श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मः १ ॥ वेखु जि मिठा कटिआ कटि कुटि बधा पाइ ॥ खुंढा अंदरि रखि कै देनि सु मल सजाइ ॥ रसु कसु टटरि पाईऐ तपै तै विललाइ ॥ भी सो फोगु समालीऐ दिचै अगि जालाइ ॥ नानक मिठै पतरीऐ वेखहु लोका आइ ॥२॥

पद्अर्थ: मिठा = गन्ना। कटि कुटि = काट कूट के, काटने के बाद बाकी की तैयारी करके, छील छील के। पाइ = डाल के, रस्सियां डाल के। खुंढा = वेलने की लाठियां, डंडा। मल = मल्ल, पहलवान। रसु कसु = कस का रस, निकाला हुआ रस। टटरि = कड़ाहे में। समालीऐ = इकट्ठा कर लेते हैं। मिठै = मीठे के कारण। पतरीऐ = खुआर होते हैं ।2।

नोट: संस्कृत: प्र+त्री, इस धातु से ‘प्रेरणार्थक क्रिया’ का रूप है ‘प्रतारीय’ जिससे पंजाबी शब्द है ‘पतारना’; हिंदी: ‘प्रताड़ित करना’ और अर्थ हैं खुआर करना, बदनाम करना, धोखा देना। शब्द ‘पतारिये’ क्रिया है। ‘मिठे पतरीऐ’ का अर्थ ‘मीठे पत्रों वाले को’ करना गलत है। गन्ने के पत्रों में मिठास नहीं, मिठास तो गन्ने में है। पत्र (छिलका) तो उतार के फेंक दिए जाते हैं। देखें ‘कउनु कउनु नहीं पतरिआ’ ---- बिलावल महला ५।

अर्थ: (हे भाई!) देख, कि गन्ना काटा जाता है, छील छील के, रस्सी से बाँध लेते हैं (भाव बंडल बना लेते हैं)। फिर वेलने की लाठियों में रख के पहलवान (भाव, जिमीदार) इसे (मानो) सजा देते हैं (पीढ़ते हैं)। सारा रस कड़ाहे में डाल लेते हैं। (आग के सेक के साथ ये रस) कढ़ता है और (मानो) विलकता है। (गन्ने का) वह फोग (फोक, चूरा) भी संभाल लेते हैं और (सुखा के कड़ाहे के नीचे) आग में जला दिया जाता है। हे नानक! (कह) हे लोगो! आ के (गन्ने का हाल) देखो, मीठे के कारण (माया की मिठास के मोह के कारण गन्ने की तरह यूं ही) प्रताड़ित होते हैं, दुख झेलते हैं।2।

(नोट: यहां भाव ये नहीं कि अच्छों को दुख बर्दाश्त करने पड़ते हैं। शलोक का भाव ‘मिठै पतरीअै’ में आ गया है, यही ख्याल इस पौड़ी में है;)

पवड़ी ॥ इकना मरणु न चिति आस घणेरिआ ॥ मरि मरि जमहि नित किसै न केरिआ ॥ आपनड़ै मनि चिति कहनि चंगेरिआ ॥ जमराजै नित नित मनमुख हेरिआ ॥ मनमुख लूण हाराम किआ न जाणिआ ॥ बधे करनि सलाम खसम न भाणिआ ॥ सचु मिलै मुखि नामु साहिब भावसी ॥ करसनि तखति सलामु लिखिआ पावसी ॥११॥

अर्थ: कई लोग (दुनिया की) बड़ी बड़ी आशाएं (मन में बनाए रहते हैं, मौत का ख्याल उनके) चित्त में भी नहीं आता। वे रोज पैदा होते मरते हैं (भाव, हर वक्त संशयों में दुखी होते हैं; कभी एक आध घड़ी भर के लिए सुख तो फिर दुखी के दुखी)। किसी के भी (कभी यार) नहीं बनते। वे लोग अपने मन में चित्त में (अपने आपको) ठीक कहते हैं। (पर) उन मनमुखों को सदा ही जमराज देखता रहता है (भाव, समझते तो अपने आप को नेक हैं पर करतूतें ऐसी हैं जिस करके जमों के वस पड़ते हैं)। अपने मन के पीछे चलने वाले लूण हरामी लोग परमात्मा के किए उपकार (की सार) नहीं जानते। फसे हुए ही (उसे) सलामें करते हैं, (इस तरह) वे पति को प्यारे नहीं लग सकते।

(जिस मनुष्य को) ईश्वर मिल गया है, जिसके मुंह में ईश्वर का नाम है, वह पति (प्रभु) को प्यारा लगता है। उसे तख्त पे बैठे को सारे लोग सलाम करते हैं, (धुर से ही रब द्वारा) लिखे इस लेख (के फल को) प्राप्त करता है।11।

मः १ सलोकु ॥ मछी तारू किआ करे पंखी किआ आकासु ॥ पथर पाला किआ करे खुसरे किआ घर वासु ॥ कुते चंदनु लाईऐ भी सो कुती धातु ॥ बोला जे समझाईऐ पड़ीअहि सिम्रिति पाठ ॥ अंधा चानणि रखीऐ दीवे बलहि पचास ॥ चउणे सुइना पाईऐ चुणि चुणि खावै घासु ॥ लोहा मारणि पाईऐ ढहै न होइ कपास ॥ नानक मूरख एहि गुण बोले सदा विणासु ॥१॥

पद्अर्थ: तारू = तैरने योग्य पानी, बहुत गहरा पानी जिसमें से तैर के ही पार लांघा जा सके। धातु = असला, खमीर। पढ़िअहि = पढ़े जाएं। चउणा = गायों का झुण्ड जो घास चरने के लिए गांव से बाहर छोड़ा जाता है। मारणि = मारने के लिए, कुष्ता करने के लिए। ढहै = ढल के। गुण = ख़ोआं, कमियां, वादियां। विणासु = नुकसान।1।

अर्थ: तैरने योग्य पानी मछली का क्या कर सकता है? (चाहे कितना ही गहरा क्यों ना हो मछली को कोई परवाह नहीं)। आकाश पंछी का क्या कर सकता है? (आकाश कितना ही खुला हो जाए पंछी को कोई परवाह नहीं) (पानी अपनी गहराई और आकाश अपने खुले होने की सीमा का असर नहीं डाल सकते)। पाला (कक्कर) पत्थर पर असर नहीं कर सकता। घर के बसने का असर हिजड़े पर नहीं पड़ता। अगर कुत्ते को चंदन भी लगा दें, तो भी उसका असला कुत्तों वाला ही रहता है। बहरे मनुष्य को समझाएं और स्मृतियों के पाठ उसके पास करें (वह तो सुन ही नहीं सकता)। अंधे मनुष्य को प्रकाश में रखा जाए, (उसके पास चाहे) पचास दीए भले जलें (उसे कुछ नहीं दिखना)। चरने गए पशुओं के झुण्ड के आगे अगर सोना बिखेर दें, तो भी वह घास चुग चुग के ही खाएंगे (सोने की कद्र नहीं पड़ सकती)। लोहे का कुष्ता कर दें, तो भी ढल के वह कपास (जैसा नर्म) नहीं बन सकता।

हे नानक! यहीबातें मूर्ख की हैं, (कितनी भी मति दो, वह जब भी) बोलता है सदा (वही बोलता है जिससे किसी का) नुकसान ही हो।1।

मः १ ॥ कैहा कंचनु तुटै सारु ॥ अगनी गंढु पाए लोहारु ॥ गोरी सेती तुटै भतारु ॥ पुतीं गंढु पवै संसारि ॥ राजा मंगै दितै गंढु पाइ ॥ भुखिआ गंढु पवै जा खाइ ॥ काला गंढु नदीआ मीह झोल ॥ गंढु परीती मिठे बोल ॥ बेदा गंढु बोले सचु कोइ ॥ मुइआ गंढु नेकी सतु होइ ॥ एतु गंढि वरतै संसारु ॥ मूरख गंढु पवै मुहि मार ॥ नानकु आखै एहु बीचारु ॥ सिफती गंढु पवै दरबारि ॥२॥

पद्अर्थ: कंचन = सोना। सारु = लोहा। गंढु = गांढा, जोड़। गोरी = स्त्री, पत्नी। काला गंढु = सूखे की समाप्ति। झोल = बहुत बरसात। मुइआ गंढु = मरे हुए मनुष्यों का दुनिया के साथ संबंध। सतु = दान। एतु गंढि = इस जोड़ से, इस संबंध से। मुहि = मुंह पे।2।

अर्थ: अगर कांसा, सोना या लोहा टूट जाए, आग से लोहार (आदि) जोड़ लगा देता है। अगर पत्नी से पति नाराज हो जाए, तो जगत में (इनका) जोड़ पुत्रों द्वारा बनता है। राजा (प्रजा से मामला, कर) मांगता है (ना दिया जाए तो राजा-प्रजा की बिगड़ती है, मामला) देने से (राजा-प्रजा का) मेल बनता है। भूख से आतुर हुए आदमी का (अपने शरीर से तभी) संबंध बना रहता है अगर वह (खाना) खाए। काल थमता है (भाव, सूखा समाप्त होता है) अगर खूब बरसात हो और नदियां चलें। मीठे वचनों से प्यार का जोड़ जुड़ता है (भाव, प्यार पक्का होता है)। वेद (आदि धार्मिक पुस्तकों) से (मनुष्य का तभी) जोड़ जुड़ता है अगर मनुष्य सच बोले। मरे हुए लोगों का (जगत से) संबंध बना रहता है (अर्थात, लोग उसे ही याद रखते हैं) अगर मनुष्य भलाई और दान करता रहे। (सो) इस तरह के संबंध से जगत (का व्यवहार) चलता है। मुंह पे मार पड़ने से मूर्ख (के मूर्खपन) को रोक लगती है।

नानक ये विचार (की बात) बताता है, कि (परमात्मा की) महिमा के द्वारा (प्रभु के) दरबार में (आदर-प्यार का) जोड़ जुड़ता है।2।

पउड़ी ॥ आपे कुदरति साजि कै आपे करे बीचारु ॥ इकि खोटे इकि खरे आपे परखणहारु ॥ खरे खजानै पाईअहि खोटे सटीअहि बाहर वारि ॥ खोटे सची दरगह सुटीअहि किसु आगै करहि पुकार ॥ सतिगुर पिछै भजि पवहि एहा करणी सारु ॥ सतिगुरु खोटिअहु खरे करे सबदि सवारणहारु ॥ सची दरगह मंनीअनि गुर कै प्रेम पिआरि ॥ गणत तिना दी को किआ करे जो आपि बखसे करतारि ॥१२॥

पद्अर्थ: बाहरवारि = बाहर का पासा। सारु = श्रेष्ठ। मंनिअनि = माने जाते हैं, (अर्थात) आदर पाते हैं। गणत = दंत कथा, निंदा।12।

अर्थ: परमात्मा स्वयं ही दुनिया पैदा करके स्वयं ही इसका ध्यान रखता है। (पर यहां) कई जीव खोटे हैं (भाव, मनुष्यता के पैमाने पर हल्के हैं) और कई (शाही सिक्के की तरह) खरे हैं, (इन सब की) परख करने वाला भी वह स्वयं ही है। (रुपए आदि की तरह) खरे लोग (प्रभु के) खजाने में पाए जाते हैं (भाव, उनका जीवन स्वीकार होता है, और) खोटे बाहर की ओर फेंक दिए जाते हैं (अर्थात, ये जीव भले लोगों में मिल नहीं सकते), सच्ची दरगाह में इनको धक्का मिलता है। कोई अन्य जगह ऐसी नहीं जहाँ ये (सहायता के लिए) फरयाद कर सकें।

(इन हल्के जीवन वाले जीवों के लिए) करने वाली सबसे अच्छी बात यही है कि सतिगुरु की शरण पड़ें। गुरु खोटे से खरे बना देता है (क्योंकि गुरु अपने) शब्द द्वारा खरे बनाने के समर्थ है। (फिर वह) सतिगुर के बख्शे प्रेम प्यार के कारण परमात्मा की दरगाह में आदर पाते हैं और जिन्हें कर्तार ने स्वयं बख्श लिया उनके गुनाहों का किसी ने क्या करना?।12।

सलोकु मः १ ॥ हम जेर जिमी दुनीआ पीरा मसाइका राइआ ॥ मे रवदि बादिसाहा अफजू खुदाइ ॥ एक तूही एक तुही ॥१॥

पद्अर्थ: हम = हमह (फ़ारसी) सारी। जेर = ज़ेर, नीचे। जिमी = जमीन, धरती। मेरवदि = जाता है, (भाव,) नाशवान है। अफजू = बाकी रहने वाला।1।

अर्थ: पीर, शेख, राय (आदि) सारी दुनिया धरती के नीचे (अंत को समा जाते हैं) (इस धरती पे हुक्म करने वाले) बादशाह भी नाश हो जाते हैं। सदा टिके रहने वाला, हे खुदाय! एक तू ही है! एक तू ही है!!।1।

मः १ ॥ न देव दानवा नरा ॥ न सिध साधिका धरा ॥ असति एक दिगरि कुई ॥ एक तुई एक तुई ॥२॥

पद्अर्थ: दानव = दैंत। सिध = योग साधना में माहिर जोगी। धरा = धरती। असति = अस्ति, है, कायम है। दिगरि = दीगरे, दूसरा। कुई = कौन?।2।

अर्थ: ना देवते, ना दैंत, ना मनुष्य, ना योग साधना में माहिर योगी, ना योग साधना करने वाले, कोई भी धरती पे नहीं रहा। सदा स्थिर रहने वाला और दूसरा कौन है? सदा कायम रहने वाला, हे प्रभु! एक तू ही है, एक तू ही है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh