श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी चेती    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

हरि जसु सुनहि न हरि गुन गावहि ॥ बातन ही असमानु गिरावहि ॥१॥

पद्अर्थ: जसु = यश, महानता, बड़ाई, महिमा। बातन ही = बातों से ही, निरी शेखी भरी बातों से।1।

अर्थ: (कई मनुष्य खुद) ना कभी प्रभु की महिमा सुनते हैं, ना हरि के गुण गाते हैं, पर शेखी भरी बातों से (जैसे) आसमान गिरा लेते हैं।1।

ऐसे लोगन सिउ किआ कहीऐ ॥ जो प्रभ कीए भगति ते बाहज तिन ते सदा डराने रहीऐ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सिउ = साथ, को। किआ कहीऐ = क्या कहें? समझाने का कोई फायदा नहीं। कीए = किए, बनाए। बाहज = बिना, खाली, बगैर। भगति ते बाहज कीए = भक्ति से वंचित रखे। डराने रहीऐ = डरते रहें, दूर-दूर ही रहना ठीक है।1। रहाउ।

अर्थ: ऐसे लोगों को समझाने का भी कोई फायदा नहीं, जिन्हें प्रभु ने भक्ति से वंचित रखा है (उन्हें समझाने की जगह बल्कि) उनसे सदा दूर-दूर ही रहना चाहिए।1। रहाउ।

आपि न देहि चुरू भरि पानी ॥ तिह निंदहि जिह गंगा आनी ॥२॥

पद्अर्थ: न देहि = नहीं देते। चुरू भरि = एक चुल्ली जितना। तिह = उन (मनुष्यों) को। जिह = जिन्होंने। आनी = ले के आए, लाये, बहा दी।2।

अर्थ: (वह लोग) खुद तो (किसी को) एक चुल्ली जितना पानी भी नहीं देते, पर निंदा उनकी करते हैं जिन्होंने गंगा बहा दी हो।2।

बैठत उठत कुटिलता चालहि ॥ आपु गए अउरन हू घालहि ॥३॥

पद्अर्थ: कुटिल = टेढ़ी चालें चलने वाले। कुटिलता = टेढ़ी चालें। आपु = अपने आप से। हू = भी। घालहि = भेजते हैं। (आपु) घालहि = उनको अपने आप से भेज देते हैं, उन्हें अपने असल से दूर कर देते हैं, कुमार्ग पर डाल देते हें, नाश कर देते हैं।3।

अर्थ: बैठते-उठते (हर समय वे) टेढ़ी चालें ही चलते हैं, वे अपने आप से तो गए-गुजरे हैं ही, और लोगों को भी गलत रास्ते पर डालते हैं।3।

छाडि कुचरचा आन न जानहि ॥ ब्रहमा हू को कहिओ न मानहि ॥४॥

पद्अर्थ: कुचर्चा = गलत चर्चा, थोथी बहिस। छाडि = छोड़ के, के बिना। आन = कोई और बात। ब्रहमा हू को कहिओ = ब्रहमा का कहा हुआ भी, बड़े से बड़े समझदार व्यक्ति की बात भी। को = का।4।

अर्थ: फोकी बहिस के बिना वे और कुछ करना जानते ही नहीं, किसी बड़े से बड़े जाने-माने सयाने की बात नहीं मानते।4।

आपु गए अउरन हू खोवहि ॥ आगि लगाइ मंदर मै सोवहि ॥५॥

पद्अर्थ: खोवहि = गवा लेते हैं। मंदर = घर। मै = में।5।

अर्थ: अपने आप से गए-गुजरे वे लोग और लोगों को भी भटकाते हैं, वे (मानो, अपने ही घर को) आग लगा के घर में ही सो रहे हैं।5।

अवरन हसत आप हहि कांने ॥ तिन कउ देखि कबीर लजाने ॥६॥१॥४४॥

पद्अर्थ: हसत = हसते हैं, मजाक उड़ाते हैं। देखि = देख के। लजाने = शर्म आती है।6।

अर्थ: वे खुद तो काणे हैं (कई तरह के विकारों में फंसे हुए हैं) पर औरों का मजाक उड़ाते हैं। ऐसे लोगों को देख के, हे कबीर! शर्म आती है।6।1।14।

शब्द का भाव: शेखी-बाज बंदों पर किसी की शिक्षा का असर नहीं हो सकता, वे बल्कि और लोगों को भी बिगाड़ने का यत्न करते हैं। ऐसे लोगों से परे ही रहना ठीक होता है।44।

नोट: इस शब्द के 6 बंद हैं; अगले अंक नं: 1 का भाव ये है कि यह ‘गउड़ी चेती’ का पहला शब्द है। कबीर जी के शबदों के सिलसिले में ये 44वां शब्द है।

रागु गउड़ी बैरागणि कबीर जी    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

जीवत पितर न मानै कोऊ मूएं सिराध कराही ॥ पितर भी बपुरे कहु किउ पावहि कऊआ कूकर खाही ॥१॥

पद्अर्थ: जीवत = जीते जी। पितर = पित्र, पूर्वज, पिता, दादा, परदादा आदि जो मर के परलोक में जा चुके हैं। सिराध = पित्रों के नमित्त ब्राहमणों को खिलाया हुआ भोजन (मर चुके बुजुर्गों के लिए हिन्दू लोग हर साल अश्विन असू के महीने श्राद्ध करते हैं, ब्राहमणों को भोजन कराते हैं। प्रयोजन ये होता कि खिलाया हुआ भोजन पित्रों को पहुँच जाएगा। श्राद्ध अश्विन असू की पूर्णिमा से शुरू होकर अमावस्या तक रहते हैं; आखिरी श्राद्ध कौओं, कुत्तों का भी होता है। चंद्रमा के हिसाब से जिस तारिख (तिथि) को कोई मरे, श्राद्धों के दिनों में उसी तिथि पर उसका श्राद्ध कराते हैं। ब्राहमणों को खिला के कौओं = कुत्तों को भी श्राद्ध का भोजन खिलाते हैं)। बपुरे = बिचारे। कूकर = कुत्ते।1।

अर्थ: लोग जीवित माता-पिता का तो आदर-मान नहीं करते, पर मर गए पित्रों के नमित्त भोजन खिलाते हैं। विचारे पित्र भला वह श्राद्धों का भोजन कैसे हासिल करें? उसे तो कौए-कुत्ते खा जाते हैं।1।

मो कउ कुसलु बतावहु कोई ॥ कुसलु कुसलु करते जगु बिनसै कुसलु भी कैसे होई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कुसलु = सुख शांति, आनंद।1। रहाउ।

अर्थ: मुझे कोई बताए कि (पित्रों के नमित श्राद्ध खिलाने से पीछे घर में) कुशल-मंगल कैसे हो जाता है? सारा संसार (इसी वहिम-भ्रम में) खप रहा है कि (पित्रों के नमित श्राद्ध करने से घर में) सुख-आनंद बना रहता है।1। रहाउ।

माटी के करि देवी देवा तिसु आगै जीउ देही ॥ ऐसे पितर तुमारे कहीअहि आपन कहिआ न लेही ॥२॥

पद्अर्थ: करि = बना के। जीउ देही = बकरे आदि की कुर्बानी देते हैं।2।

(नोट: विवाह-शादियों के समय पुराने ख्यालों वाले हिंदू सज्जन अपने घरों में लड़के-लड़की को माईए डालने वाले दिन ‘वडे अडते’ हैं (भाव) घर में एक विशेष स्थान पर पोचा लगा के मिट्टी के ‘वडे’ अर्थात पूर्वजों की मूर्ति बना के उनके आगे पानी का घड़ा भर के रखते हैं। विवाह वाले लड़की और लड़का माथा टेकते हैं, और इस तरह अपने पित्रों से ‘कुशल’ की आशीश लेते हैं)।

अर्थ: मिट्टी के देवी-देवते बना के लोग उस देवी या देवते के आगे (बकरे आदि की) कुर्बानी देते हैं, (हे भाई! इस तरह) के (मिट्टी के बनाए हुए) तुम्हारे पित्र कहलाते हैं (उनके आगे भी जो तुम्हारा चित्त करता है, रख देते हो) वे अपना मुंह मांगा कुछ नहीं ले सकते।2।

सरजीउ काटहि निरजीउ पूजहि अंत काल कउ भारी ॥ राम नाम की गति नही जानी भै डूबे संसारी ॥३॥

पद्अर्थ: सरजीउ = सजीव, जिंद वाले, जीते जी। निरजीउ = निर्जीव, देवते और पित्र जो मिट्टी के बनाए होते हैं। काल = समय। गति = हालत, अवस्था। राम नाम की गति = वह आत्मिक अवस्था जो प्रभु का नाम स्मरण करने से बनती है। संसारी भै = संसारी डर में, लोकाचारी रस्मों के डर में, लोक-लज्जा में।3।

अर्थ: लोग लोकाचार की रस्मों में ग़र्क हो रहे हैं, जीते जी को (देवी-देवताओं के आगे भेटा करने के लिए) मारते हैं (और इस तरह मिट्टी आदि के बनाए हुए) निर्जीव देवताओं को पूजते हैं। अपना भविष्य बर्बाद किए जा रहे हैं (ऐसे लोगों को) उस आत्मिक अवस्था की समझ नहीं पड़ती जो प्रभु का नाम स्मरण करने से बनती है।3।

देवी देवा पूजहि डोलहि पारब्रहमु नही जाना ॥ कहत कबीर अकुलु नही चेतिआ बिखिआ सिउ लपटाना ॥४॥१॥४५॥

पद्अर्थ: डोलहि = डोलते हैं, सहमे रहते हैं। अकुलु = (अ+कुलु) वह प्रभु जो किसी कुल जाति में नहीं पैदा होता। बिखिआ = माया।4।

अर्थ: कबीर कहता है: (ऐसे लोग मिट्टी के बनाए हुए) देवी-देवताओं को पूजते हैं और सहमें भी रहते हैं (क्योंकि असल ‘कुशल’ देने वाले) अकाल-पुरख को वे जानते ही नहीं हैं, वे जाति-कुल रहित प्रभु को नहीं स्मरण करते, वे (सदा) माया के साथ लिपटे रहते हैं।4।1।45।

शब्द का भाव: घर में हर तरह का सुख आनंद बनाए रखने की खातिर भरमीं लोग पित्रों के नमित्त श्राद्ध करते हैं, मिट्टी के देवी-देवते बना के उनके आगे कुर्बानी देते हैं; विवाह-शादियों पर ‘वडे अडते’ हैं, पर फिर भी सहम बना ही रहता है, क्योंकि सुख आनंद के श्रोत प्रभु को बिसार के माया के मोह में जकड़े रहते हैं।45।

गउड़ी ॥ जीवत मरै मरै फुनि जीवै ऐसे सुंनि समाइआ ॥ अंजन माहि निरंजनि रहीऐ बहुड़ि न भवजलि पाइआ ॥१॥

पद्अर्थ: जीवत मरै = जीते ही मर जाता है, नफ़सानी ख्वाहिशों की ओर से मर जाता है, मन को भटकाने वाली इच्छाएं मार लेता है, मन को विकारों के फुरनों से हटा लेता है। मरै मरै = बार बार मरता है, बार बार यत्न करके (नफ़सानी ख्वाहिशों की ओर से) मरता है। ऐसे = इस तरह के। फुनि = फिर। जीवै = जी पड़ता है। सुंनि = सुंन में, उस हालत में जहाँ विचार शून्य है, वह अवस्था जहाँ विकारों के विचार नहीं उठते। अंजन = कालिख, माया, दुनिया। निरंजनि = निरंजन में, अंजन रहित प्रभु में। बहुड़ि = दुबारा, फिर। भवजलि = भवजल में, बवंडर में।1।

अर्थ: जो मनुष्य बार-बार प्रयत्न करके मन को विकारों के विचारों से हटा लेता है, वह फिर (असल जीवन) जीता है और उस अवस्था में जहाँ विकारों के फुरने नहीं उठते, ऐसे लीन हो जाता है कि माया में रहते हुए भी वह माया-रहित प्रभु में टिका रहता है और दुबारा (माया के) बवंडर में नहीं फंसता।1।

मेरे राम ऐसा खीरु बिलोईऐ ॥ गुरमति मनूआ असथिरु राखहु इन बिधि अम्रितु पीओईऐ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मेरे राम = हे प्यारे प्रभु! खीरु = दूध। बिलोईऐ = मथा जाता है। मनूआ = कमजोर मन। असथिरु राखहु = (हे मेरे राम! तू) अडोल रख। इन बिधि = इस तरीके से (भाव, अगर तू मेरे मन को अडोल रखे।) पीओईऐ = पी लेते हैं।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्यारे प्रभु! मुझे गुरु की मति दे के मेरे कमजोर मन को (माया की ओर से) अडोल रख।

हे प्रभु! तब ही दूध मथा जा सकता है (भाव, स्मरण का सफल उद्यम किया जा सकता है), और इसी तरीके से ही (भाव, अगर तू मेरे मन को अडोल रखे) तेरा नाम-अमृत पीया जा सकता है।1। रहाउ।

गुर कै बाणि बजर कल छेदी प्रगटिआ पदु परगासा ॥ सकति अधेर जेवड़ी भ्रमु चूका निहचलु सिव घरि बासा ॥२॥

पद्अर्थ: के = के द्वारा। गुर कै बाणि = गुरु के (शब्द-रूप) तीर से। बजर = बज्र, कड़ी, कठोर। कल = (मनो-) कल्पना। छेदी = छेद कर दी गई, भेद दी गई। पदु परगासा = प्रकाश का दर्जा, वह हालत जहाँ सही समझ पैदा हो जाती है। सकति = माया। अधेरा = अंधकार। जेवड़ी = रस्सी। भ्रमु = भ्रम, भुलेखा। सिव घरि = शिव के घर में, सदा आनंदित रहने वाले प्रभु के चरणों में। निहचलु बासा = अटल ठिकाना।2।

अर्थ: जिस मनुष्य ने सतिगुरु के (शब्द रूप) तीर से बज्र रूपी कठोर मनो कल्पना भेद ली है (भाव, मन के विकारों की दौड़ रोक ली है) उसके अंदर प्रकाश-पद पैदा हो जाता है (भाव, उसके अंदर वह अवस्था बन जाती है जहाँ ऐसा आत्मिक प्रकाश हो जाता है कि माया के अंधेरे में नहीं फंसता)। (जैसे अंधकार में) रस्सी (को साँप समझने) का भुलेखा (पड़ता है और रोशनी होने पर वह भुलेखा मिट जाता है वैसे ही) माया के (प्रभाव-रूपी) अंधेरे में (विकारों को ही सही समझ लेने का भुलेखा) ‘नाम’ के प्रकाश के साथ मिट जाता है, और उस मनुष्य का निवास सदा-आनंदित रहने वाले प्रभु के चरणों में सदा के लिए हो जाता है।2।

तिनि बिनु बाणै धनखु चढाईऐ इहु जगु बेधिआ भाई ॥ दह दिस बूडी पवनु झुलावै डोरि रही लिव लाई ॥३॥

पद्अर्थ: तिनि = उस मनुष्य ने (जिस ने ‘गुर कै बाणि बजर कल छेदी’)। बाण = तीर। बेधिआ = बेध दिया है। भाई = हे सज्जन! दहदिस = दसों दिशाओं में। बूडी = गुड्डी, पतंग। पवनु = हवा। झुलावै = झकोले देती है, उड़ाती है। डोरि = तवज्जो की डोरी।3।

अर्थ: हे सज्जन! (जिस मनुष्य ने गुरु के शब्द रूपी तीर का आसरा लिया है) उसने (मानो) तीर-कमान चलाए बिना ही इस जगत को जीत लिया है (भाव, माया का जोर अपने ऊपर नहीं पड़ने दिया); (दुनिया के काम-काज रूपी) हवा उसकी (जिंदगी की) पतंग को (चाहे देखने मात्र) को दशों-दिशाओं में उड़ाती है (भाव, चाहे जीवन-निर्वाह की खातिर वह काम-काज करता है), पर, उसकी तवज्जो की डोर (प्रभु के साथ) जुड़ी रहती है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh