श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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वडे मेरे साहिबा गहिर ग्मभीरा गुणी गहीरा ॥ कोई न जाणै तेरा केता केवडु चीरा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गहिर = गहरा। गुणी गहीरा = गुणों के कारण गहरा, बेअंत गुणों वाला। चीरा = पाट, चौड़ाई, नदी का पाट।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे बड़े मालिक! तू (मानो, एक) गहरा (समुंदर) है, तू बड़े जिगरे वाला है, और बेअंत गुणों वाला है। कोई भी जीव नहीं जानता कि तेरा विस्तार कितना बड़ा है।1। रहाउ।

सभि सुरती मिलि सुरति कमाई ॥ सभ कीमति मिलि कीमति पाई ॥ गिआनी धिआनी गुर गुर हाई ॥ कहणु न जाई तेरी तिलु वडिआई ॥२॥

पद्अर्थ: सभि = सभी ने। सुरती = तवज्जो, ध्यान। सभि मिलि = सभी ने मिल के, एक दूसरे की सहायता ले के। सुरति कमाई = समाधि लगाई। गुर = बड़े। गुर भाई = बड़ों के भाई, ऐसे ही और कोई बड़े। गुर गुरहाई = कई बड़े-बड़े प्रसिद्ध।

(नोट: ये शब्द ‘गुर गुरहाई’, शब्द ‘ज्ञानी-ध्यानी’ का विशेषण है)।

गिआनी = ज्ञानी, विचारवान, ऊँची समझ वाले। धिआनी = तवज्जो जोड़ने वाले। तिलु = रत्ती भर भी।2।

अर्थ: (तू कितना बड़ा है; ये बात जानने के लिए) समाधियां लगाने वाले कई बड़े-बड़े प्रसिद्ध जोगियों ध्यान जोड़ने के यत्न किए, बार-बार प्रयत्न किए; बड़े-बड़े प्रसिद्ध (शास्त्र-वेत्ताओं) विचारवानों ने आपस में एक दूसरे की सहायता लेकर तेरे बराबर की कोई हस्ती तलाशने की कोशिश की, पर तेरी महानता का एक तिल जितना भी नहीं बता सके (गुर गुरहाई धियानी सभि मिलि सुरति कमाई, सुरति कमाई, गुर गुरहाई गिआनी सभ मिलि कीमति पाई कीमति पाई)।2।

सभि सत सभि तप सभि चंगिआईआ ॥ सिधा पुरखा कीआ वडिआईआं ॥ तुधु विणु सिधी किनै न पाईआ ॥ करमि मिलै नाही ठाकि रहाईआ ॥३॥

पद्अर्थ: सभि सत = सारे भले काम। तप = कष्ट, मुश्किलें। चंगिआईआं = अच्छे गुण। सिध = पहुँचे हुए, जीवन में सफल हुए मनुष्य। सिधी = सफलता, कामयाबी। करमि = मेहर से,बख्शिश से। ठाकि = वर्ज के, रोक के।3।

अर्थ: (विचारवान क्या और सिद्ध योगी क्या? तेरी महानता का अंदाजा तो कोई भी नहीं लगा सका; पर विचारवानों के) सारे भले काम, सारे तप, सारे अच्छे गुण, सिद्ध लोगों की (रिद्धियां-यिद्धियां आदि) बड़े-बड़े काम-किसी को भी ये कामयाबी तेरी सहायता के बिना हासिल नहीं हुई। (जिस किसी को सफलता हासिल हुई है) तेरी मेहर से प्राप्त हुई है, और कोई और (व्यक्ति) इस प्राप्ति के राह में रुकावट नहीं डाल सका।3।

आखण वाला किआ बेचारा ॥ सिफती भरे तेरे भंडारा ॥ जिसु तूं देहि तिसै किआ चारा ॥ नानक सचु सवारणहारा ॥४॥१॥

पद्अर्थ: सिफती = सिफतों से, गुणों से। चारा = जोर, तदबीर, प्रयत्न।4।

अर्थ: (हे प्रभु!) तेरे गुणों के (मानो) खजाने भरे पड़े हैं। जीव की क्या मजाल (स्मर्था) है कि इन गुणों को बयान कर सके? जिसे तू महिमा करने की दाति बख्शता है, उसके राह में रुकावट डालने के लिए किसी का जोर नहीं चल सकता, क्योंकि, हे नानक! (कह: तू) सदा कायम रहने वाला प्रभु उस (भाग्यशाली) को सवारने वाला ख़ुद है।4।1।

नोट: शीर्षक पढ़ें। ‘चउपदे’ का अर्थ है ‘चार पद, चार बंद’। इन शबदों के चार-चार बंद हैं।

आसा महला १ ॥ आखा जीवा विसरै मरि जाउ ॥ आखणि अउखा साचा नाउ ॥ साचे नाम की लागै भूख ॥ तितु भूखै खाइ चलीअहि दूख ॥१॥

पद्अर्थ: आखा = मैं कहता हूँ, मैं उचारता हूँ। जीवा = जीऊँ, मैं जीता हूँ, मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है। तितु भूखै = इस भूख के कारण। खाइ = (नाम भोजन) खा के। चलीअहि = नाश किए जाते हैं।1।

अर्थ: ज्यों-ज्यों मैं प्रभु का नाम उचारता हूँ मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है। जब मुझे नाम भूल जाता है, मेरी आत्मिक मौत होने लग जाती है। (ये पता होते हुए भी प्रभु का) सदा स्थिर नाम स्मरणा (एक) मुश्किल काम है। (जिस मनुष्य के अंदर) प्रभु के सदा स्थिर नाम के नाम जपने की भूख पैदा होती है, इस भूख की इनायत से (नाम भोजन) खा के उसके सारे दुख दूर हो जाते हैं।1।

सो किउ विसरै मेरी माइ ॥ साचा साहिबु साचै नाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मेरी माइ = हे मेरी माँ! सचा = सदा कायम रहने वाला। साचै = सच्चे के द्वारा। नाइ = नाम के द्वारा, ज्यों ज्यों सदा स्थिर प्रभु का नाम स्मरण करें। किउ विसरै = कभी ना बिसरे।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरी माँ! (अरदास कर कि) वह प्रभु मुझे कभी ना भूले। ज्यों-ज्यों उस सदा स्थिर रहने वाले का नाम स्मरण करें, त्यों-त्यों वह सदा स्थिर रहने वाला मालिक (मन में बसता है)।1। रहाउ।

साचे नाम की तिलु वडिआई ॥ आखि थके कीमति नही पाई ॥ जे सभि मिलि कै आखण पाहि ॥ वडा न होवै घाटि न जाइ ॥२॥

पद्अर्थ: सभि = सारे जीव। आखण पाहि = कहने का यत्न करें।2।

अर्थ: सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के नाम की रत्ती जितनी भी महिमा (सारे जीव) बयान करके थक गए है (बयान नहीं कर सकते)। कोई भी बता नहीं सका कि उसके बराबर की कौन सी और हस्ती है। अगर (जगत के) सारे ही जीव मिल के (परमात्मा की महिमा) बयान करने का यत्न करें, तो वह परमात्मा (अपने असल से) बड़ा नहीं हो जाता (और अगर कोई उसकी महिमा का बखान ना करे) तो वह (पहले से) कम नहीं हो जाता।2।

ना ओहु मरै न होवै सोगु ॥ देंदा रहै न चूकै भोगु ॥ गुणु एहो होरु नाही कोइ ॥ ना को होआ ना को होइ ॥३॥

पद्अर्थ: गुणु एहो = यह ही (उसकी) खूबी है। होआ = हुआ है। ना होइ = नहीं होगा।3।

अर्थ: वह परमात्मा कभी मरता नहीं, ना ही (उसकी खातिर) सोग होता है। वह प्रभु सदा (जीवों को रिज़क) देता है। उसकी दी हुई दातों का वितरण कभी खत्म नहीं होता (भाव, जीव उस की दी हुई दातें सदैव बरतते हैं पर वे खत्म नहीं होतीं)। उस प्रभु की बड़ी खूबी ये है कि कोई और उस जैसा नहीं है, (उस जैसा अभी तक) ना कोई हुआ है ना ही कभी होगा।3।

जेवडु आपि तेवड तेरी दाति ॥ जिनि दिनु करि कै कीती राति ॥ खसमु विसारहि ते कमजाति ॥ नानक नावै बाझु सनाति ॥४॥२॥

पद्अर्थ: जेवडु = जितना बड़ा। तेवड = उतनी बड़ी। जिनि = जिस ने। कमजाति = बुरी अथवा नीच जाति वाली। सनाति = नीच।4।

अर्थ: (हे प्रभु!) जितना (बेअंत तू) खुद है, उतनी (बेअंत) तेरी बख्शिश है, (तू ऐसा है) जिसने दिन बनाया है और रात बनाई है।

हे नानक! वह लोग बुरी अस्लियत वाले (बन जाते) हैं जो पति-प्रभु को बिसारते हैं। नाम से वंचित हुए जीव नीच हैं।4।2।

आसा महला १ ॥ जे दरि मांगतु कूक करे महली खसमु सुणे ॥ भावै धीरक भावै धके एक वडाई देइ ॥१॥

पद्अर्थ: दरि = (प्रभु के) दर पे। मांगतु = कोई भिखारी (चाहे किसी भी जाति का हो)। कूक = पुकार, फरियाद। महली = महल का मालिक। धीरक = धीरज, हौसला। देइ = देता है।1।

अर्थ: कोई भिखारी (चाहे किसी भी जाति का हो) प्रभु के दर पे पुकार करे, तो वह महल का मालिक पति-प्रभु (उसकी पुकार) सुन लेता है। (फिर) उसकी मर्जी, हौसला दे, उसकी मर्जी धक्के दे (भिखारी की अरदास सुन लेने में ही) प्रभु उसे इज्जत ही दे रहा है।1।

जाणहु जोति न पूछहु जाती आगै जाति न हे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जाणहु = पहचानो। आगै = परलोक में।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! सभी में एक प्रभु की ज्योति समझ के किसी की भी जाति ना पूछो (क्योंकि) आगे (परलोक में) किसी की जाति साथ नहीं जाती।१। रहाउ।

आपि कराए आपि करेइ ॥ आपि उलाम्हे चिति धरेइ ॥ जा तूं करणहारु करतारु ॥ किआ मुहताजी किआ संसारु ॥२॥

पद्अर्थ: उलाम्हे = शिकायतें, गिले-शिकवे। चिति धरेइ = चित में धरता है, सुनता है।2।

अर्थ: (हरेक जीव के अंदर व्यापक हो के) प्रभु खुद ही (प्रेरणा करके जीव से पुकार) करवाता है, (हरेक में व्यापक हो के) खुद ही (पुकार) करता है, खुद ही प्रभु (हरेक जीव के) गिले-शिकवे सुनता है। जब (हे प्रभु! किसी जीव को तू ये निश्चय करा देता है कि) तू विधाता सब कुछ करने के समर्थ (सिर पर रक्षक) है, तो उसे (जगत की) कोई मुहताजी नहीं रहती, जगत उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता।2।

आपि उपाए आपे देइ ॥ आपे दुरमति मनहि करेइ ॥ गुर परसादि वसै मनि आइ ॥ दुखु अन्हेरा विचहु जाइ ॥३॥

पद्अर्थ: आपे = खुद ही। मनहि करेइ = रोकता है, वर्जता है। मनि = मन मे।3।

अर्थ: परमात्मा खुद ही जीवों को पैदा करता है, खुद ही (सबको रिज़क आदि) देता है। प्रभु खुद ही जीवों को बुरी मति से बचाता है। गुरु की कृपा से प्रभु जिसके मन में आ बसता है, उसके अंदर से डर दूर हो जाता है, अज्ञानता मिट जाती है।3।

साचु पिआरा आपि करेइ ॥ अवरी कउ साचु न देइ ॥ जे किसै देइ वखाणै नानकु आगै पूछ न लेइ ॥४॥३॥

पद्अर्थ: अवरी कउ = और लोगों को आदर्श से अभी नीचे हैं। वखाणै = कहता है। पूछ न लेइ = लेखा नहीं मांगता।4।

अर्थ: प्रभु खुद ही जीवों के मन में अपना स्मरण प्यारा बनाता है (स्मरण का प्यार पैदा करता है); जिनके अंदर प्यार की अभी कमी है, उन्हें खुद ही नाम जपने की दाति नहीं देता। नानक कहता है जिस किसी को नाम जपने की दाति प्रभु देता है उससे फिर कर्मों का लेखा नहीं मांगता (भाव, वह जीव कोई ऐसे कर्म करता ही नहीं जिससे उसकी कोई खिचाई हो)।4।3।

आसा महला १ ॥ ताल मदीरे घट के घाट ॥ दोलक दुनीआ वाजहि वाज ॥ नारदु नाचै कलि का भाउ ॥ जती सती कह राखहि पाउ ॥१॥

पद्अर्थ: ताल = छैणे। मदीरे = घुंघरू, झांझरें। घट = हृदय। घाट = रास्ता। घट के घाट = मन के रास्ते, संकल्प विकल्प। दोलक = ढोलकी। दुनिया = दुनिया का मोह। वाजहि = बज रहे हैं। वाज = बाजे, साज। नारदु = मन। कलि = कलियुग। भाउ = प्रभाव। कह = कहाँ? पाउ = पैर। जती...पाउ = जती सती कहां पैर रखें? जत सत को संसार में जगह नहीं रही।1।

अर्थ: (मनुष्य के) मन के संकल्प-विकल्प (जैसे) छैणे और पैरों के घुंघरू हैं, दुनिया का मुंह ढोलकी है; ये बाजे बज रहे हैं, और (प्रभु के नाम से सूना) मन (माया के हाथों पे) नाच रहा है। (इसे कहते हैं) कलियुग का प्रभाव। जत-सत को संसार में कहीं जगह नहीं रही।1।

नानक नाम विटहु कुरबाणु ॥ अंधी दुनीआ साहिबु जाणु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: नानक = हे नानक! विटहु = से। अंधी = अंधी। जाणु = सुजान, आँखों वाला।1। रहाउ।

अर्थ: हे नानक! परमात्मा के नाम से सदके हो। (नाम के बिना) दुनिया (माया में) अंधी हो रही है, ये मालिक प्रभु स्वयं ही आँखों वाला है (उसकी शरण पड़ने से ही जिंदगी का सही रास्ता दिख सकता हैं1। रहाउ।

गुरू पासहु फिरि चेला खाइ ॥ तामि परीति वसै घरि आइ ॥ जे सउ वर्हिआ जीवण खाणु ॥ खसम पछाणै सो दिनु परवाणु ॥२॥

पद्अर्थ: पासहु = से। फिरि = उल्टा, बल्कि। खाइ = खाता है। तामि = मुआम, रोटी। घरि = घर में, गुरु के घर में। वसै घरि आइ = (गुरु के) घर में आ बसता है, गुरु का चेला आ बनता है। परवाणु = स्वीकार, भाग्यशाली।2।

अर्थ: (चेले ने गुरु की सेवा करनी होती है, अब) बल्कि चेला ही गुरु से उदर-पूर्ति करवाता है, रोटी की खातिर ही चेला आ बनता है। (इस हालत में) अगर सौ साल मनुष्य जी ले, और आराम का खाना-पीना बना रहे (तो भी ये उम्र व्यर्थ ही समझो)। (जिंदगी का सिर्फ) वही दिन भाग्यशाली है जब मनुष्य अपने मालिक प्रभु से सांझ पाता है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh