श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सो अंतरि सो बाहरि अनंत ॥ घटि घटि बिआपि रहिआ भगवंत ॥ धरनि माहि आकास पइआल ॥ सरब लोक पूरन प्रतिपाल ॥ बनि तिनि परबति है पारब्रहमु ॥ जैसी आगिआ तैसा करमु ॥ पउण पाणी बैसंतर माहि ॥ चारि कुंट दह दिसे समाहि ॥ तिस ते भिंन नही को ठाउ ॥ गुर प्रसादि नानक सुखु पाउ ॥२॥

पद्अर्थ: धरनि = धरती। पइआल = पाताल। सरब लोक = सारे भवनों में। बनि = जंगल में। तिनि = तृण में, घास आदि में। परबति = पर्वत में। आगिआ = आज्ञा, हुक्म। करमु = काम। बैसंतर = आग। कुंट = कूट। दिस = दिशा, तरफ। भिंन = भिन्न, अलग।2।

अर्थ: वह बेअंत भगवान अंदर-बाहर (सब जगह) हरेक शरीर में मौजूद है।

धरती, आकाश व पाताल में है, सारे भवनों में मौजूद है और सब की पालना करता है।

वह पारब्रहम जंगल में है, घास (आदि) में है और पर्वत में है; जैसा वह हुक्म करता है, वैसा ही (जीव) काम करता है।

पवन में, पानी में, आग में चहुँ कुंटों में दसों दिशाओं में (सब जगह) समाया हुआ है।

कोई (भी) जगह उस प्रभु से अलग नहीं है; (पर) हे नानक! (इस निश्चय का) आनंद गुरु की कृपा से ही मिलता है।2।

बेद पुरान सिम्रिति महि देखु ॥ ससीअर सूर नख्यत्र महि एकु ॥ बाणी प्रभ की सभु को बोलै ॥ आपि अडोलु न कबहू डोलै ॥ सरब कला करि खेलै खेल ॥ मोलि न पाईऐ गुणह अमोल ॥ सरब जोति महि जा की जोति ॥ धारि रहिओ सुआमी ओति पोति ॥ गुर परसादि भरम का नासु ॥ नानक तिन महि एहु बिसासु ॥३॥

पद्अर्थ: ससीअरु = (सं: शशधर) चंद्रमा। सूर = (सं: सूर्य) सूरज। नखत्र = (सं: नक्षत्र) तारे। सभु को = हरेक जीव। कला = देखते। करि = रच के। मोलि = मूल्य से। गुणह अमोल = अमूल्य गुणों वाला। धारि रहिओ = आसरा दे रहा है। ओति प्रोति = ताने बाने की तरह। बिसासु = विश्वास, यकीन।3।

अर्थ: वेदों में, पुराणों में, स्मृतियों में (उसी प्रभु को) देखो; चंद्रमा, सूरज, तारों में भी एक वही है।

हरेक जीव अकाल-पुरख की ही बोली बोलता है; (पर सब में विद्यमान होते हुए भी) वह आप अडोल है कभी डोलता नहीं।

सारी ताकतें रच के (जगत की) खेलें खेल रहा है, (पर वह) किसी मूल्य से नहीं मिलता (क्योंकि) अमूल्य गुणों वाला है।

जिस प्रभु की ज्योति सारी ही ज्योतियों में (जल रही है) वह मालिक ताने बाने की तरह (सबको) आसरा दे रहा है।

(पर) हे नानक! (अकाल-पुरख की इस सर्व-व्यापक हस्ती का) ये यकीन उन मनुष्यों के अंदर बनता है जिनका भ्रम गुरु की कृपा से मिट जाता है।3।

संत जना का पेखनु सभु ब्रहम ॥ संत जना कै हिरदै सभि धरम ॥ संत जना सुनहि सुभ बचन ॥ सरब बिआपी राम संगि रचन ॥ जिनि जाता तिस की इह रहत ॥ सति बचन साधू सभि कहत ॥ जो जो होइ सोई सुखु मानै ॥ करन करावनहारु प्रभु जानै ॥ अंतरि बसे बाहरि भी ओही ॥ नानक दरसनु देखि सभ मोही ॥४॥

पद्अर्थ: पेखनु = देखना। सभु = सारा, हर जगह। सभि = सारे। धरम = धर्म के ख्याल। सुभ = शुभ। जिनि = जिस (साधु) ने। रहत = रहनी। सभि सति बचन = सारे सचचे वचन। मोही = मस्त हो जाती है। सभ = सारी सृष्टि।4।

अर्थ: संत जन हरेक जगह अकाल-पुरख को ही देखते हैं, उनके हृदय में सारे (विचार) धर्म के ही (उठते हैं)।

संत जन भले वचन ही सुनते हैं और सर्व-व्यापक अकाल-पुरख के साथ जुड़े रहते हैं।

जिस जिस संत जन ने (प्रभु को) जान लिया है उसकी रहनी ही ये हो जाती है कि वह सदा सच्चे वचन बोलता है।

(और) जो कुछ (प्रभु के द्वारा) होता है उसी को सुख मानता है, सब काम करने वाला और (जीवों से) करवाने वाला प्रभु को ही जानता है।

(साधु जनों के लिए) अंदर बाहर (सब जगह) वही प्रभु बसता है। (प्रभु के सर्व-व्यापी) दर्शन करके सारी सृष्टि मस्त हो जाती है।4।

आपि सति कीआ सभु सति ॥ तिसु प्रभ ते सगली उतपति ॥ तिसु भावै ता करे बिसथारु ॥ तिसु भावै ता एकंकारु ॥ अनिक कला लखी नह जाइ ॥ जिसु भावै तिसु लए मिलाइ ॥ कवन निकटि कवन कहीऐ दूरि ॥ आपे आपि आप भरपूरि ॥ अंतरगति जिसु आपि जनाए ॥ नानक तिसु जन आपि बुझाए ॥५॥

पद्अर्थ: सति = अस्तित्व वाला। उतपति = उत्पक्ति, पैदायश, सृष्टि। जिस भावै = अगर उस प्रभु को ठीक लगे। कला = ताकत। निकटि = नजदीक। भरपूरि = व्यापक। अंतरगति = अंदर की ऊँची अवस्था। जनाए = सुझाता है।5।

अर्थ: प्रभु स्वयं हस्ती वाला है, जो कुछ उसने पैदा किया है वह सब अस्तित्व वाला है (भाव, भ्रम भुलेखा नहीं) सारी सृष्टि उस प्रभु से हुई है।

अगर उसकी रजा हो तो जगत का पसारा कर देता है, अगर उसे भाए, तो फिर एक खुद ही खुद हो जाता है।

उसकी अनेक ताकतें हैं, किसी का बयान नहीं हो सकता, जिस पर प्रसन्न होता है उसे अपने साथ मिला लेता है।

वह प्रभु कितनों के नजदीक, और कितनों से दूर कहा जा सकता है? वह प्रभु खुद ही हर जगह मौजूद है।

जिस मनुष्य को प्रभु स्वयं ही अंदर की उच्च अवस्था सुझाता है, हे नानक! उस मनुष्य को (अपनी इस सर्व-व्यापक की) समझ बख्शता है।5।

सरब भूत आपि वरतारा ॥ सरब नैन आपि पेखनहारा ॥ सगल समग्री जा का तना ॥ आपन जसु आप ही सुना ॥ आवन जानु इकु खेलु बनाइआ ॥ आगिआकारी कीनी माइआ ॥ सभ कै मधि अलिपतो रहै ॥ जो किछु कहणा सु आपे कहै ॥ आगिआ आवै आगिआ जाइ ॥ नानक जा भावै ता लए समाइ ॥६॥

पद्अर्थ: भूत = जीव। वरतारा = मौजूद है, बरत रहा है। नैन = आँखें। तना = शरीर। जस = शोभा। खेलु = तमाशा। आगिआकारी = हुक्म में चलने वाली। मधि = में, अंदर। अलिपतो = निर्लिप।6।

अर्थ: सारे जीवों में प्रभु स्वयं ही बरत रहा है, (उन जीवों की) सारी आँखों में से प्रभु खुद ही देख रहा है। (जगत के) सारे पदार्थ जिस प्रभु के शरीर हैं, (सब में व्यापक हो के) वह अपनी शोभा आप ही सुन रहा है।

(जीवों का) पैदा होना मरना प्रभु ने एक खेल बनाई है और अपने हुक्म में चलने वाली माया बना दी है।

हे नानक! (जीव) अकाल-पुरख के हुक्म में पैदा होता है और हुक्म में मरता है, जब उसकी रजा होती है तो उनको अपने में लीन कर लेता है।6।

इस ते होइ सु नाही बुरा ॥ ओरै कहहु किनै कछु करा ॥ आपि भला करतूति अति नीकी ॥ आपे जानै अपने जी की ॥ आपि साचु धारी सभ साचु ॥ ओति पोति आपन संगि राचु ॥ ता की गति मिति कही न जाइ ॥ दूसर होइ त सोझी पाइ ॥ तिस का कीआ सभु परवानु ॥ गुर प्रसादि नानक इहु जानु ॥७॥

पद्अर्थ: इस ते = इस (प्रभु) से। ओरै = (ईश्वर से) उरे, रब के बिना। किनै = किसी ने। करतूति = काम। नीकी = अच्छी। जी की = दिल की। साचु = अस्तित्व वाला। सभ = सारी रचना। ओति पोति = ताने पेटे की तरह। मिति = मिनती।7।

अर्थ: जो कुछ प्रभु की ओर से होता है (जीवों के लिए) बुरा नहीं होता; और प्रभु के बिना, बताओ किसी ने कुछ कर दिखाया है?

प्रभु खुद ठीक है, उसका काम भी ठीक है, अपने दिल की बात वह खुद ही जानता है।

स्वयं हस्ती वाला है, सारी रचना जो उसके आसरे है, वह भी अस्तित्व वाली है (भ्रम नहीं), ताने-पेटे की तरह उसने अपने साथ मिलाई हुई है।

वह प्रभु कैसा है और कितना बड़ा है, ये बात बयान नहीं हो सकती, कोई दूसरा (अलग) हो तो समझ सके।

प्रभु का किया हुआ सब कुछ (जीवों को) सिर-माथे मानना पड़ता है, (पर) हे नानक! यह पहिचान गुरु की कृपा से आती है।7।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh