श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी महला ५ ॥ जोग जुगति सुनि आइओ गुर ते ॥ मो कउ सतिगुर सबदि बुझाइओ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जोग जुगति = (असल) योग का तरीका, योग की युक्ति, परमात्मा के साथ मिलाप का ढंग। ते = से। मो कउ = मुझे। सतिगुर सबदि = गुरु के शब्द ने।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) मुझे सतिगुरु के शब्द ने (परमात्मा से मिलाप की युक्ति) समझा दी है। मैं गुरु से असल योग का तरीका सुन के आया हूँ।1। रहाउ।

नउ खंड प्रिथमी इसु तन महि रविआ निमख निमख नमसकारा ॥ दीखिआ गुर की मुंद्रा कानी द्रिड़िओ एकु निरंकारा ॥१॥

पद्अर्थ: नउ खंड = नौ खण्डों वाली धरती, सारी धरती (पर फिरते रहना)। रविआ = मौजूद, व्यापक। निमख = आँख झपकने जितना समय। दीखिआ = दीक्षा, शिक्षा। कानी = कानों में। द्रिढ़िओ = हृदय में पक्की तरह टिका लिया है।1।

अर्थ: (हे भाई!) मैं पल पल उस परमात्मा को नमस्कार करता रहता हूँ, जो इस मानव शरीर में ही मौजूद है (यही है मेरे वास्ते जोगियों वाला) सारी धरती (का रटन)। मैंने अपने गुरु का उपदेश अपने हृदय में दृढ़ कर लिया है (यही मेरे वास्ते) कानों की मुंद्रा (जो जोगी लोग पहनते हैं) मैं एक निरंकार को सदा अपने हृदय में बसाता हे1।

पंच चेले मिलि भए इकत्रा एकसु कै वसि कीए ॥ दस बैरागनि आगिआकारी तब निरमल जोगी थीए ॥२॥

पद्अर्थ: पंच चेले = पाँचों ज्ञानेंद्रियां। एकसु कै वसि = एक ऊँची अक़्ल के वश में। बैरागनि = विकारों से उपराम हुई इंद्रिय।2।

अर्थ: (हे भाई! गुरु के उपदेश की इनायत से) मेरी पाँचों ज्ञानेंद्रियां (दुनिया के पदार्थों की तरफ भटकने की जगह) मिल के इकट्ठी हो गई हैं। (भटकने से हट गए हैं), ये सारे एक ऊँची अक़्ल के अधीन हो गए हैं। (गुरु के उपदेश से जब से) विकारों से विरक्त हो के मेरी इंद्रियां (ऊूंची मति की) आज्ञा में चलने लग पड़ी हैं, तब से मैं पवित्र जीवन वाला जोगी बन गया हूँ।2।

भरमु जराइ चराई बिभूता पंथु एकु करि पेखिआ ॥ सहज सूख सो कीनी भुगता जो ठाकुरि मसतकि लेखिआ ॥३॥

पद्अर्थ: जराइ = जला के। चराई = चढ़ाई, कब्जा की। बिभूता = राख। पंथु = योग मार्ग। पेखिआ = देखा। सहज सुख = आत्मिक अडोलता का सुख। भुगता = जोगयों वाला चूरमा। ठाकुरि = ठाकुर ने। मसतकि = माथे पर।3।

अर्थ: (हे भाई! मन की) भटकन को जला के (ये) राख मैंने (अपने शरीर पर) लगा ली है, मैं एक परमात्मा को ही सारे संसार में व्यापक देखता हूँ - ये है मेरा जोग पंथ। (हे भाई!) मैंने उस आत्मिक अडोलता के आनंद को (अपनी आत्मिक खुराक वास्ते जोगियों के भण्डारे वाला) चूरमा बनाया है, जिसकी प्राप्ति ठाकुर प्रभु ने मेरे माथे पर लिख दी।3।

जह भउ नाही तहा आसनु बाधिओ सिंगी अनहत बानी ॥ ततु बीचारु डंडा करि राखिओ जुगति नामु मनि भानी ॥४॥

पद्अर्थ: जह = जिस आत्मिक अवस्था में। सिंगी = सींग की शक्ल की छोटी सी तुरी जो जोगी बजाते हैं। अनहत = एक रस। बानी = परमात्मा के महिमा की वाणी। ततु = जगत का मूल प्रभु। मनि = मन में। भानी = भाई, अच्छा लगना।4।

अर्थ: (हे भाई!) मैं परमात्मा के महिमा की एक रस सिंगी बजा रहा हूँ। (इसकी इनायत से) मैंने उस आत्मिक अवस्था में अपना आसन जमाया हुआ है जहाँ (दुनिया वाला) कोई डर मुझे छू नहीं सकता। (हे भाई!) जगत के मूल-प्रभु (के गुणों) को विचारते रहना- इसे (जोगियों वाला) डण्डा बना के मैंने अपने पास रखा हुआ है। (परमात्मा के) नाम (को स्मरण करते रहना बस! यही जोगी की) जुगति मेरे मन को भा रही है।4।

ऐसा जोगी वडभागी भेटै माइआ के बंधन काटै ॥ सेवा पूज करउ तिसु मूरति की नानकु तिसु पग चाटै ॥५॥११॥१३२॥

पद्अर्थ: भेटै = मिलता है। करउ = मैं करूँ। तिसु मूरति की = उस (प्रभु) स्वरूप की। पग = पैर। चाटै = चाटता है, परसता है, छूता है।5।

अर्थ: (हे भाई!) ऐसी (जुगति निभाने वाला) जोगी (जिस मनुष्य को) बड़े भाग्यों से मिल जाता है, वह उसके माया के (मोह के) सारे बंधन काट देता है। मैं भी परमात्मा-के-रूप ऐसे जोगी की सेवा करता हूँ, पूजा करता हूँ। नानक ऐसे जोगी के पैर परसता है।5।11।132।

गउड़ी महला ५ ॥ अनूप पदारथु नामु सुनहु सगल धिआइले मीता ॥ हरि अउखधु जा कउ गुरि दीआ ता के निरमल चीता ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अनूप = अन+ऊप, जिस जैसा और कोई नहीं, बेमिसाल। धिआइले = स्मरण करो। मीता = हे मित्रो! अउखधु = दवाई। जा कउ = जिन्हें। गुरि = गुरु ने। ता के = उनके।1। रहाउ।

अर्थ: हे मित्रो! सुनो, परमात्मा का नाम एक ऐसा पदार्थ है जिस जैसा और कोई नहीं। (इस वास्ते हे मित्रो!) सारे (इस नाम को) स्मरण करो। जिन्हें गुरु ने नाम दारू दिया उनके चित्त (हरेक किस्म के विकारों की) मैल से साफ हो गए।1। रहाउ।

अंधकारु मिटिओ तिह तन ते गुरि सबदि दीपकु परगासा ॥ भ्रम की जाली ता की काटी जा कउ साधसंगति बिस्वासा ॥१॥

पद्अर्थ: अंधकारु = माया के मोह का अंधकार। तिह तन ते = उस मनुष्य के शरीर से। सबदि = शब्द के द्वारा। दीपकु = दीपक। भ्रम = भटकना। बिस्वासा = विश्वास, श्रद्धा, निश्चय।1।

अर्थ: (हे भाई!) गुरु ने (जिस मनुष्य के अंदर अपने) शब्द के द्वारा (आत्मिक ज्ञान का) दीपक जला दिया, उसके हृदय में से (माया के मोह का) अंधकार दूर हो गया। (हे भाई!) साधु-संगत में जिस मनुष्य की श्रद्धा बन गई, (गुरु ने) उस (के मन) का (माया की खातिर) भटकन का जाल काट दिया।1।

तारीले भवजलु तारू बिखड़ा बोहिथ साधू संगा ॥ पूरन होई मन की आसा गुरु भेटिओ हरि रंगा ॥२॥

पद्अर्थ: तारीले = तैरा लिया। भवजलु = संसार समुंदर। तारू = गहरा, अथाह। बिखड़ा = कठिन। बोहिथ = जहाज। हरि रंगा = हरि के साथ प्यार करने वाला।2।

अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य ने) गुरु की संगति रूपी जहाज का आसरा लिया, वह इस अथाह और मुश्किल संसार समुंदर से पार लांघ गया। (हे भाई!) जिस मनुष्य को परमात्मा से प्यार करने वाला गुरु मिल गया, उसके मन की (हरेक) कामना पूरी हो गयी।2।

नाम खजाना भगती पाइआ मन तन त्रिपति अघाए ॥ नानक हरि जीउ ता कउ देवै जा कउ हुकमु मनाए ॥३॥१२॥१३३॥

पद्अर्थ: भगती = भक्ती से, भक्तों ने। अघाए = तृप्त हो गए। हुकम मनाए = हुक्म मानने के लिए प्रेरित करता है।3।

अर्थ: (हे भाई! जिस) भक्त जनों ने परमात्मा के नाम का खजाना ढूँढ लिया, उनके मन माया की तरफ से तृप्त हो गए, उनके तन (हृदय माया की तरफ से) संतुष्ट हो गए। हे नानक! (कह: ये नाम-खजाना) परमात्मा उनको ही देता है, जिन्हें प्रभु अपना हुक्म मानने के लिए प्रेरणा देता है।3।12।133।

गउड़ी महला ५ ॥ दइआ मइआ करि प्रानपति मोरे मोहि अनाथ सरणि प्रभ तोरी ॥ अंध कूप महि हाथ दे राखहु कछू सिआनप उकति न मोरी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मइआ = कृपा। प्रानपति मोरे = हे मेरी जिंद के मालिक! मोहि = मैं। प्रभ = हे प्रभु! कूप = कूआँ। अंध = अंधा, अंधेरा। दे = देकर। उकति = दलील। मोरी = मेरी।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरी जीवात्मा के मालिक! (मेरे पर) दया कर मेहर कर। हे प्रभु! मैं अनाथ तेरी शरण आया हूँ। (मैं माया के मोह के अंधेरे कूएं में गिरा पड़ा हूँ, अपना) हाथ दे के मुझे (इस अंधेरे कूएं में से) बचा ले। मेरी कोई सियानप, कोई दलील (यहां) नहीं चल सकती।1। रहाउ।

करन करावन सभ किछु तुम ही तुम समरथ नाही अन होरी ॥ तुमरी गति मिति तुम ही जानी से सेवक जिन भाग मथोरी ॥१॥

पद्अर्थ: समरथ = समर्थ, हरेक किस्म की ताकत रखने वाला। अन = अन्य, कोई दूसरा। गति = हालत। मिति = अंदाजा, माप। जिन मथोरी = जिनके माथे पे।1।

अर्थ: हे मेरे प्रभु! (सब जीवों में व्यापक हो के) तू खुद ही सब कुछ कर रहा है, तू स्वयं ही सब कुछ कर रहा है, तू हरेक ताकत का मालिक है, तेरे बराबर का कोई और दूसरा नहीं है। (हे प्रभु!) तू कैसा है, तू कितना बड़ा है - ये भेद तू खुद ही जानता है। जिस लोगों के माथे पर (तेरी बख्शिश के) भाग्य जागते हैं, वे तेरे सेवक बन जाते हैं।1।

अपुने सेवक संगि तुम प्रभ राते ओति पोति भगतन संगि जोरी ॥ प्रिउ प्रिउ नामु तेरा दरसनु चाहै जैसे द्रिसटि ओह चंद चकोरी ॥२॥

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! राते = रंगे हुए, प्यार करते। ओति = उने हुए में। पोति = परोए हुए में। जोरी = जोड़ी हुई है। प्रिउ प्रिउ = ‘प्यारा प्रभु-प्यारा प्रभु’ (कह कह के)। द्रिसटि = निगाह। ओह द्रिसटि = वही नजर।2।

अर्थ: हे मेरे प्रभु! तू अपने सेवकों से हमेशा प्यार करता है। अपने भक्तों की तूने अपनी प्रीति ऐसे जोड़ी हुई है जैसे ताणे-पेटे में धागे ओत-प्रोत मिले होते हैं, जैसे चकोर की निगाह चाँद की ओर ही रहती है, वही निगाह तेरे भक्त की होती है। तेरा भक्त तुझे ‘प्यारा प्यारा’ कह कह के तेरा नाम जपता है, और तेरे दीदार की चाहत रखता है।2।

राम संत महि भेदु किछु नाही एकु जनु कई महि लाख करोरी ॥ जा कै हीऐ प्रगटु प्रभु होआ अनदिनु कीरतनु रसन रमोरी ॥३॥

पद्अर्थ: भेदु = फर्क। जा कै हीऐ = जिस मनुष्य के हृदय में। अनदिनु = हर रोज। रसन = जीभ (से)। रमोरी = रमता है, स्मरण करता है।3।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा और परमात्मा के संत में कोई फर्क नहीं होता, पर ऐसा मनुष्य कई लाखों करोड़ों में कोई एक ही होता है। (हे भाई!) जिस मनुष्य के हृदय में प्रभु अपना प्रकाश करता है, वह मनुष्य हर वक्त अपनी जीभ से प्रभु की महिमा उचारता रहता है।3।

तुम समरथ अपार अति ऊचे सुखदाते प्रभ प्रान अधोरी ॥ नानक कउ प्रभ कीजै किरपा उन संतन कै संगि संगोरी ॥४॥१३॥१३४॥

पद्अर्थ: प्रान अधोरी = प्राणों का आधार। कउ = को, पर। संगि = मेल में।4।

अर्थ: हे मेरे प्रभु! हे मेरी जिंद के आसरे! हे बेअंत ऊँचे! हे सबको सुख देने वाले! तू सब ताकतों का मालिक है। हे प्रभु! मुझ नानक पर कृपा कर, मुझे उन संत जनों की संगति में स्थान दिए रख।4।13।134।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh