श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 264 असटपदी ॥ जह मात पिता सुत मीत न भाई ॥ मन ऊहा नामु तेरै संगि सहाई ॥ जह महा भइआन दूत जम दलै ॥ तह केवल नामु संगि तेरै चलै ॥ जह मुसकल होवै अति भारी ॥ हरि को नामु खिन माहि उधारी ॥ अनिक पुनहचरन करत नही तरै ॥ हरि को नामु कोटि पाप परहरै ॥ गुरमुखि नामु जपहु मन मेरे ॥ नानक पावहु सूख घनेरे ॥१॥ पद्अर्थ: जह = जहाँ (भाव, जिंदगी के इस सफर में)। सुत = पुत्र। मन = हे मन! ऊहा = वहाँ। महा = बड़ा। भइआन = भयानक, डरावना। दूत जम = जम दूत। दूत जम दलै = जम दूतों का दल। तह = वहाँ। केवल = सिर्फ। खिन माहि = छिन में। उधारी = बचाता है। अनिक = अनेक, बहुत। पुनह चरन = (संस्कृत: पुनः आचरण। आचरण = धार्मिक रस्म) बारंबार कोई धार्मिक रस्में करनीं। को = का। कोटि = करोड़। परहरै = दूर कर देता है। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के।1। अर्थ: जहाँ माता, पिता, पुत्र, मित्र, भाई कोई (साथी) नहीं (बनता), वहाँ हे मन! (प्रभु) का नाम तेरी सहायता करने वाला है। जहाँ बड़े भयानक जमदूतों का दल है, वहाँ तेरे साथ सिर्फ प्रभु का नाम ही जाता है। जहाँ बड़ी भारी मुश्किल होती है, (वहाँ) प्रभु का नाम पलक झपकने में बचा लेता है। अनेक धार्मिक रस्में करके भी (मनुष्य पापों से) नहीं बचता, (पर) प्रभु का नाम करोड़ों पापों का नाश कर देता है। (इसलिए) हे मेरे मन! गुरु की शरण पड़ के (प्रभु का) नाम जप। हे नानक! (नाम की इनायत से) बड़े सुख पाएगा।1। सगल स्रिसटि को राजा दुखीआ ॥ हरि का नामु जपत होइ सुखीआ ॥ लाख करोरी बंधु न परै ॥ हरि का नामु जपत निसतरै ॥ अनिक माइआ रंग तिख न बुझावै ॥ हरि का नामु जपत आघावै ॥ जिह मारगि इहु जात इकेला ॥ तह हरि नामु संगि होत सुहेला ॥ ऐसा नामु मन सदा धिआईऐ ॥ नानक गुरमुखि परम गति पाईऐ ॥२॥ पद्अर्थ: सगल = सारी। स्रिसटि = दुनिया। को = का। लाख करोरी = लाखों करोड़ों (रुपयों) से, लाखों करोड़ों रुपए कमा के भी। बंधु = रोक, ठहरना। न परै = नही पड़ती। निसतरै = पार लांघ जाता है। अनिक माइआ रंग = माया के अनेक रंग, माया की अनेको मौजें (होते हुए भी)। तिख = प्यास, माया की प्यास। आघावै = तृप्त हो जाता है। जिह मारग = जिस रास्तों पे। सुहेला = सुख देने वाला। मन = हे मन! परम = ऊँचा। गति = दरजा। पाईऐ = पाते हैं, मिलता है।2। अर्थ: (मनुष्य) सारी दुनिया का राजा (हो के भी) दुखी (रहता है) पर प्रभु का नाम जपने से सुखी (हो जाता है); (क्योंकि) लाखों करोड़ों (रुपए) कमा के भी (माया की प्यास को) रोक नहीं पड़ती, (इस माया के दल दल से) प्रभु का नाम जप के ही मनुष्य पार लांघ जाता है; माया की बेअंत मौजें होते हुए भी (माया की) प्यास नहीं बुझती, (पर) प्रभु का नाम जपने से (मनुष्य माया की तरफ से) तृप्त हो जाता है। जिस राहों से ये जीव अकेला जाता है, (भाव, जिंदगी के जिस झमेलों में इस चिंतातुर जीव की कोई सहायता नहीं कर सकता) वहाँ प्रभु का नाम इसके साथ सुख देने वाला होता है। (इस वास्ते) हे मन! ऐसा (सुहेला) नाम सदा स्मरण करें, हे नानक! गुरु के द्वारा (नाम जपने से) ऊँचा दर्जा मिलता है।2। छूटत नही कोटि लख बाही ॥ नामु जपत तह पारि पराही ॥ अनिक बिघन जह आइ संघारै ॥ हरि का नामु ततकाल उधारै ॥ अनिक जोनि जनमै मरि जाम ॥ नामु जपत पावै बिस्राम ॥ हउ मैला मलु कबहु न धोवै ॥ हरि का नामु कोटि पाप खोवै ॥ ऐसा नामु जपहु मन रंगि ॥ नानक पाईऐ साध कै संगि ॥३॥ पद्अर्थ: छूटत = बच सकता, खलासी पाना। बाही = बाहों से, भाईयों के होते। पराही = पड़ते हैं। पारि पराही = पार लांघ जाते हैं। आइ = आ के। संघारै = (सं: संहृ) नाश करते हैं, दुखी करते हैं। ततकाल = तुरंत। बिस्राम = विश्राम, टिकाव। हउ = अपनत्व। कोटि = करोड़ों। मन = हे मन! रंगि = रंग में, प्यार से। नानक = हे नानक!।3। अर्थ: लाखों करोड़ों भाईयों के होते हुए (मनुष्य जिस दीन अवस्था से) निजात नहीं पा सकता, वहाँ (प्रभु का) नाम जपने से (जीव) पार लांघ जाते हैं। जहाँ अनेको मुश्किलें आ दबोचती हैं, (वहाँ) प्रभु का नाम तुरंत बचा लेता है। (जीव) अनेक जूनियों में पैदा होता है मरता है (फिर) पैदा होता है (इसी तरह जनम मरण के चक्कर में पड़ा रहता है), नाम जपने से (प्रभु चरणों में) टिक जाता है। अहंकार से गंदा हुआ (जीव) कभी ये मैल धोता नहीं, (पर) प्रभु का नाम करोड़ों पाप नाश कर देता है। हे मन! (प्रभु का) ऐसा नाम प्यार से जप। हे नानक! (प्रभु का नाम) गुरमुखों की संगति में मिलता है।3। जिह मारग के गने जाहि न कोसा ॥ हरि का नामु ऊहा संगि तोसा ॥ जिह पैडै महा अंध गुबारा ॥ हरि का नामु संगि उजीआरा ॥ जहा पंथि तेरा को न सिञानू ॥ हरि का नामु तह नालि पछानू ॥ जह महा भइआन तपति बहु घाम ॥ तह हरि के नाम की तुम ऊपरि छाम ॥ जहा त्रिखा मन तुझु आकरखै ॥ तह नानक हरि हरि अम्रितु बरखै ॥४॥ पद्अर्थ: जिह = जिस। मारग = रास्ता। ऊहा = वहाँ। संगि = (तेरे) साथ। तोसा = खर्च, राशि, पूंजी। जिह पैडै = जिस राह में। गुबारा = अंधेरा। उजीआरा = प्रकाश। पंथि = राह में। भइआन = भयानक। तपति = तपश। घाम = धूप, गरमी। छाम = छाया। त्रिखा = प्यास। आकरखै = आकर्षित करती है, घबराहट डालती है। तुझु = तुझे। बरखै = बरसता है।4। अर्थ: जिस (जिंदगी रूपी) राह के कोस गिने नहीं जा सकते, वहाँ (भाव, उस लंबे सफर में) प्रभु का नाम (जीव की) राशि पूंजी है। साथ रौशनी है। जिस (जिंदगी रूप) राह में (विकारों का) घोर अंधकार है, (वहाँ) प्रभु का नाम (जीव के) साथ रौशनी है। जिस रास्ते में (हे जीव!) तेरा कोई (असली) महरम नहीं है, वहाँ प्रभु का नाम तेरे साथ (सच्चा) साथी है। जहाँ (जिंदगी के सफर में) (विकारों की) बड़ी भयानक तपश व गरमी है, वहाँ (हे जीव!) प्रभु का नाम तेरे पर छाया है। (हे जीव!) जहाँ (माया की) प्यास तुझे (सदा) आकर्षित करती है, वहाँ, हे नानक! प्रभु के नाम की बरखा होती है (जो तपश को बुझा देती है)।4। भगत जना की बरतनि नामु ॥ संत जना कै मनि बिस्रामु ॥ हरि का नामु दास की ओट ॥ हरि कै नामि उधरे जन कोटि ॥ हरि जसु करत संत दिनु राति ॥ हरि हरि अउखधु साध कमाति ॥ हरि जन कै हरि नामु निधानु ॥ पारब्रहमि जन कीनो दान ॥ मन तन रंगि रते रंग एकै ॥ नानक जन कै बिरति बिबेकै ॥५॥ पद्अर्थ: बरतनि = इस्तेमाल, वह चीज जो हर समय जरूरी है, हथियार। मनि = मन में। ओट = आसरा। हरि कै नामि = प्रभु के नाम से। जन = मनुष्य। हरि जसु = हरि की कीर्ति, प्रभु की स्तुति। अउखधु = दवा। कमाति = कमाते हैं, हासिल करते हैं। हरि जन कै = प्रभु के सेवक के (पास)। निधानु = खजाना। पारब्रहमि = पारब्रहम ने, प्रभु ने। कीनो = किया है। जन = जनों को, अपने सेवकों को। रंग = प्यार। बिरति = स्वभाव, रुची। बिबेकै = परख, विचार। बिरति बिबेकै = अच्छे बुरे की परख करने का स्वभाव।5। अर्थ: प्रभु का नाम भगतों का हथियार है, भक्तों के मन में ये टिका रहता है। प्रभु का नाम भक्तों का आसरा है, प्रभु के नाम से करोड़ों लोग (विकारों से) बच जाते हैं। भक्त जन दिन रात प्रभु की स्तुति करते हैं, और, प्रभु नाम रूपी दवा इकट्ठी करते हैं (जिससे अहंकार का रोग दूर होता है)। भक्तों के पास प्रभु का नाम ही खजाना है, प्रभु ने नाम की बख्शिश अपने सेवकों पर स्वयं की है। भक्त जन मन से तन से एक प्रभु के प्यार में रंगे रहते हैं; हे नानक! भक्तों के अंदर भले-बुरे की परख करने का स्वभाव बन जाता है।5। हरि का नामु जन कउ मुकति जुगति ॥ हरि कै नामि जन कउ त्रिपति भुगति ॥ हरि का नामु जन का रूप रंगु ॥ हरि नामु जपत कब परै न भंगु ॥ हरि का नामु जन की वडिआई ॥ हरि कै नामि जन सोभा पाई ॥ हरि का नामु जन कउ भोग जोग ॥ हरि नामु जपत कछु नाहि बिओगु ॥ जनु राता हरि नाम की सेवा ॥ नानक पूजै हरि हरि देवा ॥६॥ पद्अर्थ: जन कउ = भक्तजनों के वास्ते। मुकति = (माया के बंधनों से) छुटकारा। जुगति = तरीका, साधन। त्रिपति = तृप्ति, तसल्ली। भुगति = (मायावी) भोग। रूप रंग = सुंदरता। भंगु = विघ्न। वडिआई = सम्मान। जन = (भक्त) जनों ने। बिओगु = वियोग, विछोड़ा, कष्ट, दुख। राता = रंगा हुआ, भीगा हुआ, मस्त। देवा = देव, प्रकाश रूप प्रभु।6। अर्थ: भक्त के वास्ते प्रभु का नाम (ही) (माया के बंधनों से) छुटकारा पाने का साधन है, (क्योंकि) प्रभु के नाम से भक्त (माया के) भोगों की ओर से तृप्त हो जाता है। प्रभु का नाम भक्त का सुहज सुंदरता है, प्रभु का नाम जपते हुए (भक्त के राह में) कभी (कोई) अटकाव नहीं पड़ता। प्रभु का नाम (ही) भक्त का मान-सम्मान है, (क्योंकि) प्रभु के नाम द्वारा (ही) भक्तों ने (जगत में) मशहूरी पाई है। (त्यागी की) योग (-साधना) और गृहस्थी का माया का भोग, भक्तजन के वास्ते प्रभु का नाम (ही) है, प्रभु का नाम जपते हुए (उसे) कोई दुख-कष्ट नहीं होता। (प्रभु का) भक्त (सदा) प्रभु के नाम की सेवा (स्मरण) में मस्त रहता है; हे नानक! (भक्त सदा) प्रभु-देव को ही पूजता है।6। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |