श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 205 अंतरि अलखु न जाई लखिआ विचि पड़दा हउमै पाई ॥ माइआ मोहि सभो जगु सोइआ इहु भरमु कहहु किउ जाई ॥१॥ पद्अर्थ: अंतरि = (जीव) के अंदर। अलखु = अदृश्य प्रभु! पाई = पाया हुआ है। मोहि = मोह में।1। अर्थ: (हरेक जीव के) अंदर अदृश्य प्रभु बसता है। पर (जीव को) ये समझ नहीं आ सकती, क्योंकि (जीव के अंदर) अहंकार का पर्दा पड़ा हुआ है। सारा जगत ही माया के मोह में सोया पड़ा है। (हे भाई!) बता, (जीव की) ये भटकना कैसे दूर हो?।1। एका संगति इकतु ग्रिहि बसते मिलि बात न करते भाई ॥ एक बसतु बिनु पंच दुहेले ओह बसतु अगोचर ठाई ॥२॥ पद्अर्थ: इकतु ग्रिहि = एक ही घर में। भाई = हे भाई! पंच = पाँचों ज्ञानेंद्रियां। दुहेले = दुखी। अगोचर = अ+गो+चर, ज्ञानेंद्रियों की पहुँच से परे। ठाइ = जगह में।2। नोट: ‘ओह’ शब्द स्त्रीलिंग है, शब्द ‘बसतु’ का विशेषण। अर्थ: (हे भाई! आत्मा और परमात्मा की) एक ही संगति है, दोनों एक ही (हृदय-) घर में बसते हैं, पर (आपस में) मिल के (कभी) बात नहीं करते। एक (नाम) पदार्थ के बिना (जीव के) पाँचों ज्ञानेंद्रियां दुखी रहती हैं। वह (नाम) पदार्थ ऐसी जगह में है, जहाँ ज्ञानेंद्रियों की पहुँच नहीं।2। जिस का ग्रिहु तिनि दीआ ताला कुंजी गुर सउपाई ॥ अनिक उपाव करे नही पावै बिनु सतिगुर सरणाई ॥३॥ पद्अर्थ: ताला = ताला। गुर सउपाई = गुरु को सौंपी हुई है।3। अर्थ: (हे भाई!) जिस हरि का ये बनाया हुआ (शरीर) घर है, उसने ही (मोह का) ताला मारा हुआ है, और चाबी गुरु को सौंप दी है। गुरु की शरण पड़े बिना जीव और-और अनेक उपाय करता है, (पर उन कोशिशों से परमात्मा को) नहीं ढूँढ सकता।3। जिन के बंधन काटे सतिगुर तिन साधसंगति लिव लाई ॥ पंच जना मिलि मंगलु गाइआ हरि नानक भेदु न भाई ॥४॥ पद्अर्थ: सतिगुर = हे सतिगुरु! लिव = लगन, प्रीति। पंच जना = पाँचों ज्ञानेंद्रियों ने। मंगलु = खुशी के गीत। भेदु = फर्क। भाई = हे भाई!।4। अर्थ: हे सतिगुरु! जिस के (माया के) बंधन तूने काट दिए, उन्होंने साधु-संगत में टिक के (प्रभु से) प्रीति बनाई। हे नानक! (कह:) उनके पाँचों ज्ञानेंद्रियों ने मिल के महिमा का गीत गाया। हे भाई! उनमें और हरि में कोई फर्क ना रहा।4। मेरे राम राइ इन बिधि मिलै गुसाई ॥ सहजु भइआ भ्रमु खिन महि नाठा मिलि जोती जोति समाई ॥१॥ रहाउ दूजा ॥१॥१२२॥ अर्थ: हे मेरे पातशाह! इन तरीकों से धरती का पति परमात्मा मिलता है। जिस मनुष्य को आत्मिक अडोलता प्राप्त हो गई है, उसकी (माया की खातिर) भटकना एक पल में दूर हो गई। उसकी ज्योति प्रभु में मिल के प्रभु में ही लीन हो गई।1। रहाउ दूसरा।1।122। नोट: ‘गउड़ी पूरबी घर१ का ये पहला शब्द है। गउड़ी महला ५ ॥ ऐसो परचउ पाइओ ॥ करी क्रिपा दइआल बीठुलै सतिगुर मुझहि बताइओ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: परचउ = परिचय, सांझ, मित्रता। बीठुलै = बीठुल ने। बीठल = (विष्ठल, वि+स्थल = परे+टिका हुआ) अर्थात माया के प्रभाव से परे टिका हुआ। सतिगुर = गुरु का (पता)।1। रहाउ। अर्थ: (परमात्मा के साथ मेरी) ऐसी सांझ बन गई कि उस माया के प्रभाव से परे टिके हुए दयाल प्रभु ने मेरे ऊपर कृपा की और मुझे गुरु का पता बता दिया।1। रहाउ। जत कत देखउ तत तत तुम ही मोहि इहु बिसुआसु होइ आइओ ॥ कै पहि करउ अरदासि बेनती जउ सुनतो है रघुराइओ ॥१॥ पद्अर्थ: जत कत = जिधर किधर। देखउ = मैं देखता हूँ। मोहि = मुझे। बिसुआसु = विश्वास, यकीन, निश्चय। कै पहि = किस के पास? करउ = करूँ। जउ = जब।1। अर्थ: (गुरु की सहायता से अब) मुझे ये विश्वास हो गया है कि मैं जिधर भी देखता हूँ, हे प्रभु! मुझे तू ही तू दिखाई देता है। (हे भाई! मुझे यकीन हो गया है कि) जब परमात्मा स्वयं (जीवों की अरदास विनती) सुनता है तो मैं (उसके बिना और) किस के पास आरजू करूँ, विनती करूँ?।1। लहिओ सहसा बंधन गुरि तोरे तां सदा सहज सुखु पाइओ ॥ होणा सा सोई फुनि होसी सुखु दुखु कहा दिखाइओ ॥२॥ पद्अर्थ: लहिओ = उतर गया। सहसा = संशय, फिक्र। गुरि = गुरु ने। तोरे = तोड़ दिए। सहज = आत्मिक अडोलता। सा = था। होसी = होगा।2। अर्थ: (हे भाई!) गुरु ने (जिस मनुष्य के माया के) बंधन तोड़ दिए, उसका सारा सहम-फिक्र दूर हो गया, तब उसने सदा के लिए आत्मिक अडोलता का आनंद प्राप्त कर लिया। (उसे यकीन बन गया कि प्रभु की रजा के अनुसार) जो कुछ होना था, वही होगा (उसके हुक्म के बिना) कोई सुख या कोई दुख कहीं भी दिखाई नहीं दे सकता।2। खंड ब्रहमंड का एको ठाणा गुरि परदा खोलि दिखाइओ ॥ नउ निधि नामु निधानु इक ठाई तउ बाहरि कैठै जाइओ ॥३॥ पद्अर्थ: ठाणा = ठिकाना, स्थान। गुरि = गुरु ने। खोलि = खोल के। निधि = खजाना। निधानु = खजाना। इक ठाई = एक ही जगह में, इकट्ठे। कैठै = किस स्थान पर? कहाँ? 3। अर्थ: (हे भाई!) गुरु ने (जिस मनुष्य के अंदर से अहंकार के) पर्दे खोल के परमात्मा के दर्शन करा दिए, उसे परमात्मा के सारे खण्डों-ब्रहमण्डों का एक ही ठिकाना दिखाई देता है। जिस मनुष्य के हृदय में ही (गुरु की कृपा से) जगत के नौ ही खजानों का रूप प्रभु-नाम-खजाना आ बसे, उसे बाहर भटकने की जरूरत नहीं रहती।3। एकै कनिक अनिक भाति साजी बहु परकार रचाइओ ॥ कहु नानक भरमु गुरि खोई है इव ततै ततु मिलाइओ ॥४॥२॥१२३॥ पद्अर्थ: कनिक = सोना। साजी = बनाई, रची। गुरि = गुरु ने। इव = इस तरह। ततै = मूलतत्तव में।4। अर्थ: (हे भाई! जैसे) एक सोने से सुनियारे ने गहनों की अनेक किस्मों के बनतर (रूप) बना दिए, वैसे ही परमात्मा ने कई किस्म की ये जगत रचना रच दी है। हे नानक! कह: गुरु ने जिस मनुष्य का भ्रम-भुलेखा दूर कर दिया, उसको उसी तरह का हरेक तत्व (मूल-) तत्व (प्रभु) में मिलता दिखता है (जैसे अनेक रूपों के गहने फिर सोने में ही मिल जाते हैं)।4।2।123। गउड़ी२ महला ५ ॥ अउध घटै दिनसु रैनारे ॥ मन गुर मिलि काज सवारे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अउध = उम्र। रैना = रात। रे = हे भाई! मन = हे मन! मिलि = मिल के। सवारे = सवार।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (तेरी) उम्र (एक-एक) दिन (एक-एक) रात करके घटती जा रही है। हे मन! (जिस काम के लिए तू जगत में आया है, अपने उस) काम को गुरु को मिल के पूरा कर।1। रहाउ। करउ बेनंती सुनहु मेरे मीता संत टहल की बेला ॥ ईहा खाटि चलहु हरि लाहा आगै बसनु सुहेला ॥१॥ पद्अर्थ: करउ = मैं करता हूँ। मीता = हे मित्र! बेला = वेला, समय। ईहा = यहाँ, इस लोक में। लाहा = लाभ। आगै = परलोक में। सुहेला = आसान। बसनु = बसेरा, वास।1। अर्थ: हे मेरे मित्र! सुन, मैं (तेरे आगे) विनती करता हूँ (ये मानव जन्म) संतों की टहल करने का समय है। यहाँ से हरि नाम का लाभ कमा के चल, परलोक में सुखदायी बसेरा प्राप्त होगा।1। इहु संसारु बिकारु सहसे महि तरिओ ब्रहम गिआनी ॥ जिसहि जगाइ पीआए हरि रसु अकथ कथा तिनि जानी ॥२॥ पद्अर्थ: सहसे महि = चिन्ता-फिक्र में। ब्रहम गिआनी = परमात्मा के साथ गहरी सांझ पाने वाला। जिसहि = जिस मनुष्य को। पीआए = पिलाता। अकथ कथा = उस परमात्मा की महिमा जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। तिनि = उस (मनुष्य) ने।2। अर्थ: (हे भाई!) ये जगत विकार-रूप बना हुआ है (विकारों से भरपूर है, विकारों में फंस के जीव) चिन्ता-फिक्रों में (डूबे रहते हैं)। जिस मनुष्य ने परमात्मा के साथ गहरी सांझ बना ली है, वह (इस संसार समुंदर में से) पार लांघ जाते हैं। जिस मनुष्य को (परमात्मा विकारों की नींद में से) सुचेत करता है, उसे अपना हरि-नाम-रस पिलाता है। उस मनुष्य ने फिर उस परमात्मा की महिमा के साथ गहरी सांझ डाल ली है जिसका मुकम्मल स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता।2। जा कउ आए सोई विहाझहु हरि गुर ते मनहि बसेरा ॥ निज घरि महलु पावहु सुख सहजे बहुरि न होइगो फेरा ॥३॥ पद्अर्थ: जा कउ = जिसकी खातिर। विहाझहु = खरीदो। ते = से। गुर ते = गुरु की सहायता से। मनहि = मन में। हरि बसेरा = हरि का निवास। निज घरि = अपने हृदय घर में। महलु = परमात्मा का ठिकाना।3। अर्थ: हे भाई! जिस (नाम पदार्थ के खरीदने) के लिए (जगत में) आए हो, वह सौदा खरीदो। गुरु की कृपा से ही परमात्मा का वास मन में हो सकता है। हे भाई! (गुरु की शरण पड़ कर) आत्मिक अडोकलता के आनंद में टिक के अपने हृदय घर में परमात्मा का ठिकाना ढूँढो। इस तरह दुबारा जन्म-मरण के चक्कर में नहीं पड़ेगा।3। अंतरजामी पुरख बिधाते सरधा मन की पूरे ॥ नानकु दासु इही सुखु मागै मो कउ करि संतन की धूरे ॥४॥३॥१२४॥ पद्अर्थ: बिधाते = हे कर्तार! पूरे = पूरी कर। मो कउ = मुझे। धूरे = धूरि, चरण धूल।4। अर्थ: हे अंतरजामी सर्व-व्यापक कर्तार! मेरे मन की श्रद्धा पूरी कर। तेरा दास नानक तुझसे यही सुख मांगता है कि मुझे संत जनों के चरणों की धूल बना दे।4।3।124। गउड़ी महला ५ ॥ राखु पिता प्रभ मेरे ॥ मोहि निरगुनु सभ गुन तेरे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मोहि = मुझे। निरगुनु = गुण हीन।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मित्र प्रभु! मुझ गुण-हीन को बचा ले। सारे गुण तेरे (वश में हैं, जिस पे मेहर करे, उसी को मिलते हैं। मुझे भी अपने गुण बख्श और अवगुणों से बचा ले)।1। रहाउ। पंच बिखादी एकु गरीबा राखहु राखनहारे ॥ खेदु करहि अरु बहुतु संतावहि आइओ सरनि तुहारे ॥१॥ पद्अर्थ: बिखादी = (विषादिन्) झगड़ालू, दिल को तोड़ने वाले। खेदु = दुख-कष्ट। अरु = और।1। नोट: शब्द ‘अरु’ और ‘अरि’ में फर्क याद रखना (अरि = वैरी; अरु = और)। अर्थ: हे सहायता करने के समर्थ प्रभु! मैं गरीब अकेला हूँ और मेरे वैरी कामादिक पाँच हैं। मेरी सहायता कर, मैं तेरी शरण आया हूँ। ये पाँचों मुझे दुख देते हैं और बहुत सताते हैं।1। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |