श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी ॥ निंदउ निंदउ मो कउ लोगु निंदउ ॥ निंदा जन कउ खरी पिआरी ॥ निंदा बापु निंदा महतारी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: लोगु निंदउ = बेशक जगत निंदा करे। मो कउ = मुझे। जन कउ = प्रभु के सेवक को। खरी = बहुत। महतारी = माँ।1। रहाउ।

नोट: ‘निंदउ’ हुकमी भविष्यत्, imperative mood, अन पुरख, एकवचन।

अर्थ: जगत बेशक मेरी निंदा करे, बेशक मेरे अवगुण भंडे; प्रभु के सेवक को अपनी निंदा होती अच्छी लगती है, क्योंकि निंदा सेवक की माँ-बाप है (भाव, जैसे माँ-बाप अपने बच्चे में शुभ गुण बढ़ते हुए देखना चाहते हैं, वैसे ही निंदा भी अवगुणों को सामने ला के भले गुणों के लिए सहायता करती है)।1। रहाउ।

निंदा होइ त बैकुंठि जाईऐ ॥ नामु पदारथु मनहि बसाईऐ ॥ रिदै सुध जउ निंदा होइ ॥ हमरे कपरे निंदकु धोइ ॥१॥

पद्अर्थ: बैकुंठि = बैकुंठ में। मनहि = मन में। बसाईऐ = बसाया जा सकता है। रिदै सुध = पवित्र हृदय होते हुए। जउ = अगर। कपरे = कपड़े धोता है, मन के विकारों की मैल दूर करता है।1।

अर्थ: अगर लोग अवगुण सामने लाएं तभी बैकुंठ जा सकते हैं (क्योंकि इस तरह अपने अवगुण छोड़ के) प्रभु का नाम रूपी धन मन में बसा सकते हैं। अगर हृदय शुद्ध होते हुए हमारी निंदा हो (अगर शुद्ध भावना से हम अपने अवगुण नश्र होते सुनें) तो निंदक हमारे मन को पवित्र करने में सहायता करता है।1।

निंदा करै सु हमरा मीतु ॥ निंदक माहि हमारा चीतु ॥ निंदकु सो जो निंदा होरै ॥ हमरा जीवनु निंदकु लोरै ॥२॥

पद्अर्थ: माहि = में। होरै = रोकता है। लोरै = चाहता है। निंदकु = बुरा चितवने वाला।2।

अर्थ: (इसलिए) जो मनुष्य हमें भंडता है, वह हमारा मित्र है, क्योंकि हमारी तवज्जो अपने निंदक में रहती है (भाव, हम अपने निंदक की बात बड़े ध्यान से सुनते हैं)। (दरअसल) हमारा बुरा चितवने वाला मनुष्य वह है, जो हमारे ऐब नश्र होने से रोकता है। निंदक तो बल्कि ये चाहता है कि हमारा जीवन अच्छा बने।2।

निंदा हमरी प्रेम पिआरु ॥ निंदा हमरा करै उधारु ॥ जन कबीर कउ निंदा सारु ॥ निंदकु डूबा हम उतरे पारि ॥३॥२०॥७१॥

पद्अर्थ: उधारु = बचाव। सारु = श्रेष्ठ धन।3।

अर्थ: ज्यों-ज्यों हमारी निंदा होती है, त्यो-त्यों हमारे अंदर प्रभु का प्रेम प्यार पैदा होता है, क्योंकि हमारी निंदा हमें अवगुणों से बचाती है।

सो, दास कबीर के लिए तो उसके अवगुणों का प्रचार सबसे बढ़िया बात है। पर (बिचारा) निंदक (सदा दूसरों के अवगुणों की बातें कर करके खुद उन अवगुणों में) डूब जाता है, और हम (अपने अवगुणों की चेतावनी से उनसे) बच निकलते हैं।3।20।71।

शब्द का भाव: अगर कोई मनुष्य ठंडे जिगरे से अपने ऐब नश्र (प्रचार) होते सुने, तो वह बल्कि इस तरह अपने अंदर से वह अवगुण ऐब दूर कर सकता है, और अपना जीवन पवित्र बना सकता है। पर, दूसरों के एैब फरोलने वाला अपने अंदर कभी ना झांकने के कारण खुद ही उन ऐबों में डूब जाता है। सो, परमात्मा की बंदगी वाले बंदे अपनी निंदा से घबराते नहीं हैं।71।

राजा राम तूं ऐसा निरभउ तरन तारन राम राइआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: राजा राम = हे सब के मालिक प्रभु! ऐसा = ऐसे स्वभाव वाला, अनोखा सा। तरन = बेड़ी, जहाज। तरन तारन = सब जीवों को तारने के लिए जहाज।1। रहाउ।

अर्थ: हे सब के मालिक प्रभु! हे सब जीवों को तारने के समर्थ राम! हे सब में व्यापक प्रभु! तू किसी से डरता नहीं है; तेरा स्वभाव कुछ अनोखा है।1। रहाउ।

जब हम होते तब तुम नाही अब तुम हहु हम नाही ॥ अब हम तुम एक भए हहि एकै देखत मनु पतीआही ॥१॥

पद्अर्थ: पतीआही = पतीज गया है, मान गया है कि तू ही तू है हम तूझसे अलग कुछ भी नहीं हैं।1

अर्थ: जब तक हम कुछ बनें फिरते हैं (भाव, अहम्-अहंकार करते हैं) तब तक (हे प्रभु!) तू हमारे अंदर प्रकट नहीं होता (अपना प्रकाश नहीं करता), पर जब अब तूने खुद (हममें) निवास किया है तो हमारे में वह पहले वाला अहंकार नहीं रहा। अब (हे प्रभु!) तूम और हम एक-रूप हो गए हैं, अब तुझे देख के हमारा मन मान गया है (कि तू ही तू है, तूझसे अलग हम कुछ भी नहीं हैं)।1।

जब बुधि होती तब बलु कैसा अब बुधि बलु न खटाई ॥ कहि कबीर बुधि हरि लई मेरी बुधि बदली सिधि पाई ॥२॥२१॥७२॥

पद्अर्थ: बलु कैसा = कैसा बल हो सकता था? (भाव, हमारे अंदर आत्मिक बल नहीं था)। न खटाई = समाई नहीं है। हरि लई = छीन ली है।2।

अर्थ: (हे प्रभु!) जितने समय तक हम जीवों में अपनी अक्ल (का अहंकार) होता है तब तक हमारे में कोई आत्मिक बल नहीं होता (भाव, सहमे ही रहते हैं), पर अब (जब तू खुद हमारे में आ प्रगट हुआ है) हमें अपनी अकल और बल पे मान नहीं रहा।

कबीर कहता है: (हे प्रभु!) तूने मेरी (अहंकार वाली) बुद्धि छीन ली है, अब वह बुद्धि बदल गई है (भाव, “मैं मैं’ छोड़ के “तू ही तू” करने वाली हो गई है, इस वास्ते मानव जन्म के उद्देश्य की) सिद्धि हासिल हो गई है।2।21।72।

शब्द का भाव: जब तलक मनुष्य के अंदर अहंकार है, प्रभु का प्रकाश नहीं हो सकता। जब वह खुद अंदर आ बसता है तो अहम् का नाश हो जाता है और अहम् को दूर करना ही मानव जनम का उद्देश्य है।72।

नोट: रविदास जी सोरठ में लिखते हैं;

‘जब हम होते तब तू नाही अब तू ही मै नाही।’

इस तुक को कबीर जी के इस शब्द के अंक नं: 1 की पहली तुक से मिलाएं। शब्दों की ये सांझ बा-सबब नहीं बन गई। कबीर और रविदास जी बनारस के रहने वाले थे, समकाली भी थे। हम-ख्याल होने के कारण दोनों आपस में मेल-जोल भी जरूर रखते होंगे।

गउड़ी ॥ खट नेम करि कोठड़ी बांधी बसतु अनूपु बीच पाई ॥ कुंजी कुलफु प्रान करि राखे करते बार न लाई ॥१॥

पद्अर्थ: खट = छह। नेम = (संस्कृत: नेमि) चक्र, पहिए का ऊपर वाला घेरा। खट नेम = छह जोगी-चक्र (देखें शब्द नं: 47; जोगी लोग शरीर के छह चक्र मानते हैं, प्राणयाम द्वारा प्राणों को नीचे वाले चक्र से खींच के ऊपर वाले चक्र में पहुँचाते हैं। पर इस शब्द में जोगियों के इन चक्रों की तरफ इशारा नहीं प्रतीत होता); पाँच तत्व और छेवाँ मन (शरीर की संरचना पाँच तत्वों से मानी जाती है, और जीव को जनम में लाने वाला इसका ‘मन’ ही मूल कारण है, क्योंकि मन की वासनाएं जीव को भटकाती फिरती हैं। सो, यहाँ ‘खट नेम’ से भाव है पाँच तत्व और छेवां मन)। कोठड़ी = शरीर रूपी छोटा सा घर। बांधी = बनाई। बसतु = चीज। अनूप = (अन+ऊप। ऊप = उपमा) जिसकी उपमा नहीं हो सकती, जिस जैसी और कोई चीज नहीं। बसतु अनूप = वह चीज जिस जैसी और कोई चीज बताई नहीं जा सकती, परमात्मा की अपनी ज्योति। बीच = (उस ‘कोठड़ी’) में। कुलफु = ताला। करते = करते हुए, बनाते हुए। बार न लाई = देर नहीं लगाई।1।

(शब्द ‘बार’ स्त्रीलिंग है, क्योंकि इसकी क्रिया ‘लाई’ भी स्त्रीलिंग है; सो इसका अर्थ ‘दरवाजे’ नहीं जचता)।

अर्थ: छह चक्र बना के (प्रभु ने) ये (मानव-शरीर रूपी) छोटा सा घर रच दिया है और (इस घर) में (अपनी आत्मिक ज्योति रूप) आश्चर्य वस्तु रख दी है; (इस घर की) ताला चाभी (प्रभु ने) प्राणों को ही बना दिया है, और (ये खेल) बनाते हुए वह देर नहीं लगाता।1।

अब मन जागत रहु रे भाई ॥ गाफलु होइ कै जनमु गवाइओ चोरु मुसै घरु जाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! रे भाई = हे भाई! रे भाई मन = हे प्यारे मन! गाफलु = बेपरवाह। मुसै घरु = घर को लूटता है। जाई = जा के।1। रहाउ।

अर्थ: (इस घर में रहने वाले) हे प्यारे मन! अब जागता रह, बेपरवाह हो के तूने (अब तक) जीवन व्यर्थ गवा लिया है; (जो कोई भी गाफ़िल होता है) चोर जा के उसका घर लूट लेता है।1। रहाउ।

पंच पहरूआ दर महि रहते तिन का नही पतीआरा ॥ चेति सुचेत चित होइ रहु तउ लै परगासु उजारा ॥२॥

पद्अर्थ: पंच पहरूआ = पाँच पहरेदार, पाँच ज्ञान-इंद्रिय (आँख, कान, नाक, जीभ, चमड़ी, इन पाँचों के द्वारा बाहरी पदार्थों की खबर दिमाग में पहुँचती है। शरीर को किसी तरह का खतरा आता है, वह भी इनके द्वारा ही पता लगता है, पर किसी चस्के की ओर, किसी विकार की तरफ प्रेरणा भी इनके द्वारा ही होती है। आँखें अगर पराया रूप देखने के चस्के में फसी हुई हों तो नेक जीवन पर पहरा देने की जगह ये विकारों की ओर प्रेरित करेंगीं। इसी तरह बाकी के ज्ञानेन्द्रिये)। दर महि = शरीर रूपी छोटे से घर के दरवाजे पर। पतीआरा = एतबार, विश्वास। सुचेत चित होइ = होशियार हो के। उजारा = उजाला, निखार। लै उजारा = निखर आना। परगासु = प्रकाश।2।

अर्थ: (ये जो) पाँचों पहरेदार (इस घर के) दरवाजों पे रहते हैं, इनका कोई भरोसा नहीं। होशियार हो के रह और (मालिक को) याद रख तब (तेरे अंदर आत्मिक ज्योति का) प्रकाश निखर आएगा।2।

नउ घर देखि जु कामनि भूली बसतु अनूप न पाई ॥ कहतु कबीर नवै घर मूसे दसवैं ततु समाई ॥३॥२२॥७३॥

पद्अर्थ: नउ घर = नौ गोलकें (दो कान, दो आँखें, दो नासिकाएं, मुंह, इन्द्रीय, गुदा; ये नौ ही रंध्र जो शरीर की क्रिया चला रहे हैं)। देखि = देख के। जु = जो। कामनि = जीव-स्त्री। नवै घर मूसे = जब नौ ही गोलकें ठगी जाती हैं, जब नौ ही घर वश में आ जाते हैं। दसवैं = दसवें घर में, दसवें द्वार में, दिमाग़ में (सोच विचार का काम मनुष्य के दिमाग़ को कुदरत ने सौंपा है, इसलिए इसे दसवाँ घर, दसवाँ द्वार कहा जाता है। जब तक शरीर की नौ गोलकें निरी शारीरिक क्रियाओं की ओर मन को लगाए रखती हैं, निरे संसारी कामों-धंधों में जोड़े रखती हैं, तब तक मनुष्य अपने आप को निरा शरीर ही समझे रखता है, निरे शरीर की परवरिश में मस्त रहता है, अंदर बसती आत्मिक ज्योति का ख्याल कभी नहीं आता।) ततु = अस्लियत, परमात्मा की ज्योति।3।

अर्थ: जो जीव-स्त्री (शरीर के) नौ घरों (नौ गोलकों दरवाजों, जो शरीर की क्रिया चलाने के लिए हैं) को देख के (अपने असल उद्देश्य से) रह जाती है, उसे (ज्योति रूप) आश्चर्य चीज (अंदर) नहीं मिलती (भाव, उसका ध्यान अंदर बसती आत्मिक ज्योति की ओर नहीं जाता)। कबीर कहता है जब ये नौ ही घर बस में आ जाते हैं, तो प्रभु की ज्योति दसवें घर में टिक जाती है (भाव, तब अंदर बसते प्रभु के अस्तित्व का विचार जीव को आता है, तभी तवज्जो प्रभु की याद में टिकती है)।3।22।73।

शब्द का भाव: काम-क्रोध आदि कोई विकार तब तक मनुष्य का जीवन बिगाड़ता रहता है, जब तक मनुष्य प्रभु की याद से गाफ़िल है। ये ज्ञान-इंद्रिय भी अन्य बुरी तरफ ही प्रेरित करती रहती हैं। नाम जपना ही एक ऐसी दाति है, जिसकी इनायत से आत्मिक जीवन विकारों की धुंध में से निकल के निखर के आता है।73।

गउड़ी ॥ माई मोहि अवरु न जानिओ आनानां ॥ सिव सनकादि जासु गुन गावहि तासु बसहि मोरे प्रानानां ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: माई = हे माँ! मोहि = मैंने। अवरु = और। न जानिओ = नहीं जाना, जीवन का आसरा नहीं समझा। अनानां = आन, अन्य, कोई और। सनकादि = सनक आदि, सनक आदि ब्रहमा के चारों पुत्र। जासु गुन = जिस के गुण। तासु = उस (प्रभु) में। प्रानानां = प्राण।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरी) माँ! मैंने किसी और को (अपने जीवन का आसरा) नहीं समझा, (क्योंकि) मेरे प्राण (तो) उस (प्रभु) में बस रहे हैं जिसके गुण शिव और सनक आदि गाते हैं।1। रहाउ।

हिरदे प्रगासु गिआन गुर गमित गगन मंडल महि धिआनानां ॥ बिखै रोग भै बंधन भागे मन निज घरि सुखु जानाना ॥१॥

पद्अर्थ: प्रगासु = प्रकाश। गंमति = पहुँचाया, दिया, बख्शा (संस्कृत: गम = जाना, पहुँचना। क्रिया ‘गम’ से ‘प्रेरणार्थक क्रिया’ गमय का अर्थ है पहुँचाना, देना, बख्शना)। गगन महि = आकाश में (भाव, दुनिया के पदार्थों में से उठ के उच्च मण्डलों में, प्रभु चरणों में)। धिआनानां = ध्यान (लग गया)। बिखै = विषौ। निज घरि = अपने घर में, अंदर ही। जानाना = जाना, जान लिया।1।

अर्थ: जब से सतिगुरु ने ऊँची सूझ बख्शी है, मेरे हृदय में, (मानो) प्रकाश हो गया है, और मेरा ध्यान ऊँचे मण्डलों में (भाव, प्रभु चरणों में) टिका रहता है। विषौ-विकार आदिक आत्मिक रोगों और सहम की जंजीरें टूट गई हैं, मुझे मन के अंदर ही सुख मिल गया है।1।

एक सुमति रति जानि मानि प्रभ दूसर मनहि न आनाना ॥ चंदन बासु भए मन बासन तिआगि घटिओ अभिमानाना ॥२॥

पद्अर्थ: एकसु = एक (प्रभु) में ही। मति = बुद्धि। रति = प्यार, लगन। जानि = जान के, समझ के। मानि = मान के, पतीज के। मनहि = मन में। अनाना = आना, लाए। बसु = सुगंधि। मन बासन = मन की वासनाएं। तिआगि = त्याग के।2।

नोट: शब्द ‘तिआगि’ का अर्थ है ‘त्याग के’। शब्द ‘घटिओ’ व्याकरण के अनुसार ‘भूतकाल’ है, जैसे इसी ही शब्द के शब्द ‘जानिआ’, ‘बसिओ’ और प्रगटिओ’ हैं; घटिओ = कम हो गया, घट गया। जानिओ = जाना, जान लिया। बसिओ = बसा, बस गया। प्रगासिओ = प्रकाशित हुआ, चमक पड़ा। सो, शब्द ‘घटिओ’ का अर्थ ‘घटता घटता’ नहीं हो सकता। ना ही इसका अर्थ ‘घट में से’ हो सकता है; उस हालत में ये शब्द होने चाहिए था ‘घटहु’, जैसे ‘मनहु’ = मन से, मन में से। शब्द ‘तिआगि’ की तरह ही जीनि = जान के। मानि = मान के। काटि = काट के। भेटि = भेट के मिल के।

अर्थ: मेरी बुद्धि का प्यार एक प्रभु में ही बन गया है। एक प्रभु को (आसरा) समझ के (और उस में) पतीज के, मैं किसी और को अब मन में नहीं लगाता (भाव, किसी और की ओट नहीं देखता)। मन की वासनाएं त्याग के (मेरे अंदर जैसे) चंदन की सुगंधि पैदा हो गई है, (मेरे अंदर से) अहंकार कम हो गया है (भाव, मिट गया है)।2।

जो जन गाइ धिआइ जसु ठाकुर तासु प्रभू है थानानां ॥ तिह बड भाग बसिओ मनि जा कै करम प्रधान मथानाना ॥३॥

पद्अर्थ: तसु = उस (मनुष्य के हृदय) में। प्रभू थानानां = प्रभु की जगह, प्रभु का निवास। मनि जाकै = जिस मनुष्य के मन में। करम प्रधान = (उच्च) कर्म प्रगट हो आए हैं। मथनाना = माथे पर।3।

अर्थ: जो मनुष्य ठाकुर का यश गाता है, प्रभु को ध्याता है, प्रभु का निवास उसके हृदय में हो जाता है। और, जिसके मन में प्रभु बस गया, उसके बड़े भाग्य समझो, उसके माथे पर ऊँचे लेख उभर आए (जानो)।3।

काटि सकति सिव सहजु प्रगासिओ एकै एक समानाना ॥ कहि कबीर गुर भेटि महा सुख भ्रमत रहे मनु मानानां ॥४॥२३॥७४॥

पद्अर्थ: काटि = काट के, दूर करके। सकति = माया (का प्रभाव)। सिव सहजु = शिव की सहज अवस्था, परमात्मा का ज्ञान, प्रभु का प्रकाश। एकै एक = सिर्फ एक प्रभु में। गुर भेटि = गुरु को मिल के। भ्रमत रहे = भटकना दूर हो जाती है। मानानां = मान जाता है, पतीज जाता है।4।

अर्थ: माया का प्रभाव दूर करके, जब रूहानी ज्योति का प्रकाश हो गया, तो सदा सिर्फ एक प्रभु में ही मन लीन रहता है। कबीर कहता है, सतिगुरु को मिल के ऊँचा सुख प्राप्त होता है, भटकना समाप्त हो जाती है और मन (प्रभु में) रच जाता है।4।23।74।

नोट: इस शब्द की हरेक तुक के आखिरी शब्द का आखिरी अक्षर ‘ना’ सिर्फ पद-पूर्ति (तुक बंदी) के लिए है, ‘अर्थ’ करने में इसका कोई संबंध नहीं।

शब्द का भाव: सतिगुरु को मिल के जो मनुष्य प्रभु की याद में चित्त जोड़ता है, उसका मन विकारों की ओर से हट के प्रभु के देस की उड़ानें भरता है। वासना समाप्त हो जाने के कारण उसका जीवन पवित्र हो जाता है।74।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh