श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मन मेरे गहु हरि नाम का ओला ॥ तुझै न लागै ताता झोला ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गहु = पकड़। ओला = आसरा। ताता = गरम। झोला = (हवा का) झोंका।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के नाम का आसरा ले, तुझे (दुनिया के दुख-कष्टों की) गर्म हवा का झोका छू नहीं सकेगा।1। रहाउ।

जिउ बोहिथु भै सागर माहि ॥ अंधकार दीपक दीपाहि ॥ अगनि सीत का लाहसि दूख ॥ नामु जपत मनि होवत सूख ॥२॥

पद्अर्थ: बोहिथ = जहाज। भै सागर = डरावना समुंदर। दीपक = दीया। दीपाहि = जलते हैं। सीत = ठंड। लाहसि = उतार देती है। मनि = मन में।2।

अर्थ: (हे भाई!) जैसे डरावने समुंदर में जहाज (मनुष्य को डूबने से बचाता है, जैसे अंधेरे में दीपक प्रकाश करता है और ठोकर खाने से बचाता है), जैसे, आग ठंड-पाले का दुख दूर कर देती है, ऐसे ही परमात्मा का नाम स्मरण करने से मन में आनंद पैदा होता है।2।

उतरि जाइ तेरे मन की पिआस ॥ पूरन होवै सगली आस ॥ डोलै नाही तुमरा चीतु ॥ अम्रित नामु जपि गुरमुखि मीत ॥३॥

पद्अर्थ: सगली = सारी। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला, अमृत। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। मीत = हे मित्र!।3।

अर्थ: हे मित्र! गुरु की शरण पड़ कर आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम जप (इस जप की इनायत से) तेरे मन की (माया की) तृष्णा उतर जाएगी। तेरी ही आस पूरी हो जाएगी (दुनियावी आशाएं सताने से हट जाएंगी), और तेरा मन (माया की लालसा में) डोलेगा नहीं।3।

नामु अउखधु सोई जनु पावै ॥ करि किरपा जिसु आपि दिवावै ॥ हरि हरि नामु जा कै हिरदै वसै ॥ दूखु दरदु तिह नानक नसै ॥४॥१०॥७९॥

पद्अर्थ: अउखधु = दवा। करि = कर के। तिह = उस (मनुष्य) का।4।

अर्थ: (पर यह) हरि-नाम की दवा वही मनुष्य हासिल करता है जिसको प्रभु मेहर करके खुद (गुरु से) दिलवाता है। हे नानक! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम बस जाता है, उसका सारा दुख-दर्द दूर हो जाता है।4।10।79।

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ बहुतु दरबु करि मनु न अघाना ॥ अनिक रूप देखि नह पतीआना ॥ पुत्र कलत्र उरझिओ जानि मेरी ॥ ओह बिनसै ओइ भसमै ढेरी ॥१॥

पद्अर्थ: दरबु = (द्रव्य) धन। करि = (एकत्र) कर के। अघाना = (आघ्राण), तृप्त हुआ। देखि = देख के। पतीआना = पतीजता। कलत्र = स्त्री। जानि = समझ के। ओह = वह सुंदरता। ओइ = वह (स्त्री पुत्र)।1।

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओहु’ का बहुवचन।

अर्थ: बहुत धन जोड़ के भी मन भरता नहीं, अनेक (सुंदर स्त्रीयों के) रूप देख के भी मन की तसल्ली नहीं होती। मनुष्य, ये समझ के कि ये मेरी स्त्री है ये मेरा पुत्र है, माया के मोह में फंसा रहता है। (स्त्रीयों का) सौंदर्य नाश हो जाता है, (वह अपने निहित) स्त्री-पुत्र राख की ढेरी हो जाते हैं (किसी के साथ भी साथ नहीं निभता)।1।

बिनु हरि भजन देखउ बिललाते ॥ ध्रिगु तनु ध्रिगु धनु माइआ संगि राते ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: देखउ = मैं देखता हूँ। बिललाते = बिलकते। ध्रिग = धिक्कार योग्य। संगि = साथ।1। रहाउ।

अर्थ: मैं देखता हूँ कि परमात्मा के भजन के बिना जीव बिलखते हैं। जो मनुष्य माया के मोह में व्यस्त रहते हैं उनका शरीर धिक्कारयोग्य है।1। रहाउ।

जिउ बिगारी कै सिरि दीजहि दाम ॥ ओइ खसमै कै ग्रिहि उन दूख सहाम ॥ जिउ सुपनै होइ बैसत राजा ॥ नेत्र पसारै ता निरारथ काजा ॥२॥

पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। दीजहि = धरे हुए हों। दाम = पैसे रुपए। ग्रिहि = घर में। उनि = उस विगारी ने। पसारै = खोलता है। निरारथ = व्यर्थ।2।

अर्थ: जैसे किसी बगार करने वाले (भार उठाने वाले) के सिर पर पैसे-रुपए रखे जाएं, वह पैसे-रुपए मालिक के घर में जा पहुँचते हैं, उस बिगारी ने (भार उठाने का) दुख ही सहा होता है। जैसे कोई मनुष्य सपने में राजा बन बैठता है (पर नींद खत्म होने पर जब) आँखें खोलता है तो (सुपनें में मिले राज की सारी सच्चाई) ध्वस्त हो जाती है।2।

जिउ राखा खेत ऊपरि पराए ॥ खेतु खसम का राखा उठि जाए ॥ उसु खेत कारणि राखा कड़ै ॥ तिस कै पालै कछू न पड़ै ॥३॥

पद्अर्थ: उठि = उठ के। कारणि = वास्ते। कड़ै = दुखी होता है। पालै = पल्ले।3।

अर्थ: जैसे कोई रक्षक किसी और के खेत की (रखवाली करता है), (फसल पकने पर) फसल मालिक की मल्कियत हो जाती है और रखवाले का काम खत्म हो जाता है। रखवाला उस (पराए) खेत की (रखवाली की) खातिर दुखी होता रहता है, पर उसे (आखिर) कुछ भी नहीं मिलता।3।

जिस का राजु तिसै का सुपना ॥ जिनि माइआ दीनी तिनि लाई त्रिसना ॥ आपि बिनाहे आपि करे रासि ॥ नानक प्रभ आगै अरदासि ॥४॥११॥८०॥

पद्अर्थ: जिस का = जिस (परमात्मा) की। जिनि = जिस (प्रभु) ने। तिनि = उसने। बिनाहे = नाश करता है, आत्मिक मौत देता है। करे रासि = (जीवन उद्देश्य) सफल करता है।4।

नोट: ‘जिस का’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हट गई है।

अर्थ: (पर जीव के भी क्या वश? सुपने में) जिस प्रभु का (दिया हुआ) राज मिलता है, उसी का दिया हुआ सपना भी होता है। जिस प्रभु ने मनुष्य को माया दी है, उसी ने माया की तृष्णा भी चिपकाई हुई है।

हे नानक! प्रभु खुद ही (तृष्णा चिपका के) आत्मिक मौत देता है, खुद ही (अपने नाम की दाति दे के) मानव जीवन का उद्देश्य सफल करता है। प्रभु के दर पर ही (सदा नाम की दाति के वास्ते) अरदास करनी चाहिए।4।11।80।

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ बहु रंग माइआ बहु बिधि पेखी ॥ कलम कागद सिआनप लेखी ॥ महर मलूक होइ देखिआ खान ॥ ता ते नाही मनु त्रिपतान ॥१॥

पद्अर्थ: बिधि = तरीका। पेखी = देखी। लेखी = लिखी। महर = चौधरी। मलूक = बादशाह। होइ = बन के। ता ते = उससे।1।

अर्थ: मैंने बहु-रंगी माया कई ढंग-तरीकों से मोहती देखी है। कागज कलम (ले कर कईयों ने) अनेक विद्वता वाले लेख लिखे हैं (माया उन्हें विद्वता के रूप में मोह रही है)। (कईयों ने) चौधरी खान-सुल्तान बन के देख लिया है। इनसे (किसी का) मन तृप्त नहीं हो सका।1।

सो सुखु मो कउ संत बतावहु ॥ त्रिसना बूझै मनु त्रिपतावहु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मो कउ = मुझे। संत = हे संत! त्रिपतावहु = तृप्त करो, संतोखी बनाओ।1। रहाउ।

अर्थ: हे संत जनों! मुझे वह आत्मिक आनंद बताओ (जिससे मेरी माया की) तृष्णा मिट जाए। हे संत जनों! मेरे मन को संतोखी बना दो।1। रहाउ।

असु पवन हसति असवारी ॥ चोआ चंदनु सेज सुंदरि नारी ॥ नट नाटिक आखारे गाइआ ॥ ता महि मनि संतोखु न पाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: असु = (अश्व) घोड़े। असु पवन = हवा जैसे तेज घोड़े।

नोट: शब्द ‘असु’ में ‘ु’ की मात्रा संस्कृत के शब्द ‘अश्व’ के ‘व’ का रूपांतर है। सो, पंजाबी में ‘असु’ एकवचन है और बहुवचन भी।

हसति = हस्तिन्, हाथी। चोआ = इत्र। सुंदरि = सुंदरी, खूबसूरत। नट = तमाशा करने वाले। आखारे = रंग भूमि। मनि = मन ने।2।

अर्थ: हाथियों की और हवा जैसे तेज घोड़ों की सवारी (कईयों ने कर के देखी है), इत्र और चंदन (इस्तेमाल करके देखा है), सुंदर स्त्री की सेज (ले के देखी) है, मैंने रंग भूमि में नटों के नाटक देखे हैं, और उनके गीत गाए हुए सुने हैं। इनमें व्यस्त हो के भी (किसी के) मन ने शांति प्राप्त नहीं की।2।

तखतु सभा मंडन दोलीचे ॥ सगल मेवे सुंदर बागीचे ॥ आखेड़ बिरति राजन की लीला ॥ मनु न सुहेला परपंचु हीला ॥३॥

पद्अर्थ: मंडन = सजावट। सगल = सारे। आखेड़ = आखेट, शिकार। बिरति = रुचि। लीला = खेल। सुहेला = आसान। परपंचु = छल। हीला = यत्न, उद्यम।3।

अर्थ: राज-दरबार की सजावटें, तख्त (ऊपर बैठना), दुलीचे, सब किस्म के फल, सुंदर फुलवाड़ियां, शिकार खेलने वाली रुची, राजाओं की खेलें (इन सब से भी) मन सुखी नहीं होता। ये सारा यत्न छल ही साबत होता है।3।

करि किरपा संतन सचु कहिआ ॥ सरब सूख इहु आनंदु लहिआ ॥ साधसंगि हरि कीरतनु गाईऐ ॥ कहु नानक वडभागी पाईऐ ॥४॥

पद्अर्थ: जा कै = जिसके हृदय में।4।

अर्थ: (दुनिआ के रंग तमाशों में से सुख तलाशते को) संतों ने मेहर करके सच बताया कि साधु-संगत में परमात्मा की महिमा के गीत गाने चाहिए। (सिर्फ इसी उद्यम से ही) सारे सुखों का मूल ये आत्मिक आनंद मिलता है। पर, हे नानक! कह: महिमा की ये दाति बड़े भाग्यों से मिलती है।4।

जा कै हरि धनु सोई सुहेला ॥ प्रभ किरपा ते साधसंगि मेला ॥१॥ रहाउ दूजा ॥१२॥८१॥

नोट: पहले ‘रहाउ’ में प्रश्न किया है, और दूसरे में उत्तर है।

अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम धन मौजूद है वही आसान है। साधु-संगत में मिल बैठना परमात्मा की कृपा से ही नसीब होता है।1। रहाउ दूजा।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh