सचि समावहि सचे के गुण गावणिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मंनि = मनि, मन में। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।1। रहाउ। अर्थ: मैं उनसे सदके जाता हूँ, जो सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का नाम अपने मन में बसाए रखते हैं। जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभु का स्मरण करते हैं, सदा स्थिर प्रभु के गुण गाते हैं, वे सदा स्थिर प्रभु में लीन रहते हैं।1। रहाउ। पंडित पड़हि सादु न पावहि ॥ दूजै भाइ माइआ मनु भरमावहि ॥ माइआ मोहि सभ सुधि गवाई करि अवगण पछोतावणिआ ॥२॥ पद्अर्थ: सादु = स्वाद, आत्मिक आनंद। भाइ = प्यार में। दूजै भाइ = माया के मोह में। भरमावहि = भटकाते हैं, दौड़ाते हैं। मोहि = मोह में। सुधि = सूझ। करि = कर के।2। अर्थ: पंडित लोग (वेद आदि पुस्तकें) पढ़ते (तो) हैं, पर, आत्मिक आनंद नही ले सकते। (क्योंकि) वे माया के मोह में फंस के माया की ओर ही अपने मन को दौड़ाते रहते हैं। माया के मोह के कारण उन्होंने (उच्च आत्मिक जीवन के बारे में) सारी सूझ गवा ली होती है, (और माया की खातिर) औगुण कर करके पछताते रहते हैं।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |