श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
गउड़ी बावन अखरी महला ५ ॥

सलोकु ॥ गुरदेव माता गुरदेव पिता गुरदेव सुआमी परमेसुरा ॥ गुरदेव सखा अगिआन भंजनु गुरदेव बंधिप सहोदरा ॥ गुरदेव दाता हरि नामु उपदेसै गुरदेव मंतु निरोधरा ॥ गुरदेव सांति सति बुधि मूरति गुरदेव पारस परस परा ॥ गुरदेव तीरथु अम्रित सरोवरु गुर गिआन मजनु अपर्मपरा ॥ गुरदेव करता सभि पाप हरता गुरदेव पतित पवित करा ॥ गुरदेव आदि जुगादि जुगु जुगु गुरदेव मंतु हरि जपि उधरा ॥ गुरदेव संगति प्रभ मेलि करि किरपा हम मूड़ पापी जितु लगि तरा ॥ गुरदेव सतिगुरु पारब्रहमु परमेसरु गुरदेव नानक हरि नमसकरा ॥१॥

पद्अर्थ: बावन अखरी = ५२ अक्षरों वाली। महला = शरीर। महला ५ = गुरु नानक के पाँचवें शरीर में गुरु अरजन देव (जी की वाणी)।

सखा = मित्र। अगिआन भंजनु = अज्ञान का नाश करने वाला। बंधपि = संबंधी। सहोदरा = (सह+उदर = एक ही माँ के पेट में से पैदा हुए) भाई। निरोधरा = जिसे रोका ना जा सके, जिसका असर गवाया ना जा सके। मंतु = मंत्र, उपदेश। सति = सत्य, सदा स्थिर प्रभु। बुधि = अक्ल। मूरति = स्वरूप। परस = छोह। अंम्रित सरोवरु = अमृत का सरोवर। मजनु = डुबकी, स्नान। अपरंपरा = परे से परे। सभि = सारे। हरता = दूर करने वाला। पतित = (विकारों में) गिरे हुए, विकारी। पवित करा = पवित्र करने वाला। जुगु जुगु = हरेक युग में। जपि = जप के। उधरा = (संसार समुंदर की विकारों की लहरों से) बच जाते हैं। प्रभ = हे प्रभु! जितु = जिससे। जितु लगि = जिस में लग के। नानक = हे नानक!।1।

अर्थ: गुरु ही मां है, गुरु ही पिता है (गुरु ही आत्मिक जन्म देने वाला है), गुरु मालिक प्रभु का रूप है। गुरु (माया के मोह का) अंधकार नाश करने वाला मित्र है, गुरु ही (तोड़ निभाने वाला) संबंधी व भाई है। गुरु (असली) दाता है जो प्रभु के नाम का उपदेश देता है, गुरु का उपदेश ऐसा है जिस का असर (कोई विकार आदि) गवा नहीं सकते।

गुरु शांति सत्य और बुद्धि का स्वरूप है, गुरु एक ऐसा पारस है जिसकी छोह पारस की छोह से श्रेष्ठ है।

गुरु (सच्चा) तीर्थ है, अमृत का सरोवर है, गुरु के ज्ञान (-जल) का स्नान (सारे तीर्थों के स्नानों से) बहुत श्रेष्ठ है। गुरु कर्तार का रूप है, सारे पापों को दूर करने वाला है, गुरु विकारी लोगों (के हृदय) को पवित्र करने वाला है। जब से जगत बना है गुरु शुरू से ही हरेक युग में (परमात्मा के नाम का उपदेश-दाता) है। गुरु का दिया हुआ हरि-नाम मंत्र जप के (संसार-समुंदर के विकारों की लहरों से) पार लांघ जाते हैं।

हे प्रभु! मेहर कर, हमें गुरु की संगति दे, ता कि हम मूर्ख पापी उसकी संगति में (रह के) तर जाएं। गुरु परमेश्वर पारब्रहम् का रूप है। हे नानक! हरि के रूप गुरु को (सदा) नमस्कार करनी चाहिए।1।

सलोकु ॥ आपहि कीआ कराइआ आपहि करनै जोगु ॥ नानक एको रवि रहिआ दूसर होआ न होगु ॥१॥

पद्अर्थ: आपहि = आप ही। रवि रहिआ = व्याप्त है। होगु = होगा।1।

अर्थ: सारी जगत रचना प्रभु ने खुद ही की है, स्वयं ही करने की स्मर्था वाला है। हे नानक! वह आप ही सारे जगत में व्यापक है, उससे बिना कोई और दूसरा नहीं है।1।

पउड़ी ॥ ओअं साध सतिगुर नमसकारं ॥ आदि मधि अंति निरंकारं ॥ आपहि सुंन आपहि सुख आसन ॥ आपहि सुनत आप ही जासन ॥ आपन आपु आपहि उपाइओ ॥ आपहि बाप आप ही माइओ ॥ आपहि सूखम आपहि असथूला ॥ लखी न जाई नानक लीला ॥१॥

पद्अर्थ: ओअं = हिन्दी वर्णमाला का पहला अक्षर। आदि = जगत के शुरू में। मधि = जगत की मौजूदगी में। अंति = जगत के आखिर में। सुंन = सुन्न, जहाँ कुछ भी ना हो। जासन = यश। आपु = अपने आप को। माइओ = माँ। असथूला = दृष्टमान जगत। लीला = खेल।1।

अर्थ: पउड़ी: हमारी उस निरंकार को नमस्कार है जो स्वयं ही गुरु रूप धारण करता है, जो जगत के आरम्भ में भी स्वयं ही था, अब भी स्वयं ही है, जगत के अंत में भी स्वयं ही रहेगा। (जब जगत की हस्ती नहीं होती) निरा एकल-स्वरूप भी वह स्वयं ही होता है, स्वयं ही अपने सूक्ष्म-स्वरूप में टिका होता है, तब अपनी शोभा सुनने वाला भी स्वयं खुद ही होता है।

अपने आप को दिखाई देते स्वरूप में लाने वाला भी स्वयं ही है, स्वयं ही (अपनी) माँ है, स्वयं ही (अपना) पिता है। अन-दिखते और दिखते स्वरूप वाला खुद ही है।

हे नानक! (परमात्मा की ये जगत-रचना वाला) खेल बयान नहीं किया जा सकता।1।

करि किरपा प्रभ दीन दइआला ॥ तेरे संतन की मनु होइ रवाला ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रवाला = चरण धूल। रहाउ = केंद्रिय भाव।

अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले प्रभु! मेरे पर मेहर कर। मेरा मन तेरे संत जनों के चरणों की धूल बना रहे।

नोट: सारी वाणी बावन अखरी का केंद्रिय विचार इन उक्त पंक्तियों में निहित है।

सलोकु ॥ निरंकार आकार आपि निरगुन सरगुन एक ॥ एकहि एक बखाननो नानक एक अनेक ॥१॥

पद्अर्थ: आकार = स्वरूप। निरंकार = आकार के बिना। गुन = माया के तीन स्वभाव (रज, तम व सत्व)। निरगुन = निर्गुण, जिस में माया के तीनों स्वभाव जोर नहीं डाल रहे। सरगुन = सर्गुण, वह स्वरूप जिस में माया के तीनों स्वाभाव मौजूद हैं। एकहि = एक ही।1।

अर्थ: आकार-रहित परमात्मा स्वयं ही (जगत-) अकार बनाता है। वह स्वयं ही (निरंकार रूप में) माया के तीनों स्वभावों से परे रहता है, और जगत रचना रच के माया के तीनों गुणों वाला हो जाता है। हे नानक! प्रभु अपने एक स्वरूप से अनेक रूप बना लेता है, (पर, ये अनेक रूप उससे अलग नहीं हैं)। यही कहा जा सकता है कि वह एक खुद ही खुद है।1।

पउड़ी ॥ ओअं गुरमुखि कीओ अकारा ॥ एकहि सूति परोवनहारा ॥ भिंन भिंन त्रै गुण बिसथारं ॥ निरगुन ते सरगुन द्रिसटारं ॥ सगल भाति करि करहि उपाइओ ॥ जनम मरन मन मोहु बढाइओ ॥ दुहू भाति ते आपि निरारा ॥ नानक अंतु न पारावारा ॥२॥

पउड़ी: अकारा = जगत रचना। सूति = सूत्र में, हुक्म में। भिंन = अलग। बिसथार = विस्तार, खिलारा। द्रिषटारं = दृष्टमान हो गया, दिखाई दे गया। उपाइओ = उत्पक्ति। दुहू भाति = दोनों तरीके से, जन्म और मरण।

अर्थ: पउड़ी: गुरमुख बनने के वास्ते प्रभु ने जगत-रचना की है। सारे जीव-जंतुओं को अपने एक ही हुक्म-धागे में परो के रखने में समर्थ है। प्रभु ने अपने अदृष्य रूप से दृष्टमान जगत रचा है, माया के तीनों रूपों का अलग-अलग विस्तार कर दिया है।

हे प्रभु! तूने सारी (अनेक) किस्में बना के जगत उत्पक्ति की है, जनम-मरन का मूल जीवों के मन का मोह भी तूने ही बढ़ाया है, पर तू स्वयं इस जनम-मरन से अलग है। हे नानक! (कह:) प्रभु के इस छोर व उस छोर का अंत नहीं पाया जा सकता।2।

सलोकु ॥ सेई साह भगवंत से सचु स्मपै हरि रासि ॥ नानक सचु सुचि पाईऐ तिह संतन कै पासि ॥१॥

पद्अर्थ: सेई = वही लोग। भगवंत = धन वाले। से = वही लोग। संपै = संपक्ति, धन। रासि = पूंजी। सुचि = आत्मिक पवित्रता। तिह = उन।1।

अर्थ: सलोक- (जीव जगत में हरि नाम का वणज करने आए हैं) जिनके पास परमात्मा का नाम-धन है, हरि के नाम की (वणज करने के लिए) पूंजी है, वही शाहूकार हैं, वही धनवान हैं। हे नानक! ऐसे संत-जनों से ही नाम-धन व आत्मिक पवित्रता हासिल होती है।1।

पवड़ी ॥ ससा सति सति सति सोऊ ॥ सति पुरख ते भिंन न कोऊ ॥ सोऊ सरनि परै जिह पायं ॥ सिमरि सिमरि गुन गाइ सुनायं ॥ संसै भरमु नही कछु बिआपत ॥ प्रगट प्रतापु ताहू को जापत ॥ सो साधू इह पहुचनहारा ॥ नानक ता कै सद बलिहारा ॥३॥

पवड़ी = सति = सदा स्थिर रहने वाला। सोऊ = वही आदमी जिसे। पायं = पाता है। संसै = सहसा, संशय, सहम। भरम = भटकना। बिआपत = व्याप्त, जोर डालता है। ताहू को = उस प्रभु का ही। जापत = प्रतीत होता है, दिखता है। इह = इस अवस्था तक।3।

अर्थ: पवड़ी- वह परमात्मा सदा स्थिर रहने वाला है, सदा स्थिर रहने वाला है, उस सदा स्थिर व्यापक प्रभु से अलग हस्ती वाला और कोई नहीं है। जिस मनुष्य को प्रभु अपनी शरण में लेता है, वही (शरण में) आता है, वह मनुष्य प्रभु का स्मरण करके उसकी महिमा करके और लोगों को भी सुनाता है। कोई संशय, सहम, कोई भटकना उस मनुष्य पर अपना जोर नहीं डाल सकता, (क्योंकि उसे हर जगह प्रभु ही प्रभु दिखता है) उसे हर जगह प्रभु का ही प्रताप प्रत्यक्ष दिखता है। जो मनुष्य इस आत्मिक अवस्था पर पहुँचता है, उसे साधु जानो। हे नानक! (कह:) मैं उससे सदा सदके हूँ।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh