श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आपणै हथि वडिआईआ दे नामे लाए ॥ नानक नामु निधानु मनि वसिआ वडिआई पाए ॥८॥४॥२६॥

नोट: ये अष्टपदियां राग आसा और राग काफी दोनों ही मिश्रित रागों में गानी हैं।

पद्अर्थ: हथि = हाथ में। दे = दे कै। नामे = नाम में। निधानु = खजाना। मनि = मन में।8।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! सारी) महानताएं (वडिआईयां) परमात्मा के अपने हाथ में हैं, वह स्वयं ही (आदर) बख्श के (जीव को) अपने नाम में जोड़ता है। (जिस मनुष्य के) मन में उस का नाम खजाना आ बसता है (वह मनुष्य लोक-परलोक में) आदर-मान पाता है।8।4।26।

आसा महला ३ ॥ सुणि मन मंनि वसाइ तूं आपे आइ मिलै मेरे भाई ॥ अनदिनु सची भगति करि सचै चितु लाई ॥१॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! मंनि = मनि, मन में। भाई = हे भाई! अनदिनु = हर रोज। सची = सदा कायम रहने वाली। सचै = सदा स्थिर प्रभु में। लाई = लगा।1।

अर्थ: हे मेरे मन! (मेरी बात) सुन; तू अपने अंदर (परमात्मा का नाम) टिकाए रख। हे मेरे वीर! (इस तरह वह परमात्मा) स्वयं ही आ मिलता है। हे भाई! हर समय परमात्मा की भक्ति करता रह, यही सदा-स्थिर रहने वाली चीज है, सदा कायम रहने वाले परमात्मा में सदा चित्त जोड़े रख।1।

एको नामु धिआइ तूं सुखु पावहि मेरे भाई ॥ हउमै दूजा दूरि करि वडी वडिआई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: दूजा = प्रभु के बिना और किसी का प्यार। वडिआई = आदर मान।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे भाई! एक परमात्मा का नाम स्मरण किया कर (इस तरह) सुख हासिल करेगा, (अपने अंदर से अहंकार और माया का प्यार दूर करके लोक-परलोक में) बहुत आदर मिलेगा।1। रहाउ।

इसु भगती नो सुरि नर मुनि जन लोचदे विणु सतिगुर पाई न जाइ ॥ पंडित पड़दे जोतिकी तिन बूझ न पाइ ॥२॥

पद्अर्थ: नो = को, वास्ते। सुरिनर = देवते। जोतिकी = ज्योतिषी। बूझ = समझ। न पाइ = नही पाई।2।

अर्थ: हे भाई! देवते और ऋषि-मुनि भी ये हरि-भक्ति करने की तमन्ना करते हैं, पर गुरु की शरण पड़े बिना ये दाति नहीं मिलती। पण्डित लोग (वेद-शास्त्र आदि) पढ़ते रहे, ज्योतिषी (ज्योतिष के ग्रंथ) पढ़ते रहे, पर हरि भक्ति की सूझ उन्हें भी नहीं पड़ी।2।

आपै थै सभु रखिओनु किछु कहणु न जाई ॥ आपे देइ सु पाईऐ गुरि बूझ बुझाई ॥३॥

पद्अर्थ: आपै थै = अपने हाथ में (थै = हाथ में)। रखिओनु = उसने रखा है। गुरि = गुरु ने।3।

अर्थ: पर, हे भाई! परमात्मा ने ये सब कुछ अपने हाथ मेंरखा हुआ है, कुछ नहीं कहा जा सकता (कि वह भक्ति की दाति किस को देता है और किस को नहीं देता, हाँ) गुरु ने ये बात समझाई है कि जो कुछ वह प्रभु स्वयं ही देता है वही हमें मिल सकता है।3।

जीअ जंत सभि तिस दे सभना का सोई ॥ मंदा किस नो आखीऐ जे दूजा होई ॥४॥

पद्अर्थ: सभि = सारे। तिस दे = किसके। किस नो = किसको।4।

नोट: ‘तिस दे’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘दे’ के कारण हट गई है। वैसे ही ‘किस नो’ में से ‘किसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है।

अर्थ: हे भाई! जगत के सारे जीव-जंतु उस प्रभु के बनाए हुए हैं, वह स्वयं ही सभी का पति है, किसी जीव को बुरा नहीं कहा जा सकता (बुरा तभी कहा जाए, अगर परमात्मा के बिना उनमें) कोई और बसता हो।4।

इको हुकमु वरतदा एका सिरि कारा ॥ आपि भवाली दितीअनु अंतरि लोभु विकारा ॥५॥

पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। भवाली = भवाटणी, चक्कर। दितीअनु = उस ने दी है।5।

अर्थ: हे भाई! जगत में एक परमात्मा का ही हुक्म चल रहा है, हरेक ने वही काम करना है जो परमात्मा द्वारा उस के सिर पर (लिखा गया) है। जिस जीवों को परमात्मा ने स्वयं (माया के मोह की) चक्कर में डाल दिया, उनके अंदर लोभ आदि विकार जोर पकड़ गए।5।

इक आपे गुरमुखि कीतिअनु बूझनि वीचारा ॥ भगति भी ओना नो बखसीअनु अंतरि भंडारा ॥६॥

पद्अर्थ: इकि = कई। कीतीअनु = उसने किए हैं। बखसीअनु = उसने बख्शी है।6।

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

अर्थ: (हे भाई!) कई मनुष्यों को प्रभु ने स्वयं ही गुरु के सन्मुख रहने वाले बना दिया वह (सही आत्मिक जीवन की) विचार समझने लग पड़े। उनको परमात्मा ने अपनी भक्ति की दाति भी दे दी, उनके अंदरनाम-धन के खजाने भर गए।6।

गिआनीआ नो सभु सचु है सचु सोझी होई ॥ ओइ भुलाए किसै दे न भुलन्ही सचु जाणनि सोई ॥७॥

पद्अर्थ: गिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ वाला मनुष्य। सभु = हर जगह। सचु = सदा स्थिर प्रभु। ओइ = वह।7।

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! सही आत्मि्क जीवन की सूझ वाले बंदों को हर जगह सदा-स्थिर प्रभु ही दिखता है (प्रभु की मेहर से ही उन्हें) ये समझ आ जाती है। अगर कोई मनुष्य उनको (इस निश्चय से) तोड़ना चाहे (भटकाना चाहे) तो वे गलती नहीं खाते, वे (हर जगह) सदा-स्थिर प्रभु को ही बसता समझते हैं।7।

घर महि पंच वरतदे पंचे वीचारी ॥ नानक बिनु सतिगुर वसि न आवन्ही नामि हउमै मारी ॥८॥५॥२७॥

पद्अर्थ: पंज = कामादिक पाँचों। वीचारी = विचारवान। नामि = नाम से।8।

अर्थ: (हे भाई! कामादिक) पाँचों उन ज्ञानियों के हृदय में भी बसते हैं, पर वह पाँचों ज्ञानवान हो जाते हैं, (अपनी योग्य सीमा से बाहर नहीं जाते)। हे नानक! (ये पाँचों कामादिक विकार) गुरु की शरण में पड़े बिना काबू में नहीं आते। हे भाई! परमात्मा के नाम में जुड़ के ही अहंकार दूर किया जा सकता है।8।5।27।

आसा महला ३ ॥ घरै अंदरि सभु वथु है बाहरि किछु नाही ॥ गुर परसादी पाईऐ अंतरि कपट खुलाही ॥१॥

पद्अर्थ: वथु = वस्तु, चीज। बाहरि = जंगल आदि में। परसादी = कृपा से। कपट = कपाट, किवाड़। खुलाही = खुलते हैं।1।

अर्थ: (हे भाई! परमात्मा का नाम-) खजाना सारा (मनुष्य के) हृदय के अंदर ही है, बाहर जंगल आदि में (ढूँढने से) कुछ नहीं मिलता। (पर, हां) ये मिलता है गुरु की कृपा से। (जिसे गुरु मिल जाए उसके) अंदर के किवाड़ (जो पहले माया के मोह के कारण बंद थे) खुल जाते हैं।1।

सतिगुर ते हरि पाईऐ भाई ॥ अंतरि नामु निधानु है पूरै सतिगुरि दीआ दिखाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ते = से। निधानु = खजाना। सतिगुरि = गुरु ने।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! गुरु से ही परमात्मा मिलता है (वैसे तो हरेक मनुष्य के) अंदर (परमात्मा का) नाम खजाना मौजूद है, पर गुरु ने ही (ये खजाना) दिखाया है।1। रहाउ।

हरि का गाहकु होवै सो लए पाए रतनु वीचारा ॥ अंदरु खोलै दिब दिसटि देखै मुकति भंडारा ॥२॥

पद्अर्थ: रतनु = कीमती पदार्थ। अंदरु = अंदरूनी हृदय। दिब दिसटि = दिव्य दृष्टि, दैवी नजर से, आत्मिक दृष्टि से। मुकति = विकारों से मुक्ति।2।

नोट: शब्द ‘अंदरि’ और अंदरु’ का फर्क ध्यान से देखें।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम-धन का गाहक बनता है वह (गुरु के माध्यम से) हासिल कर लेता है वह आत्मिक जीवन का कीमती विचार प्राप्त कर लेता है, (माया के मोह के ताले से बंद हुआ अपना) हृदय वह (गुरु की कृपा से) खोल लेता है, आत्म दृष्टि से देखता है कि माया के मोह से निजात दिलाने वाले नाम-धन के खजाने भरे पड़े हैं।2।

अंदरि महल अनेक हहि जीउ करे वसेरा ॥ मन चिंदिआ फलु पाइसी फिरि होइ न फेरा ॥३॥

पद्अर्थ: अंदरि महल = शरीर के अंदर। अनेक हहि = अनेक रतन हैं। जीउ = जीवात्मा। मन चिंदिआ = मन इच्छित।3।

अर्थ: हे भाई! मनुष्य के हृदय में नाम-धन के अनेक खजाने मौजूद हैं, जीवात्मा भी अंदर ही बसती है (जब गुरु की मेहर से समझ आती है तब) मनोच्छित फल पाती है, और पुनः इसे जनम-मरण का चक्कर नहीं रहता।3।

पारखीआ वथु समालि लई गुर सोझी होई ॥ नामु पदारथु अमुलु सा गुरमुखि पावै कोई ॥४॥

पद्अर्थ: गुर सोझी = गुरु की दी हुई समझ। सा = था। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के।4।

अर्थ: हे भाई! जिन्हें गुरु की दी हुई सूझ मिल गई उन आत्मिक जीवन की परख करने वालों ने नाम-खजाना अपने हृदय में संभाल लिया। प्रभु का नाम-खजाना किसी दुनियावी कीमत से नहीं मिल सकता। गुरु की शरण पड़ के ही मनुष्य पा सकता है।4।

बाहरु भाले सु किआ लहै वथु घरै अंदरि भाई ॥ भरमे भूला सभु जगु फिरै मनमुखि पति गवाई ॥५॥

पद्अर्थ: बाहरु = जंगल आदि में। पति = इज्जत।5।

नोट: शब्द ‘बाहरि’ और ‘बाहरु’ का फर्क ध्यान से देखें।

अर्थ: हे भाई! नाम-खजाना हृदय के अंदर ही है, जो मनुष्य जंगल आदि में तलाशता फिरता है उसे कुछ नहीं मिलता। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (अपनी समझ के) भुलेखे में गलत मार्ग पर पड़ा हुआ सारा जगत तलाशता फिरता है और इज्जत गवा लेता है।5।

घरु दरु छोडे आपणा पर घरि झूठा जाई ॥ चोरै वांगू पकड़ीऐ बिनु नावै चोटा खाई ॥६॥

पद्अर्थ: घरि = घर। चोटा = सजा, चोटें।6।

अर्थ: (हे भाई! जैसे कोई) झूठा (ठग) मनुष्य अपना घर-घाट छोड़ देता है (और धन आदि की खातिर) पराए घर में जाता है वह चोर की तरह पकड़ा जाता है (इसी तरह) परमात्मा के नाम से टूट के मनुष्य (लोक-परलोक में) चोटें खाता है।6।

जिन्ही घरु जाता आपणा से सुखीए भाई ॥ अंतरि ब्रहमु पछाणिआ गुर की वडिआई ॥७॥

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने अपने (हृदय-) घर को अच्छी तरह समझ लिया है (भाव, जिन्होंने) ये पहचान लिया है कि परमात्मा (हमारे) अंदर ही बसता है, वही सुखी जीवन व्यतीत करते हैं। (पर, हे भाई!) ये सतिगुरु की ही मेहर है (गुरु की कृपा करे तभी ये समझ पड़ती है)।7।

आपे दानु करे किसु आखीऐ आपे देइ बुझाई ॥ नानक नामु धिआइ तूं दरि सचै सोभा पाई ॥८॥६॥२८॥

पद्अर्थ: किसु = और किसे? बुझाई = समझ। दरि सचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पे।8।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं ही नाम की दाति करता है, और किसी को कहा नहीं जा सकता, वह प्रभु खुद ही नाम की समझ बख्शता है। हे नानक! तू सदा हरि-नाम स्मरण करता रह। (जो मनुष्य हरि-नाम स्मरण करता है वह) सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु के दर पर शोभा पाता है।8।6।28।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh