श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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असटपदी ॥ करन करावन करनै जोगु ॥ जो तिसु भावै सोई होगु ॥ खिन महि थापि उथापनहारा ॥ अंतु नही किछु पारावारा ॥ हुकमे धारि अधर रहावै ॥ हुकमे उपजै हुकमि समावै ॥ हुकमे ऊच नीच बिउहार ॥ हुकमे अनिक रंग परकार ॥ करि करि देखै अपनी वडिआई ॥ नानक सभ महि रहिआ समाई ॥१॥

पद्अर्थ: जोगु = समर्थ, ताकत वाला। होगु = होगा। थापि = पैदा करके। उथापनहारा = नाश करने वाला। पारावारा = पार और अवार, इस पार और उस पार। धारि = टिका के। अधर = अ+धर, बिना आसरे। रहावै = रखावे, रखता है। उपजै = पैदा होता है। परकार = किस्म।1।

अर्थ: प्रभु (सब कुछ) करने की स्मर्था रखता है, और (जीवों को) काम करने के लिए प्रेरित करने के समर्थ भी है, वही कुछ होता है जो कुछ उसे अच्छा लगता है।

आँख की झपक में जगत को पैदा करके नाश भी करने वाला है, (उसकी ताकत) की कोई सीमा नहीं है।

(सृष्टि को अपने) हुक्म में पैदा करके बिना किसी आसरे टिकाए रखता है, (जगत उसके) हुक्म में पैदा होता है और हुक्म में लीन हो जाता है।

ऊँचे और नीच लोगों की बरतों भी उसके हुक्म में ही है, अनेक किस्मों के खेल तमाशे उसके हुक्म में ही हो रहे हैं।

अपनी प्रतिभा (के काम) कर कर के खुद ही देख रहा है। हे नानक! प्रभु सब जीवों में व्यापक है।१।

प्रभ भावै मानुख गति पावै ॥ प्रभ भावै ता पाथर तरावै ॥ प्रभ भावै बिनु सास ते राखै ॥ प्रभ भावै ता हरि गुण भाखै ॥ प्रभ भावै ता पतित उधारै ॥ आपि करै आपन बीचारै ॥ दुहा सिरिआ का आपि सुआमी ॥ खेलै बिगसै अंतरजामी ॥ जो भावै सो कार करावै ॥ नानक द्रिसटी अवरु न आवै ॥२॥

पद्अर्थ: प्रभ भावै = अगर प्रभु को ठीक लगे। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। पतित = (धर्म से) गिरे हुए। आपन बीचारै = अपने विचार अनुसार। दुहा सिरिआ का = लोक परलोक का। खेलै = खेल खेलता है, जगत रचना की खेल खेलता है। बिगसै = (ये खेल देख के) खुश होता है। अंतरजामी = (जीवों के) अंदर की जानने वाला। द्रिसटी = नजर में। अवरु = (कोई) और।2।

अर्थ: अगर प्रभु को ठीक लगे तो मनुष्य को उच्च आत्मिक अवस्था देता है और पत्थर (-दिलों) को भी पार लगा देता है।

अगर प्रभु चाहे तो स्वास के बिना भी प्राणी को (मौत से) बचाए रखता है, उसकी मेहर हो प्रभु मेहर के गुण गाता है।

अगर अकाल-पुरख की रजा हो तो गिरे चाल-चलन वालों को (विकारों से) बचा लेता है, जो कुछ करता है, अपनी सलाह अनुसार करता है।

प्रभु खुद ही लोक परलोक का मालिक है, वह सबके दिल की जानने वाला खुद जगत खेल खेलता है और (इसे देख के) खुश होता है।

जो उसे अच्छा लगता है वही काम करता है। हे नानक! (उस जैसा) कोई और नहीं दिखता।2।

कहु मानुख ते किआ होइ आवै ॥ जो तिसु भावै सोई करावै ॥ इस कै हाथि होइ ता सभु किछु लेइ ॥ जो तिसु भावै सोई करेइ ॥ अनजानत बिखिआ महि रचै ॥ जे जानत आपन आप बचै ॥ भरमे भूला दह दिसि धावै ॥ निमख माहि चारि कुंट फिरि आवै ॥ करि किरपा जिसु अपनी भगति देइ ॥ नानक ते जन नामि मिलेइ ॥३॥

पद्अर्थ: कहु = बताओ। हाथि = हाथ में, वश में। अनजानत = ना जानते हुए, मूर्ख होने के कारण। बिखिआ = माइआ। जानत = समझ वाला हो। दह = दस। दिसि = दिशाएं, तरफें। दहदिसि = दसों ओर। धावै = दौड़ता है। निमख = आँख फड़कने जितना समय। कुंट = कूट (सं: कूट = end, corner) कोने। नामि = नाम में। मिलेइ = जुड़ गए हैं, लीन हो गए हैं।3।

अर्थ: बताओ, मनुष्य से (अपने आप) कौन सा काम हो सकता है? जो प्रभु को ठीक लगता है वही (जीव से) कराता है।

इस (मनुष्य) के हाथ में हो तो हर चीज पर कब्जा कर ले, (पर) प्रभु वही कुछ करता है जो उसे भाता है।

मूर्खता के कारण मनुष्य माया में उलझ जाता है, यदि समझदार हो तो अपने आप (इससे) बचा रहे।

(पर इसका मन) भुलेखे में भूला हुआ (माया की खातिर) दसों दिशाओं में दौड़ता है, आँख की झपक में चारों कोनों में दौड़ भाग आता है।

(प्रभु) मेहर करके जिस जिस मनुष्य को अपनी भक्ति बख्शता है, हे नानक! वे मनुष्य नाम में टिके रहते हैं।3।

खिन महि नीच कीट कउ राज ॥ पारब्रहम गरीब निवाज ॥ जा का द्रिसटि कछू न आवै ॥ तिसु ततकाल दह दिस प्रगटावै ॥ जा कउ अपुनी करै बखसीस ॥ ता का लेखा न गनै जगदीस ॥ जीउ पिंडु सभ तिस की रासि ॥ घटि घटि पूरन ब्रहम प्रगास ॥ अपनी बणत आपि बनाई ॥ नानक जीवै देखि बडाई ॥४॥

पद्अर्थ: कीट = कीड़ा। निवाज = मेहर करने वाला। जा का कछू = जिसका कोई गुण। द्रिसटि न आवै = नहीं दिखता। ततकाल = तुरंत। बशसीस = बख्शिश, दया। जगदीस = जगत+ईश, जगत का मालिक। रासि = पूंजी। तिस की = उस प्रभु की। घटि घटि = हरेक घट में, हरेक शरीर में। पूरन = व्यापक। प्रगास = जलवा। बणत = बनावट, आकार, जगत रूपी घाड़त। जीवै = जी रहा है, प्रसन्न हो रहा है।4।

अर्थ: छिन में प्रभु कीड़े (जैसे) छोटे (मनुष्य) को राज दे देता है, प्रभु गरीबों पर मेहर करने वाला है।

जिस मनुष्य में कोई गुण नहीं दिखाई देता, उसे एक पल में ही दसों दिशाओं में चमका देता है।

जिस मनुष्य पर जगत का मालिक प्रभु अपनी बख्शिश करता है; उसके (कर्मों के) लेख नहीं गिनता।

ये जिंद और शरीर सब उस प्रभु की दी हुई पूंजी है, हरेक शरीर में व्यापक प्रभु का ही जलवा है।

ये (जगत) रचना उसने खुद रची है। हे नानक! अपनी (इस) प्रतिभा को खुद देख के खुश हो रहा है।4।

इस का बलु नाही इसु हाथ ॥ करन करावन सरब को नाथ ॥ आगिआकारी बपुरा जीउ ॥ जो तिसु भावै सोई फुनि थीउ ॥ कबहू ऊच नीच महि बसै ॥ कबहू सोग हरख रंगि हसै ॥ कबहू निंद चिंद बिउहार ॥ कबहू ऊभ अकास पइआल ॥ कबहू बेता ब्रहम बीचार ॥ नानक आपि मिलावणहार ॥५॥

पद्अर्थ: सरब को नाथ = सारे जीवों का मालिक। बपुरा = विचारा। आज्ञाकारी = हुक्म में चलने वाला। जीउ = जीव। थीउ = होता है, वरतता है। कबहू = कभी। सोग = चिन्ता। हरख = खुशी। निंद चिंद = निंदा की विचार। बिउहार = व्यवहार, सलूक। ऊभ = ऊँचा। पइआल = पाताल। बेता = जानने वाला, महरम। ब्रहम बीचार = ईश्वरीय विचार।5।

अर्थ: इस (जीव) की ताकत इसके अपने हाथ में नहीं है, सब जीवों का प्रभु स्वयं सब कुछ करने कराने के समर्थ है।

बिचारा जीव प्रभु के हुक्म में चलने वाला है (क्योंकि) होता वही है जो उस प्रभु को भाता है।

(प्रभु स्वयं) कभी ऊँचों में कभी छोटों में प्रगट हो रहा है, कभी चिन्ता में है और कभी खुशी की मौज में हँस रहा है।

कभी (दूसरों की) निंदा विचारने का व्यवहार बनाए बैठा है, कभी (खुशी के कारण) आकाश में ऊँचा (चढ़ता है) (कभी चिन्ता के कारण) पाताल में (गिरा पड़ा है)।

कभी खुद ही ईश्वरीय विचार का महरम है। हे नानक! जीवों को अपने में मेलने वाला स्वयं ही है।5।

कबहू निरति करै बहु भाति ॥ कबहू सोइ रहै दिनु राति ॥ कबहू महा क्रोध बिकराल ॥ कबहूं सरब की होत रवाल ॥ कबहू होइ बहै बड राजा ॥ कबहु भेखारी नीच का साजा ॥ कबहू अपकीरति महि आवै ॥ कबहू भला भला कहावै ॥ जिउ प्रभु राखै तिव ही रहै ॥ गुर प्रसादि नानक सचु कहै ॥६॥

पद्अर्थ: निरति = नाच। भाति = किस्म। सोइ रहै = सोया रहता है। बिकराल = भयानक। रवाल = चरणों की धूल। बड = बड़ा। भेखारी = भिखारी। साजा = स्वांग। अपकीरति = अपकीर्ति, बदनामी। सचु कहै = अकाल-पुरख को स्मरण करता है। तिव ही = उसी तरह।6।

अर्थ: (प्रभु जीवों में व्यापक हो के) कभी कई किस्मों के नाच कर रहा है, कभी दिन रात सोया रहता है।

कभी क्रोध (में आ के) बड़ा डरावना (लगता है), कभी जीवों के चरणों की धूल (बना रहता है)।

कभी बड़ा राजा बन बैठता है, कभी एक नीच जाति के भिखारी का स्वांग (बना लेता है)।

कभी अपनी बदनामी करा रहा है, कभी तारीफ करवा रहा है।

जीव उसी तरह जीवन व्यतीत करता है जैसे प्रभु करवाता है। हे नानक! (कोई विरला मनुष्य) गुरु की कृपा से प्रभु को स्मरण करता है।6।

कबहू होइ पंडितु करे बख्यानु ॥ कबहू मोनिधारी लावै धिआनु ॥ कबहू तट तीरथ इसनान ॥ कबहू सिध साधिक मुखि गिआन ॥ कबहू कीट हसति पतंग होइ जीआ ॥ अनिक जोनि भरमै भरमीआ ॥ नाना रूप जिउ स्वागी दिखावै ॥ जिउ प्रभ भावै तिवै नचावै ॥ जो तिसु भावै सोई होइ ॥ नानक दूजा अवरु न कोइ ॥७॥

पद्अर्थ: बख्यानु = व्याख्यान, उपदेश। मोनधारी = चुप रहने वाला, कभी ना बोलने वाला। तट = नदी का किनारा। सिध = माहिर जोगी। साधिक = साधना करने वाले। मुखि = मुंह से। कीट = कीड़ा। हसति = हाथी। पतंग = पतंगा। भरमीआ = भ्रम में डाला हुआ, चक्कर खाया हुआ, बौंदला हुआ।7।

अर्थ: (सर्व-व्यापी प्रभु) कभी पंडित बन के (दूसरों को) उपदेश कर रहा है, कभी मोनी साधु हो के समाधि लगाए बैठा है।

कभी तीर्थों के किनारे स्नान कर रहा है, कभी सिद्ध और साधिक (के रूप में) मुंह से ज्ञान की बातें करता है।

कभी कीड़े, हाथी, पतंगा (आदि जीव) बना हुआ है और (अपना ही) भरमाया हुआ कई जूनियों में भटक रहा है।

बहु-रूपीए की तरह कई तरह के रूप दिखा रहा है, जैसे प्रभु को भाता है तैसे ही (जीवों को) नचाता है।

वही होता है जो उस मालिक को ठीक लगता है। हे नानक! (उस जैसा) कोई और दूसरा नहीं है।7।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh