श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 174 मै मेलहु संत मेरा हरि प्रभु सजणु मै मनि तनि भुख लगाईआ जीउ ॥ हउ रहि न सकउ बिनु देखे मेरे प्रीतम मै अंतरि बिरहु हरि लाईआ जीउ ॥ हरि राइआ मेरा सजणु पिआरा गुरु मेले मेरा मनु जीवाईआ जीउ ॥ मेरै मनि तनि आसा पूरीआ मेरे गोविंदा हरि मिलिआ मनि वाधाईआ जीउ ॥३॥ पद्अर्थ: मै = मुझे। संत = हे संत जनो! मै मनि तनि = मेरे मन में, मेरे हृदय में। भुख = (मिलने की) चाह। हउ = मैं। बिरहु = विछोड़े का दर्द। मनु जीवाइआ = मन आत्मिक जीवन तलाश लेता है। वाधाईआ = चढ़दी कला।3। अर्थ: हे संत जनों! मुझे मेरा सज्जन हरि-प्रभु मिला दो। मेरे मन में मेरे हृदय में उससे मिलने की तमन्ना पैदा हो रही है। मैं अपने प्रीतम को देखे बिना धैर्य नहीं पा सकता, मेरे अंदर उसके विछोड़े का दर्द उठ रहा है। परमात्मा ही मेरा राजा है मेरा प्यारा सज्जन है। जब (उससे) गुरु (मुझे) मिला देता है तो मेरा मन जी उठता है। हे मेरे गोबिंद! जब तू हरि मुझे मिल जाता है, मेरे मन में मेरे दिल में (चिरंकाल से टिकी हुई) आस पूरी हो जाती है, और मेरे मन में चढ़दी कला (उत्साह, उमंग) पैदा हो जाती है।3। वारी मेरे गोविंदा वारी मेरे पिआरिआ हउ तुधु विटड़िअहु सद वारी जीउ ॥ मेरै मनि तनि प्रेमु पिरम का मेरे गोविदा हरि पूंजी राखु हमारी जीउ ॥ सतिगुरु विसटु मेलि मेरे गोविंदा हरि मेले करि रैबारी जीउ ॥ हरि नामु दइआ करि पाइआ मेरे गोविंदा जन नानकु सरणि तुमारी जीउ ॥४॥३॥२९॥६७॥ पद्अर्थ: वारी = सदके, कुर्बान। हउ = मैं। विटड़िअहु = से। सद = सदा। पिरंम का = प्यारे का। पूंजी = संपत्ति, धन-दौलत, आत्मिक गुणों की राशि पूंजी। विसटु = विचोलिया। मेलि = मिला। करि = कर के। रैबारी = रेहबरी, अगुवाई। दइआ करि = दया की इनायत से।4। अर्थ: हे मेरे गोबिंद! हे मेरे प्यारे! मैं सदके, मैं तुझसे सदा सदके। हे मेरे गोबिंद! मेरे मन में मेरे हृदय में तूझ प्यारे का प्रेम जाग उठा है (मैं तेरी शरण आया हूँ)। मेरी इस (प्रेम की) राशि की तू रक्षा कर। हे मेरे गोबिंद! मुझे विचोला गुरु मिला, जो मेरे (जीवन की) अगुवाई करके मुझे तुझ हरि से मिला दे। हे मेरे गोबिंद! मैं दास नानक तेरी शरण आया हूँ। तेरी दया के सदके ही मुझे तेरा हरि-नाम प्राप्त हुआ है।4।3।29।67। गउड़ी माझ महला ४ ॥ चोजी मेरे गोविंदा चोजी मेरे पिआरिआ हरि प्रभु मेरा चोजी जीउ ॥ हरि आपे कान्हु उपाइदा मेरे गोविदा हरि आपे गोपी खोजी जीउ ॥ हरि आपे सभ घट भोगदा मेरे गोविंदा आपे रसीआ भोगी जीउ ॥ हरि सुजाणु न भुलई मेरे गोविंदा आपे सतिगुरु जोगी जीउ ॥१॥ पद्अर्थ: चोजी = मौजी, अपनी मर्जी से काम करने वाला। कानु = कान्हा, कृष्ण। गोपी = ग्वालनि। खोजी = (कृष्ण को) ढूँढने वाली। सभघट = सारे शरीर। रसीआ = मायावी पदार्थों के रस लेने वाला। भोगी = पदार्थों को भोगने वाला। सुजाणु = बहुत सियाना। जोगी = भोगों से विरक्त।1। अर्थ: हे मेरे प्यारे! हे मेरे गोबिंद! तू अपनी मर्जी के काम करने वाला मेरा हरि-प्रभु है। हरि स्वयं ही कृष्ण को पैदा करने वाला है। हरि स्वयं ही (कृष्ण को) तलाशने वाली ग्वालनि है। सब शरीरों में व्यापक हो के हरि खुद ही सब पदार्थों को भोगता है। हरि खुद ही सारे मायावी पदार्थों का रस लेने वाला है, स्वयं ही भोगने वाला है। (पर) हरि बहुत समझदार है (सब पदार्थों को भोगनेवाला होते हुए भी वह) भूलता नहीं, वह हरि खुद ही भोगों से निर्लिप सत्गुरू है।1। आपे जगतु उपाइदा मेरे गोविदा हरि आपि खेलै बहु रंगी जीउ ॥ इकना भोग भोगाइदा मेरे गोविंदा इकि नगन फिरहि नंग नंगी जीउ ॥ आपे जगतु उपाइदा मेरे गोविदा हरि दानु देवै सभ मंगी जीउ ॥ भगता नामु आधारु है मेरे गोविंदा हरि कथा मंगहि हरि चंगी जीउ ॥२॥ पद्अर्थ: बहु रंगी = अनेक रंग में। फिरहि = फिरते हैं। सभ मंगी = सारा संसार मांगता है। आधारु = आसरा। मंगहि = मांगते हैं।2। नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन। अर्थ: हरि प्रभु खुद ही जगत पैदा करता है। हरि स्वयं ही अनेक रंगों में (जगत का खेल) खेल रहा है। हरि स्वयं ही अनेक जीवों से मायावी पदार्थों के भोग भोगाता है (भाव, अनेक को पेट भर के पदार्थ बख्शता है, पर) अनेक जीव ऐसे हैं जो नंगे घूमते हैं (जिनके तन पर कपड़ा भी नहीं)। हरि खुद ही सारे जगत को पैदा करता है। सारी दुनिया उससे मांगती रहती है। वह सभी को दातें देता है। उसकी भक्ति करने वाले लोगों को उसके नाम का ही आसरा है, वे हरि से उसकी श्रेष्ठ महिमा ही मांगते हैं।2। हरि आपे भगति कराइदा मेरे गोविंदा हरि भगता लोच मनि पूरी जीउ ॥ आपे जलि थलि वरतदा मेरे गोविदा रवि रहिआ नही दूरी जीउ ॥ हरि अंतरि बाहरि आपि है मेरे गोविदा हरि आपि रहिआ भरपूरी जीउ ॥ हरि आतम रामु पसारिआ मेरे गोविंदा हरि वेखै आपि हदूरी जीउ ॥३॥ पद्अर्थ: लोच = तमन्ना। मनि = मन में। जलि = जल में। थलि = थल में। रवि रहिआ = रमा हुआ, व्यापक। आतम रामु = सर्व व्यापक आत्मा। हदूरी = हाजिर नाजिर हो के।3। अर्थ: हरि खुद ही (अपने भक्तों से) अपनी भक्ति करवाता है, भक्तों के मन में (पैदा हुई भक्ति की) तमन्ना खुद ही पूरी करता है। जल में, धरती में, (सब जगह) हरि खुद ही बस रहा है, (सब जीवों में) व्यापक है (किसी जीव से वह हरि) दूर नहीं है। सब जीवों के अंदर व बाहर सारे जगत में हरि खुद ही बसता है, हर जगह हरि स्वयं ही भरपूर है। सर्व-व्यापक राम खुद ही इस जगत-पसारे को पसार रहा है, हरेक के अंग-संग रह के हरि खुद ही सब की संभाल करता है।3। हरि अंतरि वाजा पउणु है मेरे गोविंदा हरि आपि वजाए तिउ वाजै जीउ ॥ हरि अंतरि नामु निधानु है मेरे गोविंदा गुर सबदी हरि प्रभु गाजै जीउ ॥ आपे सरणि पवाइदा मेरे गोविंदा हरि भगत जना राखु लाजै जीउ ॥ वडभागी मिलु संगती मेरे गोविंदा जन नानक नाम सिधि काजै जीउ ॥४॥४॥३०॥६८॥ पद्अर्थ: पउणु = हवा, प्राण। वाजे = (जीव) बजता है। निधानु = खजाना। गाजै = प्रगट होता है। राखु = रक्षक। राखु लाजै = लज्जा का रक्षक। नामि = नाम से। सिधि = सिद्धि, सफलता। सिधि काजै = कार्य की सिद्धि, मानव जनम के उद्देश्य की कामयाबी।4। नोट: शब्द ‘भगति’ और ‘भगत’ में फर्क है। अर्थ: सब जीवों के अंदर प्राण-रूप हो के हरि स्वयं ही बाजा (बजा रहा) है। (हरेक जीव का, मानो, बाजा है) जैसे वह हरेक जीव-बाजे को बजाता है तैसे हरेक जीव बाजा बजता है। हरेक जीव के अंदर हरि का नाम खजाना मौजूद है, पर गुरु के शब्द के द्वारा ही हरि-प्रभु (जीव के अंदर) प्रगट होता है। हरि स्वयं ही जीव को प्रेरित करके अपनी शरण में लाता है, हरि खुद ही भगतों की इज्जत का रखवाला बनता है (भाव, भक्तों को विकारों में गिरने से बचाता है)। हे दास नानक! तू भी संगति में मिल (हरि प्रभु का नाम जप, और) भाग्यशाली बन। नाम की इनायत से ही जीवन उद्देश्य सफल होता है।4।4।30।68। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |