श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 374 आसा महला ५ पंचपदे३ ॥ प्रथमे तेरी नीकी जाति ॥ दुतीआ तेरी मनीऐ पांति ॥ त्रितीआ तेरा सुंदर थानु ॥ बिगड़ रूपु मन महि अभिमानु ॥१॥ पद्अर्थ: प्रथमे = पहले तो (देख)। नीकी = बढ़िया, सुंदर। मनीऐ = मान जाती है। पांति = ख़ानदानी। बिगड़ = बिगड़ा हुआ।1। अर्थ: (हे जीव-स्त्री! देख) पहले तो तेरी (मनुष्य जन्म वाली) बढ़िया जाति है; दूसरा, तेरा खानदान भी जाना-माना है; तीसरा तेरा सुंदर शरीर है, पर तेरा रूप अनुचित ही रहा (क्योंकि) तेरे मन में अहंकार है।1। सोहनी सरूपि सुजाणि बिचखनि ॥ अति गरबै मोहि फाकी तूं ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सरूपि = सुंदर रूप वाली। सुजाणि = सियानी। बिचखनि = चतुर। अति = बहुत। गरबै = अहंकार में। मोहि = मोह में। फाकी = फसी हुई।1। रहाउ। अर्थ: (हे जीव-स्त्री!) तू (देखने में) सुंदर है, रूपवती है, सियानी है चतुर है। पर तू बड़े अहंकार और मोह में फंसी हुई है।1। रहाउ। अति सूची तेरी पाकसाल ॥ करि इसनानु पूजा तिलकु लाल ॥ गली गरबहि मुखि गोवहि गिआन ॥ सभ बिधि खोई लोभि सुआन ॥२॥ पद्अर्थ: सूची = स्वच्छ, पवित्र। पाकसाल = रसोई। करि = करके। गली = गलीं, बातों से। गरबहि = तू अहंकार करती है। मुखि = मुंह से। गोवहि = उचारती है। खोई = गवा दी। लोभि = लोभ ने। सुआन = कुत्ता।2। अर्थ: (हे जीव-स्त्री!) तेरी बड़ी स्वच्छ (साफ) रसोई है (जिसमें तू अपना भोजन तैयार करती है। बाकी पशु-पक्षी तो बिचारे गंदी-मंदी जगहों पर ही पेट भर लेते हैं)। तू स्नान करके पूजा भी कर सकती है माथे पर तिलक भी लगा लेती है। तू बातों से अपना आप भी जता लेती है (पशु-पक्षियों को तो ये दाति नहीं मिली) मुंह से ज्ञान की बाते भी कर सकती है। पर कुत्ते लोभ ने तेरी ये हरेक किस्म की बड़ाई गवा दी है।2। कापर पहिरहि भोगहि भोग ॥ आचार करहि सोभा महि लोग ॥ चोआ चंदन सुगंध बिसथार ॥ संगी खोटा क्रोधु चंडाल ॥३॥ पद्अर्थ: पहिरहि = तू पहनती है। आचार = (निहित धार्मिक) कर्म। चोआ = इत्र। खोटा = बुरा, खोट करने वाला।3। अर्थ: (हे जीव-स्त्री!) तू (सुंदर) कपड़े पहनती है (दुनिया के सारे) भोग भोगती है, जगत में शोभा कमाने के लिए तू इत्र चंदन और अनेको सुगंधियां बरतती हैं। पर, चण्डाल क्रोध तेरा बुरा साथी है।3। अवर जोनि तेरी पनिहारी ॥ इसु धरती महि तेरी सिकदारी ॥ सुइना रूपा तुझ पहि दाम ॥ सीलु बिगारिओ तेरा काम ॥४॥ पद्अर्थ: पनिहारी = पानी भरने वाली, सेवक। सिकदारी = सरदारी। रूपा = चाँदी। तुझ पहि = तेरे पास। दाम = धन। सीलु = स्वभाव। काम = काम-वासना।4। अर्थ: (हे जीव-स्त्री!) और सारी जूनियां तेरी सेवक हैं, इस धरती पर तेरी ही सरदारी है, तेरे पास सोना है, चाँदी है, धन-पदार्थ है (और जोनियों के पास यह चीजें नहीं हैं) पर काम-वासना ने तेरा स्वभाव (जो सबसे उच्च श्रेणी वालों को फबता है) बिगाड़ा हुआ है।4। जा कउ द्रिसटि मइआ हरि राइ ॥ सा बंदी ते लई छडाइ ॥ साधसंगि मिलि हरि रसु पाइआ ॥ कहु नानक सफल ओह काइआ ॥५॥ पद्अर्थ: जा कउ = जिस पर। मइआ = दया। हरि राइ = प्रभु पातशाह। बंदी = गुलामी, कैद। काइआ = शरीर।5। अर्थ: हे नानक! जिस जीव-स्त्री पर प्रभु-पातशाह की मेहर की नज़र पड़ती है, उसको वह (लोभ, क्रोध काम आदि की) कैद से छुड़ा लेता है। जिस शरीर ने (जीव ने मानव शरीर प्राप्त करके) साधु-संगत में मिल के परमात्मा के नाम का स्वाद पाया, वही शरीर कामयाब है।5। सभि रूप सभि सुख बने सुहागनि ॥ अति सुंदरि बिचखनि तूं ॥१॥ रहाउ दूजा ॥१२॥ पद्अर्थ: सभि = सारे। बने = फबे। सुहागनि = सुहाग वाली, पति वाली। रहाउ दूजा। अर्थ: (हे जीव-स्त्री!) अगर तू पति-प्रभु वाली बन जाए तो सारे सोहज और सारे सुख (जो तुझे मिले हुए हैं) तुझे फब जाएं; तू सचमुच बड़ी सुंदर और बड़ी सियानी बन जाए1। रहाउ। दूजा।12। आसा महला ५ इकतुके २ ॥ जीवत दीसै तिसु सरपर मरणा ॥ मुआ होवै तिसु निहचलु रहणा ॥१॥ पद्अर्थ: जीवत = जीवित, तृप्त, माया के मद में मस्त। दीसै = दिखता है। सरपर = जरूर। मरणा = आत्मिक मौत। मुआ = (माया के मान से) अछोह। निहचलु रहणा = अटल आत्मिक जीवन।1। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य (माया के मान के आसरे) जीवित दिखता है उसे जरूर आत्मिक मौत हड़प किए रखती है; पर जो मनुष्य (माया के मान से) अछूता है उसे अटल आत्मिक जीवन मिला रहता है।1। जीवत मुए मुए से जीवे ॥ हरि हरि नामु अवखधु मुखि पाइआ गुर सबदी रसु अम्रितु पीवे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अवखधु = दवा। मुखि = मुंह में। रसु अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य माया के मद में मस्त रहते हैं वे आत्मिक मौत मरे रहते हैं। पर, जो मनुष्य माया के मान से अछोह हैं वे आत्मिक जीवन वाले हैं। जिस मनुष्यों ने परमात्मा का नाम-दारू अपने मुंह में रखा (आत्मिक मौत वाला रोग उनके अंदर से दूर हो गया) गुरु के शब्द की इनायत से उन्होंने आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पीया।1। रहाउ। काची मटुकी बिनसि बिनासा ॥ जिसु छूटै त्रिकुटी तिसु निज घरि वासा ॥२॥ पद्अर्थ: मटु = बड़ा घड़ा। मटुकी = घड़ी, छोटा घड़ा। बिनसि बिनासा = जरूर नाश होने वाला। छुटै = खत्म हो जाए। त्रिकुटी = (त्रि = तीन। कुटी = टेढ़ी लकीर) तीन टेढ़ी लकीरें, तिउड़ी (भाव) अंदरूनी खिझ। निज घरि = अपने असल घर में, प्रभु चरणों में।2। (शब्द ‘निकटि’ से प्राकृत शब्द ‘निअड़ि’ और पंजाबी शब्द ‘नेड़े’ है {अंग्रेजी ‘नीअर’}। शब्द ‘कटक’ से पंजाबी शब्द ‘कड़ा’ है। ‘क’ से ‘अ’, और ‘कु’ से ‘उ’ बन गया है। ‘ट’ से ‘ड़’ हो गया है। इसी तरह ‘त्रिकुटी’ का पंजाबी रूप ‘तिउड़ी’ है। जिसके माथे पर तिउड़ी है उसके अंदर ‘खिझ’ होती है। सो, ‘त्रिकुटी’ का अर्थ है ‘अंदरूनी खिझ’)। अर्थ: (हे भाई! जैसे) कच्चा घड़ा जरूर नाश होने वाला है (वैसे ही माया से भी साथ आखिर अवश्य टूटता है। माया के मान में दूसरोंके साथ खीझना मूर्खता है) जिस मनुष्य के अंदर (माया के मान के कारण पैदा हुई) खीझ नहीं रहती, उसका निवास (सदा) प्रभु-चरणों में रहता है।2। ऊचा चड़ै सु पवै पइआला ॥ धरनि पड़ै तिसु लगै न काला ॥३॥ पद्अर्थ: पइआला = पाताल में, आत्मिक मौत के खड्ड में। धरनि = धरती। धरनि पढ़ै = जो निम्रता धारता है। काला = काल, मौत, आत्मिक मौत।3। अर्थ: (हे भाई! माया में) जो मनुष्य सिर ऊँचा किए रखता है (अकड़ा फिरता है) वह आत्मिक मौत के गड्ढे में पड़ा रहता है। पर, जो मनुष्य सदा विनम्रता धारता है उसे आत्मिक मौत छू नहीं सकती।3। भ्रमत फिरे तिन किछू न पाइआ ॥ से असथिर जिन गुर सबदु कमाइआ ॥४॥ पद्अर्थ: किछु न = (आत्मिक जीवन का) कुछ भी ना। असथिर = अडोल चित्त।4। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य (माया की खातिर ही सदा) भटकते फिरते हैं (आत्मिक जीवन की दाति में से) उन्हें कुछ भी नहीं मिलता। पर, जिन्होंने गुरु शब्द को (अपने जीवन में) प्रयोग में लिया है वह (माया के मोह की ओर से) अडोल-चित्त रहते हैं।4। जीउ पिंडु सभु हरि का मालु ॥ नानक गुर मिलि भए निहाल ॥५॥१३॥ नोट: इकतुके २ = दो शब्द जिनके हरेक बंद में सिर्फ एक-एक ही तुक है। पद्अर्थ: जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। गुर मिलि = गुरु को मिल के।5। अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्यों ने ये जिंद ये शरीर, सब कुछ को परमात्मा की दी हुई दाति समझा है वे गुरु को मिल के सदा खिले माथे रहते हैं (उनकी त्रिकुटी खत्म हो जाती है अंदर की खिझ समाप्त हो जाती है)।5।13। आसा महला ५ ॥ पुतरी तेरी बिधि करि थाटी ॥ जानु सति करि होइगी माटी ॥१॥ पद्अर्थ: पुतरी = पुतली, शरीर। बिधि करि = तरीके से, सियानप से। थाटी = बनाई। सति करि = सच कर के।1। अर्थ: (ये ठीक है कि परमात्मा ने) तेरा ये शरीर बड़ी सियानप से बनाया है, (पर ये भी) सच जान कि (इस शरीर ने आखिर) मिट्टी हो जाना है।1। मूलु समालहु अचेत गवारा ॥ इतने कउ तुम्ह किआ गरबे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मूलु = आदि, जिससे पैदाइश हुई है। अचेत = हे गाफिल! गवारा = हे मूर्ख! इतने कउ = इस थोड़े से वास्ते। किआ गरबे = क्या मान करता है?।1। रहाउ। अर्थ: हे गाफिल जीव! हे मूर्ख जीव! (जिससे तू पैदा हुआ है उस) मूल (-प्रभु) को (हृदय में सदा) संभाल के रख। इस तुच्छ आधार वाले शरीर पर तू क्या गुमान करता है?।1। रहाउ। तीनि सेर का दिहाड़ी मिहमानु ॥ अवर वसतु तुझ पाहि अमान ॥२॥ पद्अर्थ: मिहमानु = पराहुणा। अवर = और, बाकी की। पाहि = पास। अमान = अमानत।2। अर्थ: (तू जगत में एक) मेहमान है जिसे रोजाना का तीन सेर (कच्चा आटा आदि) मिलता है। और सारी चीज तेरे पास अमानत (के तौर पर ही पड़ी) है।2। बिसटा असत रकतु परेटे चाम ॥ इसु ऊपरि ले राखिओ गुमान ॥३॥ पद्अर्थ: बिसटा = विष्टा, गंद। असत = अस्थि, हड्डियां। रकतु = रक्त, लहू। परेटे = लपेटे हुए। गुमान = अहंकार।3। अर्थ: (तेरे अंदर की) विष्टा, हड्डियां और लहू (आदि बाहरी) चमड़ी से लपेटे हुए हैं पर तू इस पर ही मान किए जा रहा है।3। एक वसतु बूझहि ता होवहि पाक ॥ बिनु बूझे तूं सदा नापाक ॥४॥ पद्अर्थ: पाक = पवित्र। नापाक = अपवित्र, गंदा।4। अर्थ: अगर तू एक प्रभु के नाम-पदार्थ के साथ सांझ डाल ले तो तू पवित्र जीवन वाला हो जाए। प्रभु के नाम के साथ सांझ डाले बिना तू सदा ही अपवित्र है।4। कहु नानक गुर कउ कुरबानु ॥ जिस ते पाईऐ हरि पुरखु सुजानु ॥५॥१४॥ पद्अर्थ: कउ = को, से। जिस ते = जिस गुरु से, जिसके द्वारा। पुरखु = सर्व व्यापक।5। अर्थ: हे नानक! कह: (हे मूर्ख जीव!) उस गुरु से सदके हो जिसके द्वारा सबके दिलों की जानने वाला सर्व-व्यापक परमात्मा मिल सकता है।5।14। आसा महला ५ इकतुके चउपदे ॥ इक घड़ी दिनसु मो कउ बहुतु दिहारे ॥ मनु न रहै कैसे मिलउ पिआरे ॥१॥ पद्अर्थ: इक घड़ी दिनसु = दिन की एक घड़ी। मो कउ = मुझे। दिहारे = दिहाड़े, दिन। न रहै = नहीं टिकता, धीरज नहीं धरता। मिलउ = मैं मिलूँ।1। अर्थ: (हे भाई!) दिन की एक घड़ी भी (प्रभु-पति के विछोड़े में) मुझे कई कई दिनों के बराबर प्रतीत होती है (प्रभु-पति के मिलाप के बिना) मेरा मन धीरज नहीं धरता (मैं हर समय सोचती रहती हूँ कि) प्यारे को कैसे मिलूँ।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |