श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 428 अवगण गुणी बखसाइआ हरि सिउ लिव लाई ॥ हरि वरु पाइआ कामणी गुरि मेलि मिलाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गुणी = गुणों से। लिव = लगन। वरु = पति। कामणी = जीव-स्त्री। गुरि = गुरु ने। मेलि = मेल में।1। रहाउ। अर्थ: जिस जीव-स्त्री ने परमात्मा के चरणों में तवज्जो जोड़ ली उसने अपने (पहले किए) अवगुण, गुणों की इनायत से बख्शवा लिए, उस जीव-स्त्री ने प्रभु-पति का मिलाप हासिल कर लिया, गुरु ने उसको प्रभु चरणों में जोड़ दिया।1। रहाउ। इकि पिरु हदूरि न जाणन्ही दूजै भरमि भुलाइ ॥ किउ पाइन्हि डोहागणी दुखी रैणि विहाइ ॥२॥ पद्अर्थ: इकि = बहुत। हदूरि = अंग संग। भुलाइ = कुमार्ग पड़ के। रैणि = रात।2। नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन। अर्थ: जो जीव-स्त्रीयां माया की भटकना के कारण गलत रास्ते पर पड़ के प्रभु-पति को अंग-संग बसता नहीं समझतीं, वह दुर्भाग्यनियां प्रभु-पति को नहीं मिल सकतीं, उनकी (जिंदगी की सारी) रात दुखों में बीत जाती है।2। जिन कै मनि सचु वसिआ सची कार कमाइ ॥ अनदिनु सेवहि सहज सिउ सचे माहि समाइ ॥३॥ पद्अर्थ: मनि = मन में। सची कार = सदा स्थिर हरि की महिमा का काम। अनदिनु = हर रोज। सहज = आत्मिक अडोलता।3। अर्थ: सदा-स्थिर हरि की महिमा की कार कमा के जिनके मन में सदा-स्थिर हरि आ बसता है वह सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु में लीन हो के आत्मिक अडोलता से हर वक्त उस प्रभु की सेवा-भक्ति करती रहती हैं।3। दोहागणी भरमि भुलाईआ कूड़ु बोलि बिखु खाहि ॥ पिरु न जाणनि आपणा सुंञी सेज दुखु पाहि ॥४॥ पद्अर्थ: दोहागणी = दुर्भाग्यनी। बिखु = जहर। खाहि = खाती है। सेज = हृदय सेज। पाहि = पाती हैं।4। अर्थ: दुर्भाग्यशाली जीव-स्त्रीयां माया की भटकना के कारण गलत रास्ते पर पड़ जाती है वह (माया के मोह वाला ही) व्यर्थ बोल-बोल के (माया के मोह का) जहर खाती रहती है (जो उनके आत्मिक जीवन को समाप्त कर देता है)। वे कभी अपने प्रभु के साथ गहरी सांझ नहीं डालती, उनके हृदय की सेज सदा खाली पड़ी रहती है।4। सचा साहिबु एकु है मतु मन भरमि भुलाहि ॥ गुर पूछि सेवा करहि सचु निरमलु मंनि वसाहि ॥५॥ पद्अर्थ: सदा = सदा स्थिर रहने वाला। मतु = शायद, कहीं ऐसा न हो। मतु भुलाइ = कहीं भूल ना जाना। मंनि = मनि, मन में।5। अर्थ: हे मेरे मन! कहीं ऐसा ना हो कि तू माया की भटकना में पड़ के गलत रास्ते पर पड़ जाए (याद रख) सदा कायम रहने वाला सिर्फ एक मालिक प्रभु ही है। अगर तू गुरु की शिक्षा ले के उसकी सेवा-भक्ति करेगा, तो उस सदा-स्थिर पवित्र प्रभु को अपने अंदर बसा लेगा।5। सोहागणी सदा पिरु पाइआ हउमै आपु गवाइ ॥ पिर सेती अनदिनु गहि रही सची सेज सुखु पाइ ॥६॥ पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव। सेती = साथ। गहि रही = जुड़ के रही। पाइ = पाती है।6। अर्थ: अच्छे भाग्यों वाली जीव-स्त्री अपने अंदर से अहंकार गवा के सदा-स्थिर प्रभु-पति को मिल जाती है, वह हर समय प्रभु-पति के चरणों से जुड़ी रहती है, उस (के हृदय) की सेज अडोल हो जाती है वह सदा आत्मिक आनंद पाती है।6। मेरी मेरी करि गए पलै किछु न पाइ ॥ महलु नाही डोहागणी अंति गई पछुताइ ॥७॥ पद्अर्थ: पलै किछु न पाइ = कुछ भी प्राप्त ना करके। महलु = प्रभु के निवास का स्थान। अंति = आखिर।7। अर्थ: हे भाई! जो लोग यही कहते-कहते जगत से चले गए कि ये मेरी माया है ये मेरी मल्कियत है उनके हाथ-पल्ले कुछ भी ना पड़ा। दुर्भाग्यपूर्ण जीव-स्त्री को परमात्मा के चरणों में ठिकाना नहीं मिलता, वह दुनिया से आखिर हाथ मलती ही जाती है।7। सो पिरु मेरा एकु है एकसु सिउ लिव लाइ ॥ नानक जे सुखु लोड़हि कामणी हरि का नामु मंनि वसाइ ॥८॥११॥३३॥ पद्अर्थ: लिव लाए = तवज्जो जोड़। सिउ = से। कामणी = हे जीव-स्त्री। मंनि = मनि, मन में।8। अर्थ: हे जीव-स्त्री! सदा कायम रहने वाला प्रभु-पति सिर्फ एक ही है, उस एक के चरणों में तवज्जो जोड़े रख। हे नानक! (कह:) हे जीव-स्त्री! अगर तू सुख हासिल करना चाहती है तो उस परमात्मा का नाम अपने मन में बसाए रख।8।11।33। आसा महला ३ ॥ अम्रितु जिन्हा चखाइओनु रसु आइआ सहजि सुभाइ ॥ सचा वेपरवाहु है तिस नो तिलु न तमाइ ॥१॥ पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल। चखाइओनु = उस (प्रभु) ने चखाया। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। वेपरवाह = बेमुहताज। तिस नो = उसे। तमाइ = तमा, लालच।1। नोट: ‘तिस नो’ में से शब्द ‘तिसु’ से ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हट गई है। अर्थ: जिन्हें आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल परमात्मा ने (गुरु के द्वारा) खुद चखाया, उन्हें आत्मिक अडोलता में प्रेम में टिक के उसका स्वाद आ गया (उन्हें ये भी समझ आ गई कि) वह सदा-स्थिर प्रभु बे-मुथाज है उसे रत्ती भर भी (किसी किस्म की कोई) लालच नहीं है।1। अम्रितु सचा वरसदा गुरमुखा मुखि पाइ ॥ मनु सदा हरीआवला सहजे हरि गुण गाइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सचा = सदा कायम रहने वाला। गुरमुखा मुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों के मुंह में। गाइ = गा के।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! सदा-स्थिर रहने वाला और आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल (हर जगह) बरस रहा है। पर ये पड़ता है उन मनुष्यों के मुंह में जो गुरु के सन्मुख रहते हैं। आत्मिक अडोलता में टिक के हरि के गुण गा-गा के उनका मन सदा खिला रहता है।1। रहाउ। मनमुखि सदा दोहागणी दरि खड़ीआ बिललाहि ॥ जिन्हा पिर का सुआदु न आइओ जो धुरि लिखिआ सुो कमाहि ॥२॥ पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वालियां। दरि = दर पे। पिर = पति। सुो = (असल शब्द है ‘सो’ पढ़ना ‘सु’ है) वह।2। अर्थ: (हे भाई!) अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्रीयां सदा दुर्भाग्यशाली रहतीं हैं वह प्रभु के दर पर खड़ी (हुई भी) बिलकती हैं। जिन्हें प्रभु पति के मिलाप का कभी स्वाद नहीं आया वे वही मनमुखता वाले कर्म कमाती रहती हैं जो धुर-दरगाह से उनके पिछले किए कर्मों के अनुसार उनके माथे पर लिखे हुए हैं।2। गुरमुखि बीजे सचु जमै सचु नामु वापारु ॥ जो इतु लाहै लाइअनु भगती देइ भंडार ॥३॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला। जमै = पैदा होता है। इतु लाहै = इस लाभ में। लाइअनु = लगाए है उस (प्रभु) ने। देइ = देता है।3। अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम (अपने हृदय-खेत में) बीजता है ये नाम ही वहीं पर उगता है, सदा स्थिर नाम को हीवह अपना वणज-व्यापार बनाता है। जिस मनुष्यों को प्रभु ने इस लाभशाली काम में लगाया है उन्हें अपनी भक्ति के खजाने दे देता है।3। गुरमुखि सदा सोहागणी भै भगति सीगारि ॥ अनदिनु रावहि पिरु आपणा सचु रखहि उर धारि ॥४॥ पद्अर्थ: भै = भय, डर अदब में। रावहि = माणतीं हैं। उरधारि = हृदय में टिका के।4। अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाली जीव-स्त्रीयां सदा सौभाग्यशाली होती हैं, वे प्रभु के डर-अदब में रह कर प्रभु की भक्ति के द्वारा अपना आत्मिक जीवन सोहणा बनाती हैं, वे हर समय प्रभु-पति के मिलाप का आनंद लेती हैं, वे सदा-स्थिर हरि-नाम को अपने हृदय में टिका के रखती हैं।4। जिन्हा पिरु राविआ आपणा तिन्हा विटहु बलि जाउ ॥ सदा पिर कै संगि रहहि विचहु आपु गवाइ ॥५॥ पद्अर्थ: जाउ = जाऊँ, मैं जाता हूँ। बलि = कुर्बान। विटहु = से। संगि = से। आपु = स्वै भाव।5। अर्थ: हे भाई! मैं कुर्बान जाता हूँ उनसे जिन्होंने प्रभु-पति के मिलाप को सदा पाया है, वे अपने अंदर से स्वै-भाव दूर करके सदा प्रभु-पति के चरणों में जुड़ी रहती हैं।5। तनु मनु सीतलु मुख उजले पिर कै भाइ पिआरि ॥ सेज सुखाली पिरु रवै हउमै त्रिसना मारि ॥६॥ पद्अर्थ: उजले = रौशन। भाइ = प्रेम में। सेज = हृदय सेज। सुखाली = सुख भरी। मारि = मार के।6। अर्थ: प्रभु-पति के प्रेम में प्यार में रहने वालियों का मन और हृदय ठंडा-ठार रहता है उनके मुंह (लोक-परलोक में) रौशन हो जाते हैं। अपने अंदर से अहंकार को तृष्णा को मार के उनकी हृदय सेज सुखदाई हो जाती है, प्रभु-पति (उस सेज पर) सदा आ के टिके रहते हैं।6। करि किरपा घरि आइआ गुर कै हेति अपारि ॥ वरु पाइआ सोहागणी केवल एकु मुरारि ॥७॥ पद्अर्थ: करि = कर के। घरि = घर में। हेति = प्रेम से। मुरारि = (मुर+अरि, अरि = वैरी, मुर का वैरी) परमात्मा।7। अर्थ: गुरु की अपार मेहर की इनायत से प्रभु कृपा करके जिस जीव-स्त्री के हृदय-घर में आ बसता है वह सौभाग्यवती उस प्रभु-पति को मिल जाती है जो अपने जैसा एक स्वयं ही है।7। सभे गुनह बखसाइ लइओनु मेले मेलणहारि ॥ नानक आखणु आखीऐ जे सुणि धरे पिआरु ॥८॥१२॥३४॥ पद्अर्थ: लाइओनु = उस ने लिए। मेहणहारि = मिलाने की सामर्थ्य वाले ने। आखणु = (वह) बोल। सुणि = सुन के।8। अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ के जिस मनुष्य ने प्रभु की महिमा की, उसने (पिछले किए अपने) सारे पाप बख्शवा लिए, मिलाने की सामर्थ्य रखने वाले प्रभु ने उसे अपने चरणों में मिला लिया। हे नानक! (कह: हे भाई! प्रभु की महिमा के) बोल ही बोलने चाहिए जिसे सुन के वह प्रभु (हमारे साथ) प्यार करे।8।12।34। आसा महला ३ ॥ सतिगुर ते गुण ऊपजै जा प्रभु मेलै सोइ ॥ सहजे नामु धिआईऐ गिआनु परगटु होइ ॥१॥ पद्अर्थ: ते = से। सोइ = वह गुरु। सहजे = आत्मिक अडोलता में। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ।1। अर्थ: जब प्रभु उस गुरु से मिला देता है तब गुरु से गुणों की दाति मिलती है, जिसकी इनायत से आत्मिक अडोलता में टिक के हरि-नाम का स्मरण किया जा सकता है, और अंदर आत्मिक जीवन की समझ अंकुरित हो जाती है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |