श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 146 मः २ ॥ सेई पूरे साह जिनी पूरा पाइआ ॥ अठी वेपरवाह रहनि इकतै रंगि ॥ दरसनि रूपि अथाह विरले पाईअहि ॥ करमि पूरै पूरा गुरू पूरा जा का बोलु ॥ नानक पूरा जे करे घटै नाही तोलु ॥२॥ पद्अर्थ: अठी = आठों पहर। पाईअहि = मिलते हैं। अथाह दरसनि रूपि = अति गहरे प्रभु के दर्शन व स्वरूप में (जुड़े हुए)। करमि = बख्शिश से।2। अर्थ: जिस मनुष्यों को पूरा प्रभु मिल जाता है वही पूरे शाह हैं। वे एक परमात्मा के रंग (प्यार) में आठों पहर (दुनिया की ओर से) बे-परवाह रहते हैं (भाव, किसी के मुथाज नहीं होते)। (पर ऐसे लोग) बहुत कम मिलते हैं, जो अथाह प्रभु के दीदार व स्वरूप में (हर वक्त जुड़े रहें)। पूरे बोल वाला पूर्ण गुरु पूरे भाग्य से, हे नानक! जिस मनुष्य को पूर्ण बना देता है, उसका तोल घटता नहीं (अर्थात, ईश्वर के साथ उसका आठों पहर का संबंध कम नहीं होता)।2। नोट: इस श्लोक के शब्दों को ध्यान से पहले श्लोक के शब्दों में मिला के देखें। स्पष्ट दिखाई देता है कि इस श्लोक के उच्चारण के समय गुरु अंगद साहिब के सामने गुरु नानक देव जी का श्लोक मौजूद था। और यही अकेला श्लोक क्यूँ होगा? गुरु नानक साहिब की सारी ही वाणी उनके पास होगी। सो, गुरु अरजन साहिब जी से पहले ही हरेक गुरु के पास अपने से पहले के गुरु-व्यक्तियों की सारी वाणी गुरियाई के विरसे में चली आ रही थी (देखें पुस्तक ‘गुरबाणी और इतिहास बारे’)। पउड़ी ॥ जा तूं ता किआ होरि मै सचु सुणाईऐ ॥ मुठी धंधै चोरि महलु न पाईऐ ॥ एनै चिति कठोरि सेव गवाईऐ ॥ जितु घटि सचु न पाइ सु भंनि घड़ाईऐ ॥ किउ करि पूरै वटि तोलि तुलाईऐ ॥ कोइ न आखै घटि हउमै जाईऐ ॥ लईअनि खरे परखि दरि बीनाईऐ ॥ सउदा इकतु हटि पूरै गुरि पाईऐ ॥१७॥ पद्अर्थ: किआ होरि = और जीव क्या हैं? मुझे किसी और की अधीनगी नहीं। धंधै चोरि = धंधे रूपी चोर ने। एनै = इस ने। चिति कठोरि = कठोर चित्त के कारण। जितु घटि = जिस शरीर में। भंनि घढ़ाईऐ = टूटता बनता (घढ़ता) रहता है। पूरै वटि = पूरे तोल से। तुलाईऐ = तुल सके, पूरा उतर सके। जाईऐ = अगर चली जाए। लईअनि परखि = परख लिए जाते हैं। दरि बीनाईऐ = बीनाई वाले दर पे, सयाने प्रभु के दर पे।17। अर्थ: (हे प्रभु!) मैं सत्य कहता हूँ कि जब तू (मेरा रक्षक) है तो मुझे किसी और की अधीनगी नहीं। पर जिस (जीव-स्त्री) को जगत के धंधे रूपी चोर ने मोह लिया है, उससे तेरा दर (महल) नहीं ढूँढा जाता। उसके कठोर चित्त के कारण (अपनी सारी) मेहनत व्यर्थ गवा ली है। जिस हृदय में सच नहीं बसा, वह हृदय सदैव टूटता बनता रहता है (अर्थात, उसके जनम मरण का चक्र बना रहता है), (जब उसके किए कर्मों का लेखा हो) वह पूरे बाँट के तोल में कैसे पूरा उतरे? हाँ, अगर जीव का अहम् दूर हो जाए, तो कोई इसे (तोले) कम नहीं ठहरा सकता। खरे जीव सयाने प्रभु के दर पे परख लिए जाते हैं, (ये) सौदा (जिससे प्रभु के दर पे स्वीकार हो सकते हैं) एक ही दुकान से पूरे गुरु से ही प्राप्त होता है।17। सलोक मः २ ॥ अठी पहरी अठ खंड नावा खंडु सरीरु ॥ तिसु विचि नउ निधि नामु एकु भालहि गुणी गहीरु ॥ करमवंती सालाहिआ नानक करि गुरु पीरु ॥ चउथै पहरि सबाह कै सुरतिआ उपजै चाउ ॥ तिना दरीआवा सिउ दोसती मनि मुखि सचा नाउ ॥ ओथै अम्रितु वंडीऐ करमी होइ पसाउ ॥ कंचन काइआ कसीऐ वंनी चड़ै चड़ाउ ॥ जे होवै नदरि सराफ की बहुड़ि न पाई ताउ ॥ सती पहरी सतु भला बहीऐ पड़िआ पासि ॥ ओथै पापु पुंनु बीचारीऐ कूड़ै घटै रासि ॥ ओथै खोटे सटीअहि खरे कीचहि साबासि ॥ बोलणु फादलु नानका दुखु सुखु खसमै पासि ॥१॥ पद्अर्थ: अठी पहरी = दिन के आठों पहरों में। अठ खण्ड = धरती के आठ हिस्सों के पदार्थों में (भाव, अगर धरती को 9 खण्डों में बाँटने की जगह 1 खंड मानव शरीर को ही समझ लिया जाए, तो बाकी के 8 खंड धरती के सारे पदार्थों में)। गुणी गहीर = गुणों के कारण गहीर प्रभु को, अथाह गुणों वाले प्रभु को। करमवंती = भाग्यशालियों ने। करि = कर के, धार के। सुरतिआ = ध्यान वालों को। मनि = मन में। दरिआवा सिउ = दरियाओं से, उन गुरमुखां से जिनके अंदर नाम का प्रवाह चल रहा है। पसाउ = बख्शिश। कंचन = सोना। कसीऐ = रगड़ लगाई जाती है, परख की जाती है। वंनी चढ़ाउ चढ़ै = बढ़िया रंग चढ़ता है। सतु = ऊँचा आचरण। फादलु = फजूल।1। नोट: अरबी में अक्षर ‘ज़’ का उच्चारण ‘द’ भी हो सकता है = जैसे, ‘मग़ज़ूब’ और ‘मग़दूब’। सतिगुरु ने भी इस ‘ज़’ को कई जगह ‘द’ करके उचारा है, जैसे ‘काग़ज़’ और ‘काग़द’, ‘काज़ीआ’ और ‘कादीआं’ और इसी तरह ‘फज़ूल’ व ‘फादल’। अर्थ: अगर (धरती के 9 खण्डों में से) 9वां खण्ड मानव शरीर को मान लिया जाए, तो आठों पहर (मनुष्य के मन धरती के) सारे आठ खण्डी पदार्थों में लगा रहता है। हे नानक! (कोई विरले) भाग्यशाली लोग गुरु पीर धारण करके इस (इस 9वें खण्ड शरीर) में नौ-निधि नाम ढूँढते हैं। अथाह गुणों वाले प्रभु को तलाशते हैं। सुबह के चौथे पहर (भाव अमृत बेला) ऊँची अक़्ल वाले लोगों के मन में (इस नौ-निधि नाम के लिए) चाव पैदा होता है। (उस वक्त) उनकी सांझ उन गुरमुखों के साथ बनती है (जिनके अंदर नाम का प्रवाह चल रहा है) और उनके मन तथा मुंह में सच्चा नाम बसता है। वहां (सत्संग में) नाम-अमृत बाँटा जाता है। प्रभु की मेहर से उन्हें नाम की दाति मिलती है। (जैसे ताउ, गरमी दे दे के) सोने (को कस लगाई जाती है, वैसे ही अमृत बेला की मेहनत की उनके) शरीर को रगड़ लगाई जाती है तो (भक्ति) का बढ़िया रंग चढ़ता है। जब सर्राफ़ (प्रभु) के मेहर की नज़र होती है, तो फिर तपने (अर्थात, और मेहनत, मुशक्कतों) की जरूरत नहीं रहती। (आठवां पहर अमृत वेला प्रभु के चरणों में लगा के बाकी के) सात पहर भी भले आचरण (बनाने की आवश्यक्ता है) गुरमुखों के पास बैठना चाहिए। उनकी संगति में (बैठने से) अच्छे-बुरे कामों की विचार होती है। झूठ की पूंजी घटती है। क्योंकि उस संगति में खोटे कामों को फेंक दिया जाता है और खरे कामों की उपमा की जाती है। और, हे नानक! वहां ये भी समझ आ जाती है कि किसी घटित दुख का गिला करना कितना व्यर्थ है, दुख-सुख वह पति परमेश्वर स्वयं ही देता है।1। मः २ ॥ पउणु गुरू पाणी पिता माता धरति महतु ॥ दिनसु राति दुइ दाई दाइआ खेलै सगल जगतु ॥ चंगिआईआ बुरिआईआ वाचे धरमु हदूरि ॥ करमी आपो आपणी के नेड़ै के दूरि ॥ जिनी नामु धिआइआ गए मसकति घालि ॥ नानक ते मुख उजले होर केती छुटी नालि ॥२॥ नोट: ये श्लोक ‘जपु जी’ के आखिर में आ चुका है। पद्अर्थ: हदूरि = अपने सामने (भाव, बड़े ध्यान से)।2। अर्थ: हवा (जीवों का, जैसे) गुरु है (भाव, हवा शरीर के लिए ऐसे है, जैसे गुरु जीवों की आत्मा के लिए है), पानी (सब जीवों का) पिता है, और धरती (सबकी) बड़ी माँ है। दिन और रात खेल खिलाने वाले दाई और दाया है, (इनके साथ) सारा जगत खेल रहा है (भाव, संसार के सारे जीव रात को सोने में और दिन के कार-व्यवहार में खचित हैं)। धर्मराज बड़े ध्यान से (इनके) किए हुए अच्छे-बुरे काम (नित्य) विचारता है। और, अपने-अपने (इन किये हुए) कर्मों के अनुसार कई जीव अकाल पुरख के नजदीक होते जा रहे हैं, और कई उससे दूर। हे नानक! जिस मनुष्यों ने अकाल-पुरख का नाम स्मरण किया है, वे अपनी मेहनत सफल कर गए हैं। (प्रभु के दर पे) वे सही स्वीकार हैं। और बहुत सारी दुनिया भी उनकी संगति में रह कर मुक्त हो जाती है।2। पउड़ी ॥ सचा भोजनु भाउ सतिगुरि दसिआ ॥ सचे ही पतीआइ सचि विगसिआ ॥ सचै कोटि गिरांइ निज घरि वसिआ ॥ सतिगुरि तुठै नाउ प्रेमि रहसिआ ॥ सचै दै दीबाणि कूड़ि न जाईऐ ॥ झूठो झूठु वखाणि सु महलु खुआईऐ ॥ सचै सबदि नीसाणि ठाक न पाईऐ ॥ सचु सुणि बुझि वखाणि महलि बुलाईऐ ॥१८॥ पद्अर्थ: सतिगुरि = सत्गुरू ने। पतिआइ = पतीज के, परच के। विगसिआ = खिला हुआ, प्रसन्न हुआ। कोटि = कोट में, किले में। गिरांइ = गाँव में। रहसिआ = खिल पड़ा, खुश हुआ। दीबाणि = दरबार में। कूड़ि = झूठ के द्वारा। खुआईऐ = गवा लेते हैं। ठाक = रोक। भाउ = प्रेम।18। अर्थ: (जिस भाग्यशाली को) सत्गुरू ने (आत्मा के लिए) प्रभु प्रेम रूपी सच्चा भोजन बताया है, वह मनुष्य सच्चे प्रभु में पतीज जाता है। सच्चे प्रभु में टिक के प्रसन्न रहता है। वह (प्रभु के चरण रूपी) स्वै स्वरूप में बसता है (मानो,) सदा स्थिर रहने वाले किले में गाँव में बसता है। गुरु के खुश होने पर ही प्रभु का नाम मिलता है, और प्रभु के प्रेम में रह के प्रसन्न चिक्त खिले रह सकते हैं। सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के दरबार में झूठ के (सौदे) से नहीं पहुँच सकते, झूठ बोल बोल के प्रभु का निवास-स्थान गवा बैठते हैं। सच्चे शब्द-रूपी राहदारी से (प्रभु से मिलने की राह में) कोई रोक-टोक नहीं पड़ती। प्रभु का नाम सुन के, समझ के तथा स्मरण करके प्रभु के महल से बुलावा आता है।18। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |