श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 310 सलोक मः ४ ॥ सभि रस तिन कै रिदै हहि जिन हरि वसिआ मन माहि ॥ हरि दरगहि ते मुख उजले तिन कउ सभि देखण जाहि ॥ अर्थ: जिनके हृदय में प्रभु बस गया है (भाव, जिन्होंने मन में प्रभु को अनुभव कर लिया है), सारे रस उनके अंदर हैं (भाव, संसारिक पदार्थों के रसों का स्वाद लेने के लिए वह जीव अपने मन को माया की तरफ दौड़ने नहीं देते, हृदय में नाम-रस का आनंद लेते हैं, जो सब रसों से उत्तम रस है)। हरि की दरगाह में वह खिले माथे जाते हैं; और सारे लोग उनके दर्शनों की अभिलाशा करते हैं। जिन निरभउ नामु धिआइआ तिन कउ भउ कोई नाहि ॥ हरि उतमु तिनी सरेविआ जिन कउ धुरि लिखिआ आहि ॥ पद्अर्थ: सरेविआ = स्मरण किया। धुरि = आरम्भ से। आहि = है। अर्थ: जिन्होंने निरभव प्रभु का नाम स्मरण किया है, उनको (खुद को भी) कोई डर नहीं रह जाता; (पर यह) उत्तम प्रभु उन मनुष्यों ने ही स्मरण किया है जिनके हृदय में आरम्भ से (अच्छे किए कर्मों के संस्कार) लिखे हुए हैं। ते हरि दरगहि पैनाईअहि जिन हरि वुठा मन माहि ॥ ओइ आपि तरे सभ कुट्मब सिउ तिन पिछै सभु जगतु छडाहि ॥ जन नानक कउ हरि मेलि जन तिन वेखि वेखि हम जीवाहि ॥१॥ पद्अर्थ: पैनाईअहि = उनको आदर का सिरोपा दिया जाता है। वुठा = बसा। तिन पिछै = उनके नक्शे कदमों पर।1। अर्थ: जिनके मन में प्रभु बसता है (भाव, प्रगट होता है) उन्हें उसकी हजूरी में आदर मिलता है। वह खुद सारे परिवार समेत (संसार-सागर से) पार लांघ जाते हैं। और अपने नक्शे-कदमों पर चला के सारे संसार को (विकारों से) बचा लेते हैं। हे हरि! (ऐसे अपने) बंदे दास नानक को भी मिला। हम उन्हें देख-देख के जीएं।1। मः ४ ॥ सा धरती भई हरीआवली जिथै मेरा सतिगुरु बैठा आइ ॥ से जंत भए हरीआवले जिनी मेरा सतिगुरु देखिआ जाइ ॥ अर्थ: जिस जमीन पर मेरा प्यारा सतिगुरु आ के बैठा है, वह जमीन हरी-भरी हो गई है। वह जीव हरे हो गए हैं (भाव, उन मनुष्यों के हृदय खिल गए हैं) जिन्होंने जा के प्यारे सतिगुरु का दर्शन किया है। धनु धंनु पिता धनु धंनु कुलु धनु धनु सु जननी जिनि गुरू जणिआ माइ ॥ धनु धंनु गुरू जिनि नामु अराधिआ आपि तरिआ जिनी डिठा तिना लए छडाइ ॥ हरि सतिगुरु मेलहु दइआ करि जनु नानकु धोवै पाइ ॥२॥ पद्अर्थ: धंन = धन्य,मुबारक,भाग्यशाली। जननी = माँ। माइ = हे माँ! पाइ = पाय, पैर।2। अर्थ: हे माँ! वह पिता भाग्यशाली है, वह कुल भाग्यशाली है जिसने सतिगुरु को जन्म दिया है। वह सतिगुरु धन्य है जिसने प्रभु का नाम स्मरण किया है; (नाम स्मरण करके) खुद पार हुआ है और जिन्होंने उसके दर्शन किए हैं उन्हें भी विकारों से छुड़ा लिया है। हे हरि! मेहर करके मुझे भी (ऐसा) सतिगुरु मिलाओ, दास नानक उसके पैर धोए।2। पउड़ी ॥ सचु सचा सतिगुरु अमरु है जिसु अंदरि हरि उरि धारिआ ॥ सचु सचा सतिगुरु पुरखु है जिनि कामु क्रोधु बिखु मारिआ ॥ जा डिठा पूरा सतिगुरू तां अंदरहु मनु साधारिआ ॥ बलिहारी गुर आपणे सदा सदा घुमि वारिआ ॥ गुरमुखि जिता मनमुखि हारिआ ॥१७॥ पद्अर्थ: उरि = हृदय में। जिसु अंदरि = जिस गुरु के अंदर। जिनि = जिस (गुरु) ने। साधारिआ = आधार वाला, धीरज वाला हो गया। घुमि वारिआ = सदके वार जाऊँ।17। अर्थ: सतिगुरु सदा स्थिर रहने वाले अमर प्रभु का रूप है, (क्योंकि) उसने प्रभु को अपने अंदर हृदय में परोया हुआ है, (और इस तरह) उसने (हृदय में से काम-क्रोध आदि के) विष को निकाल दिया है। जब मैंने (ऐसा यह) पूरा सतिगुरु देखा, तब मेरे मन को अंदर धीरज आया (इसलिए) मैं अपने सतिगुरु से सदा वारने और सदके जाता हूँ। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (मानव जनम की बाजी) जीत जाता है और मन के पीछे चलने वाला हार जाता है।17। सलोक मः ४ ॥ करि किरपा सतिगुरु मेलिओनु मुखि गुरमुखि नामु धिआइसी ॥ सो करे जि सतिगुर भावसी गुरु पूरा घरी वसाइसी ॥ जिन अंदरि नामु निधानु है तिन का भउ सभु गवाइसी ॥ पद्अर्थ: मेलिओनु = मिलाया है उस (प्रभु) ने। मुखि = मूह से। सतिगुर = गुरु को। घरी = घर में, हृदय में। अर्थ: जिस मनुष्य को कृपा करके उस प्रभु ने सतिगुरु मिलाया है, वह गुरु के सन्मुख हो के मुंह से नाम स्मरण करता है, और वही कुछ करता है जो सतिगुरु को ठीक लगता है, पूरा सतिगुरु (आगे) उसके हृदय में (‘नाम निधान’) बसा देता है। जिनके हृदय में नाम का खजाना (बस जाता) है, सतिगुरु उनका सारा डर दूर कर देता है। जिन रखण कउ हरि आपि होइ होर केती झखि झखि जाइसी ॥ जन नानक नामु धिआइ तू हरि हलति पलति छोडाइसी ॥१॥ पद्अर्थ: हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में।1। अर्थ: जिनकी रक्षा करने के लिए प्रभु खुद (तैयार) हो, और कितनी ही दुनिया खप खप मरे (अर्थात जोर लगा ले) (पर, उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती)। (इस वास्ते) हे नानक! तू नाम जप, प्रभु इस लोक में और परलोक में (हरेक किस्म के डर से) बचा लेगा।1। मः ४ ॥ गुरसिखा कै मनि भावदी गुर सतिगुर की वडिआई ॥ हरि राखहु पैज सतिगुरू की नित चड़ै सवाई ॥ अर्थ: गुरसिखों के मन को अपने सतिगुरु की महिमा प्यारी लगती है। हे प्रभु! तू सतिगुरु की पैज रखता है, और सतिगुरु की महिमा दिनो दिन बढ़ती है। गुर सतिगुर कै मनि पारब्रहमु है पारब्रहमु छडाई ॥ गुर सतिगुर ताणु दीबाणु हरि तिनि सभ आणि निवाई ॥ पद्अर्थ: ताणु = ताकत। दीबाणु = आसरा। तिनि = उस (प्रभु) ने। आणि = ला के। अर्थ: जो पारब्रहम (सब जीवों को विकार आदि से) बचा लेता है, वह पारब्रहम गुरु सतिगुरु के मन में (सदा बसता है)। प्रभु ही सतिगुरु का बल व आसरा है, उस प्रभु ने ही सारे जीव सतिगुरु के आगे ला निवाए हैं। जिनी डिठा मेरा सतिगुरु भाउ करि तिन के सभि पाप गवाई ॥ हरि दरगह ते मुख उजले बहु सोभा पाई ॥ जनु नानकु मंगै धूड़ि तिन जो गुर के सिख मेरे भाई ॥२॥ पद्अर्थ: धूड़ि तिन = उनके (चरणों) की धूल।2। अर्थ: जिन्होंने (हृदय में) प्यार रख के प्यारे सतिगुरु के दर्शन किए हैं, सतिगुरु उनके सारे पाप दूर कर देता है, हरि की दरगाह में वह खिले माथे जाते हैं, और उनकी बड़ी शोभा होती है। जो मेरे भाई सतिगुरु के (इस प्रकार के) सिख हैं, दास नानक उनके चरणों की धूल माँगता है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |