श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 365 एहा भगति जनु जीवत मरै ॥ गुर परसादी भवजलु तरै ॥ गुर कै बचनि भगति थाइ पाइ ॥ हरि जीउ आपि वसै मनि आइ ॥४॥ पद्अर्थ: परसादी = प्रसादि, कृपा से। भवजलु = संसार समुंदर। थाइ पाइ = स्वीकार हो जाती है। थाइ = जगह में, लेखे मे। मनि = मन में।4। अर्थ: असल भक्ति यही है कि (जिसकी इनायत से) मनुष्य दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ ही माया के मोह से अछोह हो जाता है, और गुरु की कृपा से संसार-समुंदर (के विकारों की लहरों) से पार लांघ जाता है। गुरु के उपदेश अनुसार की हुई भक्ति (प्रभु के दर पर) स्वीकार होती है, प्रभु स्वयं ही मनुष्य के मन में आ बसता है।4। हरि क्रिपा करे सतिगुरू मिलाए ॥ निहचल भगति हरि सिउ चितु लाए ॥ भगति रते तिन्ह सची सोइ ॥ नानक नामि रते सुखु होइ ॥५॥१२॥५१॥ पद्अर्थ: निहचल = ना डोलने वाली। सिउ = साथ। सोइ = शोभा। सची = सदा स्थिर। नामि = नाम में।5। अर्थ: (पर, जीव के भी क्या वश? जिस मनुष्य पर) परमात्मा मेहर करता है उसे गुरु मिलाता है (गुरु की सहायता से) वह ना डोलने वाली भक्ति करता है और परमात्मा से अपना चित्त जोड़े रखता है। हे नानक! जो मनुष्य (परमात्मा की) भक्ति (के रंग) में रंगे जाते हैं उन्हें सदा कायम रहने वाली शोभा मिलती है। परमात्मा के नाम-रंग में रंगे हुओं को आत्मिक आनंद मिलता है।5।12।51। आसा घरु ८ काफी महला ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हरि कै भाणै सतिगुरु मिलै सचु सोझी होई ॥ गुर परसादी मनि वसै हरि बूझै सोई ॥१॥ पद्अर्थ: भाणै = रजा अनुसार। सचु = सदा स्थिर प्रभु। मनि = मन में। सोई = वही मनुष्य।1। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा की रजा अनुसार गुरु मिलता है (जिसे गुरु मिल जाता है, उसे) सदा कायम रहने वाला प्रभु मिल जाता है, (और उसे सही जीवन-जुगति की) समझ आ जाती है। जिस मनुष्य के मन में गुरु की किरपा से परमातमा आ बसता है, वही मनुष्य परमात्मा के साथ सांझ पाता है।1। मै सहु दाता एकु है अवरु नाही कोई ॥ गुर किरपा ते मनि वसै ता सदा सुखु होई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मै = मेरा। सहु = खसम, पति। दाता = दातें देने वाला। ते = से साथ।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) एक परमात्मा ही मेरा पति रक्षक है और मुझे सब दातें देने वाला है, उसके बिना मेरा और कोई नहीं है। पर गुरु की मेहर से हीवह मन में बस सकता है (और जब वह प्रभु मन में आ बसता है) तबसदा के लिए आनंद बन जाता है।1। रहाउ। इसु जुग महि निरभउ हरि नामु है पाईऐ गुर वीचारि ॥ बिनु नावै जम कै वसि है मनमुखि अंध गवारि ॥२॥ पद्अर्थ: जुग महि = जगत में, जीवन में। वीचारि = विचार से। वसि = वश में। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री। गवारि = मूर्ख जीव-स्त्री।2। अर्थ: (हे भाई!) इस जगत में परमात्मा का नाम ही है जो (जगत के) सारे डरों से बचाने वाला है, पर ये नाम गुरु की बताई हुई विचार की इनायत से मिलता है। परमात्मा के नाम के बिना अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री आत्मिक मौत के काबू में रहती है, माया के मोह में अंधी हुई रहती है और मूर्खता में टिकी रहती है।2। हरि कै भाणै जनु सेवा करै बूझै सचु सोई ॥ हरि कै भाणै सालाहीऐ भाणै मंनिऐ सुखु होई ॥३॥ पद्अर्थ: हरि कै भाणै = परमात्मा की रजा में रह के। सालाहीऐ = महिमा की जा सकती है। भाणै मंनिऐ = अगर प्रभु के हुक्म में चला जाए।3। अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा की रज़ा में चलता है वही मनुष्य परमात्मा की सेवा-भक्ति करता है, वही उस सदा स्थिर प्रभु को समझता है। परमात्मा की रजा में चलने से ही परमात्मा की महिमा हो सकती है। अगर परमात्मा की रजा में चलें तो ही आत्मिक आनंद प्राप्त होता है।3। हरि कै भाणै जनमु पदारथु पाइआ मति ऊतम होई ॥ नानक नामु सलाहि तूं गुरमुखि गति होई ॥४॥३९॥१३॥५२॥ नोट: ये शब्द– आसा राग और काफी राग– दोनों मिश्रित रागों में गाए जाने की हिदायत है। पद्अर्थ: मति = अकल। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। गति = उच्च आत्मिक अवस्था।4। अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य ने) परमात्मा की रज़ा में चल के मानव जन्म का उद्देश्य हासिल कर लिया उसकी बुद्धि उत्तम बन गई। हे नानक! (गुरु की शरण पड़ के) तू भी परमात्मा के नाम का गुणगान कर। गुरु की शरण पड़ने से ही उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त हो जाती है।4।39।13।52। नोट: आसा महला ४ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ तूं करता सचिआरु मैडा सांई ॥ जो तउ भावै सोई थीसी जो तूं देहि सोई हउ पाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सचिआरु = सदा कायम रहने वाला। मैडा = मेरा। सांई = पति। तउ = तुझे। थीसी = होगा। हउ = मैं। पाई = पाता हूँ।1। रहाउ। अर्थ: (हे प्रभु!) तू (सारे जगत का) रचनहार है, तू सदैव कायम रहने वाला है, तू (ही) मेरा पति है। हे प्रभु! (जगत में) वही कुछ घटित हो रहा है जो तुझे अच्छा लगता है। (हे प्रभु!) मैं वही कुछ हासिल कर सकता हूँ जो कुछ तू (मुझे) देता है।1। रहाउ। सभ तेरी तूं सभनी धिआइआ ॥ जिस नो क्रिपा करहि तिनि नाम रतनु पाइआ ॥ गुरमुखि लाधा मनमुखि गवाइआ ॥ तुधु आपि विछोड़िआ आपि मिलाइआ ॥१॥ पद्अर्थ: सभ = सारी लुकाई। तूं = तुझे। तिनि = उस (मनुष्य) ने। लाधा = मिला। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य ने। तुधु = तू।1। अर्थ: (हे प्रभु!) सारी दुनिया तेरी (रची हुई) है, सब जीवों ने (अच्छे-बुरे वक्त में) तुझे ही स्मरण किया है। जिस पर तू मेहर करता है उस मनुष्य ने तेरा नाम-रत्न ढूँढ लिया। (पर) ढूँढा उसने जो गुरु की शरण पड़ा, और गवाया उसने जो अपने मन के पीछे चला। (जीवों के भी क्या वश? मनमुख को) तूने खुद ही (अपने चरणों से) विछोड़े रखा है और (गुरमुखि को) तूने स्वयं ही (अपने चरणों में) जगह दी हुई है।1। तूं दरीआउ सभ तुझ ही माहि ॥ तुझ बिनु दूजा कोई नाहि ॥ जीअ जंत सभि तेरा खेलु ॥ विजोगि मिलि विछुड़िआ संजोगी मेलु ॥२॥ पद्अर्थ: माहि = में। सभि = सारे। विजोग = (धुर के) वियोग के कारण। मिलि = मिल के (भी)। संजोगी = (धुर के) संजोग के कारण। मेलु = मिलाप।2। अर्थ: (हे प्रभु!) तू (जिंदगी का एक बड़ा) दरिया है, सारी सृष्टि तेरे में (जी रही) है, (तू स्वयं ही स्वयं है) तेरे बिना और कोई दूसरी हस्ती नहीं है। (जगत के ये) सारे जीव-जन्तु तेरा (रचा हुआ) तमाशा हैं (तेरी ही धुर दरगाह से मिले) वियोग के कारण मिला हुआ जीव भी विछुड़ जाता है और संजोग के कारण पुनर्मिलाप हासिल कर लेता है।2। जिस नो तू जाणाइहि सोई जनु जाणै ॥ हरि गुण सद ही आखि वखाणै ॥ जिनि हरि सेविआ तिनि सुखु पाइआ ॥ सहजे ही हरि नामि समाइआ ॥३॥ पद्अर्थ: जाणाइहि = तू समझ बख्शता है। सद ही = सदा ही। सहजे = आत्मिक अडोलता में। नामि = नाम में।3। अर्थ: (हे प्रभु!) जिस मनुष्य को तू समझ देता है वही मनुष्य (जीवन-उद्देश्य को) समझता है और वह मनुष्य हरि प्रभु के गुण सदा कह के बयान करता है। (हे भाई!) जिस मनुष्य ने परमात्मा की सेवा-भक्ति की उसने आत्मिक आनंद पाया; वह मनुष्य (स्मरण-भक्ति के कारण) आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा में लीन हो गया।3। तू आपे करता तेरा कीआ सभु होइ ॥ तुधु बिनु दूजा अवरु न कोइ ॥ तू करि करि वेखहि जाणहि सोइ ॥ जन नानक गुरमुखि परगटु होइ ॥४॥१॥५३॥ पद्अर्थ: वेखहि = तू देखता है। जाणहि = तू जानता है। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य।4। अर्थ: (हे प्रभु!) तू स्वयं ही (जगत को) रचने वाला है (जगत में) सब कुछ तेरा किया ही हो रहा है, तेरे बिना कोई और कुछ करने वाला नहीं है। तू खुद ही (जगत रचना) कर-करके (सबकी) संभाल करता है, तू खुद ही इस सारे भेद को जानता है। हे दास नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य को ये सारी बात समझ आ जाती है।4।1।53। नोट:
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |