श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोकु ॥ गुरदेव माता गुरदेव पिता गुरदेव सुआमी परमेसुरा ॥ गुरदेव सखा अगिआन भंजनु गुरदेव बंधिप सहोदरा ॥ गुरदेव दाता हरि नामु उपदेसै गुरदेव मंतु निरोधरा ॥ गुरदेव सांति सति बुधि मूरति गुरदेव पारस परस परा ॥ गुरदेव तीरथु अम्रित सरोवरु गुर गिआन मजनु अपर्मपरा ॥ गुरदेव करता सभि पाप हरता गुरदेव पतित पवित करा ॥ गुरदेव आदि जुगादि जुगु जुगु गुरदेव मंतु हरि जपि उधरा ॥ गुरदेव संगति प्रभ मेलि करि किरपा हम मूड़ पापी जितु लगि तरा ॥ गुरदेव सतिगुरु पारब्रहमु परमेसरु गुरदेव नानक हरि नमसकरा ॥१॥
एहु सलोकु आदि अंति पड़णा ॥

पद्अर्थ: सखा = मित्र। अगिआन भंजनु = अज्ञान का नाश करने वाला। बंधपि = संबंधी। सहोदरा = (सह+उदर = एक ही माँ के पेट में से पैदा हुए) भाई। निरोधरा = जिसे रोका ना जा सके, जिसका असर गवाया ना जा सके। मंतु = मंत्र, उपदेश। सति = सत्य, सदा स्थिर प्रभु। बुधि = अक्ल। मूरति = स्वरूप। परस = छोह। अंम्रित सरोवरु = अमृत का सरोवर। मजनु = डुबकी, स्नान। अपरंपरा = परे से परे। सभि = सारे। हरता = दूर करने वाला। पतित = (विकारों में) गिरे हुए, विकारी। पवित करा = पवित्र करने वाला। जुगु जुगु = हरेक युग में। जपि = जप के। उधरा = (संसार समुंदर की विकारों की लहरों से) बच जाते हैं। प्रभ = हे प्रभु! जितु = जिससे। जितु लगि = जिस में लग के। नानक = हे नानक!।1।

अर्थ: गुरु ही मां है, गुरु ही पिता है (गुरु ही आत्मिक जन्म देने वाला है), गुरु मालिक प्रभु का रूप है। गुरु (माया के मोह का) अंधकार नाश करने वाला मित्र है, गुरु ही (तोड़ निभाने वाला) संबंधी व भाई है। गुरु (असली) दाता है जो प्रभु के नाम का उपदेश देता है, गुरु का उपदेश ऐसा है जिस का असर (कोई विकार आदि) गवा नहीं सकते।

गुरु शांति सत्य और बुद्धि का स्वरूप है, गुरु एक ऐसा पारस है जिसकी छोह पारस की छोह से श्रेष्ठ है।

गुरु (सच्चा) तीर्थ है, अमृत का सरोवर है, गुरु के ज्ञान (-जल) का स्नान (सारे तीर्थों के स्नानों से) बहुत श्रेष्ठ है। गुरु कर्तार का रूप है, सारे पापों को दूर करने वाला है, गुरु विकारी लोगों (के हृदय) को पवित्र करने वाला है। जब से जगत बना है गुरु शुरू से ही हरेक युग में (परमात्मा के नाम का उपदेश-दाता) है। गुरु का दिया हुआ हरि-नाम मंत्र जप के (संसार-समुंदर के विकारों की लहरों से) पार लांघ जाते हैं।

हे प्रभु! मेहर कर, हमें गुरु की संगति दे, ता कि हम मूर्ख पापी उसकी संगति में (रह के) तर जाएं। गुरु परमेश्वर पारब्रहम् का रूप है। हे नानक! हरि के रूप गुरु को (सदा) नमस्कार करनी चाहिए।1।

ये सलोक इस ‘बावन अखरी’ के आरम्भ में भी पढ़ना है, और आखिर में भी पढ़ना है।

नोट: इस शलोक का अर्थ ‘बावन अखरी’ के शुरू में दिया गया है।

गउड़ी सुखमनी महला ५॥

सुखमनी का केन्द्रिय भाव:

श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी में शब्द-अष्टपदियों आदि की संरचना को जरा गौर से देखने से ये पता चलता है कि हरेक शब्द में एक या दो तुकें (पंक्तियां) ऐसी होती हैं, जिनके आखिर में शब्द ‘रहाउ’ लिखा हुआ होता है। ‘रहाउ’ का अर्थ है: ‘ठहिर जाउ’, अर्थात, कि यदि इस सारे शब्द का केन्द्रिय भाव समझना है तो ‘रहाउ’ वाली पंक्तियों पर ‘अटक जाओ’, इन में ही सारे शब्द का ‘सार’ है।

‘शब्द’, ‘अष्टपदियों’ से अलग कई और लम्बी बाणियां भी हैं, जिनके शुरू में ‘रहाउ’ की तुकें मिलती हैं। इन बाणियों में भी ‘रहाउ’ लिखने का भाव यही है कि इस सारी वाणी का ‘मुख्य भाव’ ‘रहाउ’ की तुकों में है। मिसाल के तौर पर लें ‘सिध गोसटि’। इस वाणी की 73 पउड़ियां हैं, पर इसकी पहली पउड़ी के बाद निम्न-लिखित दो तुकें ‘रहाउ’ की है;

किआ भवीऐ सचि सूचा होइ॥ साच सबद बिनु मुकति न कोइ॥१॥ रहाउ॥

सारी ‘सिध गोसटि’ का केन्द्रिय भाव ये दो तुकें बता रही हैं। जोगी लोग देश-रटन को मुक्ति व पवित्रता का साधन समझते हैं, इस सारी वाणी में जोगियों के साथ चर्चा है और इन दो-तुकों में दो-हरफी बात यही बताई है कि देश-रटन या तीर्थ यात्रा ‘सुच’ व ‘मुक्ति’ के साधन नहीं हैं। गुरु-शब्द ही मनुष्य के मन को स्वच्छ (पवित्र) कर सकता है। सारी वाणी इसी ख्याल की व्याख्या है।

अब लें ‘ओअंकार’, जो राग ‘रामकली दखणी’ में है। इसकी सारी 54 पउड़ियां हैं, पर इसकी भी पहली पउड़ी के उपरंत इस प्रकार लिखा है;

सुणि पाडे किआ लिखहु जंजाला॥ लिखु राम नाम गुरमुखि गोपाला॥१॥ रहाउ॥

यहां भी स्पष्ट है कि ये सारी वाणी किसी पण्डित के प्रथाय है जो ‘विद्या’ पर ज्यादा टेक रखता है। सत्गुरू जी ने इस सारी वाणी का सारांश ये बताया है कि अकाल पुरख की महिमा सब से उत्तम विद्या है।

इस तरह की और भी कई बाणियां हैं, जिस में एक ‘सुखमनी’ भी है। इसकी 24 अष्टपदियां हैं। पर पहली अष्टपदी की पहली पउड़ी के बाद आई ‘रहाउ’ की तुक बताती है कि इस सारी वाणी का दो-हरफी मुख्य भाव ‘रहाउ’ में है और सारी ही 24 अष्टपदियां इस ‘मुख्य भाव’ की व्याख्या हैं। सो ‘सुखमनी’ का ‘मुख्य भाव’ नीचे दी गई तुकें हैं:

सुखमनी सुख अंम्रित प्रभ नामु॥ भगत जना कै मनि बिस्राम॥ रहाउ॥

प्रभु का नाम सब सुखों का मूल है और ये मिलता है गुरमुखों से, क्योंकि ये बसता ही उनके हृदय में है।

समूची ‘सुखमनी’ इसी ख्याल की व्याख्या है।

सुखमनी की भाव: लड़ी:

(1) अकाल-पुरख के नाम का स्मरण और सभी धार्मिक कामों से श्रेष्ठ है। (अष्टपदियां नं: 1,2 व 3)।

(2) माया में फंसे जीव पर ईश्वर की ओर से ही मेहर हो तब इसे नाम की दाति मिलती है; क्योंकि माया के कई करिश्मे इसे मोहते रहते हैं। (अ: 4,5 व6)

(3) जब प्रभु की मेहर होती है तो मनुष्य गुरमुखों की संगति में रह के ‘नाम’ की इनायत हासिल करता है। वे गुरमुखि उच्च करनी वाले होते हैं, उन्हें साधु कहो, चाहे ब्रहम ज्ञानी, चाहे कोई और नाम रख लो, पर उनकी आत्मा सदा परमात्मा के साथ एक-रूप है। (अ: 7,8 व 9)

(4) उस अकाल पुरख की स्तुति जगत के सारे ही जीव कर रहे हैं, वह हर जगह व्यापक है, हरेक जीव को उससे क्षमता मिलती है। (अ: 10 व 11)।

(5) प्रभु की महिमा करने वाले भाग्यशाली ने अपने जीवन में और भी ख्याल रखने हैं कि (अ) स्वभाव गरीबी वाला रहे (अ: 12); (आ) निंदा करने से बचा रहे, (अ: 13); (इ) एक अकाल-पुरख की टेक रखे, हरेक जीव की जरूरतें जानने व पूरी करने वाला एक प्रभु ही है। (अष्टपदी 14 व 15)

(6) वह अकाल-पुरख कैसा है? सब में बसता हुआ भी माया से निर्लिप है (अ: 16)। सदा कायम रहने वाला है (अ: 17)। सतिगुरु की शरण पड़ने से उस प्रभु का प्रकाश हृदय में होता है (अ: 18)।

(7) प्रभु का नाम ही एक ऐसा धन है जो सदा मनुष्य के साथ निभता है (अ: 19); प्रभु के दर पे आरजू करने से इस धन की प्राप्ति होती है (अ: 20)।

(8) निर्गुण-रूप प्रभु ने खुद ही अपना सर्गुण स्वरूप जगत के रूप में बनाया है और हर जगह वह खुद ही व्यापक है, कोई और नहीं (अ: 21,22)। जब मनुष्य को ज्ञान रूपी अंजन (सुरमा) मिलता है, तभी इसके मन में ये प्रकाश होता है कि प्रभु हर जगह है (अ: 23)।

(9) प्रभु सारे गुणों का खजाना है, उसका नाम स्मरण करते हुए बेअंत गुण हासिल हो जाते हैं, इस वास्ते ‘नाम’ सुखों की मणी (सुखमनी) है।

गउड़ी सुखमनी मः ५ ॥

अर्थ: इस वाणी का नाम है ‘सुखमनी’ और ये गउड़ी राग में दर्ज है। इसे उच्चारने वाले गुरु अरजन साहिब जी हैं।

सलोकु ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

आदि गुरए नमह ॥ जुगादि गुरए नमह ॥ सतिगुरए नमह ॥ स्री गुरदेवए नमह ॥१॥

पद्अर्थ: नमह = (सब से) बड़े को। आदि = (सबका) आरम्भ। जुगादि = (जो) जुगों के आरम्भ से है। सतिगुरए = सतिगुरु को। स्री गुरदेवए = श्री गुरु जी को।1।

नोट: शब्द ‘नमह’ संप्रदान कारक के साथ इस्तेमाल होता है, ‘गुरऐ’ संप्रदान कारक में है। संस्कृत शब्द ‘गुरु’ से संप्रदान कारक ‘गुरवे’ है जो यहां ‘गुरऐ’ है। (और विस्तृत जानकारी ‘गुरबाणी व्याकरण’ में दर्ज की गई है)।

अर्थ: (मेरी) उस सबसे बड़े (अकाल पुरख) को नमस्कार है जो (सब का) आरम्भ है, और जो युगों के आरम्भ से है। सतिगुरु को (मेरा) नमस्कार है श्री गुरदेव जी को (मेरी) नमस्कार है।1।

असटपदी ॥ सिमरउ सिमरि सिमरि सुखु पावउ ॥ कलि कलेस तन माहि मिटावउ ॥ सिमरउ जासु बिसु्मभर एकै ॥ नामु जपत अगनत अनेकै ॥ बेद पुरान सिम्रिति सुधाख्यर ॥ कीने राम नाम इक आख्यर ॥ किनका एक जिसु जीअ बसावै ॥ ता की महिमा गनी न आवै ॥ कांखी एकै दरस तुहारो ॥ नानक उन संगि मोहि उधारो ॥१॥

पद्अर्थ: असटपदी = आठ पदों वाली, आठ बंदों वाली। सिमरउ = मैं स्मरण करूँ। सिमरि = स्मरण करके। कलि = झगड़े। माहि = में। मिटावउ = मिटा लूं। बिसंभर = (विश्व+भर, भर = पालक) जगत का पालक। जासु नामु = जिस एक जगत पालक (हरि) का नाम। इक आख्यर = एकाक्षर (अकाल पुरख)। सुधाख्यर = शुद्ध अक्षर, पवित्र शब्द। जिसु जीअ = जिस के जीअ में। महिमा = स्तुति। कांखी = चाहवान। नानक मोहि = मुझे नानक को। उन संगि = उनकी संगति में (रख के)। उधारो = बचा लो।1।

अर्थ: मैं (अकाल-पुरख का नाम) स्मरण करूँ और स्मरण कर-कर के सुख हासिल करूँ; (इस तरह) शरीर में (जो) दुख व्याधियां हैं उनहें मिटा लूँ।

जिस एक जगत पालक (हरि) का नाम अनेक और अनगिनत (जीव) जपते हैं, मैं (भी उसको) स्मरण करूँ।

वेदों-पुराणों-स्मृतियों ने एक अकाल-पुरख के नाम को ही सबसे पवित्र नाम माना है।

जिस (मनुष्य) के जी में (अकाल-पुरख अपना नाम) थोड़ा सा भी बसाता है, उसकी वडियाई महिमा बयान नहीं की जा सकती।

(हे अकाल-पुरख!) जो मनुष्य तेरे दीदार के चाहवान हैं, उनकी संगति में (रख के) मुझे नानक को (संसार सागर से) बचा लो।1।

सुखमनी सुख अम्रित प्रभ नामु ॥ भगत जना कै मनि बिस्राम ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सुखमनी = सुखों की मणी, सब से श्रेष्ठ सुख। प्रभ नामु = प्रभु का नाम। मनि = मन में। भगत जना कै मनि = भक्त जनों के मन में। बिस्राम = ठिकाना। रहाउ।

अर्थ: प्रभु का अमर करने वाला व सुखदाई नाम (सब) सुखों की मणी है, इसका ठिकाना भक्तों के हृदय में है। रहाउ।

प्रभ कै सिमरनि गरभि न बसै ॥ प्रभ कै सिमरनि दूखु जमु नसै ॥ प्रभ कै सिमरनि कालु परहरै ॥ प्रभ कै सिमरनि दुसमनु टरै ॥ प्रभ सिमरत कछु बिघनु न लागै ॥ प्रभ कै सिमरनि अनदिनु जागै ॥ प्रभ कै सिमरनि भउ न बिआपै ॥ प्रभ कै सिमरनि दुखु न संतापै ॥ प्रभ का सिमरनु साध कै संगि ॥ सरब निधान नानक हरि रंगि ॥२॥

पद्अर्थ: सिमरनि = स्मरण द्वारा, स्मरण करने से। प्रभ कै सिमरनि = प्रभु का स्मरण करने से। गरभि = गर्भ में, माँ के पेट में, जून में, जनम (मरण) में। परहरै = संस्कृत में ‘परिहृ’ (to avoid, shun) परे हट जाता है। टरै = टल जाता है। सिमरत = स्मरण करते हुए, स्मरण करने से। कछु = कोई। बिघनु = रुकावट, बाधा। अनदिनु = हर रोज। जागै = सुचेत रहता है। भउ = डर। बिआपै = जोर डालता है। संतापै = तंग करता है। सरब = सारे। निधान = खजाने। नानक = हे नानक! रंगि = प्यार में।2।

अर्थ: प्रभु का स्मरण करने से (जीव) जनम में नहीं आता, (जीव का) दुख और जम (का डर) दूर हो जाता है। मौत (का भय) परे हट जाता है। (विकार रूपी) दुश्मन टल जाता है।

प्रभु को स्मरण करने से (जिंदगी की राह में) कोई रुकावट नहीं पड़ती, (क्योंकि) प्रभु का स्मरण करने से (मनुष्य) हर समय (विकारों की तरफ से) सुचेत रहता है।

प्रभु का स्मरण करने से (कोई) डर (जीव पर) दबाव नहीं डाल सकता और (कोई) दुख व्याकुल नहीं कर सकता।

अकाल-पुरख का स्मरण गुरमुखि की संगति में (मिलता है); (और जो मनुष्य स्मरण करता है, उसको) हे नानक! अकाल पुरख के प्यार में (ही) (दुनिया के) सारे खजाने (प्रतीत होते हैं)।2।

प्रभ कै सिमरनि रिधि सिधि नउ निधि ॥ प्रभ कै सिमरनि गिआनु धिआनु ततु बुधि ॥ प्रभ कै सिमरनि जप तप पूजा ॥ प्रभ कै सिमरनि बिनसै दूजा ॥ प्रभ कै सिमरनि तीरथ इसनानी ॥ प्रभ कै सिमरनि दरगह मानी ॥ प्रभ कै सिमरनि होइ सु भला ॥ प्रभ कै सिमरनि सुफल फला ॥ से सिमरहि जिन आपि सिमराए ॥ नानक ता कै लागउ पाए ॥३॥

पद्अर्थ: रिधि = मानसिक ताकत। सिधि = (अणिमा लघिमा प्रप्ति: प्राकाम्ह महिमा तथा। ईशित्वं च तथा कामावसायिता॥) मानसिक ताकतें, जो आम तौर पर आठ प्रसिद्ध हैं। नउ निधि = (महापद्यश्च पद्मश्च शंखो मकरकक्ष्छपौ॥ मुकुन्दकुन्दनीलाश्च खर्वश्च निधयो नव॥) कुबेर देवते के नौ खजाने, भाव, जगत का सारा धन पदार्थ। ततु = अस्लियत, जगत का मूल। बुधि = अक्ल, समझ। बिनसै = नाश हो जाता है। मानी = मान वाला, इज्जत वाला। फला = फलीभूत हुआ, फल वाला हुआ। सुफल = अच्छे फल वाला। सुफल फला = (मानव जन्म का) उच्च उद्देश्य प्राप्त हो जाता है। जिन = जिन्हें। ता कै पाए = उनके पैरों में।3।

अर्थ: प्रभु के स्मरण में (ही) सारी रिद्धियां-सिद्धियां व नौ खजाने हैं, प्रभु स्मरण में ही ज्ञान, तवज्जो का टिकाव, और जगत के मूल (हरि) की समझ वाली बुद्धि है।

प्रभु के स्मरण में ही (सारे) जाप-ताप व (देव) पूजा हैं, (क्योंकि) स्मरण करने से प्रभु के बिना किसी और उस जैसी हस्ती के अस्तित्व का ख्याल ही दूर हो जाता है।

स्मरण करने वाला (आत्म-) तीर्थ का स्नान करने वाला हो जाता है, और, दरगाह में उसे आदर मिलता है, जगत में जो जो हो रहा है (उसे) भला प्रतीत होता है, और (उसका) मानव जन्म का श्रेष्ठ उद्देश्य सिद्ध हो जाता है।

(नाम) वही स्मरण करते हैं, जिन्हें प्रभु स्वयं प्रेरित करता है, (इसलिए, कह) हे नानक! मैं उन (स्मरण करने वालों) के पैर लगूँ।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh