श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 260 सलोकु ॥ हउ हउ करत बिहानीआ साकत मुगध अजान ॥ ड़ड़कि मुए जिउ त्रिखावंत नानक किरति कमान ॥१॥ पद्अर्थ: हउ हउ = मैं (ही होऊँ) मैं (ही बड़ा बनूँ)। साकत = माया ग्रसे जीव। मुगध = मूर्ख। ड़ड़कि = (अहंकार का काँटा) चुभ चुभ के। मुए = आत्मिक मौत मरते हैं, आत्मिक आनंद गवा लेते हैं। त्रिखावंत = प्यासा। किरति = कृत अनुसार। किरति कमान = कमाई हुई कृत के अनुसार, अहंकार के आसरे किए कर्मों के अनुसार।1। अर्थ: माया-ग्रसित मूर्ख बेसमझ मनुष्यों की उम्र इसी बहाव में बीत जाती है कि मैं बड़ा होऊँ। हे नानक! अहंकार के आसरे किए गलत कामों (के संस्कारों) के कारण, अहंकार का काँटा चुभ-चुभ के ही उनकी आत्मिक मौत हो जाती है, जैसे कोई प्यासा (पानी के बगैर मरता है, वे आत्मिक सुख के बगैर तड़फते हैं)।1। पउड़ी ॥ ड़ाड़ा ड़ाड़ि मिटै संगि साधू ॥ करम धरम ततु नाम अराधू ॥ रूड़ो जिह बसिओ रिद माही ॥ उआ की ड़ाड़ि मिटत बिनसाही ॥ ड़ाड़ि करत साकत गावारा ॥ जेह हीऐ अह्मबुधि बिकारा ॥ ड़ाड़ा गुरमुखि ड़ाड़ि मिटाई ॥ निमख माहि नानक समझाई ॥४७॥ पउड़ी: ड़ाड़ि = रड़क, चुभन, खह खह। साधू = गुरु। करम धरम ततु = धार्मिक कामों का तत्व। रूड़ो = सुंदर हरि। जेह = जिस के। बिनसाही = नाश हो जाती है। हीऐ = हृदय में। अहंबुधि विकारा = मैं बड़ा बन जाऊँ (इस समझ के) अनुसार किए बुरे काम।47। अर्थ: पउड़ी: (मनुष्य के अंदर अहंकार के काँटे की) चुभन गुरु की संगति में ही मिटती है (क्योंकि संगत में प्रभु का नाम मिलता है और) हरि-नाम का स्मरण सारे धार्मिक कर्मों का निचोड़ है। जिस मनुष्य के हृदय में सुंदर प्रभु आ बसे, उसके अंदर से अहंकार के काँटे की चुभन अवश्य नाश हो जाती है, मिट जाती है। ये अहंकार वाली चुभन (रड़क अपने अंदर) वही मूर्ख माया-ग्रसित लोग अपने अंदर कायम रखते हैं, जिनके हृदय में अहंकार वाली बुद्धि से उपजी बुराई टिकी रहती है। (पर) हे नानक! जिन्होंने गुरु की शरण पड़ कर अहंकार वाली चुभन दूर कर ली, उन्हें गुरु आँख की एक झपक में ही आत्मिक आनंद की झलक दिखा देता है।47। सलोकु ॥ साधू की मन ओट गहु उकति सिआनप तिआगु ॥ गुर दीखिआ जिह मनि बसै नानक मसतकि भागु ॥१॥ पद्अर्थ: साधू = गुरु। मन = हे मन! गहु = पकड़। उकति = दलीलबाजी। दीखिआ = शिक्षा। जिह मनि = जिसके मन में। मसतकि = माथे पर। भागु = अच्छे लेख।1। अर्थ: हे मन! (अगर अहंकार की चुभन से बचना है, तो) गुरु का आसरा ले, अपनी दलीलबाजियां और समझदारियां छोड़। हे नानक! जिस मनुष्य के मन में गुरु की शिक्षा बस जाती है, उसके माथे पर अच्छे लेख (उघड़े समझो)।1। पउड़ी ॥ ससा सरनि परे अब हारे ॥ सासत्र सिम्रिति बेद पूकारे ॥ सोधत सोधत सोधि बीचारा ॥ बिनु हरि भजन नही छुटकारा ॥ सासि सासि हम भूलनहारे ॥ तुम समरथ अगनत अपारे ॥ सरनि परे की राखु दइआला ॥ नानक तुमरे बाल गुपाला ॥४८॥ पउड़ी: हारे = हार के। सासत्र = शास्त्र, हिन्दू फिलास्फी की छह पुस्तकें: सांख, जोग, न्याय, मीमांसा, वैशेषिक, वेदांत। छुटकारा = (माया के मोह से) खलासी। गुपाला = हे गोपाल! हे धरती के सांई!।48। अर्थ: पउड़ी: हे धरती के सांई! (अहंकार की चुभन से बचने के लिए अनेको चतुराईयां, समझदारियां की, पर कुछ ना बना, अब) हार के तेरी शरण पड़े हैं। (पंडित लोग) स्मृतियों-शास्त्रों, वेद (आदि धर्म पुस्तकें) ऊँची ऊँची पढ़ते हैं। पर बहुत विचार विचार के इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि हरि नाम के स्मरण के बिना (अहंकार की चुभन से) छुटकारा नहीं हो सकता। हे गोपाल! हम जीव हर सांस के साथ भूलें करते हैं। तू हमारी भूलों को बख्शने योग्य है, तेरे गुण गिने नहीं जा सकते, तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। हे नानक! (प्रभु के आगे अरदास कर, और कह:) हे गोपाल! हम तेरे बच्चे हैं, हे दयालु! शरण पड़े की लज्जा रख (और हमें अहंकार के काँटे की चुभन से बचाए रख)।48। सलोकु ॥ खुदी मिटी तब सुख भए मन तन भए अरोग ॥ नानक द्रिसटी आइआ उसतति करनै जोगु ॥१॥ पद्अर्थ: खुद = स्वयं, मैं खुद। खुदी = अहंम्, मैं मैं वाला स्वभाव। अरोग = निरोआ। द्रिसटी आइआ = दिखाई पड़ता है। उसतति करनै जोग = जो सचमुच स्तुति का हकदार है।1। अर्थ: जब मनुष्य का अहंकार दूर हो जाता है, तब इसे आत्मिक आनंद मिलता है (जिसकी इनायत से) इसके मन और तन पुल्कित (नरोए) हो जाते हैं। हे नानक! (अहंकार के मिटते ही) मनुष्य को वह परमात्मा हर जगह दिखने लगता है, जो वाकई महिमा का हकदार है।1। पउड़ी ॥ खखा खरा सराहउ ताहू ॥ जो खिन महि ऊने सुभर भराहू ॥ खरा निमाना होत परानी ॥ अनदिनु जापै प्रभ निरबानी ॥ भावै खसम त उआ सुखु देता ॥ पारब्रहमु ऐसो आगनता ॥ असंख खते खिन बखसनहारा ॥ नानक साहिब सदा दइआरा ॥४९॥ पउड़ी: खरा = अच्छी तरह। सराहउ = सराहूँ, मैं सराहना करता हूँ। ऊने = खाली। सुभर = नाको नाक। निमाना = निर अहंकार। परानी = प्राणी, जीव। जापै = प्रतीत होता है। निरबानी = वासना से रहित। भावै खसम = पति को अच्छा लगता है। आगनता = बेअंत। असंख = अनगिनत, जिनकी गिनती ना हो सके। खते = पाप। दइआरा = दयाल।49। अर्थ: पउड़ी: मैं उस प्रभु की महिमा मन लगा के करता हूँ, जो एक छिन में उन (हृदयों) को (भले गुणों से) लबालब भर देता है, जो पहले (गुणों से) वंचित थे। (खुदी मिटा के जब) आदमी अच्छी तरह निर-अहंकार हो जाता है तो हर वक्त वासना-रहित परमात्मा को स्मरण करता है। (इस तरह) पति प्रभु को प्यारा लगने लगता है, प्रभु उसे आत्मिक सुख बख्शता है। हे नानक! पारब्रहम बड़ा बेअंत है (बेपरवाह है), मालिक प्रभु सदा ही दया करने वाला है, वह जीवों के अनगिनत पाप छण मात्र में बख्श देता है।49। सलोकु ॥ सति कहउ सुनि मन मेरे सरनि परहु हरि राइ ॥ उकति सिआनप सगल तिआगि नानक लए समाइ ॥१॥ पद्अर्थ: सति = सच। कहउ = मैं कहता हूँ। मन = हे मन! उकति = दलील बाजी।1। अर्थ: हे मेरे मन! मैं तुझे सच्ची बात बताता हूँ, (इसे) सुन। परमात्मा की शरण पड़। हे नानक! सारी ही दलीलबाजियां व समझदारियां छोड़ दे, (सरल स्वभाव हो के आसरा लेगा तो) प्रभु तुझे अपने चरणों में जोड़ लेगा।1। पउड़ी ॥ ससा सिआनप छाडु इआना ॥ हिकमति हुकमि न प्रभु पतीआना ॥ सहस भाति करहि चतुराई ॥ संगि तुहारै एक न जाई ॥ सोऊ सोऊ जपि दिन राती ॥ रे जीअ चलै तुहारै साथी ॥ साध सेवा लावै जिह आपै ॥ नानक ता कउ दूखु न बिआपै ॥५०॥ पउड़ी: इआना = हे अंजान! हिकमति = चालाकी से। हुकमि = हुक्म से। सहस = हजारों। सोऊ = उस प्रभु को ही। रे जीअ = हे जिंदे! साध = गुरु। जिह = जिस को। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकती।50। अर्थ: पउड़ी: हे मेरे अंजान मन! चालाकियां छोड़। परमात्मा चालाकियों से व हुक्म करने से (भाव, अकड़ दिखाने से) खुश नहीं होता। अगर तू हजारों किस्मों की चालाकियां भी करेगा, एक चालाकी भी तेरी मदद नहीं कर सकेगी (प्रभु की हजूरी में तेरे साथ नहीं जाएगी, मानी नहीं जा सकेगी)। हे मेरी जिंदे! बस! उस प्रभु को ही दिन-रात याद करती रह, प्रभु की याद ने ही तेरे साथ जाना है। (पर ये स्मरण वही कर सकता है जिसे प्रभु खुद गुरु के दर पर लाए) हे नानक! जिस मनुष्य को प्रभु स्वयं गुरु की सेवा में जोड़ता है, उस पर कोई दुख-कष्ट जोर नहीं डाल सकता।50। सलोकु ॥ हरि हरि मुख ते बोलना मनि वूठै सुखु होइ ॥ नानक सभ महि रवि रहिआ थान थनंतरि सोइ ॥१॥ अर्थ: हे नानक! वह प्रभु सब जीवों में व्यापक है, हरेक जगह में मौजूद है, उस हरि का जाप मुंह से करने से जब वह मन में आ बसता है, तो आत्मिक आनंद पैदा होता है।1। पउड़ी ॥ हेरउ घटि घटि सगल कै पूरि रहे भगवान ॥ होवत आए सद सदीव दुख भंजन गुर गिआन ॥ हउ छुटकै होइ अनंदु तिह हउ नाही तह आपि ॥ हते दूख जनमह मरन संतसंग परताप ॥ हित करि नाम द्रिड़ै दइआला ॥ संतह संगि होत किरपाला ॥ ओरै कछू न किनहू कीआ ॥ नानक सभु कछु प्रभ ते हूआ ॥५१॥ पद्अर्थ: हेरउ = मैं देखता हूँ, ढूँढता हूँ। घटि घटि = हरेक घट में। गुर गिआन = गुरु का ज्ञान (ये बताता है)। हउ = अहंकार। तिह हउ = उस मनुष्य का अहंकार। तह = वहाँ, उसके अंदर। हते = नाश हो गए। हित = प्यार, प्रेम। संतह संगि = संत जनों की संगति में। ओरै = परमात्मा से इधर।51। अर्थ: पउड़ी: मैं सब जीवों के शरीर में देखता हूँ कि परमात्मा स्वयं ही मौजूद है। परमात्मा का अस्तित्व सदा से ही है, वह जीवों के दुख नाश करने वाला है, ये सूझ गुरु का ज्ञान देता है (गुरु के उपदेश से ये समझ पैदा होती है)। संतों की संगति की इनायत से मनुष्य के जनम-मरन के दुख नाश हो जाते हैं, मनुष्य का अहम् समाप्त हो जाता है, मन में आनंद पैदा हो जाता है, मन में से अहंकार का अभाव हो जाता है, वहां प्रभु स्वयं आ बसता है। जो मनुष्य संत जनों की संगति में रह कर प्रेम से दयाल प्रभु का नाम अपने हृदय में टिकाता है, प्रभु उस पर कृपा करता है। हे नानक! (उस मनुष्य को ये निश्चय हो जाता है कि) परमात्मा से उरे और कोई कुछ भी करने के लायक नहीं है, ये सारा जगत-आकार परमात्मा से ही प्रगट हुआ है।51। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |