श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 212 गउड़ी२ महला ५ ॥ जा कउ बिसरै राम नाम ताहू कउ पीर ॥ साधसंगति मिलि हरि रवहि से गुणी गहीर ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जा कउ = जिस मनुष्य को। ताहू कउ = उसी को। पीर = पीड़ा, दुख। रवहि = (जो) स्मरण करते हैं। गुणी = गुणों के मालिक। गहीर = गहरे जिगरे वाले।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य को परमात्मा का नाम भूल जाता है उसे ही दुख आ घेरता है। जो मनुष्य साधु-संगत में बैठ के परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, वह गुणों के मालिक बन जाते हैं, वह गहरे जिगरे वाले बन जाते हैं।1। रहाउ। जा कउ गुरमुखि रिदै बुधि ॥ ता कै कर तल नव निधि सिधि ॥१॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। रिदै = हृदय में। बुधि = (स्मरण की) अक्ल। कर = हाथ। तल = तली। ता कै कर तल = उसके हाथ की तलियों पर। नव निधि = नौ खजाने। सिधि = सिद्धियां।1। अर्थ: (हे भाई!) गुरु की शरण पड़ कर जिस मनुष्य के हृदय में (स्मरण की) सूझ पैदा हो जाती है, उस मनुष्य के हाथों की तलियों पर नौ खजाने और सारी सिद्धियां (आ टिकती हैं)।1। जो जानहि हरि प्रभ धनी ॥ किछु नाही ता कै कमी ॥२॥ पद्अर्थ: जानहि = जानते हैं, गहरी सांझ डालते हैं। धनी = मालिक। ता कै = उनके घर में। कमी = घाट।2। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य (सब खजानों के) मालिक हरि प्रभु के साथ गहरी सांझ डाल लेते हैं, उनके घर में किसी चीज की कोई कमी नहीं रहती।2। करणैहारु पछानिआ ॥ सरब सूख रंग माणिआ ॥३॥ पद्अर्थ: करणैहारु = विधाता कर्तार।3। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य ने विधाता कर्तार के साथ मेल-जोल बना लिया, वह आत्मिक सुख और आनंद भोगता है।3। हरि धनु जा कै ग्रिहि वसै ॥ कहु नानक तिन संगि दुखु नसै ॥४॥९॥१४७॥ पद्अर्थ: जा कै ग्रिहि = जिनके हृदय घर में। तिन संगि = उनकी संगति में रहने से।4। अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्यों के हृदय-घर में परमात्मा का नाम धन आ बसता है, उनकी संगति में रहने से हर किस्म के दुख दूर हो जाते हैं।4।9।147। गउड़ी महला ५ ॥ गरबु बडो मूलु इतनो ॥ रहनु नही गहु कितनो ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गरबु = गर्व, अहंकार। मूलु = पाया, विक्त। इतनो = थोड़ा सी ही। गहु = पकड़, माया की ओर खींच। कितनो = (भाव) बहुत।1। अर्थ: हे जीव! तुझे (अपने आप का) अहंकार तो बहुत है, पर (इस अहंकार का) मूल (मेरा अपना विक्त) थोड़ा सा ही है। (इस संसार में तेरा सदा के लिए) ठिकाना नहीं है, पर तेरी माया के वास्ते कशिश बहुत ज्यादा है।1। रहाउ। बेबरजत बेद संतना उआहू सिउ रे हितनो ॥ हार जूआर जूआ बिधे इंद्री वसि लै जितनो ॥१॥ पद्अर्थ: बेबरजत = विवर्जित, रोकते। उआ हू सिउ = उसी से। रे = हे भाई! बिधे = तरह। वसि लै = वश में कर के। जितनो = जीत लिया है।1। अर्थ: हे जीव! (जिस माया के मोह से) वेद आदिक धार्मिक पुस्तकें विवर्जित (रोकती) करती हैं, उससे तेरा प्यार बना रहता है। तू जीवन बाजी हार रहा है जैसे जूए में जुआरी हारता है। इंद्रियों (काम-वासना आदि) ने अपने वश में ले कर तुझे जीता हुआ है।1। हरन भरन स्मपूरना चरन कमल रंगि रितनो ॥ नानक उधरे साधसंगि किरपा निधि मै दितनो ॥२॥१०॥१४८॥ पद्अर्थ: हरन भरन संपूरना = सब जीवों के नाश करने वाला व पालने वाला। रंगि = रंग में, प्रेम में। रितनो = खाली। उधरे = बच गए। किरपा निधि = किरपा का खजाना प्रभु।2। अर्थ: हे जीव! सब जीवों के नाश करने वाले और पालने वाले परमात्मा के सुंदर चरणों के प्रेम में (टिकने) से तू वंचित है। हे नानक! (कह: जो मनुष्य) साधु-संगत में (जुड़ते हैं वह माया के मोह से) बच जाते हैं। कृपा के खजाने परमात्मा ने (अपनी कृपा करके) मुझे (नानक को अपने चरणों के प्यार की दाति) दी है।2।10।148। गउड़ी३ महला ५ ॥ मोहि दासरो ठाकुर को ॥ धानु प्रभ का खाना ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मोहि = मैं। दासरो = गरीब सा दास। को = का। धानु = बतौर दान दिया हुआ अंन्न।1। रहाउ। अर्थ: पालनहार प्रभु का मैं एक निमाणा सा सेवक हूँ, मैं उसी प्रभु का दिया हुआ अन्न ही खाता हूँ।1। रहाउ। ऐसो है रे खसमु हमारा ॥ खिन महि साजि सवारणहारा ॥१॥ पद्अर्थ: रे = हे भाई! एसो = एसा। खिन महि = थोड़े जितने समय में ही। साजि = सजा के। सवारणहारा = सुंदर बना देने की स्मर्था वाला।1। अर्थ: हे भाई! मेरा पति प्रभु ऐसा है कि एक छिन में रचना रच के उसे सुंदर बनाने की स्मर्था रखता है।1। कामु करी जे ठाकुर भावा ॥ गीत चरित प्रभ के गुन गावा ॥२॥ पद्अर्थ: करी = मैं करूँ। ठाकुर भावा = ठाकुर को अच्छा लगूँ। चरित = महिमा की बातें।2। अर्थ: (हे भाई! मैं ठाकुर प्रभु का दिया हुआ खाता हूँ) अगर उस ठाकुर प्रभु की किरपा मुझ पर हो, तो मैं (उस का ही) काम करूँ, उसके गुण गाता रहूँ, उसी के महिमा के गीत गुनगुनाता रहूँ।2। सरणि परिओ ठाकुर वजीरा ॥ तिना देखि मेरा मनु धीरा ॥३॥ पद्अर्थ: ठाकुर वजीरा = ठाकुर के वजीर, संत जन। देखि = देख के। धीरा = धीरज वाला।3। अर्थ: (हे भाई!) मैं उस ठाकुर प्रभु के वजीरों (संत जनों) की शरण आ पड़ा हूँ, उनका दर्शन करके मेरे मन को भी हौसला बन रहा है (कि मैं उस मालिक की महिमा कर सकूँगा)।3। एक टेक एको आधारा ॥ जन नानक हरि की लागा कारा ॥४॥११॥१४९॥ पद्अर्थ: टेक = आसरा। आधारा = आसरा। लागा = लग पड़ा हूँ। कारा = काम में।4। अर्थ: हे दास नानक! (कह: ठाकुर के वजीरों की शरण पड़ कर) मैंने एक परमात्मा को ही (अपने जीवन का) ओट-आसरा बनाया है, और परमातमा (की महिमा) के काम में लगा हुआ हूँ।4।11।149। गउड़ी महला ५ ॥ है कोई ऐसा हउमै तोरै ॥ इसु मीठी ते इहु मनु होरै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: है कोई ऐसा = क्या कोई ऐसा है? तोरै = तोड़ दे। ते = से। होरै = रोक दे।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) कहीं कोई ऐसा मनुष्य भी मिल जाएगा जो (मेरे) इस मन को इस मीठी (लगने वाली माया के मोह) को रोक सके?।1। रहाउ। अगिआनी मानुखु भइआ जो नाही सो लोरै ॥ रैणि अंधारी कारीआ कवन जुगति जितु भोरै ॥१॥ पद्अर्थ: अगिआनी = बेसमझ। जो नाही = जो (सदा साथ निभने वाली) नहीं। लोरै = लोड़ता है, ढूँढता है। रैणि = रात। अंधारी = अंधेरी। कारीआ = काली। जुगति = तरीका। जितु = जिस (तरीके) से। भोरै = दिन (चढ़े)।1। अर्थ: (हे भाई! इस मिठाई के असर में) मनुष्य अपनी अक्ल गवा बैठा है (क्योंकि) जो (सदा साथ निभने वाली) नहीं है उसी को तलाशता फिरता है। (मनुष्य के मन में माया के मोह की) काली अंधियारी रात बनी हुई है। (हे भाई!) वह कौन सा तरीका हो सकता है जिससे (इसके अंदर ज्ञान का) दिन चढ़ जाए?।1। भ्रमतो भ्रमतो हारिआ अनिक बिधी करि टोरै ॥ कहु नानक किरपा भई साधसंगति निधि मोरै ॥२॥१२॥१५०॥ पद्अर्थ: भ्रमतो भ्रमतो = भटकता भटकता। हारिआ = थक गया। टोरै = टोलना, तलाश। निधि = खजाना। मोरै = मेरे वास्ते।2। अर्थ: हे नानक! कह: (मीठी माया के मोह से मन को रोक सकने वाले की) अनेक ढंग-तरीकों से तलाश करता-करता और भटकता-भटकता मैं थक गया। (तब प्रभु की मुझ पर) मेहर हुई (अब) साधु-संगत ही मेरे वास्ते (उनके सारे गुणों का) खजाना है (जिनकी इनायत से मीठी माया के मोह से मन रुक सकता है)।2।12।150। गउड़ी महला ५ ॥ चिंतामणि करुणा मए ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: चिंतामणि = (चिंता+मणि) हरेक चितवनी पूरी करने वाली मणि/रत्न, परमात्मा जो जीव की हरेक चितवनी पूरी करने वाला है। करुणा = तरस, दया। करुणा मै = करुणामय, तरसरूप, तरस भरपूर। करुणामये = हे तरस रूप प्रभु!।1। रहाउ। अर्थ: हे तरस-रूप प्रभु! तू ही ऐसा रत्न है जो सब जीवों की चितवी हुई कामनाएं पूरी करने वाला है।1। रहाउ। दीन दइआला पारब्रहम ॥ जा कै सिमरणि सुख भए ॥१॥ पद्अर्थ: जा कै सिमरणि = जिसके स्मरण से।1। अर्थ: हे पारब्रहम प्रभु! तू गरीबों पर दया करने वाला है (तू ऐसा है) जिसके नाम जपने की इनायत से सारे सुख प्राप्त हो जाते हैं।1। अकाल पुरख अगाधि बोध ॥ सुनत जसो कोटि अघ खए ॥२॥ पद्अर्थ: अगाधि = अथाह। बोध = ज्ञान, समझ। अगाधि बोध = वह प्रभु जिसके स्वरूप की समझ जीवों के लिए अथाह है। जसो = यश, महिमा। कोट = करोड़ों। अघ = पाप। खए = नाश हो गए।2। अर्थ: हे अकाल-पुरख! तेरे स्वरूप की समझ जीवों की अक्ल से परे है, तेरी महिमा सुनने से करोड़ों पाप नाश हो जाते हैं।2। किरपा निधि प्रभ मइआ धारि ॥ नानक हरि हरि नाम लए ॥३॥१३॥१५१॥ पद्अर्थ: निधि = खजाना। प्रभ = हे प्रभु! मइआ = दया। धारि = धारी, धारण की।3। अर्थ: हे नानक! (अरदास कर और कह:) हे किरपा के खजाने प्रभु! जिस मनुष्य पर तू तरस करता है, वह तेरा हरि नाम स्मरण करता है।3।13।151 गउड़ी पूरबी४ महला ५ ॥ मेरे मन सरणि प्रभू सुख पाए ॥ जा दिनि बिसरै प्रान सुखदाता सो दिनु जात अजाए ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! पाए = पाता है। दिनि = दिन में। जा दिन = जिस दिन में। अजाए = व्यर्थ।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! जो मनुष्य प्रभु की शरण पड़ता है, वह आत्मिक आनंद पाता है। जिस दिन जिंद का दाता सुखों का देने वाला (प्रभु) जीव को बिसर जाता है, (उसका) वह दिन व्यर्थ चला जाता है।1। रहाउ। एक रैण के पाहुन तुम आए बहु जुग आस बधाए ॥ ग्रिह मंदर स्मपै जो दीसै जिउ तरवर की छाए ॥१॥ पद्अर्थ: रैण = रात। पाहुन = मेहमान। बधाए = बाँधते हो। ग्रिह = घर। मंदर = सुंदर मकान। संपै = धन। तरवर = वृक्ष। छाए = छाया।1। अर्थ: (हे भाई!) तुम एक रात (कहीं सफर में) गुजारने वाले मेहमान की तरह (जगत में) आए हो पर यहां कई युग जीते रहने की उम्मीदें बाँध रहे हो। (हे भाई!) ये घर-महल, धन-पदार्थ - जो कुछ दिख रहा है, ये सभ वृक्ष की छाया की तरह है (सदा साथ नहीं निभाता)।1। तनु मेरा स्मपै सभ मेरी बाग मिलख सभ जाए ॥ देवनहारा बिसरिओ ठाकुरु खिन महि होत पराए ॥२॥ पद्अर्थ: मिलख = जमीन। जाए = जगहें। ठाकुरु = पालनहार प्रभु। पराए = बाहरी।2। अर्थ: ये शरीर मेरा है, ये धन-पदार्थ सारा मेरा है, ये बाग मेरे हैं, ये जमीनें मेरी हैं, ये सारे स्थान मेरे हैं; (हे भाई! इस ममता में फंस के मनुष्य को ये सब कुछ) देने वाला परमात्मा ठाकुर भूल जाता है (और, ये सारे ही पदार्थ) एक छिन में पराए हो जाते हैं (इस तरह आखिर खाली हाथ चल पड़ता है)।2। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |